हम भारत के लोग और भारत का संविधान – कनक तिवारी

कनक तिवारी

पहली बार भारतीय लोगों ने तथाकथित सरकारी अत्याचार से बचने के लिए और उसका प्रतिकार करने के लिए संविधान की तरफ चलने की कोशिश की है। संविधान केवल वकीलों और जजों की जागीर बनकर रह गया था। संविधान इस देश का राजपथ बन गया है इसको हमें जनपथ बनाने की कोशिश करनी चाहिए है।
            जिन मुफ़लिसों के लिए संविधान निर्माताओं ने इसे बनाया था उन्हें हम भूल गए है। आज़ादी की लड़ाई में लड़े तो गरीब और मुफ़लिस थे और जो बहुत-बहुत बड़े लोग थे उनका परिचय जयप्रकाश नारायण के शब्दों में देता हूँ वो बताते हैं ये तमाम बड़े-बड़े लोग उस समय अंग्रेजों के जूते झाड़ रहे थे, उनके तलवे सहला रहे थे। राज गरीब का होना चाहिए था लेकिन राज गरीब का नहीं हुआ। यह बहुत गलत हुआ और अब तक यही चलता आ रहा है और यह एक दुःखद स्थिति है ।

जो लोग देश की आज़ादी की लड़ाई में शामिल थे, राज उनका होना चाहिए था लेकिन राज उनका नहीं हो पाया। पिछले 70 सालों में 104 संविधान संशोधन हो चुके हैं।

अंबेड़कर अगर संविधान सभा में नहीं होते तो, मैं संविधान के एक विद्यार्थी की हैसियत से अपने पूरे ईमान के साथ आपसे कहना चाहता हूँ कि हिंदुस्तान का संविधान बन नहीं सकता था, केवल बाबा साहब अंबेडकर की प्रतिभा थी, जो उसकी एकएक परत को एकएक स्तर को छीलकर एक साफ सुथरा संविधान भारत के लोगों को हमारे भविष्य के लिए दिया।

आज़ादी की लड़ाई में जो लोग शामिल थे वे तो संविधान बनाने में शामिल थे ही उनके साथ जितनी हमारी रियासतें थी उनके प्रतिनिधि भी शामिल थे। उनमें बहुत से पढ़े लिखे लोग जिसमें जज थे, वकील थे, बैरिस्टर थे, अफसर  लोग और रिटायर्ड लोग भी शामिल थे।

जिन लोगों ने संविधान को बनाया उनमें अंग्रेज़ियत का पुट ज्यादा था। संविधान को बनाया गया 1935 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट के आधार पर। संविधान का जो मूल  ड्राफ्ट था, वह सर बी.एन. राव ने बनाया था और उसको संविधान के अन्य सदस्यों की मदद से ठीक करने की कोशिश की गई।

हमारा संविधान सबसे ज्यादा बोलने वाला संविधान है। भारत के संविधान में 90000 शब्द हैं। अमेरिका जैसे ताकतवर देश के संविधान में केवल 7000 शब्द हैं। जब राजेंद्र प्रसाद जो संविधान सभा के अध्यक्ष थे से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि सदियों बाद आजाद होने पर  पहली बार  जिन-जिनको मौका मिला है उन सबको बोल लेने दो और बोल लेने का मौका जिसको मिलता है उसको हिंदुस्तानी अपनी फतेह मानता है और इस तरह हमारा संविधान बहुत बोलकर बना।

दूसरी खासियत हमारे संविधान की एक और है जो दुनिया में शायद किसी और संविधान की ना हो। हमने अपना संविधान बनाना शुरू किया 9 दिसंबर 1946 को हम आजाद हुए 15 अगस्त 1947 को। हमने आज़ादी के पहले संविधान बनाना शुरू किया और खत्म किया 26 नवंबर 1949 को।  हमारा आधा संविधान आज़ादी के पहले बना और आधा आज़ादी के बाद।

