राजा आलोचना नहीं सुनना चाहता

राजा और उसके मन्त्री विलासी थे।

खजाना खाली हो गया। आश्रमों की वृत्ति बंद हो गयी।

ऋषि ने कहा कि  देश की संस्कृति और देश की प्रज्ञा को प्राण तो आश्रमों में ही प्राप्त होते हैं, हम आश्रमों को बंद नहीं होने देंगे। 

आश्रमों में ज्ञान की ज्योति जलती रही  लेकिन  राजा की आलोचना हुई कि उसने अपने दरबारियों के भोग विलास के लिये आश्रमों की वृत्ति बंद कर दी ।

राजा ने कहा मैं आलोचना नहीं सुनना चाहता।

मन्त्री ने कहा ज्ञान तो छिद्रान्वेषी होता है।आश्रम रहेंगे तब तक राजनीति की आलोचना का स्रोत नष्ट नहीं होगा।

राजा ने आदेश दिया कि जो इन आश्रमों को सहायता देगा वह दंडनीय होगा।

अब ब्रह्मचारियों को भिक्षा मिलना भी बन्द हो गया ।आश्रमों में उत्पादन का काम शुरू किया गया। 

एक दिन मन्त्री भ्रमण करने निकला उसने देखा कि आश्रमों में ज्ञान की ज्योति अभी भी जल रही है।

मन्त्री ने ऋषि की सेवा में जाकर कहा कि मैं आपसे एकान्त में कुछ कहना चाहता हूं ।

ऋषि ने कहा कि यह आश्रम है, यहां गुप्त-मन्त्रणा नहीं होती.आप  जो भी  कहना चाहें, सभी के सामने कहें ।

मन्त्री की दुविधा देख कर वहां के उपाध्याय स्वयं ही बाहर चले गये।

मन्त्री ने ऋषि से कहा कि  सबके सामने आपकी तारीफ कैसे करता?

बस,  इतनी सी बात कह कर मन्त्री तो चला गया।

अफवाह फैल गयी कि ऋषि को अलग से वृत्ति दी जायेगी।

अब आश्रम में सन्देह का बीज जम गया।

आचार्य आपस में ही लड़ने लगे, उनके गुट बन गये।

आपस में ही झगड़ा शुरू हो गया , ज्ञान की ज्योति मन्द हो गयी ।

राजा की आलोचना भी बन्द हो गयी।

राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी

राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी की फेसबुक वाल से ली गई है

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