देवेश पथ सारिया की दो कविताएं

देवेश पथ सारिया

शुद्धता एक मिथक है

 रिसर्च ने मुझे सिखाया
कि किसी परिणाम के कोई मायने नहीं
जब तक उसमें एरर ना बताई जाए
 
एक छोटे से स्केल से मापकर
फटाक से जो हम बोल देते हैं-
तीन सेंटीमीटर लंबाई
बिना एरर के वह बकवास है
 
एरर परिभाषित करने के तरीकों में है
यह भी कि दोहराते जाओ मापन का कार्यक्रम
अनंत बार में पहुंच जाओगे शुद्धतम मान तक
 
अनंत एक आदर्श स्थिति है
वह बस सैद्धांतिक हो सकती है
इसलिए शुद्धता भी एक मिथक है
 
बहुत करीब से देखने पर नहीं होता कुछ भी आदर्श
सममितता की होती है सीमा
माइक्रोस्कोप से देखने पर धूल
त्रिविमीय विस्तार में समान त्रिज्या की
गोलीय रचना नहीं होती
 
अच्छे कैमरे से जूम करके देखने पर
रेंगने वाला वह लंबा कीड़ा
मुझे दिखा
पुरानी हिंदी फिल्मों के खलनायक जैसा
दुराचारी नहीं
कैरीकेचर-सा
 
"घर-घर मिट्टी के चूल्हे हैं"
इससे आगे की पंक्ति
मुझे मेरे एक रिश्तेदार ने सुनाई थी-
"पैंट के नीचे सभई नंगे हैं"
 
उस दूर के रिश्तेदार को
मेरे क़रीबी रिश्तेदार
ख़ानदान की नाक कटाने वाला बताते थे

  कवि और कच्चा रास्ता

 कितना उपजाऊ है वह कच्चा रास्ता
जो कवि के घर के सामने से गुज़रता है
वहाँ दृश्य और कविताएँ उगती हैं
किसी भी लिहाज़ से
डामर से लिपी, पुती, चमकती सड़क से अधिक भाग्यशाली
दिन भर जीवन के कई दृश्य
ताकता है वहीं से
क़स्बे का कवि
कच्चे रास्ते का कवि
कच्चे रास्ते से चुनता है कविता के कंकड़
देखता है
हर रोज़ कमर पर बच्चा टिकाए
एक दिन का राशन ख़रीदने जाने वाली
औरत को
जिसकी साड़ी के छींटें
स्वाभिमान के रंग से पगे हैं
कभी उड़ आता है
धुएँ के साथ
गिनती भर मसालों से बघारी
सब्ज़ी का स्वाद
दिन ख़त्म होने के बाद
रोड लाइट की पीली उदास रोशनी मे
थके मज़दूरों को लौटते देखता है
रात गहराने पर
आवारा कुत्तों की धींगामुश्ती का गवाह बनता है
कवि जो तस्वीरें खींचने लगा है
कुछ दृश्य‌‌ कैमरे में उतार लेता है
जिन्हें देख लोग लिखते हैं कविताएँ
कुछ दृश्य, कोई गंध सिर्फ़ वही सहेज पाता है
हर दृश्य का मर्म कैमरा नहीं पकड़ पाता
किसी कैमरे का रेजोल्शयून
कवि के मन जितना कहाँ

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