पहले सिक्ख गुरु नानक देव जी एक बाणी है,
“नीचा अंदर नीच जात, नीची हूँ अति नीच।
नानक तिन के सँगी साथ, वडियां सिऊ कियां रीस।।
सिक्ख गुरुओं द्वारा सामूहिक लंगर की शुरुआत एक बड़ी सामाजिक क्रांति थी। यह परम्परा कोई सहज और शांतिपूर्ण तरीक़े से शुरू नहीं हो पाई थी बल्कि रूढ़िवादीयों द्वारा इसका विरोध और धर्म के नाश की दुहाई अपेक्षित लाइन पर थी। इस सबके बावजूद, तीसरे गुरु अमरदास जी ने तो ये क़ायदा ही बना लिया था की पहले पंगत, फिर संगत। जो बात आज के परिवेश में सहज़ और साधारण दिखाई देती हैं वे बातें एक दौर में असाधारण और असहज थी। इसे एक उदाहरण से बेहतर समझ पाएँगे। राधा स्वामी सत्संग (ब्यास) में बड़ी ज़द्दोजहद के बाद दूसरे महाराज सावन सिंह जी के प्रयासों से सभी समुदायों के लिए एक ही पंगत में बैठकर भोजन शुरू हुआ।
आज 12 अक्तूबर 2020 को उस घटना के पूरे सौ बरस हो गए हैं जब एक बड़ी हलचल के बाद स्वर्ण मंदिर में दलितों को कड़ाह प्रसाद चढ़ाने का हक़ मिला था। उस वक़्त की उथल पुथल और उसके इतिहास की जानकारी के लिए आइए इतिहास की पगडंडियों पर थोड़ा पीछे की ओर मुड़ कर चलें।
चौथे गुरु रामदास ने तुंग गाँव की ज़मीन पर सन 1574 के बाद एक सरोवर और शहर बसाया था जिसे क्रमशः अमृतसर और रामदासपुरा का नाम दिया गया। सन 1604 में पाँचवें गुरु अर्जन देव जी ने हरमंदिर साहब के नाम से यहाँ एक इमारत की नींव सूफ़ी फ़क़ीर साईं मियाँ मीर के हाथों से रखवाई थी। छठे गुरु हरगोबिंद राय ने हरमंदिर साहब के सामने अकाल बुँगा (अकाल तख़्त) बनवाया था। इस स्थान पर किसी भी धार्मिक या राजनीतिक मुद्दों पर चर्चा के बाद सामूहिक फ़ैसला लिया जाता था जिसे गुरूमत्ता कहा जाता था। यह परम्परा सन 1809 तक चली जिसके बाद महाराजा रणजीत सिंह ने व्यक्तिगत रूप से या अपने दरबारी सलाहकारों के अनुसार फ़ैसले लेने शुरू कर दिए थे।
ख़ैर, सन 1634 में अनेक राजनैतिक कारणों से छठे गुरु हरगोबिंद राय अमृतसर से शिवालिक की पहाड़ियों में किरतपुर चले गए और सन 1644 में अपनी मृत्यु तक वहीं रहे।
उदासीन पंथ की स्थापना गुरु नानक देव जी के पुत्र श्रीचंद जी द्वारा की गई थी। ये ऐसा दौर था जब अब्दाली के हाथों हरमंदिर साहब बार अपवित्र किया गया और व्यापक तोड़ फोड़ भी की गई। एक बार तो सन 1762 के बाद ऐसे लगने लगा जैसे हरमंदिर साहब का वज़ूद ही ना बचा हो। इसी समय अनेक सिक्ख मिसलें जन्म ले चुकी थी और उनके प्रयासों से हरमंदिर साहब का पुनर्निर्माण हुआ।
