गदर पार्टी के पहले प्रधान सोहन सिंह भकना का जन्म अमृतसर के पास एक गांव भकना में 1 जनवरी 1870 को हुआ । उनके पिता का नाम कर्म सिंह एवं माता का नाम राम कौर था । जब उनकी आयु मात्र 1 वर्ष की थी तो उनके पिता का देहांत हो गया। उन्होंने गांव के गुरुद्वारा के ग्रन्थी से गुरुमुखी पढ़ना सीखा एवं मदरसे से उर्दू सीखी। सोहन सिंह भकना पर उनकी जवानी के समय में नामधारी संत बाबा केसर सिंह जी का बहुत ज्यादा प्रभाव पड़ा। उनके प्रभाव से उन्होंने जवानी के समय की बहुत सारी बुराइयों को छोड़ दिया। अपने परिवार की आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण उन्होंने अमेरिका जाने का फैसला किया। उस समय पासपोर्ट वगैरह की जरूरत नहीं होती थी। वे समुंद्री जहाज के माध्यम से हांगकांग होते हुए अमेरिका गए । यह उनकी सीखने की इच्छा ही थी कि उन्होंने समुद्री जहाज के एक महीने के सफर के दौरान पंजाबी-अंग्रेजी डिक्शनरी से अंग्रेजी के काफी शब्द सीख लिए। 4 अप्रैल 1909 को अमेरिका के शहर सियाटल में पहुंचे। पूंजीपतियों की लूट के बारे में वे ‘जीवन संग्राम’ पुस्तक में लिखते हैं कि “ एक और बात याद रखने वाली है कि “मुनाफाखोर का देश, कौम या भगवान किसी के साथ भी प्यार नहीं होता । उसका देश, कौम व भगवान सब कुछ रुपया ही होता है । जिस ढंग से भी रुपया कमाया जा सकता हो वह अपनी लालसा पूरी करने को कोई पाप नहीं समझता। इसलिए मंदी के दौर में बेरोजगार मजदूरों को कम मजदूरी पर काम पर रखकर नाजायज फायदा उठाता है ।”
पार्टी का उद्देश्य सशस्त्र संघर्ष से देश को आजाद करवाना एवं आजादी के बाद आजादी और बराबरी के आधार पर लोकराज स्थापित करना
पार्टी का एक साप्ताहिक अखबार निकलेगा, जिसका नाम 1857 की याद में ‘ग़दर’ अखबार होगा
संगठन का चुनाव प्रत्येक वर्ष होगा
प्रत्येक मेंबर कम से कम एक डालर प्रति महीना चंदा देगा
पार्टी में धार्मिक वाद-विवाद के लिए कोई स्थान नहीं होगा। धर्म प्रत्येक व्यक्ति का निजी मामला होगा
पार्टी का मुख्यालय सान फ्रांसिस्को (कैलिफोर्निया) में होगा
पार्टी के हर सिपाही का यह कर्तव्य होगा कि वह चाहे दुनिया के किसी कोने में हो , वह गुलामी के विरुद्ध आजादी के लिए संघर्ष करे
पार्टी के कार्यालय, प्रेस, अख़बार या गाँव में काम करने वाले किसी सदस्य को वेतन नहीं मिलेगा । बराबरी के आधार पर रोटी कपड़ा पार्टी के सांझे लंगर व स्टोर से मिलेगा ।
सियाटल से थोड़ी दूर ओरेगन प्रांत के पोर्टलैंड में कोलंबिया नदी के किनारे एक लकड़ी के कारखाने में उन्हें काम मिल गया । यह काम बहुत ही कठिन था एवं मात्र 2 डालर मजदूरी मिलती थी । उस समय अमरीका की मिलों में बहुत सारे भारतीय मजदूरी कर रहे थे । उस दौर में उनके साथ नस्लीय भेदभाव होता था अमेरिकन मजदूरों की बजाय उनको मजदूरी कम मिलती थी । अमेरिकी मजदूर अक्सर ही विदेशी मजदूरों पर हमले करते थे । इन हमलों के दौरान विदेशी मजदूरों को पीटा जाता उनसे पैसे छीन लिए जाते हैं उनको दूर जंगल में छोड़ दिया जाता । जब मजदूर इन हमलों की शिकायत