मध्यकालीन संतों और भक्तों के जन्म-मृत्यु व पारिवारिक जीवन के बारे में आमतौर पर मत विभिन्नताएं हैं। संत रविदास की कृतियों में उनके रैदास, रोहीदास, रायदास, रुईदास आदि अनेक नाम देखने को मिलते हैं। काव्य-ग्रन्थों में रैदास का तत्सम रूप रविदास प्रयुक्त हुआ है। संत रविदास के नाम के बारे में ही नहीं, बल्कि जन्म के बारे में भी कई अटकलें लगाई जाती हैं। ”रविदासी सम्प्रदाय में निम्नलिखित दोहा शताब्दियों से प्रचलित है –
चौदह सौ तैंतीस की माघ सुदी पंदरास।
दुखियों के कल्यान हित प्रगटे स्री रविदास।।
संत रविदास का जन्म बनारस छावनी के पश्चिम की ओर दो मील दूरी पर स्थित मांडूर गांव में हुआ, जिसका पुराना नाम मंडुवाडीह है। ‘रैदास रामायण के अनुसार-
काशी ढिग मांडूर स्थाना, शूद्र वरण करत गुजराना।
मांडूर नगर लीन अवतारा, रविदास शुभ नाम हमारा।।
रविदास के पिता का नाम राघव अथवा रघू तथा उनकी माता का नाम करमा देवी तथा पत्नी का नाम लोना था। रविदास ने अपनी वाणी में अपने पेशे व जाति के बारे में बार बार लिखा है। वे मृत पशु ढोने का कार्य करते थे।
मेरी जाति कुट बाढ़ला ढोर ढुवंता,
नितहि बंनारसी आसपासा।।
जाति ओछी पाती ओछी, ओछा जनम हमारा।
कहि ‘रविदास’ खलास चमारा।
जो हम सहरी सो मीत हमारा।।
रविदास-सम्प्रदाय के पक्षधर मानते हैं कि रविदास का निर्वाण चैत्र मास की चर्तुदशी को हुआ था। कुछ विद्वानों का विचार है कि उनकी मृत्यु सं. 1597 में हुई थी। यह तिथि ‘भगवान रैदास की सत्यकथा’ ग्रंथ में दी गई है। ‘मीरा स्मृति ग्रंथ’ में रैदास का निर्वाण-काल सं. 1576 दिया गया है। यह भी विश्वास किया जाता है कि उन्हें 130 वर्ष की दीर्घायु मिली थी।
अनन्तदास ने लिखा है:-
पन्द्रह सौ चउ असी, भई चितौर महं भीर।
जर-जर देह कंचन भई, रवि रवि मिल्यौ सरीर।।
किंवदंतियों की रचना व प्रसार निरुद्देश्य नहीं होता, बल्कि किसी विचार, मान्यता या मूल्य को लोगों में स्थापित करने के लिए होता है। किंवदंतियां चुपचाप अपना प्रभाव छोड़ती रहती हैं और एक समय के बाद सामान्य चेतना का अविभाज्य हिस्सा बनकर समाज की चेतना को स्वत: ही प्रभावित करती रहती हैं। वर्गों में विभक्त समाज में ये वर्चस्वी वर्ग के संस्कारों-विचारों के संवाहक का काम करने लगती हैं। इसलिए वर्गीय जरूरतों के साथ-साथ ये किंवदंतियां भी बदलती रहती हैं, इनमें जोड़-घटाव होता रहता है।
महापुरुषों के जीवन से संबधित चमत्कारिक घटनाएं समाज में प्रचलित हैं। जनश्रुतियों एवं किंवदंतियों के माध्यम से लोग अपने आदर्श पुरुष, महापुरुष एवं नायक के प्रति श्रद्घा व्यक्त करते हैं या अप्रिय के प्रति घृणा अथवा निन्दा व्यक्त करते हैं। किंवदंतियों की रचना व प्रसार निरुद्देश्य नहीं होता, बल्कि किसी विचार, मान्यता या मूल्य को लोगों में स्थापित करने के लिए होता है। किंवदंतियां चुपचाप अपना प्रभाव छोड़ती रहती हैं और एक समय के बाद सामान्य चेतना का अविभाज्य हिस्सा बनकर समाज की चेतना को स्वत: ही प्रभावित करती रहती हैं। वर्गों में विभक्त समाज में ये वर्चस्वी वर्ग के संस्कारों-विचारों के संवाहक का काम करने लगती हैं। इसलिए वर्गीय जरूरतों के साथ-साथ ये किंवदंतियां भी बदलती रहती हैं, इनमें जोड़-घटाव होता रहता है। कई बार तो किसी व्यक्ति के बारे में ऐसी किंवदंतियां प्रचलित हो जाती हैं जिससे उस व्यक्ति का मूलभूत विरोध रहा है। मध्यकालीन संतों के साथ भी कुछ इसी तरह का हुआ।
संत रविदास के बारे में ऐसी ऐसी जनश्रुतियां हैं कि यदि रविदास को वे सुना दी जातीं जो वे अपना सिर धुन लेते। संत रविदास का ब्राह्मणवाद से विरोध था। रविदास के प्रभाव को समाप्त करने के लिए उनके बारे में कई तरह की कहानियां व चमत्कार ठूंस दिए गए और कालान्तर में वही आम लोगों में इन संतों का परिचय करवाने लगे।
”गुरु रविदास जी के जीवन से संबंधित अनेक चमत्कारिक घटनाएं जनश्रुतियों के रूप में प्रचलित हैं। उनमें भगवान का स्वयं साधु रूप में आकर इन्हें पारसमणि प्रदान करने पर अस्वीकार करना, भगवान के सिंहासन के नीचे से सोने की पांच मोहरों का नित्य प्राप्त होना, गंगा का हाथ निकालकर ब्राह्मण से रविदास की भेंट स्वीकार करके बदले में रत्न जडि़त सोने का कंगन प्रदान करना, राजा की सभा में ब्राह्मणों का विवाद में पराजित होना, जल में शालिग्राम की मूर्ति तिराना तथा सिंहासन से मूर्ति का रविदास जी की गोद में आ बैठना, भोज में अनेक रूप धारण कर प्रत्येक ब्राह्मण के मध्य एक एक रविदास का विराजमान होना आदि सर्वाधिक प्रचलित हैं। इन अनुश्रुतियों में गुरु रविदास जी की भक्ति, संतभाव, सिद्घत्व तथा अनुपम ख्याति की छाया स्पष्टत: प्रतिबिम्बित हुई है।”
संत रविदास के प्रभाव को समाप्त करने के लिए ही उनके साथ इस तरह की कथाएं रची गई हैं। उनके साथ चमत्कार जोड़कर उनको एक सनातनी पंडित की तरह पूजा करता दिखाया गया है। इस सारी कवायद में रविदास में से असली रविदास निकाल कर उसकी जगह एक मनघडंत रविदास लोगों के दिमागों में प्रतिष्ठित कर दिया जाता है जो वही सिद्घांत लिए हैं जिनके खिलाफ रविदास ने ललकार दी थी। यह भी सच है कि वे अपने मकसद में कामयाब भी हुए हैं।
