पिछली सदी के भारत के महानतम व्यक्ति के रूप में महात्मा गाँधी को याद किया जाता है. यद्यपि हमारे देश की आजादी की लड़ाई में असंख्य लोगों ने अपनी कुर्बानियां दीं, जिनमें से बहुत से लोग गाँधी की विचारधारा से सहमत भी नहीं थे फिर भी आजादी के आन्दोलन का नेतृत्व निर्विवाद रूप से गांधी ने ही किया. आन्दोलन की बागडोर उन्हीं के हाथ में थी. गाँधी का महत्व सिर्फ इसलिए नहीं है कि उन्होंने आजादी के आन्दोलन का नेतृत्व किया था, बल्कि दुनिया में उनका महत्व इसलिए भी है कि इतने बड़े देश की आजादी के आन्दोलन में कम से कम रक्त बहे, कम से कम हत्याएं हुईं. गाँधी से ही प्रेरणा लेकर दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मंडेला जैसे नेता ने आजादी की लड़ाई का सफल नेतृत्व किया. गाँधी के बारे में प्रख्यात वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था कि आने वाले लोग मुश्किल से इस बात में विश्वास करेंगे कि इस धरती पर हाड़ मांस का एक ऐसा भी व्यक्ति रहता था.
गाँधी ने इस देश के हर संवेदनशील व्यक्ति को प्रभावित किया था. उन्हें ‘महात्मा’ कहा गया और आजादी के बाद ‘राष्ट्रपिता’. गाँधी का जीवनदर्शन इस देश की पूरी एक पीढ़ी का संस्कार बन गया. ऐसी दशा मे जाहिर है साहित्य पर भी गाँधी के ब्यापक प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता.
गांधीवादी विचारधारा में कलाओं के साथ नैतिक संबंध अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है. इस संबंध में उनके ऊपर रस्किन एवं टालस्टॉय के विचारों की स्पष्ट छाप है. इसी कारण ‘कला कला के लिए’ जैसे सिद्धांतों के प्रति गांधी-दर्शन में कोई सहानुभूति नहीं मिलती. अस्तु, कला कुछ लोगों के आधिपत्य में ही न रहे, उसकी अपील सार्वभौम हो, तभी वह प्रकृति के सन्निकट पहुंच सकेगी, यह गांधी जी का आग्रह था. कलाकार जनता के प्रति अपने कर्तव्यों के विषय में सदैव जागरूक रहे, तभी कला अपनी सार्थकता प्रमाणित कर सकती है. गांधी ने कला की उपयोगिता को ही कला की श्रेष्ठता की कसौटी स्वीकार की है.
महात्मा गांधी की विचार पद्धति का ब्यापक नाम गांधीवाद है. समाज और शासन के संगठन तथा जीवन के अन्य अनेक पक्षों के बारे में गांधी जी के अपने विचार थे जिनका प्रतिपादन उन्होंने अपनी दैनिक साधना से गुजरते हुए किया था. मार्क्सवाद के समान कोई व्यवस्थित शास्त्रीय अध्ययन गांधीवाद के पीछे नहीं है, इसी कारण उसमें किसी प्रकार की तर्कजन्य पद्धति का अभाव है. उसका आधार तर्क नहीं, स्वानुभूति है. इस विचारधारा का प्रत्येक खंड आत्मशक्ति को लेकर चलता है. इसी कारण उसमें एक प्रकार की आध्यात्मिकता और विचार-स्वातंत्र्य है. गांधीवाद में लक्ष्य तक पहुंचने के लिए सत्य, अहिंसा और सेवा इन विशिष्ट साधनों का उपयोग आवश्यक माना गया है. गांधीवाद की सबसे बड़ी देन उसकी यह विचारधारा है कि हमको साध्य के साथ-साथ साधन की पवित्रता का भी ध्यान रखना चाहिए.
