ढकाइंच का भाषण
किसान बंधुओं,
आइए , अपना घर देखें। मरखप कर हमने आजादी हासिल की। मगर आजादी का यह सिक्का खोटा निकला। आजादी तो सभी तरह की होती है न ? भूखों मरने की आजादी , नंगे रहने की आजादी , चोर-डाकुओं से लुट-पिट जाने की आजादी , बीमारियों में सड़ने की आजादी भी तो आजादी ही है न ? तो क्या हमारी आजादी इससे कुछ भिन्न है ? अंग्रेज लोग यहाँ के सभी लोहे , कोयले , सीमेंट और किरासिन तेल को खा-पीकर तो चले गए नहीं। ये चीजें तो यहीं हैं और काफी हैं। फिर भी मिलती नहीं! जितनी पहले मिलती थीं उतनी भी नहीं मिलती हैं! नमक की भी वही हालत है। कपड़ा यदि मिलता है तो पारसाल से डयोढ़े दाम पर साहु बाजार में और उससे भी ज्यादा पर चोरबाजार में। क्या पारसाल से इस साल किसान के गल्ले वगैरह का दाम एक पाई भी बढ़ा है ? ऊख का दाम तो उलटे घट गया। तब खुद सरकार ने कपड़े का दाम इतना क्यों बढ़ा दिया ? जब चोरबाजार में सभी चीजें जितनी चाहो मिलती हैं तब तो उनकी कमी न होकर नए शासकों में ईमानदारी , योग्यता और नेकनीयती की कमी ही इसका कारण हो सकती है। लोगों में इन गुणों की कमी ठीक ही है ; क्योंकि ‘ यथा राजा तथा प्रजा ‘ ।
हमें आए दिन पुलिस और हाकिमों की झिड़कियों को सहना पड़ता है , बिना घूस के कोई भी काम हो नहीं पाता और मिनिस्टरों के पास पहुँच नहीं। रात में बदनाम चोर-डकैतों के मारे नाकोंदम है , खैरियत नहीं और दिन में इन नेकनाम डकैतों के डाके पड़ते हैं। मालूम होता है जनता की फिक्र किसी को भी नहीं है। खाना नहीं मिलता-महँगा होता जा रहा है। फिर भी ये मिनिस्टर बड़ी उम्मीदें बाँध रहे हैं कि वोट तो अगले चुनाव में इन्हें और इनके कठमुल्ले ‘ खाजा टोपी ‘ धारियों को जरूर ही मिलेंगे। जन साधारण को ये गधों से भी गए-बीते समझते जो हैं। यही है हमारी नई आजादी का नमूना और इसी का दमामा बजाया जाता है। किसान समझता था और मजदूर मानता था कि आनेवाली आजादी यदि चीनी-मिश्री जैसी नहीं तो गुड़ जैसी मीठी होगी ही। मगर यह तो हर हर माहुर साबित हुई जिससे हमारे प्राण घुट रहे हैं।
नग्न चित्र
साथियों,
आज मैं भारत के उन करोड़ों नर-नारियों-किसानों के प्रति श्रद्धा-भक्ति प्रकट करने के लिए यहाँ खड़ा हूँ जिन्होंने अपने निःस्वार्थ त्याग से─ उन्हीं के लिए त्याग जिन्होंने उनका सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक तरीके पर शोषण किया है और कर रहे हैं, और उनका सारा खून चूस चुके हैं─ मुझे और मेरे जैसे हजारों को अपना पुजारी बना लिया है। किसान न सिर्फ मानव व्यवहार की उन्हीं आवश्यक वस्तुओं के उपजानेवाले हैं जिनके अभाव में जीवन नष्ट हो जाता है, दिमाग काम नहीं करता और कोई भी अंग हिल नहीं सकता, बल्कि आधारभूत कच्चे माल के भी जो तैयार माल के रूप में बदल कर जीवनयापन को आसान और सुखद बना देते हैं, जिनके चलते हमारे विचार विस्तृत और परिष्कृत होते हैं, प्रगतिशील बनते हैं, और जिनने दुनिया को भूत और वर्तमान रूप दिया है। अपने पुत्र-पुत्रियों के द्वारा वे फैक्टरियों और खानों को चालू रखते, ऑफिस चलाते, और वर्तमान शासन-व्यवस्था की रक्षा के लिए─ इसके दुश्मनों को डराकर और जरूरत पड़ने पर हराकर भी─ उन्हीं पुत्र-पुत्रियों को फौजी गोली का शिकार बनाते हैं। ये वही हैं जो अपने खून को पसीना बना कर शासन-व्यवस्था के कामों और उन्हीं के आराम के लिए जो उन्हें अत्यंत निर्दयतापूर्वक पैरों तले रौंदते हैं। राजमहल, किले और गृह-निर्माण करते हैं। अपार धनराशि और साधनों के होते हुए भी यदि आज किसान उन बाबुओं से असहयोग कर लें, उन्हें चावल, गेहूँ, चना, तरकारी, दूध और उससे बने सामान देना बंद कर दें, तो वे एक भी प्रथम क्यों द्वितीय श्रेणी के भी, राजनीतिज्ञ, अर्थशास्त्री अथवा शासक, जिनका उन्हें गर्व है, पैदा कर नहीं सकते।