धर्म और साम्प्रदायिकता
रविदास ने स्पष्ट तौर पर कहा कि राम और रहीम, कृष्ण और करीम, ईश्वर और खुदा में कोई अन्तर नहीं है। ये सब एक ही हैं। ये मन में ही बसते हैं, इनको प्राप्त करने के लिए घर त्यागने की जरूरत नहीं है। रविदास के लिए ईश्वर की प्राप्ति किसी कर्मकाण्ड का हिस्सा नहीं है, बल्कि उसके लिए अपने आचरण को पवित्र करने की जरूरत है।
राघो क्रिस्न करीम हरि, राम रहीम खुदाय।
‘रविदास’ मोरे मन बसहिं, कहुं खोजहूं बन जाय।।
रविदास ने बार बार इस बात को रेखांकित किया है कि जिस ईश्वर को हिन्दू मानते हैं और जिस खुदा को मुसलमान मानते हैं वे कोई अलग अलग नहीं हैं। वे सब एक ही हैं। सबका मालिक एक ही है, जो लोग ईश्वर के नाम पर लड़ते हैं वे ईश्वर की ही अवहेलना करते हैं। केशव, कृष्ण और करीम सभी एक ही तत्व है। रविदास इस बात पर जोर देने के लिए ही बार बार कहते हैं कि उन्होंने विचार करके देख लिया है कि सिर्फ नाम का ही फर्क है, तत्वत: कोई अन्तर नहीं है।
‘रविदास’ हमारो सांइयां, राघव राम रहीम।
सभ ही राम को रूप हैं, केसो क्रिस्न करीम।।
अलख अलह खालिक खुदा, क्रिस्न-करीम करतार।
रामह नांउ अनेक हैं, कहै ‘रविदास’ बिचार।।
रविदास ने न केवल राम और रहीम की एकता के बारे में बार बार जिक्र किया, बल्कि हिन्दू और मुसलमानों के सबसे पवित्र माने जाने वाले स्थलों के बारे में जिनकी इन धर्मों के मानने वालों की सर्वाधिक आस्था है, उनके बारे में भी कोई अन्तर नहीं किया। रविदास का मानना था कि काबा और कासी में कोई अन्तर नहीं है।
‘रविदास’ हमारो राम जोई, सोई है रहमान।
काबा कासी जानीयहि, दोउ एक समान।।
जब से समाज वर्गों में विभाजित हुआ है, तभी से समाज के विभिन्न वर्गों के हित परस्पर टकराते रहे हैं। अपने अपने हितों की रक्षा के लिए और अपने शत्रु या विरोधी वर्ग के हितों के विरुद्घ समाज में समीकरण बनते रहे हैं। मध्यकाल में कई तरह की पहचानें समाज में थीं। एक पहचान धर्म के आधार पर भी थी। विभिन्न धर्मों के लोग एक साथ रहते थे। यद्यपि विभिन्न धर्मों में कोई मूलभूत अन्तर नहीं था, लेकिन विभिन्न धर्मों के मानने वालों के स्वार्थों में टकराहट थी। शासक वर्ग के लोगों ने इस टकराहट को धर्मों की टकराहट के तौर पर पेश करने की कोशिश की।
रविदास जैसे संतों ने उनकी इस चालाकी को पहचान लिया और साफ तौर पर कहा कि हिन्दू और मुसलमान दोनों में कोई मूलभूत अन्तर नहीं है। कोई प्राकृतिक अन्तर भी नहीं है। हिन्दू व मुसलमान दोनों के दो दो हाथ, दो दो पैर, दो दो कान और दो दो आंखें हैं। जब दोनों की बनावट एक जैसी है तो दोनों को अलग कैसे माना जाए। असल में दोनों एक ही हैं। उनमें कोई अन्तर नहीं है जिस तरह सोने और सोने के कंगन में कोई अन्तर नहीं है। सोने से ही कंगन बना है, उसी तरह हिन्दू और मुसलमान में कोई अन्तर नहीं है, दोनों एक ही तत्त्व की उपज हैं। रविदास ने कहा कि हिन्दू माना जाने वाला ब्राह्मण और मुसलमान माना जाने वाला मुल्ला सबको एक ही नजर से देखना चाहिए, उनमें कोई मूलभूत अन्तर नहीं है।
जब सभ करि दोउ हाथ पग, दोउ नैन दोउ कान।
‘रविदास’ पृथक कैसे भये, हिन्दू मुसलमान।।
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‘रविदास’ कंगन अरू कनक मंहि, जिमि अंतर कछु नांहि।
तैसउ अंतर नहीं, हिन्दुअन तुरकन मांहि।।
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‘रविदास’ उपजइ सभ इक नूर तें, ब्राह्मन मुल्ला शेख।
सभ को करता एक है, सभ कूं एक ही पेख।।
रविदास ने इस बात को पहचान लिया था कि हिन्दू और मुसलमान के आधार पर भेदभाव करना असल में जन सामान्य की एकता को तोडऩा है। शासक वर्ग अपना शासन कायम रखने के लिए जन-सामान्य की एकता तोड़ते हैं और शासित-वर्ग एकता को कायम रखते हैं। रविदास ने एकता पैदा करने के लिए शासक वर्ग द्वारा धर्म के आधार पर जो विभाजन करना चाहा था उसका विरोध किया। धर्म के नाम पर समाज में वैमनस्य पैदा करना मानवता के प्रति अपराध है, जबकि धर्म के आधार पर कोई भेद ही नहीं है। गुरु रविदास ने हिन्दू और मुस्लिम में कोई अन्तर नहीं किया। उनको एक ही माना।
‘रविदास’ पेखिया सोध करि, आदम सभी समान।
हिंदू मुसलमान कऊ, स्रिष्टा इक भगवान।।
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मुसलमान सों दोसती, हिंदुअन सों कर प्रीत।
‘रविदास’ जोति सभ राम की, सभ हैं अपने मीत।।
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हिंदू तुरुक मंहि नहीं कुछ भेदा, सभ मंह एक रत्त अरुमासा।
दोऊ एकहू दूजा कोऊ नांहि, पेख्यो सोध ‘रविदासा’।।
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हिंदू तुरुक मंह नहीं कुछ भेदा, दुइ आयहु एक द्वार।
प्राण पिंड लोहु मांस एकहू, कहि रविदास बिचार।।
