पितृसत्ता और वर्ण-व्यवस्था के स्तम्भों पर टिकी ब्राह्मणवादी सोच भारतीय समाज में असमानता और भेदभाव को वैधता देकर प्रश्रय देती रही है। जहां पितृसत्ता ने समाज की आधी आबादी यानी कि औरतों के स्वतंत्र अस्तित्व को नकारकर मानवीय गरिमा से वंचित किया वहीं वर्ण-व्यवस्था ने शेष आधी आबादी यानी शूद्रों को ज्ञान, शक्ति और सम्पति के अधिकार से वंचित करके ‘सेवा’ के अधिकार के नाम पर उनको गुलामों का सा जीवन व्यतीत करने पर मजबूर कर दिया। इस सामाजिक भेदभाव को वैधता प्रदान करने के लिए व जन मानस की चेतना का हिस्सा बनाने के लिए ब्राह्मणवादियों ने सैंकड़ों कहानियां गढ़ी, जिनमें ईश्वर व देवताओं को नायक के तौर पर प्रस्तुत करते हुए पितृसत्तात्मक व वर्ण-धर्म आधारित मान्यताओं को आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया। यह भी सही है कि ब्राह्मणवादी विचारों से पीडि़त जन समुदाय किसी न किसी रूप में इनके विरुद्घ आवाज उठाता रहा है। मानव की प्रगति व मानवता का विकास चाहने वालों की सहज बुद्घि ने इस बात को पहचान लिया था कि भेदभाव को मान्यता देने वाली संस्थाओं व मूल्यों को जड़ से समाप्त किए बिना मानवता का आदर्श स्थापित नहीं हो सकता। इसलिए यह संघर्ष समाज में लगातार चलता रहा और चाहे लोकायत हों या फिर महात्मा बुद्घ व महावीर जैन के आन्दोलन हों सबने समाज की लगभग तीन-चैथाई आबादी को नारकीय जीवन जीने पर बाध्य करने वाली सोच पर प्रश्नचिन्ह लगाया। कबीर, नानक, रविदास व मीरा जैसे समाज सुधारक व चिन्तक कवियों ने ब्राह्मणवाद की तथाकथित शाश्वतता, पवित्रता व सार्वभौमिकता पर उंगली उठाकर जन्म आधारित श्रेष्ठता और उच्चता को चुनौती दी। आलोचनात्मक दृष्टि अपनाकर ज्ञान, सम्पति, ईश्वर, गुरु व साधु की प्रचलित अवधरणाओं पर सवालिया निशान लगाया और इन्हें जन-दृष्टि से पुनर्परिभाषित किया। शास्त्रों के खोखले ज्ञान व खाने की शुचिता पर आधारित श्रेष्ठता के मुकाबले लोक-ज्ञान व व्यवहारिक-जीवन के आचरण की पवित्रता व शुद्घता को प्रतिष्ठापित करने का प्रयास किया। संत-कवियों ने लोगों की चेतना पर जमी ब्राह्मणवाद की काई को साफ करने के लिए तर्क-विवेक को आधार बनाया तो अपने जीवन में इन प्रचलित मान्यताओं से संघर्ष करके लोगों के प्रेरणा स्रोत बने।
सामाजिक भेदभाव को वैधता प्रदान करने के लिए व जन मानस की चेतना का हिस्सा बनाने के लिए ब्राह्मणवादियों ने सैंकड़ों कहानियां गढ़ी, जिनमें ईश्वर व देवताओं को नायक के तौर पर प्रस्तुत करते हुए पितृसत्तात्मक व वर्ण-धर्म आधारित मान्यताओं को आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया।
मीरा का जन्म सन् 1512 ई. में मेड़ता के राठौर वंश में रत्नसिंह के घर हुआ। मीरा के दादा दूदा के पांच पुत्र थे – वीरमदेव, रायसल, पंचायणा, रत्नसिंह तथा रायमल। दूदाजी ने मीरा के पिता रत्नसिंह को खर्च के लिए बारह गांव दिए हुए थे। कुड़की नामक गांव उनका केन्द्र था। कुड़की में पहाड़ी पर बसे छोटे-से दुर्ग में मीरा का जन्म हुआ। कुड़की मेड़ता से अठारह मील दूर है।