जब हमारे संविधान में परेशानियां आती हैं, जब कभी कोई कठिन सवाल आता है, जहां वैक्युम है, जहां कहीं कुछ लिखा नहीं है, वहां इंग्लैंड की जो परंपराएं हैं, हमें तमीज सिखाती है। हम उनसे पूछने जाते हैं कि यहां पर हमें कोई चीज समझ नहीं आ रही है तो आप हमें समझाइए। आज भी ब्रिटिश हुकूमत की, वहां की संस्कृति की, वहां की सभ्यता की, इतिहास की जो बातें हैं उनको पढ़कर हमारा सुप्रीम कोर्ट बड़ी-बड़ी बातें करता है कि देखो हमने फैसला किया सन् 1680 में ऐसा हुआ था, सन् 1750 में ऐसा हुआ था, इंग्लैंड में ऐसा हुआ था। हम इस तरीके की मानसिक गुलामी के संविधान के साथ जीवित हैं, ऐसा कहने में हमें गुरेज तो नहीं होना चाहिए।

हमारा संविधान उन लोगों के लिए है जो जिरह के लिए, पैसे के लिए, जनता की सेवा के लिए इसको पढ़ना चाहते हैं। यह दार्शनिक बोझिल शब्दावली में है, 19वीं सदी की अंग्रेजी में है। 19वीं सदी की अंग्रेजी बड़ी कठिन अंग्रेजी थी हालांकि आलंकारिक थी, शास्त्रीय थी, लेकिन बहुत बोझिल थी और समझ नहीं आती थी। उस तरह की एक बोझिल दार्शनिक शब्दावली में बना है हमारा संविधान। उसको पढ़ने के लिए हिंदुस्तान के लोगो को, हिंदी जानने वालों को तो शब्दकोश देखना पड़ता है, लेकिन दुःख और हैरत इस बात का है कि उस अंग्रेजी में लिखे संविधान का अनुवाद जो हिंदी में किया गया वह अंग्रेजी से भी ज्यादा कठिन है। हमारे शहर दुर्ग से संविधान सभा के एक सदस्य थे घनश्याम जी गुप्त। हिंदी में तर्जुमा करने वाली कमेटी के अध्यक्ष थे। अब उसके बाद आचार्य रघुवीर आए आचार्य रघुवीर की हिंदी और भी आलंकारिक थी।

हमारा संविधान कितनी कठिन हिन्दी में है, मैं आपको संक्षेप में एक बार बता रहा हूँ। हमारे संविधान में अनुच्छेद 49 में अंग्रेजी में लिखा है यह जो हमारी इतिहास की पुरातत्व की इमारतें हैं इनको हम कैसे बचाएं (Protection of monuments and places and objects of national importance : it shall be obligation of state to protect every monument and places and objects  of artistic and historic  importance from exploitation and spoliation) और हिंदी में लिखा है कि हम इस तरह की इमारतों को लूंठन से बचाएंगे। कोई हमें बताएं कि यह लूंठन शब्द कहां से आया।

एक पद्म पुरस्कार होता है इसमें लिखा हुआ है अनुच्छेद 18 में (No Title Not Being a Military or academic distinction Shall be conferred by the state). हिंदी में कहते हैं  विद्या संबंधी। एक्सीलेंस का हिंदी अनुवाद संबंधी होता है क्या? एक्सीलेंस का हिंदी अनुवाद होता है प्रवीणता ।

हिंदुस्तान के संविधान की कल्पना जवाहरलाल नेहरू ने की और उस परिकल्पना को साकार रूप दिया है डॉक्टर अंबेडकर ने।

पूरे पश्चिम का जो आडंबर है, नैतिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक और कलात्मक सब का सब बनाया है तीन बड़े लोगों ने सुकरात और उसके बाद उनके शिष्य प्लेटो और अरस्तू ने। सुकरात सत्य का आग्रही था इसलिए उसको जहर पीना पड़ा। उसके बाद प्लेटो आया जिसने रिपब्लिक लिखा उसने बताया कि कैसे दुनिया को चलाया जाए, संविधान बनाया जाए। उसके बाद अरस्तू और आगे बढ़ कर आए उन्होंने ज्ञान विज्ञान के समस्त क्षेत्र में दखल किया।

