पहाड़ के पितामह चंडीप्रसाद भट्ट – अमर नाथ

चंडीप्रसाद भट्ट

चंडीप्रसाद भट्ट ( जन्म-23.6.1934) पहाड़ के पितामह हैं। उन्होंने अपना सारा जीवन पहाड़ की सुरक्षा में लगा दिया।अमूमन पहाड़ पर जन्म लेने वाले लोग पढ़ने –लिखने या रोजगार के लिए जब मैदानी क्षेत्रों में आते हैं तो दोबारा स्थाई रूप से रहने के लिए पहाड़ पर नहीं लौटते, सामाजिक कार्य करने के लिए पहाड़ पर लौटने की बात तो कभी सुनने में भी नहीं आती। किन्तु चंडीप्रसाद भट्ट इसके अपवाद हैं। वे समाज सेवा का प्रशिक्षण लेने के लिए तो मैदानी क्षेत्र में आए किन्तु भीष्म पितामह की तरह पहाड़ की रक्षा के लिए पुन: पहाड़ पर ही लौट गए और आज भी पहाड़ की सुरक्षा में तन- मन- धन से लगे हुए हैं।


प्रख्यात पत्रकार रामचंद्र गुहा ने लिखा है, “चंडीप्रसाद भट्ट एक महान अग्रणी पर्यावरणविद, कार्यकर्ता और विस्तृत सोच और उपलब्धियों वाले चिंतक हैं, जो अपनी सहजता और अंग्रेजी पर मजबूत पकड़ न होने के कारण बहुत कम जाने गए और उन्हें काफी कम सम्मान मिला। न तो वह अपने काम का ढोल पीटते हैं और न ही उनके काम का ढोल पीटने वाला कोई है। किसी को उनके काम का वास्तविक आकलन करने के लिये गढ़वाल जाना होगा या उनके सहयोगियों से सम्पर्क करना होगा। मुझे रमेश पहाड़ी के ये शब्द बिल्कुल सटीक लगते हैं- दुनिया में आज जितने प्रकार के मुद्दों की चर्चा हो रही है- महिलाओं एवं दलितों का उत्थान और नीति-निर्माण में उनकी भागीदारी, पारिस्थितिकी, पर्यावरण, लोगों के पारम्परिक अधिकार, लोगों का देसी ज्ञान, सफल प्रयोगों पर आधारित विकास प्रक्रिया और आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था- इन सब पर तीस वर्ष पहले ही डीजीएसएम (दशौली ग्राम स्वराज संघ) ने काम किया और वह भी बिना किसी धूम-धड़ाके के। मुझे लगता है कि इसके अंतिम पद ‘बिना किसी धूम-धड़ाके के’ को दोहराया जा सकता है।“ और चंडीप्रसाद भट्ट के शब्दों में, “देश का पर्यावरण आज ऐसे मोड़ पर पहुंच गया है, जहां एक तरफ बाढ़ आती है तो वहीं सुखाड़ का भी सामना करना पड़ता है, विनाशकारी आपदाएं परंपरा बनती जा रही हैं, भूजल पाताल पहुंच गया है, और हवा जहरीली हो गई है। ऐसे में 1970 के दशक में हिमालय की पहाड़ियों में शुरू हुआ चिपको आंदोलन आज अधिक प्रासंगिक हो गया है। …. पर्यावरण के ऐसे हालात के लिए हिमालय या अन्य पहाड़ियों पर अंधाधुंध विकास और उसके लिए वनों की कटाई जिम्मेदार है। यदि देश को बचाना है तो पहले हिमालय को बचाना होगा, हिमालय की पहाड़ियों या अन्य पहाड़ियों पर वनस्पतियों को बचाना होगा, अन्यथा आपदा हर कदम दस्तक देती रहेगी और उससे उबर पाना किसी भी आधुनिक समाज के लिए कठिन हो जाएगा।…. देश के मैदानी हिस्से हिमालय से निकली नदियों द्वारा लाई गईं मिट्टी से निर्मित हुए हैं। हिमालय और मैदानों के बीच गहरा अंतर्संबंध है। हिमालय में होने वाली किसी भी पर्यावरणीय घटना से नदियां प्रभावित होती हैं, और नदियां मैदानों को प्रभावित करती हैं। आज यही स्थिति है।…..नदियां बारिश के मौसम में हिमालय से बड़ी मात्रा में मिट्टी लाती हैं, जिससे नदियों का तल उठता जा रहा है। बारिश में बाढ़ आती है, तो गर्मी में नदियों में पानी नहीं होता। भूजल नीचे जा रहा है, कृषि क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित हो रहा है, पेय जल की समस्या उठ खड़ी हुई है।”चंडीप्रसाद भट्ट ने उक्त बातें प्रख्यात पर्यावरणविद और गांधीवादी चिंतक अनुपम मिश्र स्मृति प्रथम व्याख्यान देते समय दिल्ली में कही।