मीराबाई ने अपने जीवन व अपनी रचनाओं में पितृसत्ता को चुनौती दी, जिसने समस्त समाज को प्रभावित किया। पुरुष प्रधान समाज में स्त्री का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है, उसको किसी पुरुष के साये की जरूरत है। बचपन में पिता का, जवानी में पति का और बुढ़ापे में बेटे का अनुशासन स्वीकार करना होगा। स्त्री की कोई स्वतंत्र पहचान नहीं है वह किसी की मां है, बेटी है, बहन है, पत्नी है। परिवारों में उसको शायद ही अपने नाम से पुकारा जाता हो उसकी उपस्थिति इन सम्बन्धों में ही है। पुरुष के बिना स्त्री की स्वतंत्र पहचान को मान्यता नहीं थी इसीलिए बांझ व विधवा को सामाजिक बहिष्कार के अपमान व प्रताडऩा से गुजरना पड़ता था। बिना भाई की बहन की लड़की की शादी होने में कुछ सालों पहले तक भी दिक्कत आती रही है।
मीरा ने स्त्री की स्वतंत्र पहचान मिटाने वाली व्यवस्था को मानने से इनकार कर दिया और इसके लिए लड़ी कि बेटी, मां या पत्नी से पहले स्त्री एक इन्सान भी है। विवाह के बाद स्त्री की पहचान उसके पति से होती है,पति ही उसकी पहचान है, पति के आराध्य ही उसके इष्ट हो जाते हैं, पति की मर्यादा ही उसकी मर्यादा है। आज भी पति का गोत्र ही उसकी पत्नी का गोत्र हो जाता है। कुल बात यह है कि स्त्री को अपनी पहचान मिटा कर पति की पहचान धारण करनी पड़ती है। मीरा को यह बात मंजूर नहीं थी। मीरा राठौर की रहने वाली थी वह अपने ससुराल मेवाड़ में भी मीरा राठौड़ी के नाम से जानी गई। विवाह के बाद मीरा जब ससुराल गई तो ससुराल के देवी देवताओं की पूजा अर्चना के लिए कहा गया, लेकिन उसने इनकार कर दिया, क्योंकि मीरा के मायके वैष्णव थे और ससुराल के शैव थे।
मीरा के पति की मृत्यु हो गई तो तत्कालीन परम्परा के अनुसार मीरा को इस अंधविश्वास को मानते हुए अपने पति के साथ जलकर मर जाना चाहिए था कि पुरुष की अर्धांगिनी के रूप में उसका आधा शरीर यानी उसकी पत्नी जब तक जिन्दा है तब तक उसके पति को स्वर्ग में प्रवेश का गेट पास नहीं मिलेगा और उसकी आत्मा स्वर्ग में अप्सराओं के साथ मस्ती करने व ऐश्वर्य आदि अन्य साधनों से वंचित रह जायेगा। स्त्री की मौत पर पुरुष को मुक्ति दिलाने वाली अमानवीय विचारधारा का मीरा ने विरोध किया। मीरा ने अपनी स्वतंत्र सत्ता को मानते हुए सती होने से इनकार कर दिया।
गिरधर गास्यां सती न होस्यां,
मन मोह्यो धन नामी।
जेठ बहू नहीं राणा जी,
मैं सेवक हूं स्वामी।
चोरी करां नहीं जीव सतावां,
कांई करेगो म्हारो कोई।
राज सूं उतरि गधे नहीं चढस्यां,
या तो बात न होई।
चूड़ो तिलक दोवड़ो अरुमाला, सील बरत सिणगार।
और वस्तु रति नहीं मोहै कोई निन्दो,
म्हों तो गोबिन्द जी का गास्यां।
जिण मारण वे सन्त गया छै,
उण मारण म्हें जास्यां।
साज सिंगार बांध पग घुंघर, लोक-लाज तज नाची।
गयां कुमत लयां साधं संगत, श्याम प्रीत जग सांची।
श्याम बिणा जग खारां लागां, जगरी बातां कांची।
जब मीरा अपने पति के साथ जलकर नहीं मरी तो उसके सामने शादी का प्रस्ताव पेश कर दिया, क्योंकि पुरुष प्रधान विचारधारा में स्त्री को अकेली यानी स्वतंत्र छोड़ऩा इस पूरी व्यवस्था के लिए खतरा बन सकता है।
जब मीरा अपने पति के साथ जलकर नहीं मरी तो उसके सामने शादी का प्रस्ताव पेश कर दिया, क्योंकि पुरुष प्रधान विचारधारा में स्त्री को अकेली यानी स्वतंत्र छोड़ऩा इस पूरी व्यवस्था के लिए खतरा बन सकता है। आज भी लोक प्रचलित है कि ‘रांड सांड हो जाती है’। वह सांड न हो जाए और कोल्हू का बैल ही बनी रहे इसके लिए जरूरी है उसको नाथना। लेकिन मीरा ने शादी के इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया और निर्णय सुना दिया कि वह बिना शादी के अकेले ही अपना जीवन व्यतीत करेगी।