गांधी भारत के सुकरात थे। सत्य का जितना आग्रह सुकरात में था उतना ही गांधी में था। सुकरात को जहर पीना पड़ा, गांधी को गोली खानी पड़ी। गांधी का चेला जवाहर लाल प्लेटो का भक्त था। प्लेटो ने ‘रिपब्लिक’ लिखा। रिपब्लिक शब्द नेहरू को बहुत प्यारा था। कभी-कभी विधानसभा में चुहल भी होती थी। संविधान सभा की 12 जिल्दों में इतनी मोटी किताब है, जिसको पढ़ने के बाद पता चलता है कि नेहरू और अंबेडकर में चुहल भी होती थी। नेहरू ने डेमोक्रेटिक शब्द नहीं लिखा। हमारे संविधान की शुरूआत में डेमोक्रेटिक (प्रजातांत्रिक) शब्द  नहीं था।  रिपब्लिक लिखा तो अंबेडकर ने आपत्ति की। बोले, पंडित जी यह रिपब्लिक क्या है? तो पंडित जी बोले कि यह रहेगा। उसके बाद अंबेडकर अरस्तू की शक्ल में आए और अंबेडकर ने संविधान बनाया।

अंबेड़कर अगर संविधान सभा में नहीं होते तो, मैं संविधान के एक विद्यार्थी की हैसियत से अपने पूरे ईमान के साथ आपसे कहना चाहता हूँ कि हिंदुस्तान का संविधान बन नहीं सकता था, केवल बाबा साहब अंबेडकर की प्रतिभा थी, जो उसकी एक-एक परत को एक-एक स्तर को छीलकर साफ कर एक साफ सुथरा संविधान भारत के लोगों को हमारे भविष्य के लिए दिया।

समाजवाद शब्द हमारे संविधान में शुरू में नहीं था। संविधान में समाजवाद के बारे में दो मिनट मैं आपसे समझना चाहता हूँ भारत के राजनैतिक इतिहास में समाजवाद नाम का पहला शब्द विवेकानंद ने कहा था कालक्रम में क्योंकि वह पहले पैदा हुए थे हालांकि उनका समाजवाद वेदांतिक समाजवाद था। गांधी ने भी कहा कि मैं केवल समाजवाद चाहता हूँ हालांकि उनका समाजवाद सर्वोदय समाजवाद था। उसके कालक्रम में नेहरू का समाजवाद वह फेबियन समाजवाद था, लास्की का,  बर्टेंड रसेल और बर्नाड शॉ का और तमाम लोगों का। अगला समाजवाद लोहिया का समाजवाद था, जो जर्मनी का समाजवाद था। इसके बाद समाजवाद शब्द का असली उच्चारण भगत सिंह ने किया जिसने रूस के तमाम लोगों को पढ़ रखा था, पूरे वामपंथ को पढ़ रखा था। हमारे अलग-अलग तरह के समाजवाद के चेहरे थे लेकिन जब हमारे देश में समाजवाद आया, हमारे देश का संविधान बना, उसमें समाजवाद नाम का कोई शब्द नहीं था। यह तो इंदिरा गांधी ने अपने राजनीतिक वजूद को बचाने के लिए 42 वें संविधान संशोधन में समाजवाद और पंथ निरपेक्षता को जोड़ा तब ये शब्द आए।

हिंदुस्तान के समाजवाद, हिंदुस्तान के संविधान के मर्म को समझने में हमने कुछ गलतियां की हैं। इतिहास केवल नायकों का होता है। कार्लाइल ने कहा है केवल नायक जो होते हैं उनकी कहानी ही इतिहास है। संविधान के बनाने में भी नायक थे कुछ नाम है उनको नहीं भूलना चाहिए। प्रोफेसर के.टी. शाह, दामोदर स्वरूप सेठ, काजी नजीरूद्दीन, मौलाना हसरत मोहानी, विशंम्भर दयाल त्रिपाठी, एस. नागप्पा और इस तरह के कई नाम हमारे यहां ऐसे गुमनाम सदस्य हुए हैं। हमने इनको महत्व नहीं दिया इनके सारे संशोधनों को खारिज कर दिया।