सर्वोदय, गांधी का सामाजिक आदर्श है. सर्वोदय का अर्थ है सबकी उन्नति और उसका ध्येय है, ह्रदय परिर्वतन. हृदय परिवर्तन अन्यायी, शोषक और अत्याचारी का. गांधीवाद के मूल स्तंभ दो हैं, सत्य और अहिंसा. सत्य का ही दूसरा नाम उन्होंने परमेश्वर माना है तथा समस्त सृष्टि में एक ही तत्व की व्याप्ति स्वीकार कर ईश्वर और मनुष्य तथा मनुष्य एवं अन्य जीवधारियों की एकता स्वीकार की है. उन्होंने अहिंसा को सत्य का दूसरा पहलू कहा है. अहिंसा में केवल द्वेष का अभाव ही नहीं, प्रेम की प्राप्ति भी है. यह प्रेम स्वार्थ, मोह, आसक्ति आदि से भिन्न होता है. इस अहिंसा में वैर-त्याग, चराचर-प्रेम और पूर्ण निष्काम भाव का समन्वय है. ऐसी अहिंसा की प्राप्ति के लिए गांधी ने आत्मशुद्धि को आवश्यक माना है और आत्मशुद्धि के लिए अन्य संतों की भांति अहं के त्याग को अनिवार्य माना है. अहंकार का त्याग, तप और भगवद्भक्ति से ही संभव है. तप के लिए राग-भोग का त्याग और आत्म-पीड़न करना होता है तथा उसके लिए शक्ति, भगवान पर अटल विश्वास होने से प्राप्त होती है. यह तप या आत्मशुद्धि केवल उसी व्यक्ति का कल्याण नहीं करती अपितु आत्मा की अखंडता के कारण सारे समाज का कल्याण करती है.
इस तरह गांधी के जीवन-दर्शन में त्याग और तप का प्राधान्य है तथा भोग और आनंद का तिरस्कार. कला में भी उन्होंने शिव और सत्य पर ही बल दिया, सुंदर को उन्होंने इन दोनों से या तो अभिन्न माना या अस्वीकार किया. गांधीवादी विचारधारा में कलाओं के साथ नैतिक संबंध अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है. इस संबंध में उनके ऊपर रस्किन एवं टालस्टॉय के विचारों की स्पष्ट छाप है. इसी कारण ‘कला कला के लिए’ जैसे सिद्धांतों के प्रति गांधी-दर्शन में कोई सहानुभूति नहीं मिलती. अस्तु, कला कुछ लोगों के आधिपत्य में ही न रहे, उसकी अपील सार्वभौम हो, तभी वह प्रकृति के सन्निकट पहुंच सकेगी, यह गांधी जी का आग्रह था. कलाकार जनता के प्रति अपने कर्तव्यों के विषय में सदैव जागरूक रहे, तभी कला अपनी सार्थकता प्रमाणित कर सकती है. गांधी ने कला की उपयोगिता को ही कला की श्रेष्ठता की कसौटी स्वीकार की है. कला का संबंध सौन्दर्य के साथ- साथ नीति, लोक- हित और उपयोगिता से है. गांधी के अनुसार संगीत इसलिए श्रेष्ठ है कि वह प्रार्थना और नैतिक उन्नति में सहायक है.उनका विश्वास है कि चित्र, गायन आदि बाह्य आकारों की अपेक्षा शुद्ध आचरण में अभिव्यक्त मनुष्य की नैतिक पवित्रता, कला का उच्चतर प्रकाशन है.वे भी समानता चाहते हैं परंतु उनकी समानता रामराज्य की समानता है. मार्क्स के साम्यवाद के प्रति उनका दृष्टिकोण सकारात्मक था किन्तु इसका कारण था वर्गहीन समाज का आदर्श. वे मानते हैं कि यह बेशक एक उत्तम आदर्श है और उसके लिए अवश्य कोशिश होनी चाहिए लेकिन जब इस आदर्श को हासिल करने के लिए हिंसा का प्रयोग हो तब गाँधी का रास्ता इससे अलग हो जाता है. हम सब जन्म से ही समान हैं. असमानता या ऊँच-नीच की भावना एक बुराई है. परंतु गाँधी इस बुराई को मनुष्य और मनुष्य के बीच तलवार के बल पर भगाने में विश्वास नहीं करते.
