आर्य समाज और सांप्रदायिक तत्व – राम मोहन राय

आर्य समाज की स्थापना महर्षि दयानंद सरस्वती ने सन 1875 में की थी। इसके लिए सर्वप्रथम उन्होंने इसके नियमों की रचना की और बाद में स्थानादि की व्यवस्था के प्रश्न को देखा। स्वामी जी ने आर्य समाज के नियमों की रचना लाहौर में अपने एक मुस्लिम मित्र के निवास स्थान पर रहकर की थी ।पहले अनेक नियम थे । बाद में उन्हें व्यवस्थित करके 10 नियमों में संजोया गया। जिसके छठे नियम में उन्होंने लिखा, ‘संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है।’आर्य समाज के दूसरे नियम में स्वामी जी ने कहा कि ईश्वर सच्चिदानंद स्वरूप निराकार आर्य समाज की स्थापना महर्षि दयानंद सरस्वती ने सन 1875 में की थी। इसके लिए सर्वप्रथम उन्होंने इसके नियमों की रचना की और बाद में स्थानादि की व्यवस्था के प्रश्न को देखा। स्वामी जी ने आर्य समाज के नियमों की रचना लाहौर में अपने एक मुस्लिम मित्र के निवास स्थान पर रहकर की थी ।पहले अनेक नियम थे । बाद में उन्हें व्यवस्थित करके 10 नियमों में संजोया गया। जिसके छठे नियम में उन्होंने लिखा, ‘संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है।’आर्य समाज के दूसरे नियम में स्वामी जी ने कहा कि “ईश्वर सच्चिदानंदस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनंत, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वांतर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है, उसी की उपासना करने योग्य है”।
स्वामी जी अंधविश्वास ,पाखंड और आडंबर के नितांत विरोधी थे। मूर्ति पूजा, कर्मकांड और तीर्थ के नाम पर किन्हीं विशेष स्थानों पर जाकर अपने पापों की निवृत्ति के वे विरोधी थे। उन्होंने अपनी इन तमाम बातों के पक्ष में वेद ,आर्ष ग्रंथ एवं उपनिषदों को ही आधार माना ।आर्य समाज के तीसरे नियम में उन्होंने कहा कि वे”द सब सत्य विद्याओं की पुस्तक है। वेद का पढ़ना- पढ़ाना और सुनना- सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है”।
इन्हीं भावनाओं तथा मान्यताओं के आधार पर वे मूल शंकर तिवारी से शुद्ध चैतन्य की प्रक्रिया से गुजरते हुए दयानंद बने । मथुरा में गुरु विरजानंद के संपर्क में आकर उन्होंने अपने जीवन की धारा ही बदल दी। अब उनका एक ही उद्देश्य था सिर्फ और सिर्फ सत्य का ही प्रचार करना । सन 1862 में हरिद्वार में कुंभ के मेले के अवसर पर उन्होंने पाखंड खंडिनी पताका लहराई और फिर काशी में जाकर तमाम पौराणिक विद्वानों को ललकार कर कहा कि मूर्ति पूजा हमारी तमाम मूर्खताओं का प्रतिफल है। वेद वाक्य ,’न तस्य प्रतिमा अस्ति’ कि उस ईश्वर की कोई प्रतिमा नहीं है, कहकर देवालयों, मंदिरों गिरजाघरों,कब्र पूजा सभी का विरोध किया। वे सभी के कोपभाजक बने। सनातनी हिंदू उन्हें ईसाइयों और मुसलमानों का एजेंट कहते और इसके विपरीत मुसलमान और ईसाई उन्हें अपना दुश्मन समझते। ऐसी ही विसंगतियों के बीच दयानंद अपने विरोधियों को ललकार रहा था। उसे अपमानित किया गया ।पत्थर ,ईंटें और गंदगी की बौछारें की गई। तरह-तरह के लालच और प्रलोभन भी दिए गए ।उनके बारे में अफवाहें फैलाई गई। परंतु सत्य मार्ग का वह पथिक कभी नहीं डगमगाया।
स्वामी दयानंद का जन्म बेशक गुजरात प्रांत के काठियावाड़ रियासत के टंकारा कस्बे में हुआ था। उनकी मातृभाषा गुजराती थी। परंतु उन्होंने अपना कार्यक्षेत्र पंजाब और राजस्थान को बनाया । उपजाऊ पंजाब के किसान, मजदूर ,ग्रामीणवासियों से वे लगातार संवाद करते। वहीं मरूभूमि राजपूताना के रजवाड़ों को विदेशी शासन के विरुद्ध खड़े होने की प्रेरणा देते ।