महात्मा गांधी ने एक किताब लिखी। 70-80 पेज की किताब है हिंद स्वराज। आप इस किताब को जरूर पढ़िए। वह 1909 में बैरिस्टर गांधी ने लिखी थी, महात्मा ने नहीं। एक वाक्य उसमें लिखा है कि ब्रिटेन की संसद को हिंदुस्तान में मत लाओ, यह संसद वेश्या है। एनी बेसेंट ने कहा कि बापू यह क्या कर रहे हैं, आप शरीफ़ आदमी इतना सभ्य, सुसंस्कृत, संस्कारिक, शास्त्रीय उच्च कोटि का विद्वान, इतना अहिंसक, आप वेश्या लिखते हैं संसद को। गांधी ने कहा कि मुझसे गलती हो गई मैं वेश्या नहीं कहूँगा। संसद वेश्या नहीं है संसद नर्तकी है, वह प्रधानमंत्री के इशारे पर नाचती है।

सुप्रीम कोर्ट ने एक बार नहीं बारबार कहा है कि इस भारत में सार्वभौम कोई नहीं है, कोई विशेष नहीं है, तो सुप्रीम कोर्ट है, तो हाईकोर्ट है, तो प्रधानमंत्री है, तो राष्ट्रपति है और ही संविधान खुद है। इस हिंदुस्तान में सार्वभौम अगर कोई है तो हम भारत के लोग सार्वभौम हैं, हम मालिक हैं।

हमारा संविधान जब बना तब बाबा साहब अंबेडकर ने डंके की चोट पर दो बार आखिरी दिन कहा कि संविधान है क्या? यह हमारी नीयत का, हमारी नियति का कागज का पुर्जा, किताब है। आगे आने वाली सरकार संसद कैसे चलाएगी यह हमारे हाथ में नहीं है। आगे चलकर बाबा साहब ने कहा जब उन्होंने कांग्रेस छोड़ी कि मेरे बस में हो तो मैं संविधान को जला दूँ। यह कागज का टुकड़ा अब किसी काम का नहीं है। बाद की पीढ़ियों ने संविधान के साथ जिस तरह का सुलूक किया आप उसको याद रखने की कोशिश करो। इस तरह संविधान का लालन पालन नहीं होता है। 

हिंदुस्तान में किसकी हुकूमत चलनी चाहिए, किसका देश है यह, हिंदुस्तान का संविधान क्या कहता है। हमारा देश सभी मजहबों का, सभी विश्वासों का, सभी जातियों का, सभी धर्म के लोगों, सबका एक साथ मिलकर चलने वाला देश है। एक वाक्य आपको याद दिलाता हूँ, पंथनिरपेक्षता को सबसे ज्यादा समझा था स्वामी विवेकानंद ने 11 सितंबर 1893 को जब शिकागो धर्म सम्मेलन में भाषण दे रहे थे, इतिहास इस बात का गवाह है एक वाक्य उन्होंने कहा था जिस पर सबसे पहले तालियां बजी। वह रामकृष्ण मिशन को भी सन् 1950 तक नहीं मालूम था यह मैं जिम्मेदारी से कह रहा हूँ। 1950 के आसपास मेरी लुई वर्क नाम की एक महिला ने छह खंडों में अमेरिका में और यूरोप में विवेकानंद नाम की अंग्रेजी में किताब लिखी उसमें एक वाक्य लिखा जो विवेकानंद ने उस सभा में कहा था कि मैं उस पवित्र देश और उसकी भाषा संस्कृत का गौरव करता हूँ जिस भाषा में बहिष्कार नामक शब्द का अनुवाद भी नहीं होता है। यह संविधान का मर्म है यह हमारा संविधान है हम किसी का बहिष्कार नहीं करते हम आत्मस्वीकार करते हैं। मित्रों, जितने मजहब और बोलियां हिंदुस्तान में है उतनी दुनिया में कहीं नहीं है। जिस तरह के लोग यहां पर हैं, दुनिया में कहीं नहीं है। यह विश्वास का हलफ़नामा है, हमारा मुल्क यह देश नहीं, यह दुनिया है। यह स्वर्ग की तरह है।