उन्होंने आगे कहा,, “विकास कहां और कितना करना है, इसे समझने की जरूरत है। बड़े वृक्षों के साथ ही छोटी वनस्पतियों के संरक्षण की जरूरत है। बारिश की आपदा तो आएगी, हम उसे रोक नहीं सकते, लेकिन उसके प्रभाव को कम कर सकते हैं। छोटी वनस्पतियां पानी रोकती हैं और उस पानी को धीरे-धीरे धरती सोख लेती है। उससे एक तरफ आपदा नियंत्रित होती है, तो दूसरी तरफ नदियां, नाले और झरने सदानीरा बने रहते हैं। प्रकृति का यही शाश्वत नियम है, लेकिन आधुनिक विकास में इस नियम को नकार दिया गया है।”


चंडीप्रसाद भट्ट ने पर्यावरण के संबंध में अपना ज्ञान अपने अनुभव से अर्जित किया। वे पहाड़ पर जन्मे, पहाड़ पर पले -बढे और उन्होंने पहाड़ को कर्मस्थली बनाकर उसे जिया।
चंडीप्रसाद भट्ट का जन्म 23 जून 1934 को निर्जला एकादशी के दिन गोपेश्वर गांव जिला चमोली, उत्तराखंड के एक गरीब परिवार में हुआ। वे अपने पिता की दूसरी सन्तान थे। निर्जला एकादशी के दिन जन्म लेने के कारण उन्हें परिवार में चंडी माता का ‘प्रसाद’ माना गया और उनका नाम भी देवी के नाम पर ही रख दिया गया किन्तु एक वर्ष भी नहीं बीता था कि उनके सिर से पिता गंगाराम भट्ट का साया उठ गया। उनके परिवार में उनकी विधवा वहन भी थी। जीविका के साधन के नाम पर उनकी थोड़ी सी भूमि और कुछ पालतू पशु मात्र थे। ऐसे में परिवार को गंभीर आर्थिक संकट से जूझना पड़ा। इस बीच उन्होंने थोड़ी-बहुत संस्कृत की शिक्षा लेकर अर्थोपार्जन के लिए पुरोहिती का भी काम किया। जैसे-तैसे हाईस्कूल तक की शिक्षा गोपेश्वर में पूरी कर वह आगे की पढ़ाई के लिए वहां से 70 किलोमीटर दूर रुद्रप्रयाग आ गए और सच्चिदानंद इंटर कॉलेज में प्रवेश लिया। लेकिन, आर्थिक तंगी के कारण पढ़ाई जारी नहीं रख सके। इसके बाद कुछ समय तक उन्होंने एक स्कूल में शिक्षक की नौकरी की। बाद में उन्होंने स्थानीय परिवहन कम्पनी गढ़वाल मोटर ओनर यूनियन (जीएमओयू) में बुकिंग क्लर्क की नौकरी कर ली। वर्ष 1955 में डिम्मर गांव की देवेश्वरी डिमरी से उनका विवाह हुआ। बुकिंग क्लर्क के रूप में काम करते हुए उन्हें भारत की सामाजिक विविधता को जानने का मौका मिला, क्योंकि उनके बहुत से ग्राहक तीर्थयात्री होते थे, जो देश के विभिन्न हिस्सों, रोजगारों और पेशों से जुड़े थे। पारिस्थितिकी के तत्वों के बारे में चंडीप्रसाद भट्ट ने अनौपचारिक जानकारी स्थानीय परिदृश्य और वहाँ रहने वाले किसानों व चरवाहों से हासिल की।

