अशोक भाटिया की कविताएं

अशोक भाटिया

    स्त्री का सच

 भरे-पूरे घर में
स्त्री के मुंह में
लगी है कटी ज़ुबान
पर दुनिया को दिखती है
लिपस्टिक की हंसी
 
शोर से भरे घर में
स्त्री के कान में
पड़ा है पिघला सीसा
दुनिया को दीखते हैं सुंदर टॉप्स
 
रंग-बिरंगे घर में
स्त्री की आंखों पर चढ़े हैं
पुरुष के बनाए चश्मे
जो सपनों में भी नहीं उतरते
पर दुनिया को दिखती है काजल की चमक
 
सिर पर तेल
देह पर साड़ी लपेट
अपनी घुटन में
जीती है एक स्त्री
जिसे दुनिया सुंदर कहती है...

सवाल

 गर्मी
स्वैटर की ऊन में है
या
मोंटे कार्लो की स्लिप में
 
जान
जींस के कपड़े में है
या
एडिडास के नाम में
 
स्वाद
बेसन की भुजिया में है
या
हल्दीराम के पैक में
 
ऊन उगाती भेड़
कपड़ा बुनते जुलाहे
और हल चलाते किसान को
जवाब नहीं सूझ रहा...

सबकी तरह

 सबकी तरह उसे
हवा ने हवा दी
पानी ने पानी
धूप ने धूप दी
बाजार ने साग-सब्ज़ी
 
सबकी तरह उसे
किरयाने ने
आटा-दाल
रसोई ने रोटी दी
दुकान ने
कागज़ कलम दवात
स्कूल ने पढ़ाई दी
 
सबकी तरह उसे
डॉक्टर ने दवा दी
समय ने मृत्यु
 
सबकी तरह
श्मशान में उसे
लकड़ी ने जलाया
मिट्टी ने गले लगाया
फिर भी ताउम्र अछूत कहलाया !

धार्मिकता

 जो धार्मिक होता है
वह झूठ नहीं बोलता।
जो झूठ बोलता है
वह धार्मिक नहीं होता।
 
जो धार्मिक होता है
वह हिंसा नहीं करता।
जो हिंसा करता है
वह धार्मिक नहीं होता।
 
जो धार्मिक होता है
वह नफ़रत नहीं करता।
जो नफ़रत करता है
वह धार्मिक नहीं होता।
 
जो धार्मिक होता है
वह आदमी आदमी में फ़र्क नहीं करता
जो आदमी आदमी में फ़र्क करता है
वह धार्मिक नहीं होता।

स्त्री

 
वह सती बनकर मरी
वह देवी बनकर मरी
वह बेज़ुबान रहकर मरी
वह कुलटा कहलाई
और मारी गई
उसने प्रेम किया
पापिष्ठा कहलाई
और मारी गई
 
वह मरी भी
और मारी भी गई....

उड़ान


उसने चिड़िया से पूछा
कैसे उड़ोगी
कितना उड़ोगी
कितनी दूर उड़ोगी
किनका ध्यान कर उड़ोगी
उड़ने की सीमा जानती हो?
 
चिड़िया बोली
पंख मेरे
मन मेरा
आकाश मेरा
तुम्हें क्यों बताऊं
देखना हो
तो मेरा उड़ना देखो
 
यह कह चिड़िया
फुर्र हो गई....

फूल बनाम स्त्री

 
फूल था तो फूल था
थोड़ा खुला तो मुस्कुराया
खिल उठा तो हँस दिया
हँसा तो खुशबू फैल गई
सृष्टि की दसों दिशाओं में
 
फूल चाहे घाटी में उगे
गमले या पत्थर में
कुदरत का कोई पहरा नहीं
वह तो खिलाती उसे
हवा पानी धूप की गोद में
फूल को तभी तो
खिड़े मत्थे देखा सदा
स्त्रियों की तरह
घुटन परेशानी में नहीं...
 

स्मृतियों में माँ

 
सदा गतिशील नहीं होता
बलवान समय भी रुकता है
 
एक लाठी
अपने को पकड़े जाने की
इंतज़ार में खड़ी है
कई दिनों से
एक जोड़ी चप्पल
अपने को पहने जाने की
इंतज़ार में पड़ी है
 
एक दवा
खाए जाने के
एक चादर बिछाए जाने के
कपड़ों की अटैची
खोले जाने के
तकिया
सिर रखे जाने के
और एक थाली
आखरी बार
भोजन रखे जाने के
इंतज़ार में है
कई दिनों से
 
सदा गतिशील नहीं होता
बलवान समय भी रुकता है।

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