त्रिमूर्ति राह दिखाएगी- सुभाष गाताड़े

सुभाष गाताड़े

मेरे खयाल से यह बेहद माकूल वक्त़ है जब हम इस गुफ़्तगू के लिए यहां बैठे हैं, बातचीत के लिए एकत्रित हैं। हक़ीकत यही है कि आज की तारीख़ में हिन्दोस्तां की सरजमीं पर गांधी, अम्बेडकर और भगतसिंह इन तीनों को माननेवाले लोग या उनके दिखाये रास्ते पर चलनेवाले संगठन अपने आप को एक ही स्थिति में पा रहे हैं। वह एक तरह से समूची निर्णय प्रक्रियाओं से बाहर कर दिए गए हैं, सभी हाशिये पर हैं। वजह साफ है कि बीते पांच साल से अधिक समय से राजनीति के शीर्ष पर एवं समाज पर ऐसे विचारों, ऐसी ताकतों का बोलबाला है जिन्हें न गांधी, न अम्बेडकर और न ही भगत सिंह के असली योगदानों से कुछ लेना देना है।

ये वे ताकतें हैं जो भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने का इरादा रखती हैं। ऐसी ताकतें जिन्होंने आज़ादी के आन्दोलन से दूरी बनाए रखी थी, ऐसी ताकतें जिन्होंने एक व्यक्ति और एक मत/वोट के आधार पर संविधान बनाने का विरोध किया और इस बात पर जोर दिया था कि नया संविधान बनाने की जरूरत क्या है, हमारे पास मनुस्मृति है ना !

इतिहास गवाह है कि धर्म और राजनीति का घालमेल करनेवाली इन संकीर्णमना ताकतों को गांधी से इतनी नफरत थी कि उन्हें उनकी हत्या करने से भी सुकून नहीं मिला और वह आज भी गांधी-हत्या को अभिनीत करती रहती हैं और गांधी के हत्यारे गोड़से के मंदिर बनाने के लिए बेचैन रहती हैं। संसद के पटल पर गोड़से को देशभक्त घोषित करती रहती हैं।

एक तरफ जहां डा. अम्बेडकर  जाति-उन्मूलन की बात करते थे तो इन प्रतिक्रियावादी ताकतों को वर्णाश्रम की तारीफ करते रहने से कोई दिक्कत नहीं हैं। अंग्रेजों की गुलामी के खिलाफ जहां तमाम इन्कलाबी अपनी जिन्दगियों को दांव पर लगा रहे थे, भगत सिंह और उनके साथी फांसी के फन्दे पर झूलने के लिए तैयार थे और उन्हीं दिनों यह ताकतें हिन्दू और मुसलमानों को बांटने के काम में मसरूफ थीं। समय का फेर देखिये हिन्दू राष्ट्र की हिमायती यही ताकतें अपने आप को इन तीनों के सच्चे वारिस के तौर पर पेश करने में संकोच नहीं करती हैं।

सभागार में बैठा हर शख्स इस बात की गवाही देगा कि मुल्क के सूरतेहाल इस कदर ख़राब होंगें, ऐसा शायद ही किसी ने सोचा होगा। मनुष्य को मनुष्य न समझने वाली, उसे उसकी धार्मिक, सामुदायिक पहचान तक न्यूनीकृत करनेवाली ये ताकतें इस कदर हावी होंगी यह बात किसी के खयालों में भी नहीं थी।

एक वक्त़ था जब सत्तर साल पहले आज़ाद हुए मुल्कों की फेहरिस्त में भारत का नाम आगे था, पिछड़े होने के बावजूद यहां जनतंत्र की जड़ कायम करने में सरकार की सफलता की तारीफ हो रही थी और आज वहीं हम उल्टी दिशा में चल पड़े हैं। जनतंत्र बहुसंख्यकतंत्र में (जहां अल्पमत की हर आवाज़ को दबाया जाता है) तब्दील होता दिख रहा है।

गौरतलब है कि यह ताकतें महज सत्ता की बागडोर ही नहीं संभाल रही हैं, जनतंत्र के सुचारू रूप से संचालन करने के लिए बनी तमाम संस्थाओं पर भी उन्होंने अपना अधिकार कायम किया है।