चिपको आंदोलन

चंडीप्रसाद भट्ट के जीवन में ऐतिहासिक मोड़ तब आया जब उन्होंने 1956 में बद्रीनाथ में एक जनसभा में हिस्सा लिया। वहाँ मुख्य वक्ता थे लोकनायक जयप्रकाश नारायण। जयप्रकाश नारायण के साथ सर्वोदयी गाँधीवादी नेता आचार्य विनोबा भावे तथा एक स्थानीय वक्ता सर्वोदयी नेता मानसिंह रावत भी थे। इस सभा में वक्ताओं की बातें और उनसे भेंट का भट्ट जी पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि 1960 में उन्होंने नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और सर्वोदय आंदोलन में कूद पड़े। उस समय नियमित रूप से वेतन पाने वाली नौकरी से त्यागपत्र देने का निर्णय आसान नहीं था। घर का कोई भी सदस्य उनके इस निर्णय से सहमत नहीं था। फिर भी उन्होंने नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और सबसे पहले बनारस में सर्वोदय आन्दोलन के सर्व सेवा संघ कार्यालय पहुँचे जहाँ उन्होंने शान्ति सेना के स्वयंसेवक की ट्रेनिंग ली। ट्रेनिंग के बाद 1961 में वे विनोबा भावे के साथ बिहार और उत्तर प्रदेश की यात्रा पर चल दिए।

चंडीप्रसाद भट्ट पुन: गोपेश्वर लौटे किन्तु इस बीच उनके परिवार में अनिश्चितता बनी रही। उनकी पत्नी भी उन दिनों गर्भवती थीं। गाँव और उनके परिचितों में इस तरह का अफवाह फैल चुका था कि उन्होंने परिवार को त्यागकर दूसरा विवाह कर लिया है। बनारस से गोपेश्वर लौटने पर उनका जीवन पूरी तरह बदल चुका था और वे अपने को सामाजिक कार्यों के लिए समर्पित कर चुके थे।

बहरहाल, उन्होने सन् 1964 में गोपेश्वर में ‘दशौली ग्राम स्वराज्य संघ’ की स्थापना की, जो कालान्तर में चिपको आंदोलन की मातृ-संस्था बनी। इस संस्था ने स्थानीय रूप से उपलब्ध संसाधनों के सहारे रोजगार सृजित करने का काम शुरु किया। जयप्रकाश नारायण तथा विनोबा भावे को आदर्श बनाकर चंडीप्रसाद भट्ट ने अपने क्षेत्र में श्रम की प्रतिष्ठा, सामाजिक समरसता, नशाबंदी और महिलाओं-दलितों के सशक्तीकरण जैसे सामाजिक कामों में अपने को लगा दिया।