रविदास के लिए धर्म वर्चस्व स्थापित करने का साधन नहीं, बल्कि एक नैतिक सत्ता का है, जिसे अपनाकर ही सच्चा धार्मिक हुआ जा सकता है, न कि धार्मिक पाखण्ड को अपना कर। सच्चे अर्थों में धार्मिक व्यक्ति ईश्वर को सर्वोच्च सत्ता मानता है और ईश्वर के समक्ष सभी धर्मों को मानने वाले बराबर हैं। संत रविदास ने साम्प्रदायिक दृष्टि अपनाकर मनुष्यों में भेदभाव को स्वीकृति नहीं दी, बल्कि मानवतावादी दृष्टि को अपनाकर मनुष्यों में धार्मिक व सामाजिक एकता व बराबरी को मान्यता दी।
कहा जा सकता है कि दलित-चिन्तकों व साहित्यकारों की परम्परा ने साम्प्रदायिक विचारों को शुरू से ही नकारा। दलित-मुक्ति का आदर्श रहा है – समाज में बराबरी की चाह पैदा करना तथा इसे हासिल करने के लिए प्रेरित करना। संत रविदास ने अपने अनुयायियों के लिए स्पष्ट रास्ता बताया है कि साम्प्रदायिकता की विचारधारा को मान्यता देने का अर्थ है – समाज में सामाजिक भेदभाव, शोषण व अन्याय को वैधता देना। वर्तमान दलित आन्दोलन व चिन्तन गुरु रविदास से इस सम्बन्ध में प्रेरणा ले सकता है।
संत रविदास की परम्परा के कवियों ने साम्प्रदायिक सद्भाव को अपनी वाणी का विषय बनाया है। ये कवि सभी धर्मों की शिक्षाओं का आदर करते थे तथा उनको अपने जीवन में उतारने पर बल देते थे। सभी धर्मों के दार्शनिक सिद्घांतों पर विचार-विमर्श करते थे तथा सभी धर्मों के बाहरी आडम्बरों का विरोध करते थे। धर्म की शिक्षाओं को व्यवहार में लाने वाला, सिद्घान्तों पर तर्क-वितर्क करने वाला तथा कर्मकाण्डों की आलोचना करने वाला व्यक्ति साम्प्रदायिक नहीं हो सकता। साम्प्रदायिकता न तो विचार-विमर्श व तर्क को बढ़ावा देती है और न ही धर्म की शिक्षाओं को आचरण में उतारने पर जोर देती है। साम्प्रदायिकता तो मात्र आडम्बरों-कर्मकाण्डों पर व धार्मिक चिन्हों पर जोर देती है। इस तरह साम्प्रदायिकता मध्यकालीन समस्त संतों की विचारधारा के विरुद्घ है।
संतों का किसी एक धर्म से विरोध नहीं था, बल्कि वे सभी धर्मों में व्याप्त बुराइयों का विरोध करते थे। संस्थागत धर्म के संरक्षक धार्मिक तत्ववादी हमेशा ही समाज की प्रगतिशील शक्तियों के खिलाफ रहे हैं। साम्प्रदायिक विचारधारा भी अपने को धर्म के प्रगतिशील रूप को नष्ट करके रूढि़वादी व साम्प्रदायिक रूप को स्वीकारती हैं। संस्थागत धर्म ही धर्म स्थलों को बढ़ावा देता है, उनके भव्य निर्माण पर जोर देता है और धर्म के नाम पर तमाम बुराइयों के संरक्षण की शुरूआत भी यहीं से होती है।
संतों को विभिन्न धर्मों में कोई मूलभूत अन्तर नजर नहीं आया। लोगों के जीवन में भी कोई अन्तर नहीं था, चाहे वे किसी भी धर्म से ताल्लुक क्यों न रखते हों। शासक वर्गों का जीवन एक सा था, चाहे वे अलग अलग धर्मों से ताल्लुक क्यों न रखते हों। संतों का किसी एक धर्म से विरोध नहीं था, बल्कि वे सभी धर्मों में व्याप्त बुराइयों का विरोध करते थे। संस्थागत धर्म के संरक्षक धार्मिक तत्ववादी हमेशा ही समाज की प्रगतिशील शक्तियों के खिलाफ रहे हैं। साम्प्रदायिक विचारधारा भी अपने को धर्म के प्रगतिशील रूप को नष्ट करके रूढि़वादी व साम्प्रदायिक रूप को स्वीकारती हैं। संस्थागत धर्म ही धर्म स्थलों को बढ़ावा देता है, उनके भव्य निर्माण पर जोर देता है और धर्म के नाम पर तमाम बुराइयों के संरक्षण की शुरूआत भी यहीं से होती है। संत रविदास व अन्य संतों ने अपनी धार्मिक-आध्यात्मिक जिज्ञासा व जरूरतों को पूरा करने के लिए किसी धर्म-स्थल के निर्माण पर जोर नहीं दिया। धार्मिक व्यक्ति कभी धार्मिक स्थलों के लिए दूसरे धर्म के लोगों से नहीं लड़ता और न ही दूसरे धर्म के पूजा-स्थलों को गिराने या नुक्सान पहुंचाने के काम को धार्मिक कार्य मानता है। मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर व गुरुद्वारों के लडऩे वाले लोग रविदास व अन्य संतों की दृष्टि में धार्मिक नहीं हैं। गुरु रविदास ने लिखा है कि ईश्वर भक्त को अपने इष्ट की आराधना करने या ढूंढने के लिए किसी पूजा-स्थल में जाने की जरूरत नहीं है।
तुरुक मसीति अल्लह ढूंढइ, देहरे हिंदू राम गुंसाई।
‘रविदास’ ढुंढिया राम रहीम कूं, जंइ मसीत देहरा नांहि।।
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देहरा अरु मसीत मंहि, ‘रविदास’ न सीस नवांय।
जिह लौं सीस निवावना, सो ठाकुर सभ थांय।।
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रविदास न पुजहूं देहरा, अरु न मसजिद जाय।
जंह जंह ईस का वास है, तंह तंह सीस नवाय।।
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हिंदू पूजह देहरा, मुसलमान मसीति।
‘रविदास’ पूजह उस राम कूं, जिह निरन्तर प्रीति।
संत रविदास व उनकी परम्परा के संतों-भक्तों ने समाज में साम्प्रदायिक विचारधारा के आधार धार्मिक तत्ववाद पर प्रहार करके एकता के तत्वों को स्थापित किया था। तत्कालीन समाज में व्याप्त रूढि़वादी तत्वों ने इन संतों का विरोध किया था। साम्प्रदायिक सद्भाव संतों की वाणी का अपरिहार्य संदेश है, जो आज भी प्रासंगिक है और आज के समाज के बारे में इस समस्या पर विचार करने पर विवश करता है और मानवता के पक्ष को मजबूत करने के लिए साम्प्रदायिक तत्वों का विरोध करने की प्रेरणा देता है।
जाति और वर्ण