किसान न सिर्फ मानव व्यवहार की उन्हीं आवश्यक वस्तुओं के उपजानेवाले हैं जिनके अभाव में जीवन नष्ट हो जाता है, दिमाग काम नहीं करता और कोई भी अंग हिल नहीं सकता, बल्कि आधारभूत कच्चे माल के भी जो तैयार माल के रूप में बदल कर जीवनयापन को आसान और सुखद बना देते हैं, जिनके चलते हमारे विचार विस्तृत और परिष्कृत होते हैं, प्रगतिशील बनते हैं, और जिनने दुनिया को भूत और वर्तमान रूप दिया है।
उपर्युक्त बातों से मोटी अक्लवालों के लिए भी यह साफ है कि सिर्फ एक ही श्रेणी के लोग─ किसान ही हैं जिनके अनंत स्वार्थ-त्याग से ही यह दुनियाँ टिकी हुई है। सचमुच यह बड़े दुःख की बात है कि जबकि वे किसान अपने वार्षिक घरेलू बजट में दूसरे सबों के लिए पूरी ताकीद और गुंजाइश रखते हैं─ देवी और देवता, साधु और फकीर, भिखमंगे और नेता, पुलिस और मजिस्ट्रेट, शासक और शोषक, उपदेशक और गुरू और यहाँ तक कि मृतात्माओं के लिए भी, कोई किंचित मात्र भी उनके लिए परवाह नहीं करता और न उनके संबंध में कुछ क्षण सोचने-विचारने का कष्ट ही उठाता है। नहीं तो, यह पूरा-का-पूरा किसान वर्ग क्यों अधापेट खाकर अधनंगा रहता है? वे दूसरों को खाना, पहनना देते हैं तो क्या यह दूसरों के लिए न्याय और उचित है कि उनके लिए कुछ न करें? क्या किसानों का जो ऋण उन पर लदा है, उसे वे नहीं चुका सकते अथवा उन्हें नहीं चुकाना चाहिए? इस विषय में क्या वे सचमुच ही असमर्थ हैं? जबकि जमींदार और पैसेवालों के कुत्ते, बिल्ली, चूहे, शेर आदि किसानों की गाढ़ी कमाई पर गुलछर्रे उड़ाते हैं, क्या किसान इन जानवरों के व्यवहार में आने वाले अच्छे खान-पान और वस्त्र का एक भाग भी पाने के हकदार नहीं? क्या वे जमींदारों, राजाओं, महाराजाओं और अफसरों द्वारा प्यारभरी बातें सुनने के भी अधिकारी नहीं? क्या किसान जानवरों से भी कम उपयोगी और गए-गुजरे हैं?धनिकों के कुत्ते पहले दर्जे में सफर करते हैं और सोने के प्याले में दूध पीते हैं किंतु किसानों, उनके बच्चे-बच्चियों को तीसरे दर्जे में भी सफर करने का साधन नहीं ! उन्हें रोटी के टुकड़े के भी लाले पड़े हैं जबकि जमींदारों के कुत्ते अच्छी-से-अच्छी मोटरगाड़ी में उनकी गोद में बैठते हैं, किसान उन तक फटक भी नहीं पाते, उन्हें बैलगाड़ी तक नसीब नहीं यह बात किसी की बुद्धि में नहीं अँटती और इससे दिल के टुकड़े हो जाते हैं। इसे लोग दुर्भाग्य कहते हैं किंतु यह एकमात्र सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अंधेरखाता है।
चाहे जैसे हो, इसे तो बंद करना ही होगा और यह जितना शीघ्र बंद हो जाए, उतना ही अच्छा। और जब तक हम लोग, जो जन-सेवा के ठेकेदार होने का दम भरते हैं, बिना किसी हिचकिचाहट के इसकी पूरी कीमत चुकाने को तैयार न होंगे, इस अव्यवस्था, अंधेरखाता तथा समूचे गोलमाल का अंत होने की कोई आशा नहीं। इसी उद्देश्य की सिद्धि के लिए हमें ऐसे स्वार्थहीन किसान सेवकों की जरूरत है जो अपने जीवन को किसानों की सेवा में उत्सर्ग किए हों, गाँवों में धूनी रमाने के लिए व्याकुल हों और बिना किसी पारितोषिक के, लोभ के अपनी सारी शक्ति, चातुरी और अक्ल इस महान कार्य में लगा देनेवाले हों। सारांश हम हजारों किसान पुजारी चाहते हैं।
साभार- हिंदी समय