रामचंद्र गुहा के शब्दों में, “वर्ष 1972 में भट्ट को एक घटना ने ऐसा झकझोरा कि उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन पर्यावरण के लिए समर्पित कर दिया। दरअसल खेतों में काश्तकारी के लिए हल पर प्रयोग होने वाले जुआ, नेसुड़ा, लाठ सहित अन्य काम में आने वाली अंगू व मेल की लकड़ी को वन विभाग ने प्रतिबंधित कर दिया। तर्क दिया गया कि विज्ञान की दृष्टि से इनका परंपरागत कार्यों के लिए उपयोग ठीक नहीं है, लिहाजा चीड़ व तुन की लकड़ी के कृषि यंत्र बनाएं जाएं। जबकि, चीड़ व तुन भारी होने के कारण किसी भी दृष्टि से इसके लिए उपयुक्त नहीं थे। भट्ट, सरकार के इस तुगलकी फरमान से आहत थे कि तभी वर्ष 1973 में साइमन कंपनी को मेल व अंगू के वृक्षों का कटान कर इससे टेनिस, बैडमिंटन व क्रिकेट के बल्ले सहित अन्य खेल सामग्री को बनाने की अनुमति दे दी गई। फिर क्या था, भट्ट के नेतृत्व में अप्रैल 1973 में मंडल में पेड़ों पर चिपककर साइमन कंपनी के मजदूरों व अधिकारियों को बैरंग लौटा दिया गया। यहीं से हुई ऐतिहासिक चिपको आंदोलन की शुरुआत।”
महिलाओं ने इस आन्दोलन में खास भूमिका निभाई थी। वे वन विभाग के ठेकेदारों से वनों को बचाने के लिए पेड़ों से चिपक जाती थीं। रैणी गांव की गौरा देवी ने इस क्षेत्र में नेतृत्वकारी भूमिका का निर्वाह किया। ‘चिपको’ आंदोलन गांव गांव में फैलता चला गया। यह चंडीप्रसाद भट्ट और उनके संगठन डीजीएसएस के अथक प्रयास का ही नतीजा था कि पर्यावरण चेतना और चिपको आंदोलन जन-जन तक पहुंच सका। इस आंदोलन से जुड़कर तमाम लोग पर्यावरणीय संतुलन के लिए पेड़ों के मित्र बन गए। एक सफल जननेता की तरह उन्होंने समतामूलक समाज, श्रम की महत्ता, दलित एवं महिलाओं को समाज की मुख्य धारा से जोड़ने और जनशक्ति से राजशक्ति को संचालित करने के विचार को व्यवहार में उतारने का महत्वपूर्ण काम किया और इसमें वे गाँधी की राह से तनिक भी विचलित नहीं हुए।

चंडीप्रसाद भट्ट ने वर्ष 1970 में अलकनंदा नदी में आई बाढ़ के प्रभावों का आकलन करके निष्कर्ष निकाला कि वनों के अंधाधुंध कटान के कारण ही वह विनाश लीला हुई थी और यदि वृक्षों की अंधाधुंध कटान ऐसे ही जारी रही तो यह विनाश लीला बढ़ती ही जाएगी। उनकी चेतावनी और अभियान का समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ा और ‘चिपको’ आंदोलन में इससे बहुत बल मिला।

किन्तु इसके बावजूद उनका रास्ता इतना सुगम नहीं था। वास्तव में भट्ट जी की यह कार्यवाही पूरी तरह वन आधारित थी और वनों पर स्थानीय लोगों का वैधानिक अधिकार बहुत कम था। वनों के ज्यादातर हिस्सों पर ठेकेदारों का कब्जा था। ठेकेदार वनों के कानूनी हकदार थे। इस स्थिति से निपटने के लिए भट्ट जी ने 1973 में अलग-अलग वनों के क्षेत्र में गाँव वालों को संगठित किया और उन्हें चिपको आन्दोलन के लिए तैयार किया। वनों की इस सम्पदा से वंचित होने का सबसे ज्यादा कष्ट गाँव की स्त्रियों को था। इसीलिए भट्ट जी ने स्त्रियों को विशेष रूप से इस चिपको आन्दोलन के लिए संगठित और प्रेरित किया और इसका सकारात्मक प्रभाव भी पड़ा।
चिपको आन्दोलन का नेतृत्व करने वालों में चंडीप्रसाद भट्ट के अलावा सुन्दरलाल बहुगुणा, गोविंद सिंह रावत, वासवानंद नौटियाल, हयात सिंह और महिलाओं का नेतृत्व करने वाली गौरा देवी थीं।

यह आन्दोलन सुर्खियों में 1974 में आया। जनवरी का महीना था। रैंणी गांव के वासियों को पता चला कि उनके इलाके से गुजरने वाली सड़क-निर्माण के लिए 2451 पेड़ों का छपान (काटने के लिए चुने गए पेड़) हुआ है। पेड़ों को अपना भाई-बहन समझने वाले गांववासियों में इस खबर से हड़कंप मच गई।

