हिन्दी के आलोचक – 15
आचार्य रामचंद्र तिवारी ( 4.6.1924- 4.1.2009) शास्त्रीय और व्याख्यात्मक आलोचना के मानदंड की तरह हैं. उन्हें किसी विशेष विचारधारा से जोड़कर नहीं देखा जा सकता. वे आचार्य रामचंद्र शुक्ल की परंपरा के ही आलोचक हैं और रस सिद्धांत को साहित्य के मूल्यांकन के लिए सर्वाधिक उपयुक्त मानदंड मानते हैं. किन्तु उन्होंने शुक्ल जी का भी अंधानुकरण नहीं किया है. उन्हें जहां भी जरूरत महसूस हुई, विनम्रतापूर्वक अपनी असहमति दर्ज की है. शुक्ल जी के रस संबंधी विवेचन पर अपनी सहमति व्यक्त करते हुए वे शुक्ल जी द्वारा सूरदास के विरह वर्णन को “बैठे ठाले का काव्य” कहने पर अपनी असहमति दर्ज करते हैं और कहते हैं, “वस्तुत: तुलसी को सर्वत्र आदर्श मानकर शुक्ल जी कहीं- कहीं सूर के साथ न्याय नहीं कर पाए हैं. गोपियों के सामने प्रश्न दूरी का नहीं, व्यक्तित्व का है. वे रस रूप कृष्ण की प्रेमिका हैं, राजनीतिज्ञ कृष्ण की नहीं. यदि वे मथुरा जातीं तो भी उन्हें उनका अपना ‘कन्हैया’ कहां मिलता ? वे तो “मोर- मुकुट मकराकृत कुंडल पीत -वसन वनमाली” को प्रेम करती थीं. चक्रसुदर्शनधारी से उनका कोई नाता नहीं था. इसके अतिरिक्त सूर पुष्टिमार्गीय भक्त हैं. पुष्टिमार्ग में भगवान स्वयं आकर भक्त पर अनुग्रह करते हैं. भक्त तो साधनरहित है. वह प्रेम कर सकता है, केवल प्रेम. सूर के काव्य का केन्द्र बिन्दु यही प्रेम है.” ( मध्ययुगीन काव्य साधना, पृष्ठ-120)
वे आचार्य रामचंद्र शुक्ल की परंपरा के ही आलोचक हैं और रस सिद्धांत को साहित्य के मूल्यांकन के लिए सर्वाधिक उपयुक्त मानदंड मानते हैं. किन्तु उन्होंने शुक्ल जी का भी अंधानुकरण नहीं किया है. उन्हें जहां भी जरूरत महसूस हुई, विनम्रतापूर्वक अपनी असहमति दर्ज की है.
तिवारी जी ने अपनी भावयित्री प्रतिभा का सदुपयोग मध्यकालीन और आधुनिक साहित्य की सम्यक व्याख्या और विवेचना में किया है. वे मध्यकालीन काव्य के मर्मज्ञ हैं. ‘मध्ययुगीन काव्य साधना’, ‘कबीर और भारतीय संत साहित्य’, ‘कबीर मीमांसा’, ‘रीतिकालीन हिन्दी कविता और सेनापति’, ‘शिवनारायणी सम्प्रदाय और उसका साहित्य’, ‘कविवर लेखराज, गंगाभरण तथा अन्य कृतियाँ’, ‘राधाकृष्ण भक्ति : स्वरूप और अवदान’ जैसी पुस्तकें इसका प्रमाण हैं. उन्होंने प्रेम को मध्यकालीन कविता के केन्द्रीय तत्व के रूप में रेखांकित किया है और कबीर तथा तुलसी के साहित्य का खासतौर पर अनुशीलन किया है. तुलसी और कबीर दोनो भिन्न भाव के कवि हैं किन्तु तिवारी जी ने दोनो के मूल्यांकन में ऐतिहासिक – सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य का विश्लेषण करते हुए दोनो के काव्य के सकारात्मक मूल्यों का बारीकी से विश्लेषण किया है. वे कहते हैं, “तुलसी से पूर्व कबीर के सामने भी वर्ण-व्यवस्था और छुआछूत की जटिल समस्या विद्यमान थी. उन्होंने इसपर प्रबल प्रहार करते हुए इसका तर्कपूर्ण खंडन किया. उनमें अपार साहस और आत्मविश्वास था. वे सामाजिक भेदभाव ( हदों मे बँटे हुए समाज ) से भरे हुए समाज को स्वीकार न करने के प्रयत्न में बेहद्दी मैदान ( रहस्य लोक ) में विचरण करने लगे. उनके द्वारा दिखाए गए मार्ग पर न तो हिन्दू चले न मुसलमान. … तुलसी के लिए आज से 500 वर्ष पूर्व श्रेणी-विहीन समाज की कल्पना संभव न थी. उन्होंने दूरी को कम करने की कोशिश की. एक ओर तो उन्होंने पारंपरिक वर्णों को मर्यादित करने की चेष्टा की, दूसरी ओर प्रेम को सभी शास्त्रीय विधि निषेधों से श्रेष्ठ घोषित करके भेदभाव को यथासंभव मिटाने का प्रयत्न किया.” ( कथा राम कै गूढ़, पृष्ठ-114)
