वहां जाने का हमारा उद्देश्य बीते 14 सितम्बर, 2020 को घटित एक आपराधिक घटना जिसमें एक दलित लड़की मनीषा वाल्मीकि (काल्पनिक नाम) के साथ उसके ही गांव के तथाकथित सवर्ण (ठाकुर ) जाति के युवकों ने सामूहिक बलात्कार के पश्चात रीढ़ की हड्डी तोड़ दी और जुबान काट दी। पीड़िता ने 15 दिनों के बाद 29 सितम्बर को दिल्ली के सफ़दरजंग अस्पताल में दम तोड़ दिया। इसके पश्चात् यूपी पुलिस ने पीड़िता का शव बिना उसके परिवार की मर्जी के उसी रात करीब ढाई बजे जला दिया। जबकि उसके परिजन अंतिम समय तक विनती करते रहे कि उन्हें अपने रीति-रिवाज के अनुसार मनीषा का अंतिम संस्कार करने दिया जाय। सामूहिक बलात्कार की इस जघन्य घटना के संबंध में मीडिया द्वारा कई प्रकार की खबरें आशय प्रकाशित/प्रसारित की गयीं। इन खबरों से भ्रम की स्थिति उत्पन्न हुई।
तथ्यान्वेषी दल का उद्देश्य मृतका के गांव जाकर तथ्यों की तलाश करना और सामाजिक आर्थिक दृष्टि से उनका समाजशास्त्रीय विश्लेषण करना था।
घटना स्थल पर हमें वंचित बहुजन अघाड़ी के राष्ट्रीय अध्यक्ष व पूर्व सासंद प्रकाश आंबेडकर भी मिले। वे मनीषा के परिजनों से मिलने तथा उन्हें सांत्वना देने पहुंचे थे।
हाथरस से बूलगढ़ी गांव की दूरी लगभग 8 किलोमीटर है। हम जब हाथरस पहुंचे तो हमने देखा कि वहां से थोड़ी-थोड़ी दूरी पर पुलिसकर्मियों की सामूहिक तैनाती थी और जगह-जगह पर बैरिकेडर मिले। गांव से करीब 1 किलोमीटर पर ही पुलिस थाना चंदपा है, जहां मृतका के परिवार ने सबसे पहले सामूहिक बलात्कार और हिंसात्मक अत्याचार की प्राथमिकी दर्ज करायी थी।
मृतका के घर में ही तैनात एक पुलिसकर्मी ने बताया कि आरोपी पक्ष के लोगों ने अभी कुछ दिन पहले भी हमला करने की कोशिश की गई थी। इसलिए इनकी सुरक्षा बढ़ाई गई है। अगर पुलिस वाले की बात सच है तो मनीषा की भाभी तथा पिता का भय बिलकुल वाजिब है, क्योंकि जब इतने पुलिस बल की मौजूदगी में आरोपी पक्ष के लोग हमला करके धमका सकते हैं तो वे पुलिस के नहीं रहने पर क्या नहीं कर सकते।
बूलगढ़ी जाने वाले रास्ते से लेकर मृतका के घर तक भारी संख्या में पुलिसकर्मी तैनात दिखे। यह कहना गैरवाजिब नहीं कि पूरे गांव को ही पुलिस छावनी में तब्दील कर दिया गया है। गांव के अंदर घुसने से पहले ही पुलिस एवं इंटेलिजेंस ब्यूरो के कुछ लोगों ने हमारा परिचय लिखित में लिया। हमें बताया गया कि एक बार में केवल पांच लोगों को ही जाने दिया जा सकता है। हमें अपनी टीम को दो हिस्सों में विभाजित करना पड़ा और इसके लिए पृथक रूप से लिखित में सूचनाएं देनी पड़ी। तब हमें जाने की अनुमति दी गयी।