गांधी जी के अनुसार सच्चा प्रजातंत्र कभी भी हिंसा और दंड-विधान के बल पर कायम नहीं किया जा सकता. व्यक्ति के पूर्ण और स्वतंत्र विकास के लिए जनतांत्रिक समाज को परस्पर सहयोग और सद्भाव, प्रेम और विश्वास पर आधारित रहना चाहिए. मानवता का विकास इन्हीं सिद्धांतों के आधार पर आज तक हुआ है और आगे भी होगा. गांधी जी के अनुसार प्रजातंत्र, हिंसा के आधार पर टिक नहीं सकता. इसलिए इस पर किसी प्रकार का बाहरी दबाव हरगिज नहीं हो, यह तो स्वयं स्फूर्त होना चाहिए.
गांधी जी ने बार-बार कहा था कि मनुष्य का जन्म धर्म की साधना के लिए होता है और स्वयं अपने जीवन का उद्देश्य भी वे धर्म की ही उपासना मानते थे. मानवता से एकाकार हुए बिना वे धर्म पालन का मार्ग नहीं देखते. इसी कार्य के लिए उन्होंने राजनीति का क्षेत्र चुना क्योंकि इस क्षेत्र में मनुष्य से एकाकार होने की संभावना है. गाँधी जी के अनुसार मनुष्य की सारी चेष्टाएं, इसकी सारी प्रवृतियां एक हैं. समाज और राजनीति से धर्म अलग रखा जाए, यह संभव नहीं है. मनुष्य में जो क्रियाशीलता है, वही उसका धर्म भी है. जो धर्म, मनुष्य के दैनिक कार्यों से अलग होता है, उससे उनका परिचय नहीं.
वस्तुत: अच्छा गांधी मार्गी अच्छा हिंदू भी होता है और अच्छा मुसलमान भी. ईसाई धर्म प्रचारकों को लक्ष्य करके एक बार गांधी जी ने कहा था,” तुम हमें नया धर्म सिखाने को इतने आतुर क्यों हो ? हमें अच्छा हिंदू बनाओ, अच्छे नर-नारी बनाओ, यही यथेष्ट है. नाम के परिवर्तन से हृदय तो परिवर्तित नहीं होगा”
गाँधी के व्यक्तित्व का हिन्दी साहित्य पर व्यापक प्रभाव पड़ा. डॉ. मैनेजर पाण्डेय के अनुसार, “गाँधी जी लेखकों को लोक जीवन से जुड़ने, समाज के दबे- कुचले लोगों के बारे में सोचने, उपनिवेशवाद की दिमागी गुलामी से मुक्त होने, अपनी परंपरा की शक्ति को पहचानने, भारतीय समाज के रूढिवाद को जानने और जीवन के सभी प्रसंगों में साहसी आलोचनात्मक चेतना विकसित करने का जो आह्वान किया था, उसका व्यापक प्रभाव हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य पर है.” (गाँधी विचार और साहित्य, सुमन जैन, पृष्ठ-459)
हिंदी साहित्य में गांधी के व्यक्तित्व के अनेक पक्ष, उनकी व्यवहार-प्रक्रिया के विविध रूप तथा विचार-सरणि के अंश चित्रित हैं. प्रेमचंद के उपन्यासों और कहानियों में सत्याग्रह, ह्रदय-परिवर्तन, स्वाधीनता-संगाम में सत्य-अहिंसा के शस्त्रों का प्रयोग, आश्रमों की स्थापना द्वारा सुधार आदि गांधीवाद के अनेक पक्ष अभिव्यक्त हुए है. ’प्रेमाश्रम’, ‘कर्मभूमि’, ‘रंगभूमि’, ‘गबन’ जैसे उपन्यासों तथा ‘नमक का दारोगा’, ’समरयात्रा’ एवं अन्य कहानियों में गांधीवाद का व्यवहारपक्ष ब्यापक रूप से उभरकर आया है. कौशिक, सुदर्शन, भगवतीचरण वर्मा एवं जैनेंद्र आदि ऐसे कथाकार हैं जिनके साहित्य में गांधीवाद की अनेकश: और विभिन्न रूपों में अभिव्यक्ति हुई है. कवियों में मैथिलीशरण गुप्त की यशोधराऔर साकेत में गांधीवादी विचारों की सशक्त अभिव्यक्ति हुई है. बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, माखनलाल चतुर्वेदी, रामनरेश त्रिपाठी, बच्चन एवं सुमित्रानंदन पंत जैसे कवियों ने भी गांधीवाद को वाणी दी है. सियारामशरण गुप्त और जैनेंद्र पर गांधीवाद का सर्वाधिक प्रभाव है.