‘हिन्दी का गद्य साहित्य’ उनकी सर्वाधिक प्रसिद्ध और हिन्दी के अध्येताओं के लिए उपयोगी पुस्तक है. यह हिन्दी गद्य साहित्य का एक प्रामाणिक कोश है जिसमें दी गई सूचनाएं असंदिग्ध हैं. इस पुस्तक में हिन्दी गद्य की विविध विधाओं के साहित्य का विस्तृत और प्रामाणिक विवेचन तो है ही, इसमें भारतेन्दु हरिश्चंद्र, आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, महापंडित राहुल सांकृत्यायन, निराला, पंत, यशपाल, इलाचंद जोशी, जैनेन्द्र कुमार, आचार्य नंददुलारे वाजपेयी, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, रामधारी सिंह दिनकर, अज्ञेय, रामविलास शर्मा, रेणु, नगेन्द्र आदि हिन्दी के प्रमुख उन्तीस लेखकों के गद्य साहित्य का आलोचनात्मक विश्लेषण किया गया है. इस ग्रंथ के अबतक सत्रह संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं और अमूमन प्रत्येक संस्करण संशोधित और परिवर्धित होते हैं. खुशी की बात यह है कि तिवारी जी के निधन के बाद इसके संशोधन का कार्य पूरी तन्मयता और निष्ठा के साथ उनके कनिष्ठ पुत्र डॉ. प्रेमव्रत तिवारी कर रहे हैं. वे खुद गोरखपुर विश्वविद्यालय में शिक्षक और साहित्य के गहरे अध्येता हैं.
‘हिन्दी आलोचना : शिखरों का साक्षात्कार’ पुस्तक में तिवारी जी ने हिन्दी आलोचना के शिखरों के आलोचना कर्म की उपलब्धियों, दृष्टियों एवं विशेषताओं का गंभीर मूल्यांकन किया है. उन्होंने शिखर आलोचकों में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, आचार्य नंददुलारे वाजपेयी, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, डॉ. नगेन्द्र, डॉ. रामविलास सर्मा, मुक्तिबोध, नामवर सिंह, डॉ. बच्चन सिंह, और डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी को शामिल किया है और बताया है कि इन आलोचकों ने हिन्दी आलोचना को नए मान और मूल्य दिए हैं. उन्होंने रामचंद्र शुक्ल को लोकमंगल की साधना को काव्य-प्रतिमान के रूप में प्रतिष्ठित करने वाला आचार्य, हजारीप्रसाद द्विवेदी को चिन्मुखी मानवता के अन्वेषक, मुक्तिबोध को व्यक्ति की संपूर्ण मानवीय गरिमा के संस्थापक और रामस्वरूप चतुर्वेदी को काव्य भाषा को केन्द्र में रखकर समीक्षा कर्म में प्रवृत रहने वाला आलोचक कहा है. ‘हिन्दी आलोचना : संदर्भ और दृष्टि’ भी उनकी श्रेष्ठ आलोचना कृति है. तिवारी जी का सुझाव है कि आज हिन्दी आलोचना की आवश्यकता मार्क्सवाद और गैर मार्क्सवाद के द्वंद्व से ऊपर उठकर अपने मौलिक व्यक्तित्व के निर्माण की है. निःसंदेह उन्होंने अपनी उक्त कृतियों में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी से लेकर डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी तक के आलोचना कर्म की बहुत ही संतुलित और प्रामाणिक समीक्षा की है.