23 मार्च 1974 के दिन रैंणी गांव में कटान के आदेश के खिलाफ, गोपेश्वर में एक रैली का आयोजन हुआ। रैली में गौरा देवी, महिलाओं का नेतृत्व कर रही थीं। प्रशासन ने सड़क निर्माण के दौरान हुई क्षति का मुआवजा देने की तारीख 26 मार्च तय की थी, जिसे लेने के लिए गांववालों को चमोली जाना था।
दरअसल यह वन विभाग की एक सुनियोजित चाल थी। उनकी योजना थी कि 26 मार्च को चूंकि गांव के सभी पुरुष चमोली में रहेंगे तो सामाजिक कार्यकर्ताओं को वार्ता के बहाने गोपेश्वर बुला लिया जाएगा और इसी दौरान ठेकेदारों से कहा जाएगा कि ‘वे मजदूरों को लेकर चुपचाप रैंणी पहुंचें और कटाई शुरू कर दें।’


इस तरह नियत कार्यक्रम के अनुसार प्रशासनिक अधिकारियों के इशारे पर ठेकेदार, मजदूरों को साथ लेकर देवदार के जंगलों को काटने निकल पड़े। उनकी इस हलचल को एक लड़की ने देख लिया। उसे ये सब कुछ असामान्य लगा। उसने दौड़कर यह खबर गौरा देवी को दिया। गौरा देवी ने कार्यवाही में कोई विलंब नहीं किया। उस समय, गांव में मौजूद 27 महिलाओं और कुछ बच्चों को लेकर वे भी जंगल की ओर चल पड़ीं। देखते ही देखते महिलाएं मजदूरों के झुंड के पास पहुंच गईं। उस समय मजदूर अपने लिए खाना बना रहे थे। गौरा देवी ने उनसे कहा, “भाइयों, ये जंगल हमारा मायका है। इससे हमें जड़ी-बूटी, सब्जी-फल और लकड़ी मिलती है। जंगल को काटोगे तो बाढ़ आएगी, हमारा सबकुछ बह जाएगा।, आप लोग खाना खा लो और फिर हमारे साथ चलो, जब हमारे मर्द लौटकर आ जाएंगे तो फैसला होगा।”

ठेकेदार और उनके साथ चल रहे वन विभाग के लोगों ने महिलाओं को धमकाया और गिरफ्तार करने की धमकी दी। लेकिन महिलाएं अडिग थीं। ठेकेदार ने बंदूक निकालकर डराना चाहा तो गौरा देवी ने अपनी छाती तानकर गरजते हुए कहा, ‘लो मारो गोली और काट लो हमारा मायका’, इस पर सारे मजदूर सहम गए। गौरा देवी के इस अदम्य साहस और आह्वान पर सभी महिलाएं पेड़ों से चिपक कर खड़ी हो गईं और उन्होंने कहा, ‘इन पेड़ों के साथ हमें भी काट डालो।’


देखते ही देखते, काटने के लिए चिह्नित पेड़ों को पकड़कर महिलाएं तैनात हो गईं। ठेकेदार के आदमियों ने गौरा देवी को हटाने की हर कोशिश की लेकिन गौरा देवी ने आपा नहीं खोया और अपने विरोध पर अडिग रहीँ। आखिरकार थक-हारकर मजदूरों को लौटना पड़ा और इन महिलाओं का मायका कटने बच गया।

