धर्म में लिपटी वतनपरस्ती क्या-क्या स्वांग रचाएगी – गौहर रज़ा

गौहर रज़ा
 धर्म में लिपटी वतनपरस्ती क्या-क्या स्वांग रचाएगी,
मसली
कलियां झुलसा गुलशन ज़र्द खिजां दिखलाएगी।
यूरोप
जिस वहशत से अब भी सहमा-सहमा रहता है,
खतरा
है वो वहशत मेरे मुल्क में आग लगाएगी।

दोस्तों, मुझे जर्मनी जाने का मौका मिला। मैंने वहां दो-तीन चीजें कही थी कि मैं उनके बिना हिन्दोस्तान नहीं जाऊंगा। जिसमें से एक चीज यह थी कि मैं बर्ताेल्त ब्रेख्त की कब्र पर फूल चढ़ाए बिना वापिस हिन्दोस्तान नहीं जाऊंगा और दूसरी बात यह थी कि मैं बिना गैस चैंबर देखे बिना नहीं जाऊंगा। यकीन जानिए, वहां जो मैंने देखा मैं तीन दिन तक सो नहीं पाया।

 जर्मन गैसकदों से अब तक खून की बदबू आती है,
अंधी वतन परस्ती हमको उस रस्ते ले जाएगी
अंधे कूएं में देश की नाव तेज चली थी मान लिया,
लेकिन बाहर रोशन दुनिया तुमसे सच बुलवाएगी।
नफरत में जो पले बढ़े हैं नफरत में जो खेले हैं
नफरत देखो आगे-आगे उनसे क्या करवाएगी।

फनकारों के बारे में बात करें तो जर्मन के फनकार तैयार नहीं थे। मुझे फख्र है कि मेरे मुल्क के फनकार, आर्टिस्ट व बुद्धिजीवी तैयार हैं। अगर सबसे पहले फासीवाद के खिलाफ आवाज उठी तो हिन्दोस्तान के फनकारों की तरफ से उठी।

 फनकारों से पूछ रहे हो क्यों लौटाए हैं सम्मान
पूछो कितने चुप बैठे हैं शर्म उन्हें कब आएगी
ये मत खाओ वो मत पहनो इश्क तो बिल्कुल करना मत
देशद्रोह की छाप तुम्हारे दामन पर लग जाएंगी
ये मत भूलो अगली नस्लें रोशन शौला होती हैं
आग कुरेदोगे चिंगारी दामन तक तो आएगी

एक नज़्म जो कि फैज़ साहब को समर्पित है। फैज़ साहब के शुरुआती संग्रह में एक नज़्म है – इंतिसाब यानी डेडिकेशन। उन्होंने अपनी पूरी शायरी को समर्पित किया है, वह इस नज़्म में है। मेरे ख्याल से इससे खूबसूरत डेडिकेशन मैंने कहीं और किसी और जुबान में नहीं पढ़ा। उनकी नज़्म की दो पंक्तियां हैं-

  जर्द पत्तों का बन जो मेरा देश है
दर्द की अंजुमन जो मेरा देश है


इसके बाद वे बहुत कुछ लिखते हैं-

पोस्ट-मैनों के नाम
ताँगे वालों का नाम
रेल-बानों के नाम
कार-ख़ानों के भूके जियालों के नाम..
दहक़ाँ के नाम
जिस के ढोरों को ज़ालिम हँका ले गए
जिस की बेटी को डाकू उठा ले गए


वो काफी लंबी कविता है..