तिवारी जी का सुझाव है कि आज हिन्दी आलोचना की आवश्यकता मार्क्सवाद और गैर मार्क्सवाद के द्वंद्व से ऊपर उठकर अपने मौलिक व्यक्तित्व के निर्माण की है
तिवारी जी के सहयोगी और शिष्य रहे प्रतिष्ठित आलोचक डॉ. कृष्णचंद्र लाल ने उनके आलोचना कर्म की विशेषता का विवेचन करते हुए लिखा है, “तिवारी जी की आलोचना से उनकी दृष्टि सम्पन्नता और आलोच्य से अंतरंगता का सहज बोध हो जाता है. आज की आलोचना की यह एक बड़ी कमी है कि रचना कुछ कहती है और आलोचना कुछ. आलोचना रचना से घनिष्ठ संबंध न बनाकर उसके समानान्तर चलने का कार्य कर रही है. इस दूरी का ही परिणाम है कि सर्जक और आलोचक के बीच या तो ठनी रहती है या दोनो एक –दूसरे से अजनबी जैसा व्यवहार करते रहते हैं. डॉ. तिवारी इस दृष्टि से आदर्श समीक्षक हैं कि वे सहृदय की तरह आलोच्य को पढ़ते और समझते हैं तथा विवेकवान की तरह उसके अर्थ –गौरव, वैशिष्ट्य और महत्व को रेखांकित करते हैं. उनकी आलोचना दृष्टि देती है, बोध का विस्तार करती है, आलोचनात्मक विवेक को जागृत करती है और सही दिशा में सोचने के लिए प्रेरित करती है.” ( सारस्वत बोध के प्रतिमान, पृष्ठ- 172)
तिवारी जी की अन्य समीक्षा पुस्तकों में ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल’, ‘प्रतापनारायण मिश्र’, ‘आलोचक का दायित्व’, ‘तुलसीदास’, ‘सरदार पूर्ण सिंह’, ‘कथा राम कै गूढ़’, ‘ ‘डॉ. रामविलास शर्मा : विचार और विवेचन’, ‘कृति चिन्तन और मूल्यांकन संदर्भ’, ‘हिन्दी गद्य : प्रकृति और रचना संदर्भ’, ‘हिन्दी उपन्यास’, ‘आधुनिक हिन्दी साहित्य : विविध आयाम’, ‘हिन्दी निबंध और निबंधकार’ आदि उल्लेखनीय हैं. उन्होंने ‘जजमेन्ट इन लिटरेचर’ का ‘साहित्य का मूल्यांकन’ के नाम से तथा ‘ऐन इंट्रोडक्शन टु नाथयोग’ का ‘नाथयोग : एक परिचय’ के नाम से अनुवाद भी किया है. ‘आधुनिक कवि और काव्य’, ‘काव्यधारा’, ‘निबंध निहारिका’, ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल : आलोचना कोश’ तथा मौलवी करीमुद्दीन द्वारा लिखित ‘तजकिरा-ए-शुअरा-ए-हिन्दी’ आदि उनके संपादित ग्रंथ हैं.