रामकृष्ण मिशन विवेकानंद आश्रम में एक स्वामी वैरागी जी महाराज रहते थे। वह बिल्कुल पढ़े-लिखे नहीं थे। हम लोगों को बुलाया गया कि सेक्युलेरिज्म पर भाषण दीजिए। अलग-अलग धर्म के लोग हम लोग बोल रहे थे। स्वामी जी आकर बैठ गए आखिर में कहा कि ‘मैं एक वाक्य बोल दूं क्या। मुझे समझ नहीं आया कि आप लोग क्या बोलते हैं’ तो लोगों ने कहा कि आप बोलिए तो वैरागी जी आए उन्होंने कहा कि देखो भैया हम धर्मनिरपेक्षता को तो नहीं जानते लेकिन एक बात जानते हैं कि चौका हो हिंदू का, बनाए मुसलमान और खाए इसाई यही धर्मनिरपेक्षता है। धर्मनिरपेक्षता की इससे बेहतर और क्या परिभाषा है।

कितना अच्छा लगता है कहने में हम भारत के लोग हमने अपना संविधान बनाकर उसको आत्मार्पित किया है। कौन हैं भारत के लोग? हिंदुस्तान की जनता ने वोट दिया था। अपने नुमाइंदे चुने थे। उन नुमाइंदों ने हमारा संविधान बनाया। गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 के छठवीं अनुसूची के हिसाब से कुछ खास लोग वोट दे सकते थे, जो पढ़े लिखे होने चाहिए, कुछ कमाई होनी चाहिए, चरित्र ठीक-ठाक होना चाहिए।

28.5%  ने उस वक्त वोट देकर संविधान सभा बनाई, वह हम भारत के लोग हो गए और डॉक्टर अंबेडकर का जहन था, डॉ. आंबेडकर की अहमियत थी, उनका कहना था कि हम हिंदुस्तान के लोग ही अपना संविधान बना रहे हैं। यह आपको उसकी प्रस्तावना में लिखना पड़ेगा और यह मुखड़े में लिख करके उसकी तासीर बनाई गई कि हाँ हम हिंदुस्तान के लोगों ने अपना संविधान बनाया है। लेकिन कहां है हम भारत के लोग? हम भारत के लोग गुम हो गई इकाइयां हैं। हम भारत के लोगों को समझना चाहिए कि हम कौन हैं?

सुप्रीम कोर्ट ने एक बार नहीं बार-बार कहा है कि इस भारत में सार्वभौम कोई नहीं है, कोई विशेष नहीं है, न तो सुप्रीम कोर्ट है, न तो हाईकोर्ट है, न तो प्रधानमंत्री है, न तो राष्ट्रपति है और न ही संविधान खुद है। इस हिंदुस्तान में सार्वभौम अगर कोई है तो हम भारत के लोग सार्वभौम हैं, हम मालिक हैं, हम डरे हुए क्यों हैं? हम पस्त हिम्मत क्यों हैं? हम घबराए हुए क्यों हैं? हम गुलाम मनोवृति के क्यों हैं? किस तरह के हम भारत के लोग हैं? भारत के लोगों को संविधान ने सिखाया है कि हम किसी तरह अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश करें। कुछ मूल अधिकार भी हम को दिए गए हमको अधिकार दिया गया है, कि हम बोल सकते हैं, हमको अधिकार दिया गया है कि हम एक अहिंसक सम्मेलन कर सकते हैं, हमें अधिकार दिया गया है कि हम कहीं देश में कहीं भी जाकर बस सकते हैं, रोजगार कर सकते हैं। इन अधिकारों को हम कैसे अमल में लाएं, कैसे सरकार से तामील करें?

