प्रश्न-“आपके यहाँ इतनी अधिक भाषाएँ, इतनी अधिक जातियाँ हैं कि उनका पूरा गड़बड़झाला है। आप एक-दूसरे को किस तरह से समझ पाते हैं?”
अबूतालिब का जवाब-“जो भाषाएँ हम बोलते हैं-भिन्न हैं, किन्तु हमारे मुंहों में जो ज़बानें हैं, वे एक जैसी हैं। (दिल पर हाथ रखकर) यह सब कुछ अच्छी तरह से समझता है। (अपने कानों को खींचते हुए) लेकिन ये बुरी तरह।”
प्रश्न-“मैं बल्गारिया के अख़बार का संवाददाता हूँ। यह बताइये कि दागिस्तान की विभिन्न भाषाओं में उसी तरह की निकटता है जैसे, उदाहरण के लिए बल्गारियायी और रूसी भाषा में?”
अबूतालिब का जवाब-“बल्गारियायी और रूसी भाषा-सगी बहनों जैसी हैं। लेकिन हमारी भाषाएँ तो बहुत दूर के रिश्ते की चचेरी-ममेरी बहनों जैसी भी नहीं हैं। इनमें समान शब्द तो हैं ही नहीं। हमारे लेखकों में तो कुछ दलबन्दी है, मगर मारी भाषाओं में किसी तरह की दलबन्दी नहीं। हर भाषा का अपना अलग रूप है।
प्रश्न-“मैं भारतीय समाचार-पत्र का संवाददाता हूँ। हमारे भारत में अनेक भाषाएँ हैं-हिन्दी, उर्दू, बंगाली…कुछ राष्ट्रवादियों ने यह चाहा कि उनकी भाषा हमारे भारत की राजकीय भाषा बन जाए। इसके कारण वाद-विवाद और खूनी दंगे-फसाद भी हुए। आपके यहाँ तो ऐसा कुछ नहीं हुआ?”
अबूतालिब-“एक बार दो लड़कों के बीच इस तरह का झगड़ा हुआ था। अवार और कुमिक जाति के दो लड़के एक गधे पर जा रहे थे। अवार जाति का लड़का चिल्ला रहा था-‘खुआ! ख़आ! ख़आमा!’ और कुमिक लड़का चिल्ला रहा था-‘एश! एश! एशेक!’ इन दोनों शब्दों का एक ही अर्थ था-गधा। लेकिन लड़कों का झगड़ा इतना ज्यादा बढ़ गया कि दोनों ही गधे से नीचे गिर गए और ‘आमा’ तथा ‘एशेक’ के बिना रह गए। सम्भवतः यह तो बच्चों का वाद-विवाद है। हम अपनी भाषाओं को भेड़िये नहीं बनाते हैं। वे हमें चीरते-फाड़ते नहीं हैं। हमारे यहाँ तो यह भी कहा जाता है-‘घरेलू मूर्ख अपने पड़ोसियों की निन्दा करता है, गाँव का मूर्ख पड़ोस के गाँवों की निन्दा करता है और राष्ट्रीय मूर्ख दूसरे देशों की निन्दा करता है।’ जो आदमी किसी दूसरी भाषा के बारे में कुछ बुरा कहता है, उसे हमारे यहाँ आदमी ही नहीं माना जाता।”
प्रश्न-“आपकी भाषाएँ किन अन्य भाषाओं के साथ घनिष्ठता और किन भाषा-दलों से सम्बन्ध रखती हैं?”
अबूतालिब का जवाब-“तात जाति के लोगों का कहना है कि वे ताजिक भाषा समझते हैं और हफ़ीज का साहित्य पढ़ सकते हैं। लेकिन मैं उनसे पूछता हूँ कि अगर आप शेख सादी और उमर ख़य्याम की जबान समझते हैं तो उनके समान ही सृजन क्यों नहीं करते?
“पुराने वक़्तों में सगाई करने के समय वर की प्रशंसा करते हुए कहा जाता था-‘वह कुमिक भाषा जानता है’-इसका मतलब यह होता था कि वर बहुत ही जानने-समझने वाला व्यक्ति है, ऐसे व्यक्ति की पत्नी बड़ी सुखी रहेगी।
“वास्तव में ही कुमिक भाषा जानने वाला आदमी तुर्की, आज़रबाइजानी, तातारी, बल्कार, कज़ाख्न, उज़्बेक, किर्गिज़, बश्कीरी और आपस में मिलती-जुलती बहुत-सी ऐसी अन्य भाषाएँ भी समझ सकता है। अनुवाद के बिना हिकमत, काइसीन कुलीयेव और मुस्ताइ करीम की रचनाएँ पढ़ सकता है… लेकिन मेरी भाषा! हम लाकों के सिवा इसे वे विद्वान ही समझते होंगे जिन्होंने डी.लिट्. की उपाधि पाने के लिए इसके अध्ययन में अनेक साल लगाए होंगे।
“लाक जाति का एक प्रसिद्ध व्यक्ति सारी दुनिया में घूमकर इथोपिया पहँच गया और वहाँ मन्त्री बन गया। उसने इस बात पर जोर दिया कि अपनी इतनी लम्बी यात्रा के दौरान उसका हमारी लाक भाषा से मिलती-जुलती एक भी भाषा से परिचय नहीं हुआ।” ..