गांव में कुछ लोग बाजरे और धान की फसल काट रहे थे। गांव में दलितों के केवल चार ही घर हैं। गांव में अधिकतर घर पक्के हैं। घरों और रहन-सहन को देखते हुए ठाकुरों और दलितों में ज्यादा बड़ा अंतर नहीं दिखा। किन्तु आर्थिक और सामाजिक स्तर पर अंतर साफ़-साफ़ नज़र आता है। स्थानीय लोगों से जानकारी मिली कि गांव में 4 घर दलितों के, 2 घर प्रजापति जाति के लोगों के, एक घर नाई जाति, 20-25 घर ब्राह्मणों के तथा करीब 40 परिवार ठाकुरों के हैं।
मृतका के घर पहुंचने पर सबसे पहले एक बड़ा सा आंगन दिखा, जिसमें परिजनों से मिलने से पहले भी हम सभी को अपना नाम ,पद और फोन नंबर देना पड़ा। इस आंगन में एक ओर पुलिसकर्मियों के रहने का इंतज़ाम है। वहीं दूसरी ओर पीड़ित पक्ष के ही सदस्यों के दो कमरे हैं। एक ओर उनकी दो भेंसें और 4-5 बकरियां बंधी थीं। कई मुर्गियां भी थीं। वहां एक कोने में सूअरों के बाड़े भी बने हुए थे, किन्तु सूअर नहीं थे। जब एक पुलिसकर्मी से पूछा कि “ये भेंसें, बकरियां ओर मुर्गियां किसकी हैं तो उसने बड़े अनमने ढंग से जवाब दिया कि “इन्हीं लोगों (मृतका के परिजनों) के हैं। यह पूछने पर कि ये जो सूअर बाड़े बने हैं तो क्या ये लोग सूअर भी पालते हैं? उसने धीरे से कहा कि “यही तो..”। इसी बीच एक ने कहा कि “जिसका जो काम है वो तो करेगा ही”। उस पुलिस कर्मी ने यह भी कहा कि “यही तो बात है जी, देखो बराबरी तो न हो सके है .”
दल की सदस्या प्रो. सीमा माथुर ने जब पुलिस अधिकारी से पूछा कि आप लोग यहां कब से हैं तो वहां मौजूद एक अधिकारी ने बताया कि हम यहां 30 सितम्बर से हैं। आपका खाना पानी क्या यहीं इसी घर में होता है? पुलिस अधिकारी तुरंत बोला कि “नहीं जी, हमारा खाना तो बाहर से बन कर आता है। बाहर ही एक होटल है।” एक दूसरे पुलिसकर्मी ने कहा कि “जी, 150 लोगों की कंपनी है। सब का खाना वहीं से आता है।” पीने के पानी की समस्या बताते हुए उस पुलिसकर्मी ने कहा कि “पानी की यहां बहुत दिक्कत है। खुद हमारे लिए पीने का पानी नहीं मिलता। पानी तभी मिलता है जब बिजली रहती है।”
उक्त पुलिसकर्मी के कथनानुसार, गांव में बिजली की समस्या रहती है। परंतु हम लोगों देखा कि वहां दिन में भी बिजली के खंभों पर बल्ब जल रहे थे। हमने देखा कि मृतका के आंगन से लेकर पूरे घर में सात-आठ सीसीटीवी कैमरे लगे थे। उसी पुलिसकर्मी के कथनानुसार चार- पांच दिन से उस घर तथा उसके आसपास पूरी बिजली दी जा रही थी। उसी पुलिसकर्मी से पूछने पर कि आप को क्या लगता है? लड़की के साथ क्या हु? उस अधिकारी का कहना था कि “देखो जी, लड़की मारी तो गई है। किसने मारा, क्यों मारा? ये हमें नही पता .