भारतीय समाज जातियों में विभाजित रहा है। समाज के प्रभावशाली लोगों ने अपने हितों की पूर्ति के लिए इस तरह का विभाजन किया। जाति-व्यवस्था की श्रेष्ठता की मान्यता के कारण किसी को तो सभी अधिकार बिना किसी योग्यता के ही मिल जाते हैं और कोई समस्त गुण सम्पन्न होते हुए भी वैधानिक, मानवीय और यहां तक कि प्राकृतिक अधिकारों से भी वंचित हो जाता है। इसलिए जाति का अर्थ समाज में सबके लिए एक जैसा न होकर अलग अलग हो जाता है किसी के लिए जाति एक प्रथा है, जिसका उसे हर कीमत पर पालन करना है। किसी के लिए एक दंभ बन जाता है, कोई इसे एक भ्रम ही समझता है, एक मानसिकता है, एक मिथक है, एक अंधविश्वास है, एक रूढि़ है, किसी के लिए यह एक चेतना है, जिसे वह धारण किए हुए है, और किसी के लिए यह अभिशाप है, गुलामी है, शोषण का माध्यम है। जाति-व्यवस्था को लेकर भारतीय समाज में समय समय पर विभिन्न वर्गों की प्रतिक्रियाएं होती रही हैं। जाति कोई स्थिर वस्तु या स्थिति नहीं रही, बल्कि यह समय व स्थिति के अनुसार बदलती रही है। सामाजिक-आर्थिक हैसियत बदलते ही जाति की सामाजिक स्थिति भी बदलती रही है।
जाति भारतीय धर्म व नीति के विमर्श के केन्द्र में रही है। वर्णों की उत्पति और वर्ण-धर्म के पालन का आग्रह स्मृतियों और अन्य ग्रन्थों में भरा पड़ा है। राजा को इसके पालन के निर्देश दिए गए हैं और राजाओं ने भी जाति आधारित व्यवस्था को ही अपनाने में समझदारी दिखाई। वे समाज के प्रभावशाली लोगों को नाराज करके अपना शासन कायम नहीं रख सकते थे। मुस्लिम शासकों ने भी जाति प्रथा को तोडऩा तो क्या बल्कि इसे मजबूती ही प्रदान की और अंग्रेंजों ने भी जो तमाम आधुनिक प्रगति का दावा करते रहे, उन्होंने भी जाति प्रथा को न केवल यथावत कायम रखा, बल्कि अधिक मजबूत किया। शासकों ने जहां जाति प्रथा को स्थापित करने में रुचि ली वहीं समाज सुधारकों ने इसके विरुद्घ संघर्ष किया। महात्मा बुद्घ, महावीर जैन के आन्दोलनों के बाद सिद्घों-नाथों से होती हुई कबीर, नानक, रविदास आदि संतों की वाणी व संघर्ष में इसके विरुद्घ आन्दोलन मुख्य रहा है। इन संतों ने इस बात को पहचान लिया था कि जाति के रहते हुए समाज में मानवता स्थापित नहीं हो सकती। मानवता और जाति में मूल रूप से ही विरोध है। जाति की कब्र पर ही मानवता की नींव रखी जा सकती है।
रविदास ने पहचान लिया था कि समाज में जाति के विष की अनेक परतें हैं। समाज में जाति के अन्दर जातियां मौजूद हैं। जैसे केले के पत्तों में पत्ते होते हैं, उसी तरह से जातियां समाज में हैं। जाति व्यवस्था का महल इस तरह से खड़ा है जैसे कि केले के पत्ते। जाति व्यवस्था का ढांचा हर स्तर पर मौजूद है। यह समाज में विभिन्न स्तर बना देता है और लोगों में स्थायी विभाजन पैदा करती है। रविदास ने इस बात को भी पहचान लिया था कि जाति व्यवस्था के रहते मनुष्य मनुष्य में भाईचारा कायम नहीं हो सकता। वे एक दूसरे के निकट नहीं आ सकते। जब तक समाज से जाति का नाश नहीं हो जाता, तब तक मानवों में एकता कायम नहीं हो सकती। मानव जाति की एकता और मनुष्यता के मूल्यों के प्रसार व स्थापना में जाति सबसे बड़ी बाधा है। इसीलिए रविदास ने लिखा कि:
जात पांत के फेर मंहि, उरझि रह्इ सभ लोग।
मानुषता कूं खातहइ, जात कर रोग।।
जात जात में जात है, ज्यों केलन में पात।
‘रविदास’ न मानुष जुड़ सकैं, जौं लौं जात न जात।।
जाति के आधार पर मनुष्य-मनुष्य में भेदभाव करने को रविदास ने मनुष्यता का अपमान समझा। उनका मानना था कि सभी मनुष्यों को एक ही भगवान ने बनाया है, सबको बनाने वाला एक ही ईश्वर है, वह सब में समान रूप से मौजूद है। उसी से सबका विस्तार हुआ है, इसलिए जो वर्ण-अवर्ण, ऊंच-नीच पर विचार करते हैं, वे मूर्ख हैं। वर्ण या जाति के आधार पर भेद करने वालों को अज्ञानी व मूर्ख बताना असल में ब्राह्मणवादी विचारधारा को सिरे से नकारना है।
एकै माटी के सभ भांडे, सभ का एकौ सिरजन हारा।
‘रविदास’ ब्यापै एकौ घट भीतर, सभकौ एकै घड़ै कुम्हारा।।
‘रविदास’ उपिजइ सभ इक बुंद ते, का ब्राह्मन का सूद।
मूरिख जन न जानइ, सभ मंह राम मजूद।।
‘रविदास’ इकही बूंद सों, सभ ही भयो बित्थार।
मूरिख हैं जो करत हैं, बरन अबरन विचार।।
सभ महिं एकु रामहु जोति, सभनंह एकउ सिरजनहारा।
‘रविदास’ राम रमहिं सभन मंहि, ब्राह्मन हुई क चमारा।।
नीच नीच कह मारहिं, जानत नाहिं नदान।
सभ का सिरजनहार है, ‘रविदास’ एकै भगवान।।