जिन्होंने संविधान बनाया था उन्होंने सर बी एन राव को अमेरिका भेजा। हमने जो मूल अधिकार बनाए हैं यह अमेरिका के मूल अधिकारों से हमने नकल की है। सेंट मेरी, सेंट पीट्सबर्ग के बहुत बड़े भाषण में अब्राहम लिंकन ने जो कहा था और उसको फिलाडेल्फिया में जब संविधान बना उसमें जो कसम खाई गई थी उसमें बहुत सी बातें कही। अमेरिका के संविधान में लिखा है कि जो मूल अधिकार हैं  (They Shall be given to the people unless apporgated by the due process of law) अगर कानून की नैतिकता की संवैधानिकता की किसी वजह से इसको ना हटाया जाए तो जनता को संविधान के अधिकार मिलेंगे। फिरिक्स फ्रैंकफर्ट ने कहा कि हिंदुस्तान की जनता को अपने अधिकारों का मालूमात नहीं है। आपकी जनता सदियों से गुलाम है। अगर आप उसमें लिख देंगे कि ड्यू प्रोसेस ऑफ लॉ तो यदि आपको सरकार प्रताड़ित करती है, सरकार प्रतिबंधित करती है तो सरकारें डूब जाएंगी। तो लिहाजा उसको बदलिए और उसमें लिख दीजिए, (By the procedure established by law) बाय द प्रोसीजर इस्टैबलिश्ड बाय लॉ। अगर कानून से प्रक्रिया बना दी जाए तो उस प्रक्रिया के तहत। तो इस प्रकार से सत्तर साल से सरकार हम को लूट रही है। 70 साल से इतने कानून बन रहे हैं।हम सरकारों का कुछ बिगाड़ नहीं पा रहे हैं। जितने चाहे उतने उल्टे सीधे कानून बना दिए जाते हैं। एक फिल्म बनी थी ‘आर्टिकल-15’ अनुभव सिन्हा की। उसको आपने देखा होगा, बहुत बेहतरीन फिल्म है। आर्टिकल-15 कहता है कि हिंदुस्तान के नागरिक केवल धर्म, मूल, वंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान, या इनमें से किसी के आधार पर दुकानों, सार्वजनिक, भोजनालय, होटलों और सार्वजनिक मनोरंजन के स्थानों में प्रवेश या जनता के प्रयोग के लिए कोई तालाब या कब्रिस्तान वगैरह में भेदभाव का शिकार नहीं बनेंगे।

संविधान सभा की बहस में यह भी हुआ। एक ताहिर हुसैन थे बिहार के। उन्होंने बोला कि हमारे बिहार में अनुसूचित जाति का कोई आदमी किसी सड़क पर चलता है तो उसको मार देते हैं। ताहिर हुसैन ने कहा कि ‘एक बात और है कि अगर किसी को कब्रिस्तान में दफनाया जाए या श्मशान में जलाया जाए तो इस बात का फैसला कैसे होगा? अगर हम ले जाएं तो कोई रोक देगा तो क्या होगा?’ दूसरे सदस्य थे मद्रास के एस. नागप्पा, अनुसूचित जाति के थे। उन्होंने सवाल किया कि ‘आप एक बात बताइए- नाई और धोबी की दुकान में कोई जाए अपनी जाति न बताए और फिर नाई और धोबी उससे पूछे की जाति बताओ और वह जाति बता दे तो क्या नाई और धोबी उसको सेवा करने से इंकार कर सकता है?’ और एक तीसरा सवाल आया सिबलाल सक्सेना का उन्होंने पूछा कि ‘राम भरोसे हिंदू होटल में मौलाना शौकत अली अगर खाना खाने चले गए तब क्या होगा?’  बाबा साहब ने जवाब दिया कि देखो भाई नाई या धोबी जो होगा वह तो सेवक है, उसके आप पैसे देते हैं सेवा के, तो वह इंकार नहीं कर सकते कि हम आपकी सेवा नहीं करेंगे। शमशान और कब्रिस्तान के बात जहां तक है, वह तो अलग-अलग धर्म का मामला है और वह अलग-अलग मज़हब के लोग बनाते हैं तो उसमें सरकार क्या कर सकती है। राम भरोसे हिंदू होटल पर मौलाना शौकत अली जाएंगे भोजन करने इसका जवाब अंबेडकर ने नहीं दिया। वह जवाब आज भी हम मांग रहे हैं वह जवाब पूरे हिंदुस्तान में मांगा जा रहा है।