हमें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि हिन्दी आलोचना जगत में मार्क्सवादी, मनोविश्लेषणवादी आदि विदेशी दर्शनों से परिचालित आलोचना पद्धतियों की चर्चा तो विस्तार से की गई है किन्तु गाँधीवादी आलोचना पद्धति का कोई उल्लेख नहीं मिलता है, जबकि इस दौर के शान्तिप्रिय द्विवेदी, नंददुलारे वाजपेयी, रामस्वरूप चतुर्वेदी, नगेन्द्र, विजयदेवनारायण साही, विजयबहादुर सिंह, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, कृष्णदत्त पालीवाल जैसे प्रतिष्ठित आलोचकों पर गाँधी का व्यापक प्रभाव दिखाई देता है.
जब साहित्य की अन्य विधाओं पर गाँधीजी गहरा प्रभाव दिखाई देता है तो भला आलोचना उसके प्रभाव से वंचित कैसे रह सकती है ? हमें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि हिन्दी आलोचना जगत में मार्क्सवादी, मनोविश्लेषणवादी आदि विदेशी दर्शनों से परिचालित आलोचना पद्धतियों की चर्चा तो विस्तार से की गई है किन्तु गाँधीवादी आलोचना पद्धति का कोई उल्लेख नहीं मिलता है, जबकि इस दौर के शान्तिप्रिय द्विवेदी, नंददुलारे वाजपेयी, रामस्वरूप चतुर्वेदी, नगेन्द्र, विजयदेवनारायण साही, बिजयबहादुर सिंह, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, कृष्णदत्त पालीवाल जैसे प्रतिष्ठित आलोचकों पर गाँधी का ब्यापक प्रभाव दिखाई देता है.
सन् 1931 में ‘भारत’ का संपादन करते हुए वाजपेयी जी ने निराला, प्रसाद, मैथिलीशरण गुप्त और आचार्य रामचंद्र शुक्ल का मूल्यांकन किया था. तबसे 1967 ई. तक वे निरंतर आलोचना-कर्म में रत रहे. इसी बीच देश में आजादी की लड़ाई लड़ी गई जिसमें महात्मा गाँधी की नेतृत्वकारी भूमिका रही, द्वितीय विश्वयुद्द हुआ, देश भर में साम्प्रदायिक दंगे हुए, देश को आजादी मिली, हमारा अपना संविधान लागू हुआ. इस बीच हिन्दू राष्ट्रवाद के समर्थकों, सशस्त्र क्रान्ति में विश्वास करने वाले हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएसन के युवा नेताओं तथा वामपंथियों द्वारा गाँधी के नेतृत्व का निरंतर विरोध होता रहा किन्तु गाँधी जी अपने पथ से कभी भी विचलित नहीं हुए.