रविदास जिस समय हुए उस समय धर्म संबंधी चिंतन ही मानव-जीवन व चिंतन के केन्द्र में था। उस समय सोचने के ढंग में ईश्वर की उपस्थिति लगभग अनिवार्य सी थी। उसे दूर करके सोचा ही नहीं जाता था। विज्ञान की खोजों ने अभी यह सिद्घ नहीं किया था कि जीवन विकसित हुआ है, इसके विपरीत यही माना जाता था कि इस संसार को ईश्वर ने बनाया है। संसार में मौजूद तमाम चीजों का निर्माता ईश्वर ही है। इसलिए ईश्वर के समक्ष ही मानव मानव में भेद न मानने के तर्क को ही सर्वाधिक मान्यता प्राप्त थी। संत रविदास भी बार बार इस बात को अपने दोहों में कहते हैं कि कथित उच्च जाति व कथित नीच जाति के लोगों को भगवान ने ही बनाया है और जब ईश्वर ने ही सबको बनाया है तो उनमें ऊंच नीच कैसे हो सकती है। असल में ऊंच नीच की सामाजिक निर्मिति को संत कवि ईश्वर निर्मिति के हवाले से समाप्त करना चाहते हैं। यद्यपि प्रारम्भ में जाति व वर्ण के निर्माताओं ने ईश्वर के हवाले से ही वर्णों के ऊंच नीच को वैधता देने की कोशिश की थी, लेकिन जल्दी उन्होंने इसको गुण के आधार पर स्थापित करने की बात कही थी और इसके पेशागत आधार को भी तर्क के तौर पर प्रस्तुत किया था। यद्यपि जन्म से वर्ण को मानना तो किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है, लेकिन गुणों के आधार पर भी इसे स्वीकार इसलिए नहीं किया जा सकता, क्योंकि इसमें भी एक सांसारिक काम और दूसरे सांसारिक काम में भेदभाव किया जाता है और इस आधार पर मनुष्य मनुष्य में भेदभाव किया जाता है। संत रविदास की यह बात बहुत ही महत्त्वपूर्ण है और वर्तमान दलित-मुक्ति आन्दोलन व चिन्तकों का विशेष ध्यान आकर्षित करती है। ब्राह्मणवादी विचारधारा ने अपनी जगह समाज में इस तरह बनाई है कि जिन वर्गों व समुदायों के वह खिलाफ है, वे भी उसको आदरणीय मानकर अपने व्यवहार का हिस्सा बनाए हुए हैं व उसकी नैतिकता और मूल्य-चेतना ही मुख्यतौर पर उनको परिचालित करती है। दलित मुक्ति के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती के तौर पर यही बात है कि ब्राह्मणवादी विचारधारा को दलितों से कैसे मुक्त किया जाए। जब तक दलित वर्ग इसे संजोये रहेंगे और इससे परिचालित होंगे तब तक समाज में इसका प्रभुत्व बना रहेगा।
संत रविदास ने जन्म के आधार पर जाति प्रथा या वर्ण-व्यवस्था को मानने से स्पष्ट इनकार कर दिया। जन्म को इसका आधार न मानकर व्यक्ति के कर्म को इसका आधार माना। उन्होंने कहा कि जन्म के कारण न तो कोई ऊंचा होता है और न ही कोई नीचा। मनुष्य को उसके काम ही ऊंचा या नीचा बनाते हैं। मनुष्य के जन्म को मुख्य न मानकर उसके कामों पर ही विचार करना चाहिए। बात बिल्कुल सही है कि जन्म पर किसी का अधिकार नहीं है लेकिन संसार में अच्छे या बुरे काम करना काफी कुछ व्यक्ति पर निर्भर करता है।
‘रविदास’ जन्म के कारनै, होत न कोउ नीच।
नर कूं नीच करि डारि है, ओछे करम कौ कीच।।
जन्म जात कूं छांडि करि, करनी जात परधान।
इह्यौ बेद कौ धरम है, करै ‘रविदास’ बखान।।
मनुस्मृति में वर्ण को जन्म के आधार पर मान्यता दी गई थी लेकिन कर्म का सिद्घांत भी पुनर्जन्म के साथ मिलकर जाति विभाजन को औचित्य प्रदान करता है। इसीलिए जाति चेतना पीढ़ी दर पीढ़ी का पुनर्जन्म हो रहा है। कभी यह आर्थिक ईकाई के तौर पर स्थापित रही, तो कभी सामाजिक इकाई के तौर पर। वर्तमान में इसके ये आधार टूट रहे हैं तो यह राजनीतिक इकाई के रूप में मजबूत हो रही है।
संत रविदास ने समाज में प्रचलित मनुस्मृति की व्यवस्था को नकारा। मनुस्मृति में वर्ण को जन्म के आधार पर मान्यता दी गई थी लेकिन कर्म का सिद्घांत भी पुनर्जन्म के साथ मिलकर जाति विभाजन को औचित्य प्रदान करता है। इसीलिए जाति चेतना पीढ़ी दर पीढ़ी का पुनर्जन्म हो रहा है। कभी यह आर्थिक ईकाई के तौर पर स्थापित रही, तो कभी सामाजिक इकाई के तौर पर। वर्तमान में इसके ये आधार टूट रहे हैं तो यह राजनीतिक इकाई के रूप में मजबूत हो रही है।
संत रविदास के युग के चिन्तन की सीमा उसका ईश्वरवाद था। वे समाज की समस्त समस्याओं को इसी दृष्टिकोण से देखते थे और इसी को उनका समाधान मानते थे। किसी भी सामाजिक समस्या को ईश्वर देन मानना और उसका निदान भी ईश्वर के भरोसे छोड़ देना तत्कालीन चिन्तन सबसे बड़ी कमजोरी कहा जा सकता है। जो समस्याओं के सामाजिक कारणों से ध्यान हटाता था। उस समय के सभी विचारकों-संतों में यह प्रवृति मिलती है। संत रविदास भी इससे अछूते नहीं हैं।
वेद पढई पंडित बन्यो, गांठ पन्हीं तऊ चमार।
‘रविदास’ मानुष इक हइ, नाम धरै हइं चार।।
मनुस्मृति में एक वर्ण को दूसरे से श्रेष्ठ माना गया। जैसे यह कहा गया कि ब्राह्मण की हर हाल में पूजा करनी चाहिए चाहे वह इसके योग्य हो चाहे न हो और शूद्र में चाहे जितने गुण हों उसको दुत्कार व प्रताडऩा का ही विधान किया है। रविदास ने इसे स्वीकार न करके गुणों के आधार पर पूजा या सम्मान करने को कहा। यदि ब्राह्मण में कोई गुण नहीं है तो उसकी पूजा सिर्फ इसलिए नहीं करनी चाहिए कि वह ब्राह्मण कुल में पैदा हुआ है और यदि चांडाल कहे जाने व्यक्ति में गुण हैं तो उसका सम्मान करना चाहिए। आदर-मान या पूजा के अधिकारी होने का आधार जन्म न मानकर गुणों को मानना महत्त्वपूर्ण है।
‘रविदास’ बाह्मन मति पूजिए, जउ होवै गुनहीन।
पूजहिं चरन चंडाल के, जउ होवै गुन परवीन।।
ऊंचे कुल के कारणै, ब्राह्मन कोय न होय।
जउ जानहि ब्रह्म आत्मा, ‘रविदास’ कहि ब्राह्मन सोय।।
काम क्रोध मद लोभ तजि, जउ करइ धरम कर कार।
सोइ ब्राह्मन जानिहि, कहि ‘रविदास’ बिचार।।