ओमार हाजी-“हमारी अवार भाषा भी किसी अन्य भाषा के समान नहीं है।”
अबूतालिब-“दारगीन, लेज़्गीन और ताबासारान भाषाओं से मिलती-जलती भाषाएँ भी नहीं हैं।”
प्रश्न-“एक-दूसरी से कोई समानता न रखने वाली ये सारी भाषाएँ आपने कैसे सीख ली?”
अबूतालिब-“किसी वक़्त मैं दागिस्तान में बहुत घूमता रहा था। लोगों को गीतों-गानों और मुझे रोटी की जरूरत थी। जब कोई आदमी पराये गाँव में जाता है और वहाँ की भाषा नहीं जानता तो कुत्ते भी उसपर ज़्यादा गुस्से से भुंकते हैं। ज़रूरत ने मुझे सारे दागिस्तान की भाषाएँ सीखने को मजबूर किया।”
प्रश्न-“फिर भी क्या दागिस्तान की भाषाओं की समानता और असमानता के लक्षणों की अधिक विस्तार से चर्चा करना सम्भव नहीं? भला यह कैसे हुआ कि इतने छोटे-से देश में इतनी भिन्न भाषाएँ हैं?”
अबूतालिब-“हमारी भाषाओं की समानता और असमानता के बारे में अनेक पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं। मैं विद्वान या भाषाशास्त्री नहीं हूँ, किन्तु जिस रूप में मैं इस समस्या की कल्पना करता हूँ, उसे आपके सामने प्रस्तुत करता हूँ। हम यहाँ बैठे हुए हैं। हममें से कुछ का पहाड़ों में और कुछ का मैदानों में जन्म हुआ तथा हम वहीं बड़े हुए। कुछ गर्म क्षेत्रों और कुछ ठण्डे क्षेत्रों में, कुछ नदी के तट और कुछ सागर के तट पर जन्मे और बड़े हुए। कुछ ने वहाँ जन्म लिया, जहाँ खेत है, मगर बैल नहीं, कुछ वहाँ जन्मे, जहाँ बैल है, मगर खेत नहीं। कुछ वहाँ जन्मे, जहाँ आग है, मगर पानी नहीं और कुछ वहाँ जन्मे, जहाँ पानी है, किन्तु आग नहीं। एक जगह मांस है, दूसरी जगह अनाज और तीसरी जगह फल । जहाँ पनीर रखा जाता है, वहाँ चूहे हो जाते हैं, जहाँ भेड़ें चराई जाती हैं, वहाँ भेड़ियों की भरमार हो जाती है। इसके अलावा-इतिहास, युद्ध, भूगोल, विभिन्न पड़ोसियों और प्रकृति को भी ध्यान में रखना चाहिए।
“हमारे यहाँ ‘प्रकृति शब्द के दो अर्थ हैं। इसका एक अर्थ तो है-भूमि, घास, पेड़, पर्वत और दूसरा अर्थ है-मानव का स्वभाव। विभिन्न स्थानों पर विभिन्न प्रकृति ने विभिन्न नामों, नियमों और रीति-रिवाजों के प्रकट होने में योग दिया।
“अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग ढंग से समूरी टोपी पहनी जाती है, अलग-अलग ढंग से कपड़े पहने जाते हैं और मकान बनाए जाते हैं। पालने के करीब अलग-अलग लोरियाँ गाई जाती हैं। महमूद ने दो तारों वाले पन्दूरे पर अपने गाने गाए, इरची कज़ाक के पन्दूरे में तीन तार थे। लेज़्गीन जाति का सुलेमान स्ताल्स्की तारा नामक बाजा बजाता था। कुछ बाजों के लिए बकरी की अन्तड़ियों और कुछ के लिए लोहे के तार बनाए जाते हैं।
“जातियाँ या जनगण अनेक हैं और हरेक के अपने रस्म-रिवाज हैं। सभी जगह पर ऐसा ही है। बच्चे का जन्म होता है। एक जाति में बच्चे को बपतिस्मा दिया जाता है, दूसरी में उसकी सुन्नत की जाती है और तीसरी में उसके जन्म का प्रमाणपत्र तैयार किया जाता है। लड़का जब बालिग होता है तो दूसरे रीति-रिवाज सामने आते हैं। किसी लड़की से उसकी सगाई की जाती है…वैसे, सगाई करना-यह भी एक रीति-रस्म ही है। मैं यह कहना चाहता था कि कोई नौजवान शादी करता है तो तीसरे ढंग के रीति-रिवाजों से वास्ता पड़ता है। दागिस्तान में विवाह के रीति-रिवाजों की चर्चा करने के लिए तो पूरा एक दिन भी नाकाफी रहेगा। अगर आपमें से कोई उनके बारे में जानना चाहेगा तो उसे हम ‘दागिस्तान के जनगण के रीति-रिवाज’ पुस्तक भेंट कर देंगे। आप घर लौटकर उसे पढ़ लीजिएगा।
प्रश्न-“रीति-रिवाज भी भिन्न-भिन्न हैं। ऐसी स्थिति में कौन-सी चाज़ आपके लोगों को निकट लाती है, सूत्रबद्ध करती है?”