लेकिन मीरा का यह फैसला धृष्टता लगी और उससे जबरदस्ती विवाह करने की ठान ली। ‘कुल मर्यादा’ व ‘खानदान की इज्जत’ व मीरा की यानी एक स्त्री की ‘मर्यादा व इज्जत’ फिर आमने सामने हो गए। मीरा ने खानदान व कुल की झूठी इज्जत से अधिक महत्त्व दिया स्त्री के सम्मान को। जब मीरा को किसी भी तरह नहीं दबाया जा सका। तो कभी जहर देकर तो कभी जहरीले सांप से डसवा कर उसकी हत्या करने की योजनाएं बनाइं गर्यीं, जिसमें उनको कामयाबी नहीं मिली।
मैं गोबिन्द के गुण गाणा।
राजा रूठे नगरी त्यांगां।
हरि रूठे कहां जाणा।
राणे भेज्या विष रो प्याला
अमृत समझ पी जाणा।
डबिया में भेज्या जी भुंजगम,
सालिगराम पिछाणा।
मीरा री प्रेम दिवाणी
मैं सांवरिया वर पाणा।।
मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरों न कोई।
जाके सिर मोर मुकुट, मेरो पति सोई।।
छांडि़ दई कुल की कानि, कहा करिहै कोई।।
सन्तन ढिंग बैठि-बैठि, लोक-लाज खोई।।
अंसुवन जल सींचि-सींचि, प्रेम बेलि बोई।।
अब तो बेल फैल गई, आणन्द फल होई।।
खानदान की इज्जत के नाम पर आज के समाज में भी औरतों को मौत के घाट उतार दिया जाता है पाकिस्तान में कई घटनाएं हो चुकी हैं और अपने यहां हरियाणा में भी ‘ऑनर किलिंग’ या ‘प्राइड डेथ’ पिछले दिनों काफी चर्चित रहे हैं। और मीरा ने जब देखा कि सामन्ती परिवार व्यवस्था में उसका निबाह नहीं हो सकता तो उसने इसको ठोकर मार दी और स्वछन्द जीवन बिताने लगी। लोक लाज और कुल मर्यादा सामन्ती समाज के ऐसे हथियार हैं जिनको बनाते तो हैं पुरुष लेकिन निभाना पड़ता है औरतों को। ‘कुल की कान’ सामन्ती मूल्य है, जिसकी अनुपालना के लिए स्त्री को अपनी स्वतंत्रता व अस्तित्व की बलि देनी पड़ती है।
आली मोसों हरि बिन रह्यो न जाय।
सास लड़ै मेरी नन्द खिजावै, राणा रह्या रिसाय।
पहरो भी राख्यो चैकी बिठार्यो, ताला दियो जड़ाय।
पूर्व जनम की प्रीत पुराणी, सो क्यूं छोड़ी जाय।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, अवरू न आवै म्हांरी दाय।
मीरा ने पुरुष-प्रधान पारिवारिक व्यवस्था में स्त्री को बंधक बनाए जाने वाली प्रक्रियाओं की पहचान कर ली थी और पाया था कि चाहे परिवार पीहर का हो या फिर ससुराल का दोनों में स्त्री की बराबरी के लिए कोई जगह नहीं है अत: दोनों का त्याग करके ही वह स्वतंत्रता हासिल कर सकती है।
मीरा ने पुरुष-प्रधान पारिवारिक व्यवस्था में स्त्री को बंधक बनाए जाने वाली प्रक्रियाओं की पहचान कर ली थी और पाया था कि चाहे परिवार पीहर का हो या फिर ससुराल का दोनों में स्त्री की बराबरी के लिए कोई जगह नहीं है अत: दोनों का त्याग करके ही वह स्वतंत्रता हासिल कर सकती है इसलिए मीरा ने दोनों को ही छोड़ दिया।
राणा जी! अब न रहूंगी तोरी हटकी।
साध संग मोहि प्यारा लागै, लाज गई घूंघट की।
पीहर मेडता छोड़़ा आपण, सुरत निरत दोऊ चटकी।
हार सिंगार सभी ल्यो अपना, चूरा कर की पट की।
महल किला राणा मोहि न चाहिए, सारी रेसम पट की।
हुई दीवानी मीरा डौले, केस लट सब छिटकी।
मीरा ने ‘राजा रूठे नगरी त्यागां कहकर स्त्री का मान-मर्दन करने वाली पुरुष प्रधान सामन्ती सत्ता को सीधी चुनौती देकर स्त्री स्वतंत्रता के रास्ते खोले। अपने भजनों में अपनी पसन्द के संबंध और संगति अपनाने की निजी स्वतंत्रता की जोरदार वकालत की गई। वे ईश्वर के साथ संबंध हों या समाज के साथ हों, अछूत कहे जाने वाले लोगों के साथ हों या संतों के साथ हों। सामन्ती समाज में चुनाव की छूट नहीं होती और पुरुष प्रधन समाज में स्त्री के लिए तो इसकी बहुत कम गुंजाइश थी।