हम मृतका के परिजनों से मिलने उसके घर में गए, जहां पहले से ही बड़ी संख्या में पुलिसकर्मी, मीडियाकर्मी और अन्य लोग मौजूद थे। हमने देखा कि घर में दो कमरे, बरामदा तथा एक बिना सुरक्षा दीवार की सीढ़ी बेशक परिजनों ने बना ली हैं, किन्तु रसोई और टॉयलेट अच्छी स्थिति में नहीं है। वहां हमने करीब चार फुट ऊंचा एक खुला स्नान गृह भी देखा।
मृतका के परिजनों में सबसे पहले हमने उसकी माँ से बातचीत की, जो केवल एक ही बात कहे जा रही थीं कि “मेरी बेटी के हत्यारों को सजा होनी चाहिए।फांसी की सजा। मेरी बेटी को न्याय मिले”। मीडिया में कहा जा रहा है कि वे और मृतका रात के नौ साढ़े नौ बजे खेतों में घास काटने गई थीं, इस बाबत पूछने पर मृतका की मां, और बुआ ने साफ़ इंकार करते हुए कहा कि दिन के साढ़े नौ दस बजे थे। मृतका की मां ने बताया कि “उन तीनों ने साथ मिलकर पहले थोड़ी घास काटी। फिर बेटी ने कहा कि अम्मा तुम्हीं काटो घास ,मैं नहीं काटती ,मुझे बहुत प्यास लगी है। मैं पानी पीने जाउंगी।” मृतका की मां के कथनानुसार उसकी बात सुनकर उसने अपने बेटे को पानी लेने घर भेज दिया। इसके बाद दोनों घास काटने लगे। घास काटते-काटते वह कुछ दूर हो गई। बाजरे के खेतों में नीचे बैठकर घास काटने के कारण किसी को देख नहीं सकी जब मनीषा के साथ आपराधिक कृत्य को अंजाम दिया गया। उसकी मां ने बताया कि गले में पड़ी चुन्नी के साथ उसे खींचा गया तथा उसका गला घोंटा गया।
मृतका की बुआ ने बताया कि “ये ठाकुर कह रहें हैं कि हमारी बेटी के साथ कोई बुरा काम इन्होंने नहीं किया ,रीढ़ की हड्डी नहीं तोड़ी। पुलिस भी इन्हीं के साथ मिली है और ये अख़बार वाले भी। आप उस जगह एक बार जाकर देखें जहां मनीषा के साथ दरिंदगी हुई। बाजरे का पौधा आदमी से भी ऊँचा होता हैं। जिस जगह यह हुआ है, वहां सारे पौधे दबे पड़े हैं।” उसने सवालिया लहजे में कहा कि “क्या किसी एक आदमी से ऐसा हो सकता था?”
मृतका की बुआ ने मनीषा की माँ के हवाले से कहा कि कुछ देर बाद जब वह घास की ढेरी के पास पहुंची तो वहां मनीषा की एक चप्पल पड़ी थी, जिसे देखकर वह घबराई।मनीषा को आवाज दी। वहां से सड़क तक आकर और गांव के एक बच्चे से मनीषा के बारे में पूछा कि क्या मनीषा घर पर है। उस बच्चे ने पूछ कर बताया कि मनीषा घर पर नहीं है। तब वे उसी बच्चे को अपने बेटे को बुलाने का कहकर फिर से वहीं वापस उसे ढूंढने लगी तो पाया कि जहां एक चप्पल पड़ी है, वहीं से ऐसा लगा जैसे कुछ जबरदस्ती घसीटा गया है। जब वे वहां से थोड़ी दूर अंदर गई तो देखा कि मनीषा अचेत और घायल अर्धनग्न अवस्था में वहां पड़ी थी। बड़ी मुश्किल से परिजनों द्वारा उसे उठाकर थाना ले जाया गया तथा पुलिस को इसकी सूचना दी।
मृतका की मां ने बताया कि 14 सितंबर को थाने में भी पुलिस ने उपेक्षापूर्ण व्यवहार किया। रिपोर्ट दर्ज करने में देरी की गयी तथा अस्पताल भेजने में भी। वहीं मृतका के भाई ने बताया कि अस्पताल में इलाज में कोतही बरती जा रही थी। वहीं मृतका की भाभी ने बताया कि जब हमें जानकारी मिली कि मनीषा की मौत हो गई है तो हमलोग उसका शव घर लाना चाहते थे पर पुलिस अधिकारी ने डांटते और धमकाते हुए कहा कि “कभी पोस्टमार्टम की हुई लाश देखी है? पता है तुम्हे कैसी होती है? तुम नहीं देख पाओगी। सब कुछ चीर-फाड़ रखा है। सब कुछ निकाल रखा है।”