वाजपेयी जी के चिन्तन पर गाँधी जी के इस विराट व्यक्तित्व और विचारधारा का गहरा प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है. जब वे मार्क्सवाद से टकराते हैं तब सीधे सीधे उसके समानान्तर गाँधी के विचार-दर्शन का हवाला देने लगते हैं. वे कहते है, “आज के जनवादी लेखक को व्यक्तिगत त्याग और कष्ट सहिष्णुता अपनानी होगी. उसे प्रेमचंद और टॉलस्टाय के मार्ग पर चलना होगा. वह किसी मार्क्सवादी नुस्खे को लेकर काम नहीं कर सकता. उसे अब भी चरित्र और आचरण की आवश्यकता है. महान आदर्शों के पीछे जीवन के क्षुद्र स्वार्थों को मिटा देने की साधना करनी होगी. हम जिस जनवादी राष्ट्र या मानव समूह की कल्पना करते हैं, वह केवल आर्थिक दृष्टि से सुखी नहीं होगा, उसे पूर्णत: सांस्कृतिक और नैतिक मानव भी होना चाहिए. यहाँ भी मार्क्सवादी शिक्षाएं और उपचार मुझे तो अधूरे दिखाई देते है. उनसे तो गाँधी जी का सर्वोदय सिद्धान्त मुझे भारतीय जीवन के अधिक अनुरूप जान पड़ता है.” ( नया साहित्य : नये प्रश्न, पृष्ठ- 230)
इसी तरह आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी सन् 1930 के आस पास शान्तिनिकेतन में अध्यापन कार्य आरंभ करने के साथ- साथ लिखना शुरू किया था और 1979 ई. तक निरंतर साहित्य सृजन में रत रहे. आचार्य द्विवेदी भी महात्मा गाँधी से गहरे प्रभावित थे जिसका उन्होंने स्थान- स्थान पर जिक्र किया है. गाँधी जी के निधन के बाद उन्होंने लिखा, “वह जिधर मुड़ा जीवन लहरा उठा, वह जिधर झुका, प्रेम बरस पड़ा, वह जिधर चला, जमाना ढरक पड़ा. वह शक्ति का भंडार था, क्योंकि वह सच्चे अर्थ में भक्त था.”( ग्रंथावली, खंड-9, पृष्ठ-403)
आचार्य द्विवेदी जी ने सच्चे मन से महात्मा गाँधी के चरित्र का अनुसरण भी करना चाहा था, किन्तु वह संभव नहीं हो सका. उन्होंने स्वीकार किया है, “ मैने महात्मा जी के अनेक गुणों को अपने भीतर ले जाने का संकल्प कई बार किया है. संकल्पों की सच्चाई में मुझे रत्ती भर भी संदेह नहीं है. पर बड़ी जल्दी मैं विचलित हो गया हूँ.” ( ग्रंथावली, खंड-9, पृष्ठ- 408) महात्मा गांधी के बाद जिस व्यक्ति ने उन्हें सबसे ज्यादा प्रभावित किया वे हैं गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर. उन्होंने लिखा है, “ रवीन्द्रनाथ के सम्मान ने देशवासियों मे नवीन अपराजेय आत्मबल का संचार किया था. महात्मा गाँधी के सिवा और कोई दूसरा नेता नहीं है जिसने देश में आत्म-गरिमा का संचार किया हो, परन्तु रवीन्द्रनाथ की साहित्यिक कृतियाँ तो महत्वपूर्ण थीं हीं, उनका व्यक्तिगत जीवन उसी प्रकार महान् और प्रेरक था.” ( ग्रंथावली, खंड-9, पृष्ठ- 271) महात्मा गाँधी के जीवन से प्रेरणा लेते हुए उन्होंने कहा है, “ महात्मा जी ने केवल वाणी से नहीं, अपने संपूर्ण जीवन से यह दिखा दिया है कि मनुष्य के छोटे स्वार्थों का द्वंद्व बड़े सत्य का विरोधी नही है. इन छोटे स्वार्थों को व्याप्त करके अपना अंग बनाकर ही हृदयस्थित महा सत्य विराज रहा है. इनके भीतर से वह सेतु तैयार किया जा सकता है जो मनुष्य को मनुष्य से विच्छिन्न होने से बचाए.” ( ग्रंथावली, खंड-9, पृष्ठ- 412)