संत रविदास के समय में वर्ण के आधार पर समाज में व्यक्ति का सम्मान तय होता था और व्यक्ति अपने कथित वर्ण के कर्तव्यों पर खरा उतरता है या नहीं यह भी जरूरी नहीं था। रविदास ने वर्ण के कर्तव्यों को पुनर्परिभाषित किया। उसे इस तरह से व्याख्यायित किया जिससे कि पीडि़त व्यक्ति का पक्ष ही मजबूत होता था। मनुस्मृति की वर्ण सम्बन्धी कार्यों में क्षत्री उसी को कहा गया जो राज्य की रक्षा करता है या जो शासन करता है। लेकिन रविदास ने उसी को सच्चा क्षत्री कहा जो दीन-दुखी के लिए अपने प्राणों को न्यौछावर कर सकता है। केवल भुजाओं के जोर पर किसी को क्षत्रीय नहीं कहा जा सकता। शारीरिक बल के होने मात्र से ही कोई क्षत्रिय का दर्जा नहीं पा जाता, बल्कि उस ताकत का प्रयोग दीन-दुखियों के लिए करने वाले को ही कहा जा सकता है। जो व्यक्ति समाज के पीडि़त के लिए अपने प्राण तक देने के लिए तैयार है वही इसका अधिकारी है।
दीन दुखी के हेत जउ, बारै अपने प्रान।
‘रविदास’ उह नर सूर कौं, सांचा छत्री जान।।
वैश्य के लिए मात्र व्यापार करना ही काफी नहीं है। व्यापार में तो धोखा, ठगी, बेइमानी, निजी स्वार्थ भी होता है। संत रविदास ने सब के सुख के लिए व्यापार करने वाले को ही वैश्य कहा-
‘रविदास’ वैस सोइ जानिये, जउ सत्त कार कमाय।
पुंन कमाई सदा लहै, लोरै सर्वत्त सुखाय।।
सांची हाटी बैठि कर, सौदा सांचा देइ।
तकड़ी तोलै सांच की, ‘रविदास’ वैस है सोइ।।
मनु की वर्ण-व्यवस्था में शूद्र को सबसे नीचे का दर्जा दिया और उसे इस तरह परिभाषित किया मानो कि वह समाज पर बोझ व कलंक हो। रविदास ने शूद्र को असत्य न कहने वाला धन कहकर प्रतिष्ठापित किया-
‘रविदास’ जउ अति पवित्र है, सोई सूदर जान।
जउ कुकरमी असुध जन, तिन्ह ही न सूदर मान।।
***
हरिजनन करि सेवा लागै, मन अंहकार न राखै।
‘रविदास’ सूद सोइ धंन है, जउ असत्त न भाखै।।
रविदास के समय में वर्णों से ही सोचा जाता था, इसलिए इस शब्दावली को तो वे नहीं छोड़ पाए, लेकिन उन्होंने वर्ण की परिभाषा जरूर बदल दी। वर्ण को जन्म से न जोड़कर उन्होंने उसे आचरण से जोड़ा। एक बात खासतौर पर देखने की यह है कि सभी वर्णों को परिभाषित करते हुए कहा कि सच्चाई को धारण किया व्यक्ति ही क्षत्रीय, वैश्य और शूद्र है। इसका अर्थ यह हुआ कि सच्चाई ही रविदास के लिए महत्त्वपूर्ण है। वे व्यक्ति को इसी आधार पर देखते थे।
वर्ण-व्यवस्था में सेापानिक क्रम है। संत रविदास ने वर्ण-व्यवस्था को जन्म के आधार पर तथा इसमें व्याप्त ऊंच-नीच को तो स्वीकार नहीं किया, लेकिन यह भी सच है कि उन्होंने वर्ण-व्यवस्था के खात्मे के लिए भी कोई संकेत नहीं किया। असल में कर्म के आधार पर वर्ण मानना व उनमें श्रेष्ठ-निम्न श्रेणी की मान्यता में मूलभूत अन्तर्विरोध यही है कि यदि कोई जन्म के आधार पर उच्च दर्जा पा ले तो कर्म के आधार पर उसे निम्न कैसे किया जाए? वर्ण-व्यवस्था के रहते समाज में भेदभाव व काम के छोटे-बड़े होने की मान्यता तो मिलती ही है। इसलिए समाज से भेदभाव व असमानता समाप्त करने के लिए वर्ण-व्यवस्था को ही समाप्त करना जरूरी है।
जाति की उत्पति का वर्ण से गहरा रिश्ता है। यूं कहना भी कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि वर्ण-व्यवस्था की कोख से ही जाति का जन्म हुआ है और असल में यह वर्ण-व्यवस्था का विस्तार ही है। जाति-प्रथा और वर्ण-व्यवस्था को अलग अलग भी मान लिया जाए तो दोनों में एक बात तो समान रूप से मौजूद है और वही बात सर्वाधिक आपत्तिजनक है कि यह वर्णों में भेदभाव है। एक वर्ण को दूसरे से श्रेष्ठ समझा जाता है। यहीं से पक्षपात, भेदभाव को मान्यता मिलती है अन्तत: जिसका विस्तार घृणा में होता है।
प्रत्येक समाज ने समय परिवर्तन के साथ परम्परागत तौर पर प्रचलित मान्यताओं और धारणाओं को अपने समय के अनुकूल परिभाषित किया है। धर्म-दर्शन से लेकर सामाजिक-सांस्कृतिक मान्यताओं तक में परिवर्तन किया है। किसी जमाने में धर्म को ही सत्य कहा जाता था, लेकिन रविदास ने इसे पलटकर सत्य को धर्म के रूप में स्थापित किया।
जिन्ह नर सत्त तियागिया, तिन्ह जीवन मिरत समान।
‘रविदास’ सोई जीवन भला, जहं सभ सत्त परधान।।
***
‘रविदास’ सत्त मति छांडि़ए, जौ लौं घट में प्रान।
दूसरो कोउ धरम नाहिं, जग मंहि सत्त समान।।
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जो नर सत्य न भाषहिं, अरू करहिं बिसासघात।
तिन्हहुं सो कबहुं भुलिहिं, ‘रविदास’ न कीजिए बात।।
भक्ति
संत रविदास ने कहा कि मानव-प्रेम ही ईश्वर की भक्ति है। जिस व्यक्ति के मन में मानव के प्रति प्रेम नहीं है वह चाहे जितनी मर्जी भक्ति कर ले, चाहे जितनी तपस्या कर ले उसको ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती।
बन खोजइ पिय न मिलहिं, बन मंह प्रीतम नांह।
‘रविदास’ पिय है बसि रह्यो, मानव प्रेमंहि मांह।।
रविदास ने मानव प्रेम को महत्त्व दिया और उसे ईश्वर की तपस्या के नाम पर किए जाने वाले कर्मकाण्डों से अधिक महत्त्वपूर्ण माना। रविदास ने कहा कि ईश्वर कहीं जंगल में गुम नहीं हुआ कि उसे ढूंढना है बल्कि वह तो एक भावना है जिसका संबंध मनुष्य के दिल से है।