गुरु अर्जन देव जी के बड़े भाई बाबा पृथीचंद की उनसे लगातार रंजिश थी। जिसका मुख्य कारण उनका गद्दी के वारिस होने का दावा था। रंजिश इस हद तक थी कि उन्होंने गुरु अर्जनदेव जी को एक बार ज़हर खिलाने का प्रयास किया और शहज़ादा सलीम(बाद में बादशाह जहांगीर) को उनके ख़िलाफ़ उकसाया भी। उन्होंने एक समानांतर पंथ ‘मिहरबान’ के नाम से भी स्थापित कर लिया था। मुख्यधारा के सिक्ख उन्हें मीना अर्थात् नीच या धूर्त का विशेषण देते थे। अब छठे गुरु के किरतपुर जाने के बाद हरमंदिर साहब का नियंत्रण बाबा पृथी चंद के वारिसों के हाथ में आ गया। उनका बेटा बाबा मिहरबान और आगे उनका बेटा बाबा हरजी, इस प्रकार से सन 1696 तक ये सिलसिला डगमगा गया। ऐसे में आनन्दपुर साहब में गुरु गोबिंद सिंह के पास विशेष संदेशवाहक भेजे गए और गुरु गोबिंद सिंह ने भाई मणी सिंह को हरमंदिर साहब के कस्टोडीयन के नाते भेजा। सन 1737 में भाई मणी सिंह को लाहौर के गवर्नर ने विशेष कर ना अदा करने के एवज़ में फाँसी चढ़ा दिया। इस दौरान अराजकता के दौर में पहले मुग़ल और फिर अब्दाली के अधिकारियों द्वारा सिक्खों को कुचल देने के प्रयासों की गाज़ हरमंदिर साहब पर गिरने लगी। जैसे कि, सन 1746 में लाहौर के वज़ीर लखपतराय ने सरोवर को मिट्टी से भरवा दिया, सन 1749 में सलामत खान द्वारा सरोवर में डुबकी लगाने पर पाबंदी लगा दी गयी। ऐसे दौर में हरमंदिर साहब का नियंत्रण भाई गोपाल दास के नेतृत्व में उदासियों ने अपने हाथ में ले लिया। उल्लेखनीय है कि उदासीन पंथ की स्थापना गुरु नानक देव जी के पुत्र श्रीचंद जी द्वारा की गई थी। ये ऐसा दौर था जब अब्दाली के हाथों हरमंदिर साहब कई बार अपवित्र किया गया और व्यापक तोड़ फोड़ भी की गई। एक बार तो सन 1762 के बाद ऐसे लगने लगा जैसे हरमंदिर साहब का वज़ूद ही ना बचा हो। इसी समय अनेक सिक्ख मिसलें जन्म ले चुकी थी और उनके प्रयासों से हरमंदिर साहब का पुनर्निर्माण हुआ।
अब हम अगले दौर में प्रवेश करते हैं जब सन 1920 में गुरुद्वारों पर क़ाबिज़ महंतो के विरुद्ध एक शक्तिशाली और लोकप्रिय अकाली आंदोलन शुरू होता है जिसने सफलतापूर्वक उदासी महंतो के नियंत्रण से गुरुद्वारों को मुक्त करवाया और उनका परिचालन शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के माध्यम से होने लगा।
निम्न जातियों का सवाल: गुरु नानक देव जी द्वारा शुरू की गयी मिल बैठ कर खाने की अनूठी परम्परा आज भी गुरुद्वारों में निरंतर जारी है। हरमंदिर साहब का नियंत्रण जब गुरुओं के हाथ में नहीं रहा, उस वक़्त निम्न जातियों के साथ क्या व्यवहार होता था इस पर प्रामाणिक तौर पर कुछ कहना मुश्किल है लेकिन सन 1920 के एक घटनाक्रम से कुछ महत्वपूर्ण सूत्र हमें मिलते हैं।
“उस दौरान निम्न जातियों के लिए स्वर्ण मंदिर में प्रवेश पर रोक थी। आदर्शवादी सिक्खों को इस बात से तकलीफ़ भी थी, प्रतिक्रिया स्वरूप सन 1920 में अमरसिंह चभेवाल और कुछ अकाली कार्यकर्ताओं ने क़रीब 500 मज़हबियों को स्वर्णमंदिर की बजाए जलियाँवाला बाग़ में अमृत छका कर सिक्ख बनाया था। इसके बाद उन्हें जब स्वर्ण मंदिर ले जाया गया तो छोटी जात के बहाने उनके प्रसाद को स्वीकार नहीं किया गया और इसी तनातनी में अरुढ सिंह सरबरा (स्वर्ण मंदिर का तत्कालीन मुखिया) ने वहाँ से भाग कर अमृतसर डीसी के पास शरण ली। उसके बाद स्वर्ण मंदिर पर क़ब्ज़े के सवाल पर मोर्चाबंदी का एक सिलसिला शुरू हो गया जिसे चाबियों का मोर्चा कहा जाता है।”
