मेरे जीवन में वह शाम यादध्यानी योग्य है जो मुक्तिबोध की प्रसिद्धि का डंका नहीं बजने के पहले किसी अव्यक्त बानगी का शिकार हो गई होती। दिग्विजय महाविद्यालय के परिसर में अपने जिस पहले मकान में वे रहे थे, ठीक उसके पीछे बूढ़ासागर की पथरीली पटरियों पर बैठकर उस वक्त के शीर्षक ‘आशंका के द्वीपः अंधेरे में‘ वाली कविता का एकल श्रोता बनना मेरे नसीब में आया। वह कविता उनके मुझ युवा श्रोता-शिष्य में घबराहट, कोलाहल, आक्रोश और जुगुप्सा भरती गई थी। मैं राजनीतिक-सामाजिक विचारधारा के लिहाज़ से राममनोहर लोहिया के सबसे करीब था। मुक्तिबोध से लोहिया को लेकर कभी कभार सामान्य बात हुई होगी। उनके नहीं रहने के लगभग तीन वर्षों बाद लोहिया जी को मैंने मुक्तिबोध के बारे में बताया था। उन्हें इस बात का मलाल था कि ऐसे दुर्लभ कवि से उनका उतना प्रगाढ़ परिचय क्यों नहीं हो पाया जैसा उनके समकालीन अज्ञेय से था। साथ साथ अन्य कवियों से भी जिनमें श्रीकांत वर्मा, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना और विजय देवनारायण साही वगैरह कई थे। मुक्तिबोध का वह अविस्मरणीय काव्यपाठ तब तक चलता रहा, जब तक सूरज पूरी तरह बूढ़ासागर में डूब नहीं गया। एक अमर कविता के अनावृत्त होने के रहस्य को देखना कालजयी क्षण जीना था। मैं कविता का अमर श्रोता बना दिया गया। मैं एक साथ हतप्रभ, आतंकित और भौंचक था। बूढ़ासागर का वह रहस्यमय रचना-परिप्रेक्ष्य पूर्वजन्म की घटना या उपचेतन के विस्फोट की तरह मुक्तिबोध की यादों में गूंजता रहता है।
वस्तुतः ‘अंधेेरे में‘ आंतरिक उजास की कविता है। यह कविता भारतीय जनता का लोकतांत्रिक घोषणापत्र है।
वह कविता मैंने ‘चांद का मुंह टेढ़ा है‘ के संग्रह में शमशेर बहादुर सिंह की टिप्पणी के साथ कई बार पढ़ी। वह वाकई ‘गुएर्निका इन वर्स‘ ही है। उस कविता का मुझ पर इतना प्रभाव हुआ है कि मैं उसे किसी भी समाजचेता कविता का टचस्टोन (कसौटी) बनाता रहता हूं। मुझे पहली बार लगा था कि कविता हमारे पूरे अस्तित्व को न केवल झकझोर सकती है, बल्कि वह हमें अपनी वंशानुगत और पूर्वग्रहित धारणाओं तक की सभी मनःस्थितियों से बेदखल भी कर सकती है। पाठक या श्रोता का व्यापक मनुष्य समाज में गहरा विश्वास हो जाए और खुद उसमें किसी अणु के विस्फोट का संसार बन जाए-यह मुक्तिबोध की उस कविता का बाह्यांतरिक भूचाल है। वस्तुतः ‘अंधेेरे में‘ आंतरिक उजास की कविता है। यह कविता भारतीय जनता का लोकतांत्रिक घोषणापत्र है। उसकी अभिव्यक्ति, निष्पत्ति और उपपत्ति सभी कुछ उन तानोंबानों से बुनी है जो एक मनुष्य को दूसरे से अविश्रृंखलित मानव तारतम्यता से जोड़ती है। यह एक आंशिक और अपूर्ण लेकिन आत्मिक-लयबद्धता का ऐलान है। उसके पौरुष के उद्घाटन का वक्त हिन्दुस्तान की लोकशाही में जनता की यंत्रणा भोगती अनुभूतियों में न जाने क्यों उग नहीं रहा है! मुक्तिबोध संभावित जनविद्रोह की निस्सारता से बेखबर नहीं थे। इसलिए इस महान कविता में लाचारी का अरण्यरोदन नहीं उसकी हताशा की कलात्मक अनुभूति है। पराजित, पीड़ित और नेस्तनाबूद हो जाने पर भी आस्था और उद्दाम संभावनाओं की उर्वरता के यौगिक बिखेर देना भी कविता की रचनात्मक ज़िम्मेदारी होती है। यह तयशुदा पाठ इस विद्रोही कवि का ऐसा उद्घोष है जिसे जनसमर्थन तो चाहिए लेकिन जनआकांक्षाओं की अभिव्यक्ति के लिए वह प्रतीक्षा करने की स्थिति में नहीं है। ‘अंधेरे में‘ को जितनी बार और जितनी तरह से पढ़ा जाए उसकी दृश्य सम्भावनाओं, नाटकीयता और अतिरेक लगती संभाव्यता में मुक्तिबोध की कलम की बहुआयामिता का अनोखा और अकाट्य साक्ष्य गूंजता रहता है।
(फेसबुक से साभार)