हिन्दी के आलोचक – 18
रमेश कुन्तल मेघ (जन्म : 1.6.1931 ) का विशालकाय ग्रंथ ‘विश्वमिथक सरित्सागर’ अपने ढंग का हिन्दी में अकेला ग्रंथ है. इस पुस्तक में मेघ जी ने देश- विदेश के समाजों, संस्कृतियों, विचारों, मूल्यों, परंपराओं, ग्रंथों, इतिहासों, कहानियों, प्रतीकों, दृष्टांतों, नृत्यों, खेलों, इमारतों, नाटकों आदि सभी कुछ को समेट लिया है. इसमें विश्व के लगभग पैंतीस देशों की मिथक गाथा, विश्व धरोहर की संस्कृतियों की मिथक-चित्र-आलेखकारी, विश्व के मिथक-भौगोलिक मानचित्रों का लेखा –जोखा तथा दुर्लभ विश्वमिथक गाथाओं को शामिल किया गया है.
विश्व भर के मिथकों का अस्तित्व मुख्यत: दो प्रश्नों पर टिका हुआ है- पहला यह कि सृष्टि कैसे बनी और कैसे चलती है और दूसरा यह कि मानव कैसे जन्मा ? लेखक ने मिथकीय परिप्रेक्ष्य में इन दोनो प्रश्नों के जवाब तलाशने की भी कोशिश की है.
रमेश कुन्तल मेघ साहित्य के मूल्यांकन के लिए मार्क्सवादी नजरिए को सर्वाधिक उपयुक्त मानते हैं. ‘मिथक और स्वप्न’ ‘कामायनी की मनस्सौन्दर्य सामाजिक भूमिका’,‘आधुनिक बोध और आधुनिकीकरण’, ‘मध्ययुगीन रस-दर्शन और समकालीन सौन्दर्यबोध’, ‘तुलसी : आधुनिक वातायन से’, ‘कला शास्त्र और मध्यकालीन भाषिकी क्रान्तियां’, ‘सौन्दर्यमूल्य और मूल्यांकन’, ‘क्योंकि समय एक शब्द है’, ‘मानव-देह और हमारी देह-भाषायें’, ‘अथातो सौन्दर्य जिज्ञासा’, ‘साक्षी है सौन्दर्य प्राश्निक’, मन खंजन किनके’ आदि उनकी अन्य प्रमुख समीक्षा-कृतियां हैं.
निश्चित रूप से मेघ जी ने हिन्दी की मार्क्सवादी आलोचना के फलक को व्यापक बनाया है तथा आलोचना में अंतरानुशासन को खास महत्व दिया है. उनके लेखन का क्षेत्र साहित्य नहीं, बल्कि समाजविज्ञान है.
मेघ जी का अध्ययन फलक व्यापक है. उनकी समीक्षा-दृष्टि के विकास में मिथकों से लेकर समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, नृतत्वशास्त्र, सौन्दर्यशास्त्र आदि सबकी भूमिका है. जयशंकर प्रसाद और तुलसी के अलावा उन्होंने आधुनिक कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध आदि सभी क्षेत्रों से चुनी हुई कृतियों की समीक्षा की है. उपन्यासों में ‘बाण भट्ट की आत्मकथा’, ‘मृगनयनी’, ‘झूठा सच’, ‘बलचनमा’, ‘चारुचंद्रलेख’, ‘धरती धन न अपना’ आदि की उन्होंने संतुलित समीक्षाएं की हैं. किन्तु, मिथकों पर किया हुआ उनका कार्य ऐतिहासिक और हिन्दी में अद्वितीय है।
मेघ जी की आलोचना पद्धति पर सटीक टिप्पणी करते हुए निर्मला जैन लिखती हैं, “साहित्यिक आलोचना के आयतन को विस्तृत करने का एक अलग ढंग का प्रयास डॉ. रमेश कुन्तल मेघ ने किया. उन्होंने रचनाओं को नृविज्ञान, कला शास्त्र, मनोविश्लेषण शास्त्र, समाजविज्ञान आदि के संश्लेष से समझने की वकालत भी की और प्रयोग भी कर दिखाए. ‘तुलसी’ और ‘कामायनी’ के आधुनिक मिथकीय अध्ययनों ने इन रचनाओं के अध्ययन की मौलिक पद्धति तो सुझाई और उसका व्यवहार भी कर दिखाया पर उनकी आलोचना की शब्दावली इतनी मेघाच्छन्न और दुरूह हो गई कि उसकी राह से गुजरकर रचना के स्वरूप को समक्ष पाना दुष्कर था. कृति की अर्थ-छवि उद्घाटित होने के बजाय अप्रचलित पारिभाषिक शब्दावली ( स्वरचित ) के वाग्जाल में उलझकर रह गई. इस हद तक कि उनके गुरु आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ही एक बार परिहास में उनकी रचनाओं के ‘हिन्दी अनुवाद’ कराने की सिफारिश कर डाली.” ( हिन्दी आलोचना का दूसरा पाठ, पृष्ठ-151)
निश्चित रूप से मेघ जी ने हिन्दी की मार्क्सवादी आलोचना के फलक को व्यापक बनाया है तथा आलोचना में अंतरानुशासन को खास महत्व दिया है. उनके लेखन का क्षेत्र साहित्य नहीं, बल्कि समाजविज्ञान है. वे मानते हैं कि सौन्दर्य के साथ चिन्तन जरूर आना चाहिए और चिन्तन की परिधि में राजनीति, अर्थनीति समाजशास्त्र आदि का आना अनिवार्य है.
मेघ जी अपने को ‘आलोचिन्तक’ कहते हैं. यानी, आलोचक और चिन्तक का सुंयुक्त रूप. इतना ही नहीं, वे अपने आप को कार्ल मार्क्स का ‘ध्यान शिष्य’ और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का ‘अकिंचन शिष्य’ मानते हैं. उनकी अन्यतम कृति ‘विश्वमिथक सरित्सागर’ पर उन्हें 2017 का प्रतिष्ठित साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ है.
रमेश कुन्तल मेघ आज भी सक्रिय हैं और मार्क्सवादी आलोचना दृष्टि पर उनकी आस्था आज भी बरकरार है. हम उन्हें बधाई देते हैं और सतत स्वस्थ व सक्रिय रहने की शुभकामनाएं देते हैं.
( लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं.)