एक अजीब-सी मुश्किल में हूँ इन दिनों—
मेरी भरपूर नफ़रत कर सकने की ताक़त
दिनोंदिन क्षीण पड़ती जा रही
अँग्रेज़ी से नफ़रत करना चाहता
जिन्होंने दो सदी हम पर राज किया
तो शेक्सपीयर आड़े आ जाते
जिनके मुझ पर न जाने कितने एहसान हैं
मुसलमानों से नफ़रत करने चलता
तो सामने ग़ालिब आकर खड़े हो जाते
अब आप ही बताइए किसी की कुछ चलती है
उनके सामने?
सिखों से नफ़रत करना चाहता
तो गुरु नानक आँखों में छा जाते
और सिर अपने आप झुक जाता
और ये कंबन, त्यागराज, मुत्तुस्वामी…
लाख समझाता अपने को
कि वे मेरे नहीं
दूर कहीं दक्षिण के हैं
पर मन है कि मानता ही नहीं
बिना उन्हें अपनाए
और वह प्रेमिका
जिससे मुझे पहला धोखा हुआ था
मिल जाए तो उसका ख़ून कर दूँ!
मिलती भी है, मगर
कभी मित्र
कभी माँ
कभी बहन की तरह
तो प्यार का घूँट पीकर रह जाता
हर समय
पागलों की तरह भटकता रहता
कि कहीं कोई ऐसा मिल जाए
जिससे भरपूर नफ़रत करके
अपना जी हल्का कर लूँ
पर होता है इसका ठीक उलटा
कोई-न-कोई, कहीं-न-कहीं, कभी-न-कभी
ऐसा मिल जाता
जिससे प्यार किए बिना रह ही नहीं पाता
दिनोंदिन मेरा यह प्रेम-रोग बढ़ता ही जा रहा
और इस वहम ने पक्की जड़ पकड़ ली है
कि वह किसी दिन मुझे
स्वर्ग दिखाकर ही रहेगा।
साभारः प्रतिनिधि कविताएँ (पृष्ठ 183), कुँवर नारायण. राजकमल प्रकाशन, 2008