इन ताकतों को जिस किस्म की सामाजिक वैधता मिली है, वह भी अपने आप अचम्भित करनेवाली है। किसी ने ठीक ही कहा है कि आज का दौर आपातकाल से भी बदतर है। आपातकाल में महज सरकारी दमन के लिए तैयार रहना था आज जनता का अच्छा खासा हिस्सा उनके साथ नत्थी हो गया है।

प्रश्न उठता है कि आज जब भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने का प्रोजेक्ट निर्णायक तौर पर आगे बढ़ रहा है तब यह त्रिमूर्ति किस तरह हमारे आनेवाले पथ को आलोकित कर सकती है। इस बात को देखते हुए कि इन तीनों ने – भले ही कई अहम मसलों पर इनके चिन्तन में फर्क था – अपने-अपने स्तर पर साम्प्रदायिकता का विरोध किया था, मनुष्य तथा मनुष्य के बीच दरार पैदा करने के लिए मजहब अर्थात धर्म के इस्तेमाल का विरोध किया था, यह तीनों हमारी राह दिखा सकते हैं।


गांधी जो आज़ादी के आन्दोलन के कर्णधार थे उन्होंने अपने अन्तिम संघर्ष की धार बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता की तरफ मोड़ी और इसी प्रयास में वह शहीद हुए। बहुत कम भारतीय होंगे जो उनकी इस छवि से या उनके संघर्ष से सम्मोहित नहीं होंगे।

अपने उसूलों की पूर्ति के लिए सब कुछ न्यौछावर कर देने के लिए तीनों की तत्परता और असहमतियों के लिए स्पेस देने की इनकी तैयारी इतिहास के पन्नों पर दर्ज है। और यह महज निजी तैयारी नहीं थी, उन्होंने इस महान उद्देश्य के लिए संगठनों का, साथियों के नेटवर्क का, कार्यकर्ताओं का दल तैयार किया था।

गांधी जो आज़ादी के आन्दोलन के कर्णधार थे उन्होंने अपने अन्तिम संघर्ष की धार बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता की तरफ मोड़ी और इसी प्रयास में वह शहीद हुए। बहुत कम भारतीय होंगे जो उनकी इस छवि से या उनके संघर्ष से सम्मोहित नहीं होंगे। अपने आखिरी दिनों में उन्हें इस बात का पूरा इल्म था कि वह कभी भी मारे जा सकते हैं, लेकिन वे अपने पथ पर अडिग रहे। बंटवारे के उन रक्तरंजित दिनों में (जबकि एक कौम के लोग दूसरे कौम के लोगों को दुश्मन बनते दिख रहे थे) उन्होंने खुल्लमखुल्ला ऐलान किया कि अल्पमत की हिफाजत के लिए वह आखरी सांस तक संघर्ष करेंगे, वह हिन्दोस्तां में मुस्लिमपरस्त हैं तो पाकिस्तान में हिन्दूपरस्त हैं।

हम ऐसा ही अदम्य साहस एवं दूरदृष्टि भगतसिंह में भी देखते हैं, जिन्होंने अपने उसूलों के लिए फांसी के फंदे पर झूल जाना वाजिब समझा। डा. अम्बेडकर का समूचा जीवन यह बताता है कि सदियों, हजारों सालों से हाशिये पर डाले गए लोगों की मुक्ति के लिए उन्हें कदम-कदम पर कितनी कुर्बानी देनी पड़ी ? यह उनकी प्रचंड विद्वता का ही नतीजा था कि वह ऐसे संविधान को आकार दे सके जो आज भी हिन्दू राष्ट्र के हिमायतियों के आंखों की किरकिरी बना बैठा है।

अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए हम इन तीनों के चिन्तन में झांकने की कोशिश कर सकते हैं और यह देख सकते हैं कि क्या कोई साझापन उभरता है ? भगतसिंह (1907-31), डा. अम्बेडकर (1891-1956), महात्मा गांधी (1869-1948) अगर हम इन तीनों को देखें तो हम आज़ादी पूर्व भारत की एक दिलचस्प तस्वीर से रूबरू होते हैं। ऐसा भारत जहां चार किस्म की धाराएं एक दूसरे के साथ अन्तर्क्रिया में है। एक धारा राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन की है, दूसरी धारा सामाजिक-सांस्कृतिक मुक्ति की है तीसरी धारा वर्गीय राजनीति की है और चौथी धारा हिन्दू-मुसलमानों में अपने आप में राष्ट्र समझनेवालों की है।