मनीषा के माँ-पिता, बहन, भाई, भाभी और बुआ सबने कहा कि उनकी केवल एक ही मांग है कि दोषियों को जल्द से जल्द कठोर से कठोर सजा हो तांकि उनकी बेटी के साथ न्याय हो सके।
मृतका के घर में ही तैनात एक पुलिसकर्मी ने बताया कि आरोपी पक्ष के लोगों ने अभी कुछ दिन पहले भी हमला करने की कोशिश की गई थी। इसलिए इनकी सुरक्षा बढ़ाई गई है। अगर पुलिस वाले की बात सच है तो मनीषा की भाभी तथा पिता का भय बिलकुल वाजिब है, क्योंकि जब इतने पुलिस बल की मौजूदगी में आरोपी पक्ष के लोग हमला करके धमका सकते हैं तो वे पुलिस के नहीं रहने पर क्या नहीं कर सकते।
मनीषा के पिता ने हमें बताया कि उनके पांच बच्चे हैं जिनमें तीन लड़कियां और दो लडके हैं। मनीषा इनमें सबसे छोटी थी। दो लड़कियां और एक लड़का विवाहित है। उनके लड़के के यहाँ अभी तीसरी बेटी हुई है,जो घटना वाले दिन केवल 12 दिन की थी। परिवार की आर्थिक स्थिति पूछने पर उन्होंने बताया उनका जन-धन योजना के तहत खाता है, जो जीरो बैलेन्स पर खुलता है। इस घटना के बाद जो भी पैसा आया लड़की की मां के खाते में आया, जो कि अभी सील है, क्योंकि उसमे एक लाख से ज्यादा राशि नहीं रखा जा सकता है। दोनों बेटों का प्राइवेट काम था, वह भी छूट गया। परिवार की आर्थिक स्थिति बेहद चिंताजनक है।
परिवार के अन्य सदस्यों से बात करने पर कुछ ऐसी बाते भी सामने आई कि गांव में रहने वाले इन बाल्मीक परिवारों ने अपने पुश्तैनी धंधों को छोड़कर गांव से बाहर जा कर कमाना शुरू कर दिया था। वहीं कुछ सूअर पालन छोड़ भैंस, बकरी और मुर्गी पालन करते हैं। इन सबसे उनके जीवन स्तर में बदलाव आने लगा था। कदाचित यह मुमकिन है कि इस कारण भी आरोपी पक्ष पीड़ित पक्ष से ईर्ष्या रखता हो।
हमारी मौजूदगी में ही पीड़ित परिवार से वहां तैनात पुलिस अधिकारी ने दोपहर 2:30 बजे सम्बंधित कैसे की सुनवाई के लिए लखनऊ चलने के किये कहा। इस पर मृतका की भाभी ने स्पष्ट इंकार करते हुए कहा कि “हम अब नहीं जाएंगे, कल सुबह जल्दी जाएंगे। मुझे किसी पर विश्वास नहीं है। मेरे परिवार की जान को खतरा है। मुझे उनकी सुरक्षा चाहिए। पुलिस के बहुत कहने पर भी परिवार वाले शाम को जाने के लिए राज़ी नहीं हुए। पत्रकारों ने जब मृतका के परिवार से पूछा कि क्या पुलिसवालों ने पहले नहीं बताया कि आपको आज जाना है? क्या आप तैयार नहीं थे? मृतका के भाई का कहना था कि हम सुबह छह बजे से तैयार हैं। कोई नहीं आया ले जाने।
स्थितियों को और विस्तार से समझने के लिए हम गांव के अंदर गए, तो पाया कि गाँव में नालियां कच्ची हैं। जबकि ज्यादातर घर पक्के हैं। कुछ घर बनते हुए भी दिखे। गांव में अंदर की तरफ कुम्हारों और ठाकुरों के घर आमने-सामने हैं। किन्तु एक बड़ा अंतर इस गांव में यह दिखा कि दलितों के घर कुम्हारों के घरों से ज्यादा बड़े और पक्के दिखे। किन्तु जब हमने कुम्हार जाति की एक महिला से इस घटना के बारे में बात की तो उसने केवल इतना कहा कि “भंगियन की लड़की मार के जला दी है, हमें बस इतना पता है।” किसने जला दिया? यह पूछने पर उसने कहा “कहत हैं कि पुलिस ने जला दी बाकी हम तो उस तरफ जाते नहीं। इसलिए ज्यादा नहीं जानते।” सामने की तरफ अपनी चौखट में खड़ी स्त्री की ओर इशारा करके कहने लगी कि उनसे पूछ लो ..