ये चंद उद्धरण काफी हैं गाँधी के व्यापक प्रभाव को समझने के लिए. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने पूरे विश्वास के साथ घोषित किया था कि मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है. जनपक्षधरता द्विवेदी जी के समस्त सृजन के मूल में है. उन्होंने लिखा है, “ मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ. जो वाग्जाल मनुष्य की दुर्गति, हीनता और परमुखापेक्षिता से बचा न सके, जो उसकी आत्मा को तेजोदीप्त न बना सके, जो उसके हृदय को परदुखकातर और संवेदनशील न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है.” ( ग्रंथावली, खंड-10, पृष्ठ-24) मानवतावाद संबंधी अपनी अवधारणा को स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं, “ मानवतावाद ठीक है, पर मुक्ति किसकी ? क्या व्यक्ति –मानव की ? सामाजिक मानवतावाद ही उत्तम समाधान है. मनुष्य को, व्यक्ति मनुष्य को नहीं, बल्कि समष्टि –मनुष्य को, आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक शोषण से मुक्त करना होगा – नान्य: पन्था विद्यते अयनाय.” ( ग्रंथावली, खंड-10, पृष्ठ-8) क्या गाँधीवाद का लक्ष्य इससे कुछ अलग है ?
डॉ नगेन्द्र ने तो अपने स्फुट निबंधों में प्राय: उन्हीं कवियों की समीक्षा की है जो गाँधीवाद से प्रभावित हैं. सुमित्रानंदन पंत, सियारामशरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर, हरिवंशराय बच्चन, नरेन्द्र शर्मा, रामेश्वर शुक्ल अंचल, गिरिजाकुमार माथुर आदि की समीक्षाएं इस तथ्य को प्रमाणित करती हैं. इसी तरह साकेत के सांस्कृतिक आधार का विवेचन करते हुए उन्होंने ‘धार्मिक’, ‘सामाजिक –राजनीतिक आदर्श’, ‘भौतिक जीवन’ के साथ ही ‘गाँधीवाद का प्रभाव’ की चर्चा की है और निष्कर्ष के रूप में कहा है, “अपनी संस्कृति का प्रभाव तो सभी कवियों पर थोड़ा –बहुत पड़ता है. परन्तु जिन मनस्वियों की कविता लोक –मंगल से प्रेरित होकर अपने देश और जाति की संस्कृति की प्रतिष्ठा एवं संरक्षा करती है वे अनेक नहीं होते. हमारे तुलसी, प्रसाद, मैथिलीशरण गुप्त ऐसे ही कवि हैं” (साकेत एक अध्ययन, पृष्ठ- 90)
इसी तरह रामस्वरूप चतुर्वेदी ने अपने अन्तिम दिनों में ‘माध्यम’ ( अक्टूबर-दिसंबर,2003 ) के अंक में ‘हिन्द स्वराज’ और ‘कम्युनिस्ट मैनीफेस्टो’ : 21वी शती में पर्यालोचन’ शीर्षक से एक विस्तृत तुलनात्मक लेख लिखा था. इस लेख को समाप्त करते हुए उन्होंने लिखा है, “यंत्र ने जन- जन को जीवन यापन की जितनी सुविधाएं सुलभ करायी हैं, उससे कुछ अधिक ही उनके हाथ में मारक –क्षमता भी दे दी है, जिसका चरम बिन्दु 11 सितंबर 2001 को न्यूयार्क –वाशिंगटन में आतंकवादी आक्रमण के समय, यंत्र के ही सौजन्य से –सीधे टेलीविजन प्रसारण में समूचे संसार ने दया और भय –यूनानी ट्रेजेडी के कारक द्वय – की मुद्रा में स्तब्ध होकर देखा. दया उन निर्दोष व्यक्तियों के लिए जो उन सौमंजिला इमारतों में बंद मौत की घड़ियां असहाय होकर गिन रहे थे, और भय अपने लिए कि कहीं ऐसी परिस्थिति में हमें न फँसना पड़े. यहीं यंत्र के परावर्तन और ‘हिन्द स्वराज’ की चरितार्थता की संभावना निहित है.” ( ‘माध्यम’, अक्टूबर-दिसंबर, 2003)
आलोचकों की इस परंपरा में आचार्य नंददुलारे वाजपेयी, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, विजयदेवनारायण साही, डॉ. नगेन्द्र, रामस्वरूप चतुर्वेदी, परशुराम चतुर्वेदी, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी आदि तो शामिल हैं ही, रघुवंश, विजयबहादुर सिंह, शंभुनाथ और गोपेशवर सिंह जैसे आलोचकों को भी रखा जा सकता है यद्यपि इनपर गाँधी की तुलना में डॉ. राम मनोहर लोहिया, आचार्य नरेन्द्रदेव आदि का प्रभाव अधिक दिखाई देता है.