अबूतालिब-“दागिस्तान।”
प्रश्न-“दागिस्तान…हमें यह बताया गया है कि दागिस्तान का अर्थ ‘पर्वतों का देश’ है। इसका मतलब तो यह हुआ कि दागिस्तान एक जगह का नाम है?”
अबूतालिब-“जगह का नाम नहीं, बल्कि मातृभूमि, जनतन्त्र का नाम है। जो पहाड़ों में रहते हैं और जो घाटियों में सभी के लिए यह शब्द समान अर्थ रखता है। नहीं, दागिस्तान-यह केवल भौगोलिक धारणा नहीं है। दागिस्तान का अपना रंग-रूप है, उसकी अपनी इच्छाएँ-आकांक्षाएँ और सपने हैं। उसका साझा इतिहास, साझा भाग्य, साझे सुख-दुख हैं। क्या एक उँगली का दर्द दूसरी उँगली महसूस नहीं करती? हमारे यहाँ ‘अक्तूबर क्रान्ति’, ‘लेनिन’ और ‘रूस’ जैसे साझे शब्द भी हैं। इन शब्दों का हर भाषा में अनुवाद करने की भी जरूरत नहीं। अनुवाद के बिना ही वे तो समझ में आ जाते हैं। हम लेखकों के बीच बहुत-से वाद-विवाद होते हैं। किन्तु इन तीन शब्दों के बारे में हमारे बीच कोई मतभेद नहीं। आप समझ गए?”
प्रश्न-“यह तो हम समझ गए। लेकिन मैं एक और बात पूछना चाहता हूँ। एक समाचारपत्र में मैंने आज अदाल्लो अलीयेव की कविता पढ़ी। अनातोली ज़ायत्स ने उसका रूसी में अनुवाद किया है। वहाँ कहा गया है कि अनुवाद दागिस्तानी भाषा से किया गया है। यह कौन-सी भाषा है?”
अबूतालिब-“यह भाषा तो मैं भी नहीं जानता। अदाल्लो अलीयेव से मेरी कल मुलाकात हुई थी और मैंने उससे बातचीत की थी। कल तक तो वह अवार था। मालूम नहीं कि उसमें ऐसा क्या परिवर्तन हो गया है। लेकिन आप इस मामले की तरफ़ कोई खास ध्यान नहीं दें, यह तो महज़ गलती है।”
प्रश्न-“हमारे संयुक्त राज्य अमरीका में भी अनेक जातियाँ और भाषाएँ हैं। किन्तु मूलभूत, राजकीय भाषा अंग्रेजी है। सारे काम-काज, उत्पादन के सभी मामलों और दस्तावेजों में इसी भाषा का उपयोग होता है। लेकिन आपके यहाँ? आपके यहाँ कौन-सी मूलभूत भाषा है?”
अबूतालिब-“हर व्यक्ति के लिए उसकी मूलभूत भाषा उसकी माँ की भाषा है। जो आदमी अपने पहाड़ों को प्यार नहीं करता, वह पराये मैदानों को भी प्यार नहीं कर सकता। जो सुख घर पर नहीं मिला, वह बाहर सड़क पर भी नहीं मिलेगा। जो अपनी माँ की चिन्ता नहीं करता, वह परायी औरत की भी चिन्ता नहीं करेगा। जब हाथ में मजबूती से तलवार पकड़नी हो या किसी दोस्त के साथ तपाक से : हाथ मिलाना हो तो हाथ की सभी उँगलियाँ मूलभूत होती हैं।”
प्रश्न-“मैंने मुतालिब मितारोव की लम्बी कविता पढ़ी है। उसमें उसने इस बात पर जोर दिया है कि वह न तो अवार, न तात, न ताबासारान और न दागिस्तानी ही है। आप इसके बारे में क्या कह सकते हैं?”