लेकर अधिकारियों के पास जाते तो वहां भी उनकी कोई सुनवाई नहीं होती थी क्योंकि भारत गुलाम होने के कारण सरकार की तरफ अपने देश के प्रवासियों के पक्ष में कोई कार्यवाही नहीं की जाती थी । इन हमलों और नस्लीय भेदभाव ने मजदूरों को एक-दूसरे से वार्तालाप करने का मौका दिया व एक-दूसरे के नजदीक लाने का काम किया। उनमें दूसरे देश के मजदूरों के प्रति हमदर्दी की भावना पैदा हुई । कारखाने का मालिक जब किसी मजदूर के साथ अन्याय करता तो सभी मजदूर उनका साथ देते। इसी जागृति से संगठित होने का रास्ता निकला। काफी प्रयासों के मार्च 1913 के दूसरे सप्ताह पोर्टलैंड के आसपास के सभी कारखानों के मजदूरों की मीटिंग बुलाई गई। इसमें परमानंद लाहौर व लाला हरदयाल विशेष रूप से पहुंचे। ‘हिंदी एसोसिएशन आफ पेसिफिक कोस्ट’ का गठन किया गया। इसके प्रधान सोहन सिंह भकना, उपप्रधान भाई केसर सिंह ठठगढ़, महासचिव लाला हरदयाल, संयुक्त सचिव ठाकुरदास व कोषाध्यक्ष पंडित काशीराम चुने गये। एसोसिएशन द्वारा जो सर्वसम्मति से जो फैसले लिए गए उनसे पार्टी की धर्मनिरपेक्ष नीति, त्याग, प्रतिबद्धता व समर्पण का पता चलता है । उनमें मुख्य फ़ैसले निम्नलिखित थे
1 नवंबर 2013 से ग़दर अखबार प्रकाशित होना शुरू हुआ। इसके पहले संपादक लाला हरदयाल थे वे उर्दू में लिखते थे। करतार सिंह सराभा उसे पंजाबी में अनुवाद करते और हैंड मशीन से उसे छापते थे। पहले अख़बार उर्दू व पंजाबी में छपता था। उसके बाद अखबार के हिंदी, गुजराती व नेपाली भाषाओँ में विशेष अंक भी छापे गये एवं हैंड मशीन की जगह बिजली से चलने वाली मशीन लगाई गई। पार्टी का कार्य बढ़ जाने के बाद सोहन सिंह भकना अपना निजी काम छोड़कर पूर्णकालिक कार्यकर्ता के रूप में पार्टी के लिए काम करने लगे। कनाडा, अर्जेंटीना, वर्मा, फिलीपींस व सिंगापुर तक गदर अखबार पहुंचने लगा एवं एसोसिएशन की यूनिट बन गई। उस समय तक विभिन्न देशों के अनेक कारखानों में 72 यूनिट बन चुकी थी। लाला हरदयाल के अमेरिका से चले जाने के बाद कामरेड संतोख सिंह महासचिव बने। सशस्त्र संघर्ष के लिए पार्टी की तरफ से सैनिक प्रशिक्षण का भी प्रबंध किया गया । पार्टी के दो सदस्यों करतार सिंह सराभा और मास्टर उधम सिंह कसेल को इस कार्य के लिए भेजा गया। करतार सिंह सराभा हवाई जहाज उड़ाने की ट्रेनिंग लेने लगे ।
23 मई 1914 को कामागाटामारू जहाज भारतीयों को लेकर कनाडा पहुंचा, लेकिन कनाडा सरकार ने जहाज को बंदरगाह पर आने से मना कर दिया और कई महीनों तक जहाज समुद्र में ही खड़ा रहा। जहाज के यात्रियों के लिए कनाडा में रहने वाले भारतीयों ने एसोसिएशन के बैनर तले संघर्ष किया व सहायता राशि एकत्र की गई। उसके बाद कनाडा सरकार ने 23 जुलाई 1914 को जहाज को वापस जाने के लिए यात्रियों का राशन व हर्जाना देना मान लिया। एसोसिएशन की तरफ से सोहन सिंह भकना को जिम्मेदारी दी गई कि वे एक दूसरे जहाज से इस जहाज के साथ जाए व जहाज के यात्रियों को पार्टी लाइन के बारे में तथा भारत में जाकर प्रचार करने तथा सशस्त्र संघर्ष के बारे