कुछ घरों के सामने से गुजरते हुए वहां बने शौचालयों पर नज़र पड़ी, जो सरकारी योजना के तहत बनाए गए थे। उनका नाम दिया गया था- ‘इज़्ज़त घर ‘। पढ़ते ही ज़ेहन में कई सवाल उभरे…इज्जत ? औरत ? दलित स्त्री??
वह स्त्री हमें देख कर अपने घर के गेट पर घुंघट करके खड़ी थी। उसने कहा कि “देखो जी, हम तो घर के बाहर भी नहीं निकलते। वो तो आप लोगों को जाते देखा तो आ गई। बाकी हमारे डोकर (पति) तो सारा दिन खेत में रहे। भंगियन के थोड़े से घर हैं। वे भी बाहर की तरफ। हमें उनसे क्या मतलब।”
वहीँ हमें ठाकुर परिवारों की कुछ लड़कियां पास लगे हैंडपंप से पानी भरती दिखीं। पोशाक से शहरी सभ्रांत दिखने वाली किशोरियों ने बताया कि वे दसवीं की छात्रा हैं जो गांव से 4 किलोमीटर दूर श्री जवाहर स्मारक इंटर कॉलेज में पढ़ने जाती हैं। गाँव में प्राथमिक स्तर की पाठशाला है, जिसमें केवल शिक्षकों का पदस्थापन है।
कुछ घरों के सामने से गुजरते हुए वहां बने शौचालयों पर नज़र पड़ी, जो सरकारी योजना के तहत बनाए गए थे। उनका नाम दिया गया था- ‘इज़्ज़त घर ‘। पढ़ते ही ज़ेहन में कई सवाल उभरे…इज्जत ? औरत ? दलित स्त्री??
हमने वहां तैनात पुलिस कर्मियों से दुर्घटना स्थल तथा उस स्थान के विषय में भी जानना चाहा जहाँ मृतिका को बिना उसके परिवार की मर्ज़ी के जलाया गया था .किन्तु पुलिस ने दोनों ही स्थानों के विषय में जानकारी देने से यह कहते हुए इंकार कर दिया कि उनकी ड्यूटी रोज़ बदलती है कोई भी पुलिस कर्मी एक स्थान पर नहीं रहता . उनका यह तर्क हमें बेहद आश्चर्यजनक एवं हास्यास्पद लगा.
बूलगढ़ी गांव अन्य गांवों की अपेक्षा एक छोटा गांव हैं, लेकिन आर्थिक रूप से संपन्न गाँव है। गांव में ब्राह्मणों के घर सबसे ज्यादा समृद्ध दिखे, जिनमें कुछ घर पचौरी ब्राह्मणों के थे।
कुल मिलाकर गांव में जातीय वर्चस्व साफ़ तौर पर दिखा। इसकी शिकार महिलाएं भी थी। जातीय पितृसत्ता का प्रभाव कुम्हार तथा ठाकुर जाति की दोनों महिलाओं से बात करने पर भी स्पष्ट दिखा।
परिजनों तथा गांव के लोगों से बातचीत के अधार पर हम यह मांग करते हैं कि:
सरकार पीड़ित पक्ष के जान-माल की सुरक्षा सुनिश्चित करे। इसके लिए गांव में एक पुलिस चौकी की स्थापना हो।
सरकार पीड़ित पक्ष को तत्काली वित्तीय सहायता उपलब्ध कराए। उनके सामने रोजी-रोटी का संकट है।
सरकार बूलगढ़ी गांव में एक मृतका के नाम पर स्वास्थ्य केंद्र और हाई स्कूल की स्थापना करे।