अबूतालिब (मितारोव को नज़रों से ढूँढ़ते हुए)-“सुनो मितारोव, तुम अवार, कुमिक, तात, नोगाई, लेज्गीन नहीं हो, यह तो मैं बहुत अरसे से जानता हूँ। लेकिन तुम ताबासारान भी नहीं हो, यह मैं पहली बार सुन रहा हूँ। आख़िर तुम कौन हो? कल तुम शायद यह लिख दो कि मतालिब भी नहीं हो और मितारोव भी नहीं। मिसाल के तौर पर मैं अबूतालिब गफरोव हूँ। मैं सबसे पहले तो लाक जाति का हूँ, दूसरे दागिस्तानी हूँ, तीसरे सोवियत देश का शायर हूँ। या इसके उलट इस तरह कहा जा सकता है-सबसे पहले मैं सोवियत शायर हूँ, दूसरे यह कि में दागिस्तान-जनतन्त्र में रहता हूँ और तीसरे यह कि लाक जाति का हूँ और लाक भाषा में लिखता हूँ। यह सब कुछ मेरे साथ अविछिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। यह मेरा सबसे कीमती ख़ज़ाना है। मैं इनमें से किसी भी चीज़ से इनकार नहीं करना चाहता। इनके लिए मैं अपनी जान की बाज़ी भी लगा दूंगा।”
प्रश्न (जर्मन जनवादी जनतन्त्र का संवाददाता)-“मेरे हाथों में चिकित्साशास्त्र के पी-एच.डी. साथी अलीकिशीयेव की पुस्तक है। इसका शीर्षक है-‘दागिस्तान में लम्बी उम्र’ । इसमें लेखक ने एक सौ साल से ज्यादा उम्र के लोगों के बारे में लिखा है और यह साबित किया है कि लम्बी उम्र की दृष्टि से दागिस्तान का सोवियत संघ में पहला स्थान है। किन्तु आगे उसने इस बात की भी पुष्टि की है कि यहाँ की जातियों में धीरे-धीरे एक-दूसरी के निकट होने की प्रवृत्ति दिखाई दे रही है और अन्ततः दागिस्तान में एक ही जाति हो जाने की भी सम्भावना है। कुछ सालों के बाद अवार, दारगीन और नोगाई जाति के लोग अपने को दागिस्तानी मानने लगेंगे और पासपोर्ट में भी ऐसा ही लिखेंगे। मैंने आपके एक अन्य विद्वान के लेख भी पढ़े हैं जो इस बात की पुष्टि करता है कि आपका साहित्य जातियों की सीमाएँ तोड़कर पूरे दागिस्तान का साहित्य बनता जा रहा है। अगर विज्ञान के पी-एच.डी. और डी.लिट्. अपनी पुस्तकों और लेखों में ऐसे प्रश्न उठाते हैं तो इसका मतलब है कि ये प्रश्न महत्त्वपूर्ण और गहन हैं?”
अवतालिब-“साथी अलीकिशीयेव से भी मैं परिचित हूँ। वह हमारे ही इलाके का रहने वाला है। यह विद्वान अनेक बुजुर्गों से इसलिए मिला कि वे उसे अपने जीवन के बारे में बताएँ। लेकिन सभी जातियों की एक जाति बनाने का विचार शायद ही किसी सम्मानित बुजुर्ग ने प्रकट किया हो। यह उसके अपने ही दिमाग की उपज है। मैं बहुत-से ऐसे ‘मिचूरिनों’* (*मिचूरिन इवान ब्लादीमिरोविच (1855-1935)-सोवियत वनस्पतिशास्त्री जिन्होंने विभिन्न वनस्पतियों के संकरण द्वारा वनस्पतियों की नई किस्में उगाई।) को जानता हूँ जिन्होंने अपनी ‘प्रयोगशालाओं’ में विभिन्न भाषाओं को मिलाकर तथा उनपर खरगोशों की भांति तरह-तरह के प्रयोग करके एक संकरण भाषा बनाने की कोशिश की है। दागिस्तान के सात जातीय थियेटरों को मिलाकर एक थियेटर बनाने की कोशिश की गई। दागिस्तान के पाँच जातीय समाचार-पत्रों को मिलाकर एक पत्र बनाने का प्रयास किया गया। हमारे लेखक-संघ के अनेक विभागों को एक विभाग में मिलाने का यत्न किया गया, लेकिन ये सारी कोशिशें तो वैसी ही हैं जैसे कि अनेक शाखाओं ने पेड़ को एक सीधे तने में बदलने की कोशिशें ।”
प्रश्न-“मैं भारतीय समाचार-पत्र का संवाददाता हूँ। हमारे भारत में अनेक भाषाएँ हैं-हिन्दी, उर्दू, बंगाली…कुछ राष्ट्रवादियों ने यह चाहा कि उनकी भाषा हमारे भारत की राजकीय भाषा बन जाए। इसके कारण वाद-विवाद और खूनी दंगे-फसाद भी हुए। आपके यहाँ तो ऐसा कुछ नहीं हुआ?”
अबूतालिब-“एक बार दो लड़कों के बीच इस तरह का झगड़ा हुआ था। अवार और कुमिक जाति के दो लड़के एक गधे पर जा रहे थे। अवार जाति का लड़का चिल्ला रहा था-‘खुआ! ख़आ! ख़आमा!’ और कुमिक लड़का चिल्ला रहा था-‘एश! एश! एशेक!’ इन दोनों शब्दों का एक ही अर्थ था-गधा। लेकिन लड़कों का झगड़ा इतना ज्यादा बढ़ गया कि दोनों ही गधे से नीचे गिर गए और ‘आमा’ तथा ‘एशेक’ के बिना रह गए। सम्भवतः यह तो बच्चों का वाद-विवाद है। हम अपनी भाषाओं को भेड़िये नहीं बनाते हैं। वे हमें चीरते-फाड़ते नहीं हैं। हमारे यहाँ तो यह भी कहा जाता है-‘घरेलू मूर्ख अपने पड़ोसियों की निन्दा करता है, गाँव का मूर्ख पड़ोस के गाँवों की निन्दा करता है और राष्ट्रीय मूर्ख दूसरे देशों की निन्दा करता है।’ जो आदमी किसी दूसरी भाषा के बारे में कुछ बुरा कहता है, उसे हमारे यहाँ आदमी ही नहीं माना जाता।”
प्रश्न-“तो आप यह कहना चाहते हैं कि इस सवाल को लेकर आपके यहाँ वाद-विवाद और किसी तरह की गलतफहमियाँ नहीं हुईं?”