में बताए। सोहन सिंह भकना 200 पिस्तौल एवं 2000 गोलियां लेकर योकोहामा होते हुए हांगकांग के रास्ते से पिनांग (मलेशिया) पहुंचे। तब तक अंग्रेज सरकार को सीआईडी के माध्यम से पता चल चुका था एवं कामागाटामारू जहाज के साथ कोलकाता में ‘बजबज घाट’ की घटना घट चुकी थी। बंगाल की खाड़ी में ही पंजाब पुलिस सोहन सिंह भकना वाले जहाज में पहुंच गई एवं उनको कोलकाता से गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें लुधियाना के रास्ते मुल्तान जेल में भेज दिया गया। यहीं से उनका जेल जीवन शुरू हुआ।
इस दौरान ही मूला सिंह, अमर सिंह व नवाब खां ने गदारी की तथा वे सरकारी गवाह बन गये। इस कारण बहुत सारे गदरी गिरफ्तार कर लिए गए। इन सभी पर पहला लाहौर साजिश केस अप्रैल 1915 में शुरू हुआ। अंग्रेज सरकार ने जेल के अंदर ही ट्रिब्यूनल का ड्रामा करते हुए 24 देशभक्तों को फांसी की सजा सुनाई। 16 नवम्बर फांसी की तिथि तय हो गयी लेकिन एक दिन पहले 17 गदरी क्रांतिकारियों की फांसी की सजा को उम्रकैद में बदल दिया गया। करतार सिंह सराभा एवं छह अन्य को फांसी दी गई करतार सिंह सराभा की उम्र उस समय 19 वर्ष की थी । उम्र कैद वाले क्रांतिकारियों को अंडेमान की सेल्यूलर जेल में भेज दिया गया। वहां पर उन पर बहुत सारे अमानवीय अत्याचार किए एवं ऐसी कठिन मुशक्कत करवाई गई जैसा पशुओं से भी नहीं करवाया जाता। वे अक्सर ही विरोध करते व उनको बेंतों की सज़ा दी जाती। लेकिन इन क्रांतिकारियों ने इतने अत्याचारों के बावजूद अपने हौसले बुलंद रखे एवं संघर्ष की नई मिसाल कायम की। उन्होंने जेल में भूख हड़तालें की और इन सालों के दौरान कुछ गदरी बाबे अपनी जान कुर्बान कर गए ।
सोहन सिंह भकना अपनी जीवनी ‘जीवन संग्राम’ में लिखते हैं कि “हमारे होते हुए विनायक सावरकर अंडमान में हमारे साथ थे। पुणे की यरवदा जेल में रिहाई के लिए लाए गए। इनकी सेहत बहुत कमजोर हो चुकी थी एवं कुछ शर्तों पर रिहा किए गए ।” 1921 में सोहन सिंह भकना को कुछ साथियों के साथ कोयंबटूर जेल में भेज दिया गया। इसके अतिरिक्त कुछ कैदी यरवदा जेल से पंजाब भेजे गए । 1928 की सर्दियों में सोहन सिंह भकना और केसर सिंह को लाहौर सेंट्रल जेल में भेज दिया गया
उस समय भगत सिंह व उसके साथियों को सुनवाई के लिए बोर्स्टल जेल से सेंट्रल जेल में लाया जाता था। इस दौरान बाबा सोहन सिंह भकना की कई बार भगत सिंह से मुलाकात हुई। जब भगत सिंह और उसके साथियों ने जेल में भूख हड़ताल शुरू की तो बाबा सोहन सिंह भकना ने भी उनके समर्थन में चौथी बार जेल में भूख हड़ताल की। वह अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि “भगत सिंह 6 फुट लम्बा बहुत खूबसूरत नौजवान था । वह निडर जरनैल दार्शनिक और ऊँची राजनैतिक सूझ रखने वाला था। देशभक्ति के साथ-साथ दुनिया भर की पीड़ित जनता का दर्द उसके दिल में कूट-कूट कर भरा हुआ था ।” जब अंग्रेज सरकार ने सोहन सिंह भकना को उनकी उम्र कैद पूरी होने के बावजूद भी रिहा नहीं किया तो उन्होंने फिर भूख हड़ताल का नोटिस दे दिया एवं 2 महीने तक भूख हड़ताल की। ज्यादा सेहत खराब होने पर मेयो अस्पताल में दाखिल किया गया। अंग्रेज सरकार ने शर्तों के साथ रिहा करने को कहा तो उन्होंने साफ मना कर दिया। जुलाई 1930 में 16 साल की कैद के बाद रिहा किया गया।