चाहे बर्तानिया से गुलामी की राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन की धारा हो, ब्राह्मणवाद, पुरोहितवाद तथा पितृसत्ता से मुक्ति की सामाजिक-सांस्कृतिक धारा हो या समाजवाद का ख्वाब देखकर आगे बढ़ती वर्गीय राजनीति की धारा हो हम इन तीन धाराओं को देखें तो वह भारतीय समाज को किसी न किसी स्तर पर आगे ले जानेवाली हैं और चौथी धारा समाज में नए विघटन को पैदा करनेवाली है, उसकी गति समाज को पीछे ले जानेवाली है।

दूसरी अहम बात यह है कि ऐसे मुद्दे या बातें भी नज़र आती हैं जहां इनके विचारों की, कार्यों में अन्तर्व्याप्ति अर्थात (overlapping) भी दिखती है। मिसाल के तौर पर डा. अम्बेडकर जाति उन्मूलन के लिए जहां शास्त्रों-पुराणों को प्रश्नांकित करने या उन्हें खारिज करने का आवाहन करते हैं, वही शहीद भगतसिंह अछूत समस्या शीर्षक लेख में आह्वान करते हैं  कि ‘शेरो उठो ! असली सर्वहारा तुम हो।’

तीस के दशक में जब डा. अम्बेडकर की मुहिम नयी ऊंचाइयों पर पहुंचती हैं तो उधर महात्मा गांधी भी अपनी तरफ से कोशिश करते हैं कि कांग्रेस पार्टी के बैनर तले ‘‘अस्पृश्यता का मसला’’ उठाया जाए। और इसी प्रयास में रूढिवादी ताकतों के निशाने पर आ जाते हैं। गांधी की वर्णाश्रम की हिमायत हम निश्चित ही नामंजूर करते रहेंगे, लेकिन यह भी सत्य है कि ‘अस्पृश्यता के मसले को उठाने के चलते ही उन्हीं दिनों उन पर दो बार जानलेवा हमले होते हैं, एक देवघर में तो दूसरा पुणे में।

बुद्ध का मशहूर कथन है कि ‘मैंने तुम्हें नदी पार करने के लिए नाव दी थी, नदी पार हो जाने के बाद कंधे पर ढोने के लिए नहीं।’गांधी के सच्चे अनुयायी, डा. अम्बेडकर के विचारों के असली वाहक लोग या भगत सिंह को माननेवाली जमातें जितना जल्दी इस बात को समझें उतना जल्दी इस मुल्क को बेहतरी के रास्ते पर डाल जा सकता है।

समाजवाद की भगतसिंह की हिमायत हमें डा. अम्बेडकर के कुछ अहम विचारों की याद दिलाती हैं। ‘राज्य और अल्पसंख्यक’ नामक अपने ग्रंथ में वह राज्य समाजवाद की बात करते हैं। अपने अंतिम भाषण में वह बौद्ध धर्म के साथ मार्क्सवाद की तुलना करते हैं और कहते हैं कि बौद्ध धर्म में दर्ज दुख को अगर शोषण से प्रतिस्थापित करें तो दोनों बातें एक जैसी दिखती है। प्रश्न उठता है कि भारतीय समाज को आगे ले जाने की अपने में निहित तमाम संभावनाओं के बावजूद आज यह सभी विचार क्यों हाशिये पर पड़े हैं।

इस पहेली को सम्बोधित करने का जिम्मा उनके सच्चे अनुयायियों पर आता है। क्या उन्होंने बदले समय में इन विचारों की स्वीकार्यता किस तरह व्यापक बने इस पर गौर नहीं किया ? बुद्ध का मशहूर कथन है कि ‘मैंने तुम्हें नदी पार करने के लिए नाव दी थी, नदी पार हो जाने के बाद कंधे पर ढोने के लिए नहीं।’गांधी के सच्चे अनुयायी, डा. अम्बेडकर के विचारों के असली वाहक लोग या भगत सिंह को माननेवाली जमातें जितना जल्दी इस बात को समझें उतना जल्दी इस मुल्क को बेहतरी के रास्ते पर डाल जा सकता है।

Leave a reply

Loading Next Post...
Sign In/Sign Up Sidebar Search Add a link / post
Popular Now
Loading

Signing-in 3 seconds...

Signing-up 3 seconds...