अबूतालिब-“वाद-विवाद तो हुए। किन्तु हमारी भाषाओं के मामले में कभी और किसी ने भी गम्भीर हस्तक्षेप नहीं किया। हमारे नामों के मामले में भी। हर कोई उस भाषा में लिख, पढ़, गा और बातचीत कर सकता है जिसमें चाहता है। यह साबित करते हुए बहस तो की जा सकती है कि फलां चीज़ अच्छी या बुरी, सही या गलत और सुन्दर या कुरूप है। किन्तु क्या पूरी की पूरी जातियाँ अथवा अल्प जातियाँ गलत, बुरी या कुरूप हो सकती हैं? इस विषय पर यदि वाद-विवाद हुए भी तो उनमें न तो किसी की जीत और न किसी की हार ही हुई।”
प्रश्न-“फिर भी क्या यह ज़्यादा अच्छा नहीं होगा कि दागिस्तान में एक ही जाति और एक ही भाषा हो?”
अबूतालिब-“अनेक लोग ऐसे कहते हैं- ‘काश, हमारी एक ही भाषा होती। लंगड़े राजबादिन ने जार्जिया पर अपनी एक चढ़ाई के वक्त ज़ार इराकली से यह कहा- ‘इस सारी मुसीबत की जड़ यह है कि हम एक-दूसरे की भाषा नहीं जानते। हाजा- मुरात ने हाइदाक-ताबासारान से अपने इमाम को यह लिखा-‘हम एक-दो को नहीं समझे।’
“बेशक यह ज़्यादा अच्छा रहता है, जब लोग आसानी और पहले ही शब्द से एक-दूसरे को समझ जाते हैं। तब बहुत कुछ अधिक आसान हो जाता, कहीं कम श्रम से बहुत कुछ प्राप्त किया जा सकता। लेकिन अगर परिवार में बहुत बच्चे हों तो इसमें भी कुछ बराई नहीं। परिवार को हर बच्चे की चिन्ता करनी चाहिए। बहुत कम माता-पिता ही बाद में इस चीज के लिए पछताते हैं कि उनके बहुत बच्चे हैं।
“कुछ लोग कहते हैं-‘देबेन्त की सीमाओं से परे हमारी भाषा की किसे ज़रूरत है? हमें तो वहाँ कोई भी नहीं समझ पाएगा।’
“दूसरे कहते हैं- ‘अराकान दर्रे के आगे हमारी भाषा किस काम की है?’
“कुछ अन्य शिकायत करते हैं-‘हमारे गीत तो सागर तक भी नहीं पहुँच सकेंगे।
“लेकिन ऐसे लोग अपनी भाषाओं को अभिलेखागारों में भेजने की बहुत ही जल्दी कर रहे हैं।”
“भाषाएँ न तो टोपियाँ हैं और न सिगरेटें। भाषा की भाषा से दुश्मनी नहीं होती। एक गीत दूसरे गीत की हत्या नहीं करता। पुश्किन के दागिस्तान में आ जाने पर महमूद को अपनी मातृभूमि नहीं छोड़नी चाहिए। लेर्मोन्तोव किसलिए बातीराय की जगह ले। अगर कोई अच्छा दोस्त हमसे हाथ मिलाता है तो हमारा हाथ उसके हाथ में गायब नहीं हो जाता। वह अधिक गर्म और मज़बूत ही हो जाता है। भाषाएँ सिगरेटें नहीं, जीवन के दीपक हैं। मेरे दो दीपक हैं। एक ने पैतृक घर की खिड़की से मेरा मार्ग रोशन किया। उसे मेरी माँ ने जलाया था ताकि मैं रास्ते से भटक न जाऊँ। अगर यह दीपक बुझ जाएगा तो सचमुच मेरा जीवन-दीप भी बुझ जाएगा। अगर मैं शारीरिक रूप से नहीं मरूँगा तो भी मेरा जीवन गहरे अन्धेरे में डूब जाएगा। दूसरा दीपक मेरे महान देश, मेरी बड़ी मातभमि रूस ने जलाया है, ताकि मैं बड़ी दुनिया में अपनी राह न भूल जाऊँ। उसके बिना मेरा जीवन अन्धकारमय और तुच्छ हो जाएगा।”
प्रश्न-“समेकन या एकजुटता के बारे में आपकी क्या राय है?”
अबूतालिब-“समेकन की पराये और बेगाने लोगों को ज़रूरत होती है। भाइयों को समेकन से क्या लेना-देना है।”
प्रश्न-“फिर भी इसलिए कि भाई भाई से बात कर सके, उनकी एक ही भाषा होनी चाहिए।”
अबूतालिब-“हमारे यहाँ ऐसी एक भाषा है।
“प्रश्न-“कौन-सी?”