आचार्य तिवारी के आदर्श आलोचक हैं आचार्य रामचंद्र शुक्ल. वही नीर-क्षीर विवेकी प्रकृति, वही औदात्य, ईमानदारी और वही विश्लेषण-क्षमता. दोनो के व्यक्तित्व में अद्भुत समानता है. अकारण नहीं है कि उन्हें ‘पूर्वांचल का रामचंद्र शुक्ल’ कहा जाता है. रामचंद्र शुक्ल ने काव्य के दो विभाग किए हैं, आनंद की साधनावस्था का काव्य और आनंद की सिद्धावस्था का काव्य. शुक्ल जी ने आनंद की साधनावस्था के काव्य को श्रेष्ठ माना है. शुक्ल जी को आदर्श मानने वाले आचार्य रामचंद्र तिवारी का संपूर्ण जीवन ही आनंद की साधनावस्था का काव्य है.
शहर में रहते हुए कभी कक्षा में न आए हों, ऐसा शायद कभी हुआ हो. पढ़ाते समय उनकी दृष्टि विद्यार्थियों पर नहीं, ऊपर सीलिंग की ओर होती थी. छात्र मंत्रमुग्ध होकर सुनते थे. व्याख्यान के अंत में वे विद्यार्थियों से प्रश्न अवश्य आमंत्रित करते थे और विषय के ज्ञान से सबको संतुष्ट करके ही छोड़ते थे
आचार्य रामचंद्र तिवारी मेरे गुरु हैं. मैंने उनसे पढ़ा भी है और उन्ही के निर्देशन में शोध कार्य भी पूरा किया है. इसलिए उनके व्यक्तित्व के बारे में दो शब्द कहने से अपने को रोक नहीं पा रहा हूँ. वे चटाई बिछाकर पढ़ते थे. उनकी चटाई पर चारो तरफ किताबें पड़ी रहती थीं. अनावश्यक बैठकबाजी उनकी आदत नहीं थी. उनकी प्रकृति से लोग परिचित थे और बिना काम के उनसे मिलने नहीं जाते थे. पूजा-पाठ करते भी मैंने उन्हें नहीं देखा. ऊपर से कठोर मगर भीतर से उनका हृदय करुणा का सागर था. किसी की सिफारिश, चापलूसी, झूठी प्रशंसा, तिकड़म आदि से उनका दूर- दूर का रिश्ता नहीं था. वे अपने शोध छात्रों से भी सिर्फ छात्र और शिक्षक का संबंध रखते थे. सिर्फ समुचित निर्देशन उनका काम था. वे अपने छात्रों से कोई निजी काम लेना पसंद नहीं करते थे और न तो अपने छात्रों के लिए कभी किसी से सिफारिश करते थे. अपने छात्रों को ठोंक-पीट कर संवारना और उसे इस योग्य बना देना कि वह समाज में खुद अपनी जगह बना ले, उनका उद्देश्य होता था.
उनके जैसे अध्यापक यदा- कदा जन्म लेते हैं. शहर में रहते हुए कभी कक्षा में न आए हों, ऐसा शायद कभी हुआ हो. पढ़ाते समय उनकी दृष्टि विद्यार्थियों पर नहीं, ऊपर सीलिंग की ओर होती थी. छात्र मंत्रमुग्ध होकर सुनते थे. व्याख्यान के अंत में वे विद्यार्थियों से प्रश्न अवश्य आमंत्रित करते थे और विषय के ज्ञान से सबको संतुष्ट करके ही छोड़ते थे. गुरुवर तिवारी जी अपने को अध्यापक ही कहते थे आलोचक नही. विषय पर उनकी अवधारणा पूरी तरह स्पष्ट होती थी. इसीलिए उनके द्वारा की गई व्याख्याओं में तनिक भी अस्पष्टता नहीं मिलती है.