अनिल कुमार पाण्डेय की पांच कविताएं

बरखा में धींगामुश्ती

तेज घाम में बरखा बरसे 
देखो कैसा अचरज !   

देखो दो – दो धनक सजे हैं,  

सुंदर, दिव्य और मनमोहक

सावन के धराधर से 

झर – झर, 

झरता नीर 

माटी की ख़ुशबू लिए

मंद – मंद 

बह रहा समीर

टिड्डा निकला,                    

झींगुर निकला                    

निकले संग मंडूक                 

टिड्डा उछला,                      

झींगुर कूदा,                           

कूदे संग मंडूक

देख सभी, प्रकृति की लीला           

हो गए सब गीला – गीला        

कूदे पानी में सब थप – थप!           

आंगन के पानी में डूबे 

दादुर भागे सब छप – छप!        

बिजली चमकी, चमका आसमान

चूहा भाग, बिल्ली लपकी

सांसत में आई जान       

अब थी मेघों की बारी 

विपुल जलराशि लिए 

उमड़ते – घुमड़ते 

भारी – भारी          

पयोधरों ने ज्यों ही गड़गड़ की थाप लगाई                  

दादुर ने भी टर्र – टर्र की टेर सुनाई                       

फिर क्या ?                         

झींगुर ने भी टिड्डे संग लंबी बीन बजाई।

होने लगी, अब धींगामुश्ती

आई सबके जान में जान।               

हर्षित धरती, 

गर्वित जीवन, 

करते सब जयगान

धरती माँ के जाये हैं सब      

चंचल, सुंदर और सुजान ।।

खुशियों की तितली

मांसल, मोटी शिथिल देह में 

उर से उठते स्पंदन 

और 

जीव – जगत के क्रंदन में

यकायक दौड़ी चेतना की लहर 

लगा, हाथों में जैसे कोई कर रहा हो सफर..

सहसा एक मद्धिम स्वर गूंजा!

सोचा भला इस एकांत में कौन है दूजा?

तभी तितली पर गई नज़र

तितली ने भी अपलक देखा !

बस फिर क्या था?

मिल गई नज़रों से नज़र

हाथों में तितली कर रही थी सफर..

तितली बोली 

देख! मेरी रंगरेज रंगोली

सहसा देख अपनी हथेली !

हो गया मन मौन 

चलो किसी ने सुध तो ली

ये सोच मिला 

अंतस को चैन

तितली ने पलटकर देखा 

फिर से मद्धिम स्वर फूटा

बोली, दुख नहीं रूकते हैं देर 

खुशियां फैली हैं, चहुंओर 

हाथ फैलाकर थाम इन्हें,

अब मैं चलती हूं, साध इन्हें 

यह कहते ही, तितली चल निकली 

दूर 

अनंत गगन की ओर..                  

वसुधा और व्योम

प्यासी उर्वर वसुधा पर,
जब रिमझिम बूंदे गिरती हैं
प्रणय अग्नि में जलती वसुधा,
बासंती हिचकोलों से हर्षित
रजस्वला सी ख़ुशबू बिखेर,
हो जाती है, सुबासित और पुष्पित
प्रियतम को पाने
आकुल वसुधा,
जब क्षितिज की दौड़ लगाती है।
तत्क्षण!
प्रीतम को देख, अपने इतने क़रीब
कर माला की रतिमय जरीब,
जब वरण को आगे करती है।
तब व्योम को ठिठके पाती है।
अपने से दूर,
बहुत दूर..
विह्वल हो,
आलाप के आंसू से रंजित
विकल हो, 
निर्लज्ज भाव से व्योम से प्रश्न करती है?
जब रहना था, मुझसे दूर
तो तुम्हारे रुपहले बादल के प्रेमपत्र क्यों आते रहे
बदस्तूर?
अब क्यों मेरी मांग में सुहाग का सिंदूर नहीं भरते?
लोकलाज के भय से मुझे अपनाने से क्यों हो डरते?

तब लोकलाज से डरा – सकुचाया व्योम, अनायास ही बोल पड़ा!
गोत्र, जाति और वर्ण का तब नहीं था भान
सोच रहा हूँ, तुम्हें अपनाने से कहीं भंग न हो कुल का मान
बेहतर है, तुम भी जियो और मुझे भी दो, जीने का वरदान
यूँ ही लुक छिप मिला करेंगे ऐसा है अरमान

इतना सुन 
वसुधा का कंठ अवरुद्ध हुआ!
जैसे प्राणी से प्राण अब विरत हुआ।
जिसे जाना जीवन का आधार
वही अब तक आबरू को कर रहा तार – तार
बहुत हुआ अनाचार,
अब ना सजा सकूँगी तोरण द्वार
सीख लेती हूं बारंबार,
अब ना होगी कोई अबला बेज़ार
यह कहकर
वसुधा ने 
व्योम से नाता तोड़ा
हो सबल, मजबूत ख़ुद को ख़ुद से जोड़ा
अबला से सबला बन इस जग को जीता
व्योम में इकलौती वसुधा
जीवन जिसने जना है,
ना जाने आज भी कितनी ही वसुधाएं 
फना हैं।
आज भी क्षितिज से
जब व्योम, वसुधा पर करता है तड़ितपात