अबूतालिब-“वह भाषा जिसमें हम इस समय आपसे बातचीत कर रहे हैं। वह रूसी भाषा है। उसे अवार, दारगीन, लेज़्गीन, कुमिक, लाक और तात, सभी जातियों के लोग समझते हैं। (अबूतालिब ने लेर्मोन्तोव, पुश्किन और लेनिन के चित्रों की ओर संकेत किया।) इनके साथ तो हम एक-दूसरे को बहुत अच्छी तरह से समझते हैं।”
प्रश्न-“मैंने रसूल हम्जातोव की दो खण्डों में प्रकाशित रचनाएँ पढ़ी हैं। पहले खण्ड में ‘मातृभाषा’ नामक कविता में उन्होंने अवार भाषा का गुणगान किया है, लेकिन दूसरे खण्ड में इसी शीर्षक की कविता में उन्होंने रूसी भाषा की स्तुति की है। क्या एक साथ दो घोड़ों पर सवार हुआ जा सकता है? हम किस हम्जातोव पर विश्वास करें-पहले या दूसरे खण्डवाले हम्जातोव पर?”
अबूतालिब-“इस प्रश्न का स्वयं रसल हम्जातोव ही उत्तर दें।”
रसूल-“मैं भी यही समझता हूँ कि एक साथ दो घोड़ों पर सवार नहीं हुआ जा सकता। लेकिन दो घोड़ों को एक ही गाड़ी या बग्घी में जरूर जोता जा सकता है। दोनों बग्घी को खींचें। दो घोड़े- दो भाषाएँ दागिस्तान को आगे ले जाती हैं। उनमें से एक रूसी है और दूसरी हमारी-अवार जातिवालों के लिए अवार, लाकों के लिए लाक। मुझे अपनी मातृभाषा प्यारी है। मुझे अपनी दूसरी मातृभाषा मा जारी है जो मुझे इन पर्वतों, इन पहाड़ी पगडंडियों से पृथ्वी के विस्तार, बहुत बड़ा और समृद्ध दुनिया में ले गई। सगे को ही मैं सगा कहता हूँ। मैं दूसरा कुछ कर ही नहीं सकता।”
प्रश्न-“इस सम्बन्ध में मैं रसूल हम्जातोव से कुछ और भी पूछना चाहता हैं। अपनी कविता में उन्होंने लिखा है- ‘अगर अवार भाषा के भाग्य में कल मरना बदा है तो मैं दिल के दौरे से आज ही मर जाऊँ।’ लेकिन आपके यहाँ तो यह भी कहा जाता है कि ‘जब बड़ा आए तो छोटे को उठकर खड़ा हो जाना चाहिए। रूसी भाषा आ गई। क्या छोटी, स्थानीय भाषा को उसके लिए अपनी जगह नहीं छोड़नी चाहिए? आप लोगों के शब्दों में ही सिर पर दो टोपियाँ एक साथ नहीं ओढ़नी चाहिए। या किसलिए एक साथ ही दो सिगरेटें मुँह में ली जाएँ?”
रसूल-“भाषाएँ न तो टोपियाँ हैं और न सिगरेटें। भाषा की भाषा से दुश्मनी नहीं होती। एक गीत दूसरे गीत की हत्या नहीं करता। पुश्किन के दागिस्तान में आ जाने पर महमूद को अपनी मातृभूमि नहीं छोड़नी चाहिए। लेर्मोन्तोव किसलिए बातीराय की जगह ले। अगर कोई अच्छा दोस्त हमसे हाथ मिलाता है तो हमारा हाथ उसके हाथ में गायब नहीं हो जाता। वह अधिक गर्म और मज़बूत ही हो जाता है। भाषाएँ सिगरेटें नहीं, जीवन के दीपक हैं। मेरे दो दीपक हैं। एक ने पैतृक घर की खिड़की से मेरा मार्ग रोशन किया। उसे मेरी माँ ने जलाया था ताकि मैं रास्ते से भटक न जाऊँ। अगर यह दीपक बुझ जाएगा तो सचमुच मेरा जीवन-दीप भी बुझ जाएगा। अगर मैं शारीरिक रूप से नहीं मरूँगा तो भी मेरा जीवन गहरे अन्धेरे में डूब जाएगा। दूसरा दीपक मेरे महान देश, मेरी बड़ी मातभमि रूस ने जलाया है, ताकि मैं बड़ी दुनिया में अपनी राह न भूल जाऊँ। उसके बिना मेरा जीवन अन्धकारमय और तुच्छ हो जाएगा।”
अबूतालिब-“पत्थर को उठाना कैसे ज्यादा आसान है-एक हाथ से कन्धे पर से या दो हाथों से छाती पर से?”
प्रश्न-“फिर भी पहाड़ी लोग अपने उन घरों को छोड़कर जा रहे हैं जहाँ उनकी माताओं ने दीपक जलाए और जाकर मैदानों में बस रहे हैं?”
अबूतालिब-“किन्तु दूसरी जगहों पर जाकर बसने के समय वे अपनी भाषा और अपने नाम भी अपने साथ ले जाते हैं। वे अपनी समूरी टोपी ले जाना भी नहीं भूलते। उनकी खिड़कियों में रोशनी भी वही जगमगाती है।”
प्रश्न-“लेकिन नई जगहों पर नौजवान लोग अक्सर दूसरी जातियों की युवतियों से शादियाँ कर लेते हैं। वे किस भाषा में बात करते हैं? और बाद में उनके बच्चे किस भाषा में बात करते हैं?”