रविदास ने मानव प्रेम को महत्त्व दिया और उसे ईश्वर की तपस्या के नाम पर किए जाने वाले कर्मकाण्डों से अधिक महत्त्वपूर्ण माना। रविदास ने कहा कि ईश्वर कहीं जंगल में गुम नहीं हुआ कि उसे ढूंढना है बल्कि वह तो एक भावना है जिसका संबंध मनुष्य के दिल से है। यदि वह अपने दिल की मैल साफ कर लेता है और मानव से प्रेम करने में उसे लगाता है तभी वह ऐसा कर सकता है। ईश्वर कोई ऐसी वस्तु नहीं है जिसे कि मनुष्य को प्राप्त करना है। मानवों के प्रति अपने प्रेममय आचरण से उस अहसास को पा सकता है।
ब्राह्मणवाद ‘शुचिता’ ‘पवित्रता’ का ढोंग रचता है। रविदास ने उसकी पोल खोलते हुए सवाल लगाया। वे पूजा में जो दूध का प्रयोग करते हैं, उसे बछड़ा झूठा करता है, फूलों को भंवरा झूठा कर देता है :
दूधु त बछरै थनहु बिटारिओ।
फूलु भवरि जलु मीनि बिगारिओ।।
माई गोबिन्द पूजा कहा लै चरावउ।
अवरु न फूलु अनूपु न पावउ।।
मैलागर बेर्हे है भुइअंगा।
बिखु अमृतु बसहि इक संगा।।
धुप दीप नईबेदहि बासा।
कैसे पूज करहि तेरी दासा।।
तनु मनु अरपउ पूज चरावउ।
गुर परसादि निरंजनु पावउ।।
पूजा अरचा आहि न तोरी।
कहि रविदास कवन गति मोरी।।
***
भाई रे भरम-भगति सुजान, जौ लौं सांच सूं नहिं पहिचान।।
भरम नाचन, भरम गावन, भरम जप, तप, दान।
भरम सेवा, भरम पूजा, भरम सूं पहचान।।
भरम षट-कर्म सकल संहितां, भरम गृह, बन जान।
भरम कर कर कर्म कीये, भरम की यह बान।।
भरम इन्द्री निग्रह कीयां, भरम गुफा में बास।
भरम तौ लौं जानिये, शून्य की करै आस।।
भरम शुध् शरीर तो लौं, भरम नांव बिनावं।
भरम मन ‘रैदास’ तौ लौं, जौ लूं चाहै ठांव।।
रविदास ने भक्ति के उन रूपों का खंडन किया, जिनमें बाहरी दिखावों पर जोर रहता है। भक्ति को परिभाषित करते हुए उन्होंने कहा कि जब मनुष्य में भक्ति कही जा सकती है, तो वह अपनी प्रशंसा त्याग देता है। रविदास ने कहा कि नाचने, गाने, तप करने, और पैर धोने से क्या होता है? सिर मुंडाने से कया होता है? तत्व को पहचानने में ही भक्ति हैं
भगति ऐसी सुनहु रे भाई।
आइ भगति तब गई बड़ाई।। टेक।।
कहा भयो नाचे अरू गाये, कहा भयो तप कीन्हे।
कहा भयो जे चरन पखारे, जौं लौं तत्व न चीन्हे।
कहा भयो जे मूंड मुंडायो, कहा तीर्थ व्रत कीन्हे।
स्वामी दास भगत अरू सेवक, परम तत्व नहिं चीन्हे।
कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै।
तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलिक ह्वै चुनि खावै।।
ऐसी भगति न होइ रे भाई।
राम नाम बिनु जो कछु करिये, सो सब भरमु कहाई।।
भगति न रस दान, भगति न कथै ज्ञान।
भगति न बन में गुफा खुदाई।।
भगति न ऐसी हांसी, भगति न आसा-पासी।
भगति न यह सब कुल कान गंवाई।।
भगति न इंद्री बांधा भगति न जोग साधा।
भगति न अहार घटाई, ये सब करम कहाई।।
भगति न इंद्री साधे, भगति न वैराग बांधे।
भगति न ये सब वेद बड़ाई।।
भगति न मूड़ मुंड़ाए, भगति न माला दिखाये।
भगति न चरन धुवाए, ये सब गुनी जन कहाई।।
भगति न तौ लौं जाना, आपको आप बखाना।
जोइ जोइ करै सो सो करम बड़ाई।।
आपो गयो तब भगति पाई, ऐसी भगति भाई।
राम मिल्यो आपो गुन खोयो, रिधि सिधि सबै गंवाई।।
कह रैदास छूटी आस सब, तब हरि ताही के पास।
आत्मा थिर भई तब सबही निधि पाई।।
***
भेष लिया पै भेद न जान्यो।
अमृत लेइ विषै सो मान्यो।।
काम क्रोध में जनम गंवायो।
साधु संगति मिलि राम न गायो।
तिलक दियो पै तपनि न जाई।
माला पहिरे घनेरी लाई।।
कह रैदास मरम जो पाऊं।
देव निरंजन सत कर ध्याऊं।।
संत रविदास ने धर्म के नाम पर बाहरी ढकोसलों का विरोध किया। संत रविदास ने कहा कि ईश्वर की भक्ति के लिए मंदिर या मस्जिद में जाकर सिर झुकाना जरूरी नहीं है। मंदिर या मस्जिद में जिस ईश्वर को विद्यमान समझकर सिर झुकाया जाता है वह तो सभी स्थानों पर विद्यमान है। धर्म-स्थलों की वास्तविकता को रविदास जानते थे। धर्म-स्थलों का और व्यक्ति की आध्यात्मिक-धार्मिक जरूरत का कोई अनिवार्य सम्बन्ध नहीं है।
देहरा अरु मसीत मंहि, ‘रविदास’ न सीस नंवाय।
जिह लौ सीस निवावना, सो ठाकुर सभ थांय।।
रविदास कर्मकाण्डी भक्ति को नहीं मानते थे, बल्कि वे आचरण में नैतिक मूल्यों को ही भक्ति मानते थे, इसलिए उन्होंने न तो ईश्वर का कोई रूप निश्चित किया और न ही किसी विशेष प्रकार के पूजा-विधान की वकालत की। इसके विपरीत उन्होंने कहा कि जब तक मन पवित्र नहीं है, तब तक ईश्वर नहीं मिल सकता। मन की पवित्रता का अर्थ यहां अपनी बुराइयों को दूर करने से है।
देता रहे हज्जार बरस, मुल्ला चाहे अजान।
‘रविदास खुदा नंह मिल सकइ, जौ लौं मन शैतान।।
***
जे ओहु अठि सठि तीरथ न्हावै। जे ओहु दुआदस सिला पूजावै।।
जे ओहु कूप तटा देवावै। करै निंद सभ बिरथा जावै।।
साध् का निंदकु कैसे तरै। सरपर जानहु नरक ही परै।।
जे ओहु ग्रहन करै कुलखेति। अरपै नारी सीगार समेति।।
सगली सिंमृति स्रवनी सुनै। करे निन्द कवनै नहीं गुनै।।
जे ओहु अनिक प्रसाद करावै। भूमिदान सोभा मंडपि पावै।।
अपना बिगारि बिरांना सांढै। करै निंद बहु जोनी हांढै।।
निन्दा कहा करहु संसारा। निन्दक का परगटि पाहारा।।
निन्दकु सोधा साधि वीचारिआ। कहु रविदास पापी नरकि सिधरिआ।।
श्रम की गरिमा
रविदास का संबंध समाज के ऐसे वर्ग से था जो कि मेहनत करके अपना पालन करता था। अपने अनुभव से ही सिद्घांतों को निर्मित किया था। बिना श्रम के खाने को उन्होंने हेय समझा। उन्होंने श्रम को ईश्वर के बराबर का दर्जा दिया।