जर्द पत्तों का बन-
ज़र्द पत्तों का बन जो मेरा देस है
दर्द की अंजुमन जो मेरा देस है
जब पढ़े थे ये मिसरे तो क्यों था गुमाँ
ज़र्द पत्तों का बन, फ़ैज़ का देस है
दर्द की अंजुमन, फ़ैज़ का देस है
बस वही देस है,
जो कि तारीक है
बस उसी देस तक है
खिज़ाँ की डगर
बस वही देस है ज़र्द पत्तों का बन
बस वही देस है दर्द की अंजुमन
 
मुझ को क्यों था गुमां
के मेरे देस में
ज़र्द पत्तों के गिरने का मौसम नहीं
मुझ को क्यों था यक़ीं
के मेरे देस तक
पतझड़ों की कोई रहगुजऱ ही नहीं
इस के दामन पे जितने भी धब्बे लगे
अगली बरसात आने पे धुल जाएँगे
 
अब जो आया है पतझड़
मेरे देस में
धडक़ने जिंदगी की हैं
रुक सी गयीं
ख़ंजरों की ज़बान रक़्स करने लगी
फूल खिलने पे पाबंदियाँ लग गयीं
क़त्लगाहें सजाई गईं जा-ब-जा
और इंसाफ़ सूली चढ़ाया गया
ख़ून की प्यास इतनी बढ़ी, आखऱिश
जाम-ओ-मीना लहू से छलकने लगे
 
नाम किसके करूँ
इन ख़िज़ाओं को मैं
किस से पूछूँ
बहारें किधर खो गयीं
किस से जाकर कहूँ
ज़र्द पत्तों का बन, अब मेरा देस है
दर्द की अंजुमन, अब मेरा देस है
 
ऐ मेरे हमनशीं
ज़र्द पत्तों का बन, दर्द की अंज़ूमन
आने वाले सफ़ीरों की क़िस्मत नहीं
ये भी सच है के उस
फ़ैज़ के देस में
चाँद ज़ुल्मत के घेरे में कितना भी हो
नूर उसका बिखरता है अब भी वहाँ
पा-बा-जोलाँ सही, फिर भी सच है यही
ज़िंदगी अब भी रक़साँ है उस देस में
क़त्लगाहें सजी हैं अगर जा-ब-जा
ग़ाज़ियों की भी कोई, कमीं तो नहीं
 
और मेरे देस में
रात लम्बी सही,
चाँद मद्धम सही
मुझ को है ये यक़ीं
ख़लक़ उठेगी हाथों में पर्चम लिए
सुबह पाज़ेब पहने हुए आएगी
रन पड़ेगा बहारों-खिजाओं का जब
रंग बिखरेंगे, और रात ढल जाएगी

इस्लाम मजहब में एक शब्द है – मुन्किर। जो खुदा से इन्कार कर दे। यह सबसे बड़ा जुर्म है। इसकी एक ही सजा कत्ल की सजा है। मुन्किर होना सबसे बड़ा जुर्म है। अगर किसी का खुदा यह कहता है कि स्कूल में जाकर बच्चों को कत्ल कर दो। तो मैं फिर मुन्किर ही अच्छा हूँ। अगर किसी का राम यह कहता है कि औरत के गर्भ से बच्चा निकालो, उसे उछालो और उसके खून से राम का नाम लिखो तो मैं फिर नास्तिक ही ठीक हूँ।

लहू में डूबे ये हाथ कब तक कहेंगे
खुद को धर्म का चालक
खुदा-ए-बरतार का नाम लेवा,
मनु के कदमों पे चलने वाला
कहेंगे कब तक ये राम-ओ-ईसा का खुद को पैरोकार
ये मंदिरों से ये मस्जिदों से,
ये हर कलीसा से उठ के कब तक
तेरे ही नारे लगा-लगा कर,
तेरे घरों को गिरा-गिरा कर
तेरे ही बंदों का कत्ल करके
ये बस्तियों को जला-जला कर
करेंगे दावा तेरी मोहब्बत,
तेरी इनायत, तेरी रफाकत,
तेरी इबादत का सर उठाकर
लहू में डूबे ये हाथ कब तक,
ये हाथ उठते हैं जब दुआ को
मैं कांपता हूँ कि अबकी बिजली कहां गिरेगी
मैं तुझसे मुन्किर हुआ कि अब तो,
मेरी अकीदत, मेरे यकीं की हर एक सीमा
कि सब्रो-ईमान की हद से बाहर
हजारों मुन्किर खड़े हुए हैं,
जो नाम लेवा हैं अब भी तेरे
ये बांटते हैं घने अंधेरे,
वो जुल्मतों से उलझ रहे हैं।