इस तरह इस काल के अनेक आलोचकों पर महात्मा गाँधी के व्यापक प्रभाव को देखा जा सकता है. आलोचकों की इस परंपरा में आचार्य नंददुलारे वाजपेयी, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, विजयदेवनारायण साही, डॉ. नगेन्द्र, रामस्वरूप चतुर्वेदी, परशुराम चतुर्वेदी, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी आदि तो शामिल हैं ही, रघुवंश, विजयबहादुर सिंह, शंभुनाथ और गोपेशवर सिंह जैसे आलोचकों को भी रखा जा सकता है यद्यपि इनपर गाँधी की तुलना में डॉ. राम मनोहर लोहिया, आचार्य नरेन्द्रदेव आदि का प्रभाव अधिक दिखाई देता है. इसका कारण यह है कि मुझे बराबर लगता है कि लोहिया का दर्शन गांधी के दर्शन की ही अगली कड़ी है या उसी से नाभिनाल बद्ध है. दोनो का आदर्श राम- राज्य एक ही है जिसे तुलसी ने मानस में सृजित किया है. एक ऐसा राज्य जिसमें अमीर और गरीब के बीच कम से कम अन्तर हो, जहाँ ऊंच नीच के भेद न हों, जहाँ गाँव और शहर के बीच दूरी कम हो, जहाँ बेतहासा मशीनीकरण नहीं, ग्रामीण उद्योगों का विकास हो, शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी नहीं, मातृभाषाएं हों. हाँ, गाँधी की जीवन शैली कठिन थी, गाँधी ब्रह्मचर्य में विश्वास करते थे. इसीलिए गाँधी को महात्मा कहा जाता था. गाँधी की इस जीवन शैली को अपने जीवन में उतार पाना लोहियावादियों के लिए कठिन था. धर्म में, प्रार्थना में गाँधी की गहरी आस्था थी जबकि लोहियावादियों में इस तरह की आस्था के प्रति उदासीनता दिखाई देती है. इन थोड़े से भेदों के अलावा गाँधी और लोहिया के दर्शन में गहरी समानता है. यदि गाँधी न होते तो लोहिया भी न होते. वैसे भी लोग विनोबा भावे को मठी गाँधीवादी, नेहरू को सरकारी गाँधीवादी और लोहिया को कुजात गाँधीवादी कहते हैं. ऐसी दशा में लोहियावादियों को भी मैने गाँधीवादी आलोचकों की श्रेणी में ही रखना उचित समझा है किन्तु इसके बावजूद यदि कोई चाहे तो लोहियावादियों की एक अलग श्रेणी बना सकता है.
हाँ, एक बात का उल्लेख मैं यहाँ जरूर करना चाहूँगा कि साधन की पवित्रता पर गाँधी जी का जितना जोर था वह लोहियावादियों के लिए कभी संभव नहीं था. शायद यही कारण है कि लोहियावादियों का जितना नैतिक पतन बाद में हुआ और आज भी हो रहा है उतना भारत की किसी दूसरी विचारधारा को मानकर चलने वालों का नहीं हुआ.
(लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं.)