जिह्वां सों ओंकार जप, हत्थन सों कर कार।
राम मिलहिं घर आई कर, कहि ‘रविदास’ बिचार।।
***
नेक कमाई जउ करहि, ग्रह तजि बन नंहि जाय।
‘रविदास’ हमारो राम राय, ग्रह मंहि मिलिंहि आय।।
***
‘रविदास’ स्रम करि खाइहि, जौ लौं पार बसाय।
नेक कमाई जउ करइ, कबहुं न निहफल जाय।।
रविदास ने कहा कि जहां तक हो सके व्यक्ति को श्रम करके खाना चाहिए। श्रम की कमाई को रविदास ने नेक कमाई कहा जो कभी निष्फल नहीं जाती। रविदास ने जहां इसकी ओर संकेत किया कि समाज में बिना श्रम के खाने वाले भी हैं, वहीं इसे बड़ी हेय दृष्टि से देखा और इसे बड़ा नेक कर्म माना। शोषणकारी सामाजिक व्यवस्था में बिना श्रम किए खाने वाले तो सम्मान पाते हैं और जो मेहनत करते हैं वे अपमानित होते हैं। जो जितनी अधिक मेहनत करता है, वह उतना ही पीडि़त होता है, उसका उतना ही अधिक शोषण होता है। दलित हमेशा समाज के निचले पाएदान पर रहे, इसलिए वे उच्च वर्ण के श्रेष्ठता-दम्भ का शिकार रहे। रविदास ने इस पीड़ा से छुटकारे के लिए मेहनत करने वाले वर्ग को सम्मान का दर्जा दिया।
रविदास ने श्रम को ईश्वर के बराबर दर्जा दिया जिसका अर्थ है कि श्रम करने वालों को समाज में उच्च स्थान पर बिठाना। अभी तक ‘पोथी’, ‘तप’, माला जपने को ही पूजा के तौर पर लिया जाता था और इसका प्रभाव यह होता था कि शारीरिक श्रम करने वालों को हेय नजर से देखा जाता था, जो उनके सामाजिक-आर्थिक शोषण को वैधता देता था। श्रम को सुख-चैन का आधार बताया। रविदास ने इस सच्चाई को भांप लिया था कि जो व्यक्ति बिना श्रम के संसार के ऐश्वर्य का आनन्द उठाता है वह कहीं न कहीं सुख से वंचित रहता है।
स्रम कउ ईसर जानि कै, जउ पूजहि दिन रैन।
‘रविदास’ तिन्हहि संसार मंह, सदा मिलहि सुख चैन।।
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प्रभ भगति स्रम साधना, जग मंह जिन्हहिं
तिन्हहिं जीवन फल भयो, सत्त भाषै ‘रविदास’।।
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धरम करम दुइ एक हैं, समुझि लेहु मन मांहि।
धरम बिना जौ करम है, ‘रविदास’ न सुख तिस मांहि।।
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‘रविदास’ हौं निज हत्थहिं, राखौं रांबी आर।
सुकिरित ही मम धरम है, तारैगा भव पार।।
***
रविदास ने राज्य के बारे में लिखा
ऐसा चाहौं राज मैं, जहां मिलै सबन कौ अन्न।
छोट बड़ो सभ सम बसैं, ‘रविदास’ रहैं प्रसन्न।।
रविदास को अपनी प्रसन्नता की उतनी चिन्ता नहीं थी, जितनी कि समस्त पीडि़तों-वंचितों की। असल में रविदास की प्रसन्नता तो सबकी प्रसन्नता में ही निहित है। राज से उनका अर्थ असल में मात्र शासन व्यवस्था से नहीं है, बल्कि समय से है, काल से है, व्यवस्था से है। भारतीय मानस इसी तरह अपनी आकांक्षा को अभिव्यक्त करता रहा है।
असल में ये केवल रविदास के ही नहीं, बल्कि उस पूरे वर्ग के विचार हैं, जिनसे रविदास ताल्लुक रखते थे और जिसका प्रतिनिधित्व करते थे। रविदास को अपनी प्रसन्नता की उतनी चिन्ता नहीं थी, जितनी कि समस्त पीडि़तों-वंचितों की। असल में रविदास की प्रसन्नता तो सबकी प्रसन्नता में ही निहित है। राज से उनका अर्थ असल में मात्र शासन व्यवस्था से नहीं है, बल्कि समय से है, काल से है, व्यवस्था से है। भारतीय मानस इसी तरह अपनी आकांक्षा को अभिव्यक्त करता रहा है।
रविदास ने बेगमपुरा नगर की कल्पना करके समाज के प्रति अपनी सोच को उजागर किया है। बेगमपुरा की कल्पना असल में एक फैंटेसी की तरह है। ऐसा नगर शायद ही दुनिया में कहीं मौजूद हो, लेकिन रविदास के मन व चेतना में उसकी स्पष्ट छवि है।
बेगमपुरा सहर को नाउ।
दुखु अंदोहु नहीं तिहि ठाउ।
नां तसवीस खिराजु न मालु।
खऊु न खता न तरसु जवालु।।
अब मोहि खूब वतन गह पाई।
ऊहां खैरि सदा मेरे भाई। ।
काइमु दाइमु सदा पातिसाही।
दोम न सेम एक सो आही।
आबादानु सदा मसहूर।
ऊहां गनी बसहि मामूर।।
तिउ तिउ सैल करहि जिउ भावै।
महरम महल न को अटकावै।
कहि रविदास खलास चमारा।
जो हम सहरी सु मीतु हमारा।।
गुरु रविदास ने जिस तरह के शहर की कल्पना की है, उस तरह से शायद ही किसी संत-भक्त या अन्य दार्शनिक ने की हो। वे मनुष्य को हर प्रकार के कष्ट से मुक्त देखना चाहते हैं। उनके दिमाग में एक न्यायपूर्ण समाज की कल्पना है, जिसमें ताकतवर और कमजोर दोनों रह सकते हों। जिसमें कोई ताकतवर कमजोर को न सताए, अपने बल का प्रयोग करके उसका जीना दूभर न कर दे। ताकतवर और कमजोर एक दूसरे के साथ सह-अस्तित्व के साथ रह सकें न कि एक दूसरे की कीमत पर।
इस तरह के समाज में तो सही मायने में समाजवाद की ही कल्पना की गयी है। काफी बाद में जाकर हम इस विचार को मुकम्मल दर्शन का और इसे प्राप्त करने के तरीकों व शक्तियों का विचार कर पाए हैं। गुरु रविदास ने समस्त समाज की सुखी रहने की स्वाभाविक वृति को इसमें व्यक्त किया है, लेकिन समाज में स्वार्थी शक्तियां भेदभाव पैदा करके अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए तत्वों का विरोध करने की प्रेरणा देता है।