अबूतालिब-“हमारे यहाँ एक पुराना किस्सा है। एक नौजवान को किसी दूसरी जाति की युवती से मुहब्बत हो गई और उसने उससे शादी करने का फैसला किया। युवती ने कहा- ‘मैं तुम्हारे साथ तब शादी करूँगी, जब तुम मेरी सौ इच्छाएँ पूरी कर दोगे।’ नौजवान उसकी सनकें पूरी करने लगा। सबसे पहले तो उसने नौजवान को ऐसी चट्टान पर चढ़ने को मजबूर किया जिसमें पाँव टिकाने के लिए आगे को बढ़ा हुआ एक भी हिस्सा नहीं था। इसके बाद इस चट्टान से नीचे कूदने को कहा। नौजवान कूदा और उसकी टाँग में चोट आ गई। युवती ने तीसरी इच्छा यह प्रकट की कि वह लँगड़ाए बिना चले। खैर, नौजवान ने लँगड़ाना बन्द कर दिया। युवती ने उसे तरह-तरह के कार्यभार सौंपे, जैसे कि खुरजी को भीगने न देकर तैरते हुए नदी को पार करे, सरपट दौड़े आते घोड़े को रोक दे, घोड़े को घुटने टेकने को मजबूर करे, यहाँ तक कि उस सेब को भी काट डाले जिसे युवती ने अपनी छाती पर रख लिया था…नौजवान ने युवती के निन्यानवे आदेश पूरे कर दिए। सिर्फ एक ही बाकी रह गया। तब युवती ने कहा-‘अब तुम अपनी माँ, पिता और भाषा को भूल जाओ।’ यह सुनते ही नौजवान उछलकर घोड़े पर सवार हो गया और हमेशा के लिए उससे नाता तोड़कर चला गया।”
प्रश्न-“यह सुन्दर किस्सा है। मगर हकीकत क्या है?”
अबूतालिब-“हक़ीक़त तो यह है कि कोई नौजवान और युवती जब दाम्पत्य जीवन आरम्भ करते हैं तो अपने ऊपर बहुत-सी जिम्मेदारियाँ लेते हैं। लेकिन कोई भी दूसरे से अपनी भाषा भूल जाने को नहीं कहता। इसके विपरीत, हर कोई दूसरे की भाषा जानने की कोशिश करता है।
“हकीकत तो यह है कि हम बड़ी उदासी से और भर्त्सना करते हुए ऐसे बच्चों की तरफ़ देखते हैं जो अपने माता-पिता की भाषा नहीं जानते। खुद बच्चे ही माता-पिता की इसलिए भर्त्सना करने लगते हैं कि उन्होंने उन्हें अपनी भाषा नहीं सिखाई। ऐसे लोगों पर तरस आता है।
“हकीकत यह है कि हम आपके सामने बैठे हैं। ये रहीं हमारी कविताएँ, कहानियाँ, उपन्यासिकाएँ और पुस्तकें। ये हैं हमारी पत्र-पत्रिकाएँ। ये विभिन्न भाषाओं में छपती हैं और हर साल अधिकाधिक संख्या में छापी जाती हैं। विराट देश ने हमारी भाषाओं को पीछे नहीं धकेल दिया है। उसने उन्हें काननी मान्यता दी है, उनकी पुष्टि की है और वे सितारों की तरह जगमगा उठी हैं। ‘और तारक तारिका से बात करता।’*(* लेर्मोन्तोव की कविता की एक पंक्ति।) हम दूसरों को देखते हैं और दसरे हमें देखते हैं। अगर ऐसा न होता तो आपने भी हमारे बारे में कछ न सुना होता, हममें कोई दिलचस्पी न ली होती। हमारी यह मुलाकात भी न हुई होती। तो हक़ीक़त ऐसी है…”
प्रश्न-उत्तर, प्रश्न-उत्तर। अगर वक्त होता तो लगता है कि हमारा यह सम्मेलन कभी समाप्त न होता। सभी जनगण में लगातार भाषा के बारे में बातचीत होती रही है और हो रही है, किन्तु इस बातचीत का कभी अन्त होता नज़र नहा आता।
“हमारा यह पत्रकार सम्मेलन झूमर नृत्य-गान के खेल के समान है जिसमें कछ लोग प्रश्न पूछते हैं और दूसरे उत्तर देते हैं,” इस तरह के सम्मेलन के आदी न होने के कारण बुरी तरह से थके-हारे अबूतालिब ने अन्त में कहा।
प्रश्न-वह तो कमान से छोड़ा हुआ तीर है जो कहीं भी जा गिरे । जवाब-वह तो निशाने पर जा लगने वाला तीर है। प्रश्न-उत्तर । प्रश्नसूचक चिह्र-विस्मयबोधक चिह्न । अतीत-प्रश्न है, वर्तमान-उत्तर है।
पुराना दागिस्तान पत्थर पर बैठी हुई बुढ़िया के समान था। वह प्रश्नसूचक चिह्न था। आज का दागिस्तान-विस्मयबोधक चिह्न है। वह म्यान से बाहर निकली और तनी हुई तलवार है।