मीरा ने स्वामी भक्ति के मूल्यों को चुनौती दी, जिसे कि सामन्ती व्यवस्था ने बगावत समझा इसलिए राजस्थान के राजपूतों में मीरा का नाम गिरी हुई औरतों के लिए एक गाली की तरह उपयोग किया जाता है, मीरा ने राजपूतों की ‘इज्जत’ को मिट्टी में मिलाने की कोशिश की थी उसका नाम लेना जले पर नमक छिड़कना था तो लोग मीरा को खुलेआम कैसे गा सकते थे या पूज सकते थे। लेकिन दलित समाज में मीरा जरूर गाई जाती रही हैं।
सामन्ती समाज में प्रेम वर्जित है, क्योंकि प्रेम में बराबरी होती है जिसे सामन्ती सत्ता किसी कीमत पर सहन नहीं करती। संतों ने इसीलिए प्रेम को अपने काव्य का केन्द्रीय तत्त्व बनाया था। प्रेम में व्यक्ति स्वयं चुनता है और सामन्ती व्यवस्था इसकी छूट नहीं दे सकती। मीरा ने अपने प्रेम को सार्वजनिक किया और इसे भावुकता या अनजाने में उठाया कदम नहीं बल्कि बहुत सुविचारित कहा।
माई मैं तो लियो है सांवरिया मोल।
कोई कहै हलको, कोई कहै भारो, मैं तो लियो है तराजू तोल।
कोई कहै सोगो, कोई कहै मैगो, मैं तो लियो है अमोलख मोल।
कोई कहै छानै, कोई कहै चैड़े, मैं तो लियो है,बजन्ता ढोल।
कोई कहै कारो, कोई कहै गोरो, मैं तो लियो है अंखिया खोल।
राणा जी म्हांने या बदनामी लागे मीठी।
कोई निन्दो कोई बिन्दो, मैं चलूंगी चाल अनूठी।
सांकली गली में सतगुरु मिलिया, क्यूंकर फिरूं अपूठी।
सतगुरु जी सूं बांता करता, दुरजन लोगां ने दीठी।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, दुरजन जलो जा अंगीठी।
रचनाकार अपने समाज को अभिव्यक्त करने के लिए किसी न किसी को माध्यम के रूप में या प्रतीक के रूप में प्रयोग करता है। मध्यकालीन संतों ने ईश्वर के विभिन्न रूपों के अपनी अभिव्यक्ति का साधन बनाया।
हरि तुम हरो जन की पीर।
द्रौपदी की लाज राखी, तुरत बढायौ चीर।
भक्त कारण रूप नरहरि, धर्यो आप सरीर।
हिरण्यकुश मारि लीन्हो, धर्यो नाहिन धीर।
बूड़तो गजराज राख्यौ, कियो बाहर नीर।
दासि ‘मीरा’ लाज गिरधर, चरण कंवल पर सीर।
सामन्ती समाज में प्रेम वर्जित है, क्योंकि प्रेम में बराबरी होती है जिसे सामन्ती सत्ता किसी कीमत पर सहन नहीं करती। संतों ने इसीलिए प्रेम को अपने काव्य का केन्द्रीय तत्त्व बनाया था। प्रेम में व्यक्ति स्वयं चुनता है और सामन्ती व्यवस्था इसकी छूट नहीं दे सकती।
मीरा के पदों में श्रीकृष्ण की गोपियों के साथ प्रेम-क्रीड़ा का वर्णन या उसके जीवन के अन्य प्रसंगों का वर्णन नहीं मिलता,जबकि श्रीकृष्ण के अनेक रूप प्रचलित थे। मीरा में सुरक्षा की गारंटी देने वाला सिर्फ वीर श्रीकृष्ण ही आता है। मीरा का श्रीकृष्ण गिरधर है, ताकतवर श्रीकृष्ण जो कि अपने विरोधी का अहंकार भी तोड़ सकता है और अपने भक्त या प्रेमी की रक्षा भी कर सकता है। ऐसे आराध्य की मीरा को स्वयं भी जरूरत थी। मीरा ने कृष्ण को वास्तव में ही पति मान लिया था और वह उस कल्पित प्रेम को पाने के लिए लड़ी, यह बात कुछ जचती नहीं यह मीरा को एक अविश्वसनीय बना देता है। असल में मीरा का यह श्रीकृष्ण को पति के रूप में मानना और उसको सार्वजनिक करना उसका बचाव पक्ष है। अपना बचाव वह विधवा रहकर नहीं कर सकी तो उसने दिखावे के लिए एक पति बना लिया। श्रीकृष्ण का मीरा ने सिर्फ इतना ही उपयोग किया है। अब समाज की नजरों में वह विधवा नहीं है और सुहागिन की तरह से ही श्रृंगार करती है।