दोस्तो, जो सम्मान यहां दिया गया है.. मैं इसके लिए आयोजकों के साथ-साथ आप सब साथियों का शुक्रगुजार हूँ। मैं यह सुनता रहा कि हरियाणा में एक अद्भुत कार्यक्रम होता है। और हमेशा दिल में ये आस रही कि शायद मुझको भी बुलाया जाएगा। इसलिए आज यहां आकर आपके बीच में बहुत सम्मानित महसूस कर रहा हूँ।

आज हम इस देश में एक भयंकर वक्त से गुजर रहे हैं, जब सिर्फ उन लोगों के ऊपर नहीं जो कविताएं लिखते हैं, जो गाने गाते हैं, जो म्यूजिक करते हैं, जो फिल्में बनाते हैं, जो कहानियां लिखते हैं। खाली उन पर ही हमला होता तो हम सह लेते। यह हमला इस मुल्क के विचार के ऊपर है, यह हमला इस मुल्क के ख्वाब के ऊपर है। उन सारे शहीदों के ख्वाब के ऊपर है, जिन्होंने ये मुल्क बनाया। ये उन सब लोगों के ऊपर हमला है, जिन्होंने देश को बनाया। आखिर में यह सबसे बड़ा हमला है – देश के संविधान के ऊपर। हम ऐसे वक्त से गुजर रहे हैं, जब कविता को भी खड़ा होना पड़ेगा, कहानी को खड़े होना पड़ेगा और इस मुल्क के हर शहरी को खड़ा होना पड़ेगा।  

दोस्तो, फासीवाद के बारे में बहुत बातें हो चुकी। बहुत चिंताएं जताई जा चुकी और अब कम से कम उत्तर भारत में मुझे लगता है कि यह फासीवाद शब्द लोगों की विचारधारा का हिस्सा बन रहा है कि फासीवाद कोई चीज होती है। मेरा मानना यह है कि फासीवाद हमेशा लोकतंत्र की कोख से ही जन्म लेता है। जिसका मतलब यह हुआ कि फासीवाद हाशिये पर हर लोकतंत्र के अंदर मौजूद रहता है। लेकिन जब ये हाशिये से निकल कर सत्ता के गलियारों तक पहुंच जाता है तो इसका एक भयंकर रूप लोगों के बीच आना शुरू होता है। अगर यह बात मान ली जाए तो फिर हमें फासीवाद को दो तरीके से देखना बहुत जरूरी है।

एक फासीवाद विचारधारा है जो लगातार जनतंत्र के बीच में पनपती रहती है। यह बहुत कमजोर होती है, जब लोकतंत्र मजबूत होता है। इसलिए यह लगातार कमजोर दुश्मनों को तलाश करती रहती है। हमें यह दिखाई देता है कि अल्पसंख्यक इसके सबसे पहले और घोषित दुश्मन होते हैं। और वो इसलिए हैं कि वे सबसे कमजोर होते हैं। कमजोरों को दानव बनाकर पेश करना ही फासीवादी विचारधारा को आगे मजबूत करने के लिए धीरे-धीरे बढ़ाता है। यानी हमारी लड़ाई मुश्किल इसलिए है कि हमको इससे पहले विचारधारा के स्तर पर लड़ना होगा, लड़ना चाहिए। शायद हमसे पहले कोई भूल हुई है। और इस भूल के लिए हममें से यहां बैठा हुआ हर आदमी जिम्मेदार है।