जब दागिस्तान में क्रान्ति पहँची तो उससे आतंकित लोगों ने कहा कि जल्द ही जातियाँ, भाषाएँ, नाम और रंग लुप्त हो जाएँगे। हमारी औरतों का मेसेदा नाम मारूस्या बन जाएगा और मर्दो का मूसा नाम वास्या हो जाएगा। यह भी कहा गया कि आदमी को यह तक सोचने की फुरसत नहीं होगी कि वह किस जाति और किस जगह का है। सभी को एक साझे कम्बल के नीचे लिटा दिया जाएगा। बाद में अधिक शक्तिशाली लोग कम्बल को अपनी ओर खींच लेंगे और अधिक दुर्बल लोग ठिठुरते रह जाएँगे।
दागिस्तान ने ऐसे लोगों की बातों पर कान नहीं दिया। पर्वतीय सरकार के सदस्य, गाइदार बामातोव ने उसे विदेश ले जाने वाले जहाज़ पर चढ़ते हुए कहा था-“उनकी आत्माओं ने मेरे शब्दों को स्वीकार नहीं किया। देखेंगे कि आगे क्या होता है।”
आगे क्या हुआ, यह सभी देख रहे हैं। इसे पुस्तक में लिखा जा चुका है, गीतों में गाया जा चुका है। जिनके कान हैं-वे सुन लेंगे, जिनकी आँखें हैं-वे देख लेंगे।
एक पहाड़िये ने साझे कम्बल से डरकर दागिस्तान छोड़ दिया और तुर्की चला गया। पचास साल बाद वह दागिस्तान में यह देखने आया कि हमारे यहाँ जिन्दगी का रंग-ढंग कैसा है। मैंने उसे मख़ाचकला में, जो पहले पोर्ट-पेत्रोव्स्क कहलाता था, घूमने के लिए आमन्त्रित किया। रूसी ज़ार का नामवाला शहर अब दागिस्तान के क्रान्तिकारी मख़ाच का नाम धारण किए हुए है। मैंने मेहमान को दागिस्तान के सपूतों-बातीराय, उल्लूबी, कापीयेव-के सम्मान में उनके नामोंवाली सड़कें दिखाईं। मेहमान सागर तटवर्ती चौक में सुलेमान स्ताल्स्की के स्मारक को देर तक देखता रहा। लेनिन सड़क पर उसने मेरे पिता-हम्ज़ात त्सादासा का स्मारक देखा। पता चला कि दागिस्तान छोड़कर जाने से पहले वह मेरे पिता जी से परिचित था।
विज्ञान अकादमी की शाखा के विद्वानों ने उससे भेंट की। उसने इतिहास, भाषा तथा साहित्य के वैज्ञानिक-अनुसन्धान इन्स्टीट्यूट के सहकर्मियों से बातचीत की। उसने दागिस्तान के इतिहास और कला-संग्रहालय के हॉलों को देखा। वह विश्वविद्यालय में भी गया जहाँ पहाड़ी युवक-युवतियाँ पन्द्रह विभागों में शिक्षा पाते हैं। शाम को हम राजकीय अवार थियेटर में गए। अवार जाति के नामवाले थियेटर में अवार लोग, अवार लेखक का अवार युवती के बारे में लिखा हुआ नाटक देख रहे थे। यह हाजी जालोव द्वारा लिखा गया ‘अनखील मारीन’ नाटक था। जब रूसी संघ की जन-कलाकार पातीमात हिज़रोयेवा ने, जो मारीन की भूमिका निभा रही थी, एक पुराना अवार गाना गाया तो हमारा मेहमान अपनी भावनाओं को वश में नहीं रख सका और उसकी आँखें छलछला आईं।
चौक में वह देर तक लेनिन के स्मारक के सामने खड़ा रहा। इसके बाद बोला
“मैं यह सपना तो नहीं देख रहा हूँ?”
“इस सपने के बारे में आप तुर्की में रहने वाले अवार जाति के लोगों को बताइये।”
“वे यकीन नहीं करेंगे। अगर मैंने अपनी आँखों से यह सब न देखा होता तो खुद भी यकीन न करता।”
अबूतालिब ने ऐसे कहा था-“पहली बार मैंने नरकट काटा, उसकी मुरली बनाई और उसे बजाया। मेरे गाँव ने मेरी मुरली की आवाज़ सुनी। इसके बाद मैंने पेड़ की मोटी टहनी काटी, उसकी तुरही बनाई और उस पर दूसरा गाना बजाया। मेरी आवाज़ दूर पहाड़ों तक सुनी गई। इसके बाद मैंने पेड़ काटकर उसका जुरना बनाया और उसकी आवाज़ सारे दागिस्तान में गूंज गई। इसके बाद मैंने छोटी-सी पेंसिल लेकर कागज पर कविता लिख दी। वह दागिस्तान की सीमाओं से कहीं दूर उड़ गई।”
तो भाषाएँ बाँटने वाले भगवान के दूत, तुम्हारा एक बार फिर से शुक्रिया, इस चीज़ के लिए शुक्रिया कि तुमने हमारे पर्वतों, हमारे गाँवों और हमारे दिलों की अवहेलना नहीं की।
उन सबका भी शुक्रिया जो अपनी मातृभाषाओं में गाते और सोचते हैं।