पंजाब में उनका प्रभाव भी पड़ा। गांव- गांव में आर्य समाज की स्थापना हुई । लोगों ने मूर्ति पूजा आदि वेद विरोधी कार्य करने से छुटकारा लिया। बालिकाओं की शिक्षा के रास्ते खुले, विधवाओं को अपना सम्मानपूर्वक जीवन जीने का ध्येय मिला। पंजाब क्षेत्र के लोग अब तर्क की बात करते। दयानंद ने जो युक्तियां उपलब्ध करवाई थी ,उससे उनके मन मस्तिष्क जागृत हो गए। विशेष तौर से महिलाओं एवं दलितों ने आर्य समाज के प्रचार का हिस्सा बनने का संकल्प लिया। यह वह दौर था जब सरदार भगत सिंह के दादा सरदार अर्जुन सिंह जी आर्य समाज में दीक्षित हुए। आर्य समाज और सिख धारा अलग-अलग नहीं थी। दोनों ही कुरीतियों, अंधविश्वासों और तर्कहीन बातों के विरोधी थे। स्वामी श्रद्धानंद, महात्मा हंसराज, पंडित लेखराज, मुनिवर ,
लाला लाजपत राय और भगत फूल सिंह जैसे लोगों ने शिक्षा के क्षेत्र में अनेक स्थापनाऐं की। जिसने आजादी के आंदोलन को अनेक क्रांतिकारी युवाओं को समर्पित किया।
आर्य समाज की प्रगतिशील विचारधारा सदा से ही षड्यंत्रकारी तत्वों का शिकार रही। जिसमें चाहे पौराणिक हिंदू हो, चाहे वह कट्टरपंथी मुसलमान हो। स्वामी दयानंद जगन्नाथ हिंदू के शिकार बने, जबकि श्रद्धानंद मुस्लिम अब्दुल रशीद के छुरे के शिकार हुए । समानता एक ही है कि सत्य को किस तरह से दबाया जाए ।
आर्य समाज के आंदोलन को दबाने का षड्यंत्र दयानंद और श्रद्धानंद की हत्याओं के बाद भी रुका नहीं। छल, बल और धन से इस आंदोलन को समाप्त करने की हमेशा साजिशें होती रही। आर्य समाज के जीवित रहने की सबसे बड़ी ताकत थी- अध्ययन ,तर्क और संवाद । इन तीन कसौटियों को खत्म किए बिना आर्य समाज पर कब्जा नहीं किया जा सकता था। आर्य समाज नेतृत्व भी इस बात से बखूबी वाकिफ था। युवाओं को आकर्षित करने के लिए उसने भी आर्य वीर दल और आर्य कुमार सभाओं का गठन कर अपनी गतिविधियों को बढ़ाया था। परंतु धीरे-धीरे अंधराष्ट्रवादी, धर्मांध और पुरातन पंथियों ने आर्य समाज के इस आंदोलन को हड़पने का कार्य शुरू कर दिया था। विगत 30-40 वर्षों में जब पूरे देश में राम मंदिर आंदोलन के नाम पर संगठित करने का प्रयास किया जा रहा था ,उस समय भी हरियाणा और पंजाब में रहने वाले दयानंद के प्रिय आर्य समाजी उसके विरोध में खड़े थे। क्योंकि उनका मानना था कि ईश्वर की मूर्ति नहीं हो सकती क्योंकि वह अजर -अमर है । उसके जन्म -मरण का कोई स्थान नहीं हो सकता। पर धीरे-धीरे सांप्रदायिक लोग सफल हुए और आज आर्य समाज के तंत्र पर पूरी तरह से सांप्रदायिक तत्वों का कब्जा है। अब वे गर्व से आर्य नहीं अपितु हिंदू कहलवाते हैं। वे राम मंदिर बनाने के हिमायती हैं और वहां मूर्ति स्थापना हो ,उसे विजय दिवस के रूप में मनाते हैं । यह एक ऐसी चुनौती है जिसने आर्य समाज के आंदोलन पर कुठाराघात किया है।
आर्य समाज का एक गौरवपूर्ण इतिहास रहा है और यहां इतिहास से अर्थ उसकी गाथा को लेकर नहीं ,अपितु उसके संघर्ष को लेकर है ।
देश में विगत अनेक वर्षों से आर्य समाज की गतिविधियों को लगभग चौपट कर दिया है। आर्य समाज का प्रचार तंत्र निष्क्रिय है। उपदेशक और भजनोपदेशक जगाने का काम नहीं करते, वे व्यवसायी हो गए हैं। अनेक भजनोपदेशको की स्थिति तो यह है कि वे माता के जागरण में भी भजन गाते हैं, किसी के उर्स में भी गाते हैं, आर्य समाज के सत्संग में भी अपने गायन की प्रस्तुति देते हैं। आर्य समाज के लिए यह दयनीय स्थिति है। जिस पर आज सभी आर्य समाजियों को चिंतन करने की आवश्यकता है।

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