वे जाति नहीं पूछते – जयपाल

वह औरत क्या कहे

वह क्या कहे

उस गांव को
जो सबका है पर उसका नहीं
उन गांव के कुत्तों को
जो उसे ही देखकर भौंकते हैं
उन गाय -भैंसों को
जिनका गोबर-मूत भी उसके हाथों से पवित्र है

उस गाय- माता को
जिसके बच्चों के नाम पर उसके बच्चों को मार दिया गया
उन देवताओं को जो उसे हमेशा श्राप ही देते हैं
उन पवित्र पुजारियों को
जिनका धर्म उसकी परछाई पर टिका है
उन धार्मिक चरणों को
जिनके नीचे उसे कुचला ही गया

उस हवेलियों को
जिसके दरवाजे हमेशा बन्द ही रहते हैं
उन महाजनों को
जिनके पास उसकी आत्मा गिरवी है
उन खेतों को
जो उसे शक की नजर से देखते हैं
उन बाग -बगीचों को
जो उसके सपने में भी आने से डरते हैं
उस पुलिस वाले को
जो गाली भी जाति पूछ कर देता है
उस जज साहब को
जिसकी आंखों में मोतियाबिंद उतरा हुआ है
उस पंच परमेश्वर को
जो उसका सामाजिक बहिष्कार करके परमेश्वर की भूमिका निभाता है
उस स्कूल मास्टर को
जो उसे देख कर हंसता ही रहता है
उस अपनी ही बस्ती को
जो केवल जलने-मरने के लिए ही बनी है

वह किस-किस को क्या-क्या कहे!
कहने को अब बचा ही क्या है!!

वह चाहती है

वह तोड़ देना चाहती है वे दांत
जो उसे चबाने के लिए ही बने हैं
वह काट देना चाहती है वे हाथ
जो उसे खेतों में खींच लेते हैं और गर्दन दबा देते हैं
वह फोड़ देना चाहती है वे आंखें
जो उसके शरीर के आर-पार हो जाती हैं
वह मिटा देना चाहती है उन पैरों के निशान
जो दलकर उसे दलित बनाते हैं

वह दफ़न कर देना चाहती है उस बचपन को
जो उसके जख्मों पर नमक छिड़कता रहता है
वह भूल जाना चाहती है वह जवानी
जो उस पर बिजली बन कर गिरी थी
वह बंद कर देना चाहती है वे पवित्र कुएं
जिनमें उसकी लाश तैरती रहती है

वह पटक देना चाहती है वे व्यवस्थाएं
जो उसका सिर सबके पैरों में रख देती हैं
वह छोड़ देना चाहती है वे रास्ते
जो सिर्फ उसी के लिए बनाए गए हैं
वह मोड़ देना चाहती है वे हवाएं जो उसके सवालों को उड़ा ले जाती हैं
वह पलट देना चाहती है वे परंपराएं
जो उसका सिर सबके पैरों में रख देती हैं

वह जला देना चाहती है उन स्मृतियों को जो मनु महाराज ने लिखी थी

वे जाति नहीं पूछते

आज कल
कोई किसी से जाति नहीं पूछता
जैसे जाति मिट सी गई है
जैसे पढ़ लिख से गए हैं सब
इसीलिए जाति नहीं पूछते
हालांकि बाकी सब अते-पते तो
वे अच्छी तरह पूछते लेते हैं
बार-बार पूछते हैं
पूछते ही रहते हैं कुछ न कुछ
जब तक पानी पूरी तरह साफ ना हो जाए
और पता ना लग जाए
कि कौन कितने पानी में हैं।

-जयपाल

More From Author

हरियाणवी लोकनृत्यों का अद्भुत रचना संसार – अनिल कुमार पाण्डेय

पूंजीवादी समाज के प्रति – गजानन माधव मुक्तिबोध

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *