रीतिमुक्त धारा के कवि आनन्दघन और सुजान

यह सूधौ सनेह कौ मारग है, इहां नैकु सयानप बांक नहीं
तुम कौन धौं पाटी पढे हौ लला, मन लेहु पै देहु छटांक नहीं ?

आनन्दघन ने अपनी कविता में तो अपनी छाप आनंदघन ही दी है, किन्तु साहित्यजगत्‌ में उनका घनानन्द नाम ही प्रसिद्ध है !हाँ   तो ,आनन्दघन [घनानंद] प्यार और सौन्दर्य के अनूठे कवि थे ।घनानन्द रीतिकाल के इतना प्रभावशाली कवि थे कि रीतिमुक्त-काव्यधारा में उनके साथ के बोधा और आलम जैसे एक दो कवि ही हैं

उनके कवित्त और सवैये भी गहरे प्यार में डूबे हैं 

यह सूधौ सनेह कौ मारग है, इहां नैकु सयानप बांक नहीं
तुम कौन धौं पाटी पढे हौ लला, मन लेहु पै देहु छटांक नहीं ?

कहते हैं कि मुगल बादशाह द्वितीय आलमगीर का मीरमुंशी था यह।
दरबार में एक नर्तकी थी – सुजान !घनानन्द उसे दिल दे बैठे थे ।इकतरफा प्यार था ।किसी ने बादशाह से कहा कि  जहांपनाह ! घनानन्द अच्छा संगीत जानता है ! जब बादशाह ने इससे गाने को कहा तो इसने कहा कि 
मैं भला संगीत क्या जानूं ? मैं तो मुंशी हूं !
कहनेवाले ने कहा –  हुजूर , सुजान को बुलवाओ , इसकी रागिनी उसे ही देख कर जगती है !
यह गाने लगेगा ! बादशाह का हुक्म था तो सुजान को आना ही था , सुजान आयी और घनानन्द की रागिनी तरंगित हो गयी ।

घनानन्द का संगीत कैसे शुरू हुआ। और उसका राग दरबार में कैसे रम गया ? और कैसे सब झूम गये ? घनानन्द को पता ही नहीं चला कि यही संगीत है ! सुजान बादशाह की ओर मुख किये बैठी थी और घनानन्द सुजान की ओर मुख किये गा रहा था !
दरबार की ओर पीठ करके बैठना तो बगावत थी , पर घनानंद को क्या खबर थी कि वह कहां है? बादशाह घनानन्द की इस गुस्ताखी से खफा हो गया !

बादशाह ने गाना सुनने के बाद कहा कि – तुम्हें देश-निकाले का दंड है, पर इनाम भी दूंगा , मांगो ! घनानंद ने कहा – मुझे तो सुजान ही चाहिये ! परन्तु सुजान ने साफ मना कर दिया ! तब यह वृन्दावन आकर रहने लगा किन्तु सुजान को नहीं भूल सका ! हां, सुजान का नाम अब भगवान का नाम बन गया।

जब अब्दाली का आक्रमण हुआ तब उससे किसी ने कह दिया कि घनानंद खजाना ले कर वृन्दावन भाग गया है। अब्दाली के लुटेरे सैनिकों ने वृन्दावन आकर इसको पकड लिया और कहा कि जर -जर [जर अर्थात दौलत ] घनानन्द ने वृन्दावन की रज उडाते हुए कहा कि रज-रज ! अन्त में जब अब्दाली के लुटेरे सैनिकों ने उसके हाथ काट दिये थे ,

तब इसने कहा –
प्रान करत प्रयान आज, चाहन चलत ये संदेसौ लै सुजान कौ ।

घनानन्द की कविता ने सुजान को अमर बना दिया है ।

राजेंद्र रंजन चतुर्वेदी

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