तब इरफान बोले थे – तनहाई से घबराता हूं और पैसों से ऊब जाता हूं

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बॉलिवुड के बेहतरीन ऐक्टर इरफान भले ही इस दुनिया से चले गए हों मगर फैन्स के दिलों में वह हमेशा जिंदा रहेंगे। इरफान को गुजरे पूरा एक साल हो चुका है। इस बीच हम आपके सामने पेश कर रहे हैं उनका एक पुराना इंटरव्यू जिसमें उन्होंने ऐक्टिंग और फिल्मों के बारे में खुलकर बात की थी। वह अपनी अलग-अलग भूमिकाओं से अपने फैंस को चौंकाते रहते थे, मगर यह तो सरप्राइज नहीं, शॉक था सबके लिए। इरफान अपने किरदार को परदे पर जिस तरह से जिंदा कर देते थे, वह तो बेमिसाल था ही, समय-समय पर अलग-अलग इंटरव्यू में अपने अभिनय के पीछे का फलसफा वह जिस तरह से खोलते थे, वह भी अनूठा था। इसी सप्ताह (29 अप्रैल) उनकी पहली पुण्यतिथि गुजरी है। इस मौके पर प्रस्तुत हैं इरफान से वरिष्ठ फिल्म पत्रकार अजय ब्रह्मात्मज की एक विशेष बातचीत के अंश, जो उनकी फिल्म ‘मदारी’ (2016) की रिलीज के वक्त की गई थी :

जयपुर की तंग गलियों से निकल कर दिल्ली होते हुए मुंबई तक के अभिनय प्रवास को आप कैसे देखते हैं?

सीखते-सीखते यहां तक तो आ गया। मैंने जो प्रफेशन चुना है, वह मेरे मकसद के करीब पहुंचने के लिए है। उसमें मदद मिले तो ठीक है। बाकी शोहरत, पैसा, नाम- ये सब बायप्रॉडक्ट्स हैं। यह सब तो मिलना ही था। यों जयपुर से निकलते समय कहां पता था कि कहां पहुंचेंगे? अभी पहुंचे भी कहां हैं! सफर जारी है। मुझे याद आता है एक बार बेखयाली में मैंने मां से कुछ कह दिया था। थिएटर करता था तो मां ने परेशान होकर डांटा था। यह सब काम आएगा क्या? मैंने कहा कि आप देखना कि इस काम के जरिए मैं क्या करूंगा? मेरे मुंह से निकल गया था और वह सन्न होकर मेरी बात सुनती रह गई थीं। उन्हें यकीन नहीं हुआ था।


मुंबई के आरंभिक दिनों को याद करें तो यहां तक पहुंचने में आप को लंबा वक्त लगा। अच्छा यह रहा कि आप अपने लक्ष्य से नहीं डिगे और कोशिशें जारी रखीं…

अगर पहले जैसा ही चलता रहता तो माहौल डरावना हो जाता। हमें कुछ और सोचना पड़ता। सिनेमा बदलाव के दौर में है। निर्देशकों की नई पौध आ गई है। वे ताजा मनोरंजन ला रहे हैं। दर्शक भी उन्हें स्वीकार कर रहे हैं। उनसे हमारी दुकान चल रही है। अगर यह बदलाव नहीं होता तो हम अभी भी कैरेक्टर रोल कर रहे होते। ढेर सारे पुराने ऐक्टर दिहाड़ी पर काम करने लगे थे। कहने लगे थे कि भाई हमें दिन के हिसाब से मेहनताना दे दो। किसी कलाकार के लिए वह डरावनी स्थिति है।


आप कभी भीड़ में नहीं शामिल हुए और न किसी हड़बड़ी में दिखे। वैसे आप की बेचैनी भी देखी है, लेकिन वह काम पाने से ज्यादा काम करने की रही। यह फर्क क्यों और कैसे आया?

अगर मैं खुद को और दर्शकों को सरप्राइज न करूं तो मजा नहीं आता। विदेश में देखें तो क्रिस्टोफर नोलन जैसे डायरेक्टर एंटरटेनिंग फिल्में बनाते हैं, लेकिन उसके अंदर कैसा फलसफा डालते हैं। आप समझ सकते हैं कि दुनिया में क्या हो रहा है? उस तरह का एंटरटेनमेंट हमारे यहां नहीं है। मुझे उम्मीद है कि यहां भी ऐसा होगा। अभी पूरी दुनिया का समागम तेजी से हो रहा है। ‘लंच बॉक्स’ तो इसी का उदाहरण है।


थिएटर से आए ऐक्टर भी हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की मुख्यधारा में बह जाते हैं। आपको लगता है कि आप की राह के ऐक्टर आएंगे?