चंडीप्रसाद भट्ट के लिए भी यह एक रोमांचक अनुभव था। गाँव की स्त्रियाँ एक-एक पेड़ से चिपककर उसे बांहों में भर लेती थीं और खड़ी रहती थी। इस आन्दोलन का संकेत था कि पेड़ काटने के लिए ठेकेदार के लोगों को आन्दोलनकारियों पर प्रहार करना होगा। किसी के लिए भी यह आसान नहीं है चाहे वह जितना भी क्रूर हो।
इस आन्दोलन और उसको मिलने वाले प्रबल जनमत के दबाव में सरकार ने उस समय एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया और बाद में उस विशेषज्ञ समिति ने भी स्वीकार किया कि वनों के कटने की योजनाएं वन एवं पर्यावरण के लिए बेहद हानिकारक हैं। इसके बाद वन विभाग को वनों की कार्य-योजनाओं पर पुनर्विचार के लिए बाध्य होना पड़ा। लोक कार्यक्रम के रूप में संचालित इस अभियान की सफलता का मूल्यांकन भारतीय विज्ञान संस्था, केंद्रीय योजना आयोग और अन्य अनेक विशेषज्ञों ने भी किया। इसका निष्कर्ष था कि उनके नेतृत्व में किए गए ग्रामीणों के कार्य वन विभाग के कार्यों से कहीं अधिक सफल हैं।

मुझे लगता है कि यदि चंडीप्रसाद भट्ट का यह चिपको आन्दोलन दंतेवाड़ा के नक्सल प्रभावित क्षेत्र में चलाया गया होता तो अबतक उन्हें नक्सली कहकर जेल में डाल दिया गया होता। उनका आन्दोलन ऐसे क्षेत्र में चला जहाँ के पहाड़ों पर बड़े उद्योग लगने की संभावना नहीं थी। वहां की जमीन में छत्तीसगढ़ और झारखंड की तरह खनिज भी नहीं थे। इतना ही नहीं, उत्तराखंड के उन पहाड़ों पर केवल जंगली जनजातियां ही नहीं रहती हैं अपितु वहाँ बड़ी संख्या में मध्यवर्ग और शासक वर्ग का भी एक हिस्सा रहता है। अलकनंदा की बाढ़ के कारणों की समीक्षा चंडीप्रसाद भट्ट पहले ही कर चुके थे और बता चुके थे कि पेड़ों के कटने का कितना बड़ा असर उसपर पड़ा था।

इसके बावजूद चंडीप्रसाद भट्ट का आन्दोलन और उनके सामाजिक कार्य का महत्व किसी भी तरह कम नहीं है। वे ज्यादातर डीजीएसएस के कार्यालय में ही रहते और वहां के साथियों के साथ ही सामाजिक कामों में लगे रहते हैं। वे बीच- बीच में आकर अपने घर की खबर भी लेते रहते हैं।


हिमालय के पारिस्थितिकी तंत्र को समझने और देश के विभिन्न भागों में लोगों की समस्याओं, सामाजिक-आर्थिक स्थिति के अध्ययन के लिए भट्ट जी ने हिमालय के एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक की यात्राएं की हैं। इस दौरान लोक कार्यक्रमों एवं लोक ज्ञान के आदान-प्रदान के अलावा उन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में जनांदोलनों में सक्रिय भागीदारी भी की है। उन्होंने पर्यावरण के अध्ययन तथा पर्यावरण संरक्षण पर आयोजित विभिन्न कार्यक्रमों में हिस्सेदारी के लिए रूस, अमेरिका, जर्मनी, जापान, नेपाल, पाकिस्तान, बांग्लादेश, फ्रांस, मैक्सिको, थाईलैंड, स्पेन, चीन आदि देशों की यात्राएं कीं। वे राष्ट्रीय स्तर की अनेक समितियों एवं आयोगों में शामिल होकर उन्हें अपने व्यावहारिक ज्ञान एवं अनुभव से समृद्ध किया है।

रामचंद्र गुहा ने ठीक कहा है कि “अभावों के बीच से निकले पहाड़ के इस पुत्र के जीवन का एकमात्र ध्येय पहाड़ में रहकर पहाड़ को ही जीना है।”
चंडीप्रसाद भट्ट को सरकार की ओर से और विदेशों की ओर से भी अनेक पुरस्कार और सम्मान मिले। उनमें 1982 में रेमन मैग्ससे पुरस्कार, 1983 में अरकांसस (अमेरिका) का अरकांसस ट्रैवलर्स सम्मान, भारत सरकार का पद्मश्री तथा पद्म भूषण सम्मान और इंदिरा गांधी राष्ट्रीय एकता पुरस्कार मुख्य है।

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