यह एक कड़वी सच्चाई है कि भारतीय समाज में कोई भी धर्म (पंथ) जातिवाद के छूतरोग से मुक्त नहीं है लेकिन किसी धर्म का रूढ़िवादी तबका छुआछुत को शास्त्रों और स्मृतियों के आधार पर धर्मसम्मत ठहराता है तो वहीं पर अनेक पंथ अछूते ना होते हुए भी खुले रूप से छुआछुत की वकालत करने की हिमाक़त नहीं कर सकते क्योंकि उनकी प्रगतिशील विरासत अपना काम करती है।
फलस्वरूप, आज से पूरे सौ साल पहले 12 अक्तूबर 1920 को दलित और सिक्ख समूहों ने मिलकर दरबार साहब में कड़ाह प्रसाद चढ़ा कर दलित अधिकारों की पुनर्स्थापना की। अगले पाँच वर्षों तक सन 1925 में एसजीपीसी ऐक्ट के अंतर्गत तमाम बड़े गुरुद्वारों की महंतों से मुक्ति का सिलसिला जारी रहा।और, 14 मार्च 1927 को एसजीपीसी ने निम्न प्रस्ताव पास किया:-
“सिक्ख पंथ जाति के आधार पर भेदभाव नहीं करता। इसलिए निम्न जातियों से बने तमाम सिक्खों के साथ समानता का व्यवहार किया जाए।अगर तथाकथित निम्न जाति के बहाने किसी सिक्ख को कुएँ से पानी लेने से रोका जाता है तो उस सिक्ख के समान अधिकार की जीत के लिए प्रयास किए जाए। ऐसे किसी सिक्ख का अपमान पूरे सिक्ख समुदाय का अपमान है।”
निष्कर्ष के तौर पर यह एक कड़वी सच्चाई है कि भारतीय समाज में कोई भी धर्म (पंथ) जातिवाद के छूतरोग से मुक्त नहीं है लेकिन किसी धर्म का रूढ़िवादी तबका छुआछुत को शास्त्रों और स्मृतियों के आधार पर धर्मसम्मत ठहराता है तो वहीं पर अनेक पंथ अछूते ना होते हुए भी खुले रूप से छुआछुत की वकालत करने की हिमाक़त नहीं कर सकते क्योंकि उनकी प्रगतिशील विरासत अपना काम करती है। इस प्रकार, समाज को बेहतर रूप से समझने के लिए,सामुदायिक डायनामिक्स के अंतर को समझना आवश्यक हो जाता है।
संदर्भ:
1. ‘Sri Harmandir Sahib: A history of struggle & devotion’- Ashish Kochhar, Live History of India.
2. ‘Intrigue, manipulation, deception: How Guru Arjan’s brother put up a serious challenge against him’- Haroon Khalid, Scroll.in
3. ‘शहीद भगत सिंह और जलियाँवाला बाग़ के अनछुए प्रसंग: लेखक द्वारा प्रोफ़. जगमोहन सिंह का साक्षात्कार’, बाइटिगोंग
4. ‘Prithi Chand/Sikh rebel leader’- Britannica.com
5. ‘With the three Masters’- Munshi Ram, Radha Swami(Beas) publication.
6. ‘How SGPC fought untouchability, caste system in its formative years’-Kamaldeep Singh Brar, The Indian Express.