वसुधा मुस्कुराकर,
सजल हो, नहीं लेती कोई प्रतिघात
आज भी क्षितिज में 
व्योम और वसुधा नहीं होते साथ – साथ…

मैं ही हूं श्वान…

धर्मराज का रूप मैं,

भैरव करते मेरी सवारी

मानव का पहला स्वजन मैं,

मानवता है आभारी

मानवता की राह का, मैं अन्यतम सजन

कुछ साथी हैं मेरे, जो घरों में हैं मगन

सोफों और मखमली बिछौनों में ले रहे अंगड़ाई

मैंने चुना है, फक्कड़ जीवन

यूं ही नहीं जीवन पर बन आई

सदियों से पीढ़ियाँ करती आईं हैं, 

मानव की सेवा

कल तक परिश्रम से मिल जाता था, कुछ – कुछ

अब नहीं मिलता रूखा – सूखा!

चिंतित नहीं, हूँ थोड़ा भयभीत 

भूख की अकुलाहट में कब से?

आतुर देख रहा

शायद! आ जाए मनमीत

मानव से मानवता की यात्रा का मैं साक्षी

नहीं है, मेरी परीक्षा

मानवता का दम भरने वाले 

कब करेंगे? मेरी रक्षा

ये है मानवता का इम्तिहान ! 

दसियों दिनों से भूखा, हलकान 

हाँ, मैं ही हूं अभागा श्वान..

पुष्प की लालसा

माटी से माटी मिले,

यही है जग का खेल

माटी से माटी ना मिले, 

तो बिगड़े जग का खेल

माटी से माटी मिले,

तब खिलते जीवन फूल

खिलने से पहले मुरझाना मत

यही है जीवन मूल

माटी में मिलने से पहले 

राहों में बिछ जाएंगी कलियां

मानवता की सेवा में तत्पर 

वीरों के पैरों में, 

नहीं चुभेगी कंकरिया।

माटी में मिलने से पहले 

मेरी एक ही लालसा।

जीवन जय से पहले, नहीं मरण की अभिलाषा।

नहीं चढ़ा देवों के सिर, सुरबाला ने ना ही गहनों में गूंथा।

ऐसे कैसे माटी हो जाऊं

जब तक वीरों को नहीं देखा।  

माटी में मिलना ही है इस जग की नियति,

कुछ किए बिना ही, कब मिली है सद्गति!

कोरोना वीरों के कदमों से जब होगा मेरा अभिषेक,

माँ भारती की सेवा में जब निकलेंगे ये वीर अनेक। 

अनिल कुमार पाण्डेय

परिचय

13 जनवरी 1987 को मध्यप्रदेश के रीवा जिलांतर्गत भेड़रहा गांव में जन्म। इंदौर के ख्यातिप्राप्त होलकर विज्ञान स्वशासी महाविद्यालय से बी0एससी0 करने के पश्चात डॉ0 हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर से न्यायिक विज्ञान में एम0 एससी0 तथा माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल से प्रसारण पत्रकारिता में स्वर्ण पदक के साथ एम0 ए0 की उपाधि हासिल की। वर्तमान में पत्रकारिता एवं जनसंचार विषय में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की प्रतिष्ठित कनिष्ठ शोध अध्येतावृत्त्ति (Junior Research Fellowship) प्राप्त करने के साथ ही बैगा जनजाति के परंपरागत संचार पर जनमाध्यमों के प्रभाव संबंधी शोध कार्य में संलग्न हैं। 

माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में लगभग चार वर्षों के अध्यापकीय अनुभव, राष्ट्रीय–अंतर्राष्ट्रीय स्तर के विभिन्न ट्रेनिंग कार्यक्रमों, संगोष्ठियों एवं कार्यशालाओं में सहभागिता, शोध-पत्रों के वाचन के साथ ही डेढ़ दर्जन शोध-पत्र देश की प्रतिष्ठित शोध पत्रिकाओं/जर्नल्स में प्रकाशित हो चुके हैं। इसके साथ जनसंचार, पत्रकारिता और सिनेमा के सरोकरों सहित सामाजिक एवं लोकोपयोगी विषयों पर अनेक लेख, कविता, कहानियां एवं पुस्तक समीक्षाएं आदि राष्ट्रीय स्तर के समाचार पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं।

संप्रति – कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरूक्षेत्र से संबद्ध राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय सेक्टर -1, पंचकूला में पत्रकारिता एवं जनसंचार विषय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। 

पता – म. न. 651, सेक्टर-4, पंचकूला (हरियाणा) 134112

मो. संपर्क -08319462007

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