अभी बहुत से ऐक्टर आएंगे। जल्दी ही तादाद बढ़ेगी। हमारे ऐक्टर हॉलिवुड में भी काम करेंगे। अफसोस कि हिंदी का कमर्शल सिनेमा अभी तक इन प्रतिभाओं का इस्तेमाल नहीं कर पा रहा। हिंदी सिनेमा एकपरतीय, लाउड और मेलोड्रमैटिक बना हुआ है। सभी लकीर के फकीर बने हुए हैं। अच्छी बात है कि कम ही सही, लेकिन दूसरी तरह का सिनेमा भी बन रहा है।


आप के करियर में ‘वॉरियर’ एक अहम मोड़ लेकर आई, इसका संयोग कैसे बना?

‘वॉरियर’ मुझे तोहफे के रूप में मिली थी। उन दिनों मैं एकरसता से ऊब चुका था। कुछ फिल्में की थीं, लेकिन उनमें नोटिस नहीं हो पाया था। टीवी और फिल्मों को लेकर मेरा असंतोष खौल रहा था। मुझे लगता है कि वह कुछ नया होने के पहले की बेचैनी थी। ‘वॉरियर’ मेरे रास्ते में आ गई। मैं ऑडिशन के लिए जाने को तैयार नहीं था। तिग्मांशु धूलिया ने फोर्स किया। उसने कहा कि तू जाकर खाली मिल ले। मैं गया। कमरे में घुसा और कुछ हो गया। एहसास हुआ कि यह कुछ स्पेशल है। निर्देशक आसिफ कपाड़िया के साथ अपनी पसंद की फिल्मों की बातें चल रही थीं। इस बातचीत में ही तारतम्य बैठ गया। उसने मुझे फिल्म का एक सीन पढ़ने के लिए दिया। वह मुझे झकझोर गया। मैंने इतना ही कहा था कि इस फिल्म में कुछ मैजिक है। ‘वॉरियर’ के बाद मीरा नायर की ‘नेमसेक’ आई। उस फिल्म में मुझे प्रौढ़ बंगाली का किरदार निभाना था। मैंने वह चांस लिया। मुझे पहले अंदाजा नहीं था कि मेरा किरदार प्रधान हो जाएगा।


और फिर आप के लिए हॉलीवुड के दरवाजे खुल गए। हिंदी फिल्मों में क्या कर रहे हैं और कितने संतुष्ट हैं?

यहां की बात करूं तो 2014 का पूरा साल स्पेशल अपीयरेंस में ही चला गया। पहले ‘गुंडे’ किया और फिर ‘हैदर’। अभी ‘पीकू’ कर रहा हूं। मुझे पता है कि दर्शक मुझे पसंद कर रहे हैं। आर्ट फिल्म करने में मेरा यकीन नहीं है, जिसमें डायरेक्टर की तीव्र संलग्नता रहती है। ऐसी फिल्में आत्ममुग्धता की शिकार हो जाती हैं। ना ही मैं घोर कमर्शल फिल्म करना चाहता हूं। फिर भी सिनेमा के बदलते स्वरूप में अपनी तरफ से कुछ योगदान करता रहूंगा। ‘पीकू’ के बाद तिग्मांशु धूलिया के साथ एक फिल्म करूंगा। संजय गुप्ता के साथ भी बात चल रही है। वह ऐश्वर्या राय बच्चन के साथ है। मैं चालू किस्म की फिल्में नहीं कर सकता।


मांग रहने पर भी आप कम फिल्में चुनते हैं। क्या अधिक पाने और करने की लालसा नहीं है?

मैं जिंदगी में हर तरह के काम से जल्दी ऊब जाता हूं। इस लाइन में इसलिए आया कि अलग-अलग काम करता रहूंगा। मुझे किसी भी फिल्म या रिश्ते में संलग्न होने में वक्त लगता है। मैंने महसूस किया है कि सारे रिश्ते एक समय के बाद आप को तनहा छोड़ देते हैं। मैं अपनी तन्हाई से घबरा जाता हूं। पैसों से भी ऊब जाता हूं। मेरे बच्चे मुझे डांटते रहते हैं कि गाड़ी बदल लो। मुझे लगता है कि महंगी गाड़ी लेकर पैसे क्यों बर्बाद करूं? उन पैसों से अपने भाइयों की मदद कर सकता हूं। दरअसल, मैं तनाव में नहीं रहना चाहता। ऐसी फिल्में खोने से कुछ पाने का एहसास होता है।

साभार – नवभारत टाइम्स से

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