एक और दिक्कत हुई  कि संविधान में तीन तरह के उल्लेख हैं। जब बना तो उसमें लिखा गया हमारे यहां अध्याय 4 है जिसे कहते हैं नीति निर्देशक सिद्धान्त। हमारे सपने जो भविष्य में पूरे करेंगे उसमें पूरा गांधी भरा हुआ है, गांधी भारत का सपना है और सपना वह जो पूरा न किया जाए, जो भविष्य की पीढ़ी के लिए छोड़ दिया जाए। उसमें एक जगह लिखा है कि राज्य पूरी कोशिश करेगा 6 वर्ष से ज्यादा और 14 वर्ष से कम सभी बच्चों को शिक्षा दी जाए फिर राज्य ने संशोधन किया अनुच्छेद 21 (क) कि राज्य 6 वर्ष से ज्यादा और 14 वर्ष से कम इसके बच्चे को अधिकार होगा कि सरकार उसको पढ़ाए। अब 14 वर्ष के बाद क्या होगा एक गरीब के बच्चे को किसी अच्छे स्कूल में दाख़िला नहीं मिलता। यह हम जानते हैं लेकिन सरकार अगर पीछे पड़ जाए, संवैधानिक अधिकार है तो प्राइवेट स्कूलों में आरक्षण दिया हुआ है, वहां पढ़ाते हैं तो मान ले कि पढ़ाते हैं। 14 वर्ष तक बच्चा आठवीं कक्षा पास करता है। एक गरीब का बच्चा आठवीं दर्जा पास करने के बाद कहां जाएगा? 18 वर्ष में बालिग होता है। राजीव गांधी की सरकार ने 18 वर्ष में वोटिंग का अधिकार दिया है। 14 से 18 वर्ष के बीच की आयु में उसमें हिंदुस्तान के किसी गरीब के बच्चे को पढ़ने का अधिकार नहीं है। 14 से 18 वर्ष की उम्र के दरमियान बच्चों में शारीरिक बदलाव होते हैं यही वह उम्र है जब बच्चे विज्ञान के लिहाज से बदलते हैं। इस देश के संविधान ने, सरकारों ने 14 से 18 वर्ष के बच्चों के लिए अनिवार्य शिक्षा नहीं रखी है। इससे हिंदुस्तान में 14 से 18 वर्ष के बच्चों के अंदर अपराध का ग्राफ बढ़ गया है, यह संविधान की अवहेलना करके सरकारों ने किया है।

हिंदी के बहुत बड़े लेखक थे शरद जोशी। वह कहते थे स्कूल किसको कहते हैं? जहां शाला भवन, विद्यार्थी और शिक्षक इन तीन में से दो होते हैं उसको स्कूल कहते हैं। इस तरह के स्कूल सारे देश के अंदर चल सकते हैं।

इस देश में इंकलाब हो रहा है, मैं खुलकर विनम्रता से इस बात को कहना चाहता हूँ। 1942 में  ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन  गांधी का आंदोलन नहीं था। यह आंदोलन नौजवानों का आंदोलन था। 1942 में जितने लोग शहीद हुए, जितने नौजवान शहीद हुए वह बहुत बड़ी बात थी, लेकिन हमारे साथ बहुत से नेता थे।

आज जो दिल्ली में हो रहा है, और उसके साथ पूरे हिंदुस्तान में जो हो रहा है, उसमें कोई बड़ा नेता नहीं है। हिंदुस्तान के नौजवान, हिंदुस्तान के पढ़े-लिखे नौजवान जिनमें शोध छात्र हैं, पढ़े-लिखे लड़के हैं, लड़कियां हैं, बुर्कापरस्त औरतें हैं, बच्चे हैं, बूढ़े हैं तमाम लोग हैं आज जो  इंकलाब कर रहे हैं यह बड़ा इंकलाब है। 1942 के इंकलाब से एक कदम आगे है। यह इंकलाब संविधान के बल पर किया जा रहा है। वे किसी राजनीतिक पार्टी के साथ नहीं है। राजनीतिक पार्टियों को किसी आंदोलन में घुसने का मौका नहीं मिल रहा है, यह ऐसा आंदोलन है, इसलिए यह संविधान का आंदोलन है, बाबा साहब का आंदोलन है, गांधी का आंदोलन है, इन चीजों को लेकर आज हिंदुस्तान के नौजवान चल रहे हैं। मैं उनको बधाई देना चाहता हूँ।