सोहन सिंह भकना रिहा होकर जब गांव में वापस आए तो उनकी माताजी की मौत हो चुकी थी। उनकी धर्म पत्नी अपने मायके में दिन काट रही थी। गांव के पुराने लोगों को छोड़कर नौजवान उनको पहचानते नहीं थे। यहां तक कि वे अपने घर का रास्ता भूल गए। मकान मात्र मिट्टी का ढेर बन चुका था। लेकिन उसके बाद भी चुप करके नहीं बैठे । 1939 में जब अंडेमान की सेल्यूलर जेल में देश भक्तों द्वारा भूख हड़ताल की गई तो सोहन सिंह भकना ने जलियाँवाला बाग में उनके समर्थन में भूख हड़ताल की। वे 1940 में अखिल भारतीय किसान सभा के अध्यक्ष बने। 1940 में उनको फिर नजर बंद करके देवली कैंप भेज दिया गया और 1943 में रिहाई हुई। जब उनके गांव में हाई स्कूल के लिए जमीन की मांग उठी तो सोहन सिंह भकना ने अपनी साढ़े आठ एकड़ जमीन हाई स्कूल के लिए दे दी। अपना जद्दी मकान को बेचकर एवं गाँव से चंदा इकट्ठा करके लड़कियों के लिए पाठशाला खोल दी। वे स्वयं अपने खेत में झोपड़ी बनाकर रहने लगे। सड़क के साथ लगती साढ़े आठ एकड़ से ज्यादा जमीन में किरती किसान आश्रम बना दिया गया एवं देशभक्तों के बच्चों को वहां लाकर रखा जाने लगा।
बाबा जी अपनी पुस्तक ‘जीवन संग्राम’ में लिखते हैं कि “बुढ़ापे में आराम और बेफिक्री की गारंटी समाजवादी व्यवस्था के बगैर कोई नहीं दे सकता।” एक जगह वह लिखते हैं “कि यह मेरा पक्का निश्चय है कि जब तक अर्थव्यवस्था की बुनियाद समाजवाद नहीं असली आजादी एक सपना ही रहेगी ।”
देश की आजादी के समय 1947 में जब पंजाब में धर्म के आधार पर लोगों की मारकाट हो रही थी तो सोहन सिंह भकना और अन्य क्रांतिकारियों ने अनेक गांव में मुसलमानों की जान बचाई एवं उनको सुरक्षित भेजा। दुख की बात यह है कि देश आजाद होने के बाद भी उनको 1948 में अन्य कम्युनिस्टों के साथ भकना गांव से गिरफ्तार कर लिया गया और योल कैम्प भेज दिया गया। उन्होंने वहां भी भूख हड़ताल कर दी और यह भूख हड़ताल 28 दिन तक चली। जब जवाहरलाल नेहरू के पास देश भक्त परिवार सहायक कमेटी के प्रधान संत विसाखा सिंह के माध्यम से बात पहुंची तो तीन-चार दिन बाद उनको रिहा किया गया। यह उनके जीवन की सातवीं भूख हड़ताल थी। इस भूख हड़ताल के बाद उनकी कमर झुक गई। इसके बाद उन्होंने जालंधर में देश भगत यादगार हाल बनाने का फैसला लिया एवं देश भगत यादगार कमेटी बनाई गई । 1964 में गदर पार्टी की गोल्डन जुबली मनाई गई।
20 दिसंबर 1968 को महान देशभक्त गदरी बाबा सोहन सिंह भकना की 98 वर्ष की आयु मृत्यु हो गई । वे इस दुनिया से शारीरिक रूप से तो चले गए लेकिन उनके संघर्षों की गाथा आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा देती रहेगी।
संदर्भ पुस्तक :
जीवन संग्राम ( आत्मकथा बाबा सोहन सिंह भकना )
संपर्क – 981341696
बहुत विस्तृत और उपयोगी जानकारी