मैं ये समझता हूँ कि हम उस लड़ाई में, जो विचारधारा की लड़ाई है, उसमें हम कमजोर पड़ गए और इसलिए फासीवाद निकल करके सत्ता के गलियारों तक पहुंच गया। और अब हमें उसका वो भयंकर चेहरा दिखाई देता है, जो भयंकर चेहरा हमने जर्मनी में देखा था। हमने लैटिन अमेरिका के देशों में देखा था। जो हमने अफ्रीका में देखा था। जो हमने अपने पड़ोसी देशों-पाकिस्तान व बांग्लादेश में देखा था। लेकिन यह विचार कि जहां-जहां मुसलमान बहुमत में हैं, वहां-वहां फासीवाद उभरता हुआ ज्यादा दिखाई देता है। यह विचारधारा हमारे देश में कुछ आम सी हो गई है। यह जब इतना फैल जाए कि हर इक जुबान तक आ जाए तो हम ये भूल जाते हैं कि फासीवाद का एक चेहरा हमको श्रीलंका में भी दिखाई दिया। हमको म्यांमार में भी दिखाई दिया। हमको बहुत सारे देश में दिखाई दिया है, जिसका मुसलमानों से कोई लेना-देना नहीं है।

आर.एस.एस. के इस ढाँचे में ये देश फिट नहीं होते, इसलिए इन देशों के नाम भी नहीं लिए जाते। मैं ये समझता हूँ कि अगर हमें फासीवाद से अपने देश के अंदर लड़ना है तो हमको विचारधारा की लड़ाई को पैना करना पड़ेगा। हमको नई नस्ल को यह बताना पड़ेगा कि फासीवाद के खतरे आपके चारों तरफ हैं, कहीं दूर नहीं हैं।

मुझे अभी थोड़ी देर पहले जिक्र हुआ – शाहीन बाग के आंदोलन का, जो नागरिकता संशोधन क़ानून के खिलाफ इस देश में खड़ा हो रहा है। मुझे बहुत उम्मीद है नई नस्ल से। और वह उम्मीद दोनों तरह से पैदा हुई है। एक तो हमारी नस्ल के लोग नई नस्ल के बच्चों को लगातार यह कहने लगे थे कि उन्हें अपने से अधिक किसी की चिंता नहीं है। हम यह कहने लगे थे कि वे फ़ोन तक महदूद होकर रह गए हैं। हम यह कहने लगे थे कि व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी ही उनको अब पढ़ा रही है। और हमारी नस्ल के लोगों ने इस बात पर यकीन सा कर लिया था। ये जो मूवमेंट खड़ा हुआ है। इसने हमें जीवन दिया है। हमें गलत साबित किया है।

नई नस्ल के बच्चे, जो यहां बैठे हैं, मैं उन्हें मुबारकबाद देना चाहता हूँ। उन्होंने हमें सिखाया है कि नहीं वे सो नहीं रहे हैं। जब-जब इस मुल्क पर आफत आएगी, वो उठेगा। हमारा काम यह बचा है कि जो आंदोलन खड़ा हो रहा है, उसे दिशा दे सकें। मैं एक कवि की हैसियत से भी बहुत फ़ख्र इस बात पर महसूस करता हूँ कि इस बीच में जो साहित्य पैदा हुआ है, जो कविताएं लिखी गई, जो बच्चे कहानियां रच रहे हैं, जिस तरह के नारे चल रहे हैं इस बीच में, जिस तरह की कला विकसित हुई है, जिस तरह के पोस्टर बनाए गए हैं और जिस तरह के गाने गाए जा रहे हैं। वो हमें ये यकीन दिलाते हैं कि हमारी नई नस्ल इसे हथियार बनाकर लड़ने के लिए पूरी तरह से तैयार है। खूबसूरत गाने, खूबसूरत नारे, हिंसा से दूर ये यकीन दिलाने के लिए कि हम संविधान को बचाने के लिए खड़े हुए हैं। ये मेरी उम्र के लोगों को यकीन दिलाते हैं कि सब कुछ अभी हाथ से गया नहीं है। ये नई नस्ल आगे बढ़ेगी और संविधान को जरूर बचाएगी। 

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