जो लोग हिंदुस्तान के नौजवानों से परहेज करते हैं उनमें मेरी गिनती मत करना। एक आदमी हुआ है जिसका नाम था के. टी. शाह। हमारे संविधान में एक पैरा है अनुच्छेद 39 का, उसमें लिखा है कि जितने हमारे कुदरती साधन है देश के वह पूरे देश के काम आएंगे। लिखा है पूरे प्राकृतिक संसाधन जनता के काम आएंगे। के.टी. शाह ने कहा था डॉक्टर अंबेडकर, नेहरू जी जनता से क्या मतलब है? जनता में वह भी शामिल होंगे जो कॉर्पोरेट हैं, जो बड़े आदमी हैं। इसलिए उसे साफ साफ करिए कि सरकार के काम आएंगे, सरकार के मार्फत जनता के काम आएंगे। लेकिन वह बात मानी नहीं गई। ऐलानिया कहा था के.टी. शाह ने, उनका समर्थन और लोगों ने किया उन्होंने कहा कि इस संविधान सभा में जो बैठे हैं।   यह खून चूसने वाले बैठे हैं। कुछ नाम लेकर कहा कि यह खून चूसने वाले संविधान सभा के सदस्य हैं जो आपको गुमराह करके गलत संविधान बनवा रहे हैं और देखना जब हिंदुस्तान आजाद होगा तो हमारी जितनी कुदरती दौलत है, लोहा, इस्पात, एल्यूमीनियम, बॉक्साइट और तमाम इस पर इनका एकाधिकार हो जाएगा। आज देश की दौलत 5% से कम लोगों के पास है। यह संविधान के उस अनुच्छेद को नकारने के कारण हुई है। हम शर्मसार हैं कि संविधान की बहुत सी बातों को हम ठीक से लागू नहीं करा सकते।

जब देश और दुनिया में खत्म हो रही है। तब ऐसी स्थिति में हिंदुस्तान के बुद्धिजीवी क्या कर रहे हैं? केवल कविता, कहानी, लिखना अच्छी बात है लेकिन सामाजिक विज्ञान के जिरह को आगे बढ़ाना हिंदी भाषा में हम सब का मिलाजुला कर्तव्य है हमें उसे पूरे जोर से करना चाहिए।

एक छोटी-सी घटना बता दूं। मैक्सिको पर अमेरिका ने हमला किया तो मैक्सिको पर हमला करने के कारण एक जजिया कर जैसा टैक्स लगाया गया। एक  विद्वान हेनरी डेविड थोरो हुआ करते थे। उन्होंने कहा कि यह टैक्स मैं नहीं दूंगा, यह जुल्म का टैक्स है तो टैक्स उन्होंने नहीं दिया। अमेरिका की सरकार ने टैक्स नहीं देने के कारण थोरो को गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया हालांकि वह 24 घंटे जेल में रहे। किसी ने टैक्स भर दिया तो उन्हें छोड़ दिया गया। उनके दोस्त इमर्सन उतने ही बड़े विद्वान थे। थोरो गांधी के गुरू थे। इमर्सन से विवेकानंद प्रभावित थे। वह गए। इमर्सन ने थोरो से सवाल किया कि भाई थोरो तुम यहां क्यों हो? वह जेल के अंदर थे। इमर्सन से थोरो ने पूछा तुम यहां क्यों नहीं हो?

जब देश और दुनिया में खत्म हो रही है  तब ऐसी स्थिति में हिंदुस्तान के बुद्धिजीवी क्या कर रहे हैं? केवल कविता, कहानी, लिखना अच्छी बात है लेकिन सामाजिक विज्ञान के जिरह को आगे बढ़ाना हम सब का मिला-जुला कर्तव्य है। हमें उसे पूरे जोर से करना चाहिए।

श्याम बेनेगल ने 20 किस्तों का संविधान पर एक सीरियल बनाया है मेरी गुजारिश है कि यह सीरियल आप नौजवानों को और जनता को दिखा दीजिए। संविधान आपका बहुत अहसान मानेगा जिससे मैं इनका अहसान मानूंगा।

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