
हिन्दी के आलोचक – 8
हिन्दी भाषा और साहित्य के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर देने वाले आजीवन ब्रह्मचारी रहे पं.चंद्रबली पाण्डेय ( जन्म 25.4.1904 ) अंग्रेजी, उर्दू, फारसी, अरबी, संस्कृत और प्राकृत के विद्वान थे। एम.ए. उन्होंने हिन्दी में किया था। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के वे सर्वाधिक प्रिय शिष्यों में से थे। अभावों से दोस्ती और महत्वाकांक्षाओं से दुश्मनी करने वाला संत स्वभाव का यह आलोचक किसी विश्वविद्यालय का शिक्षक नहीं बना जिसके कारण इनके पास यश-विस्तारक शिष्यों की भी कोई परंपरा नहीं थी। इन्होंने अपना सारा जीवन अध्ययन और अनुसंधान में लगा दिया। वे किसान-पुत्र थे और एक स्वाभिमानी किसान की अक्खड़ता उनमें आजीवन विद्यमान रही।
पं. चंद्रबली पाण्डेय की छोटी –बड़ी लगभग 34 पुस्तकें प्रकाशित हैं जिनमें तीन अंग्रेजी में हैं। उनकी आलोचनात्मक पुस्तकों में ‘तसव्वुफ अथवा सूफीमत’, ‘उर्दू का रहस्य’, ‘भाषा का प्रश्न’, ‘राष्ट्रभाषा पर विचार’, ‘कालिदास’, ‘केशवदास’, ‘तुलसीदास’, ‘हिन्दी कवि चर्चा’, ‘हिन्दी गद्य का निर्माण’ आदि प्रमुख हैं। संस्कृत के कालिदास और हिन्दी के तुलसीदास उनके सर्वाधिक प्रिय कवियों में से हैं। ‘तसव्वुफ अथवा सूफीमत’ उनकी सर्वाधिक चर्चित कृतिय़ों में से हैं जिसमें सूफी मत पर पहली बार गंभीर शोधकार्य किया गया है। इसमें विषय का सैद्धांतिक और प्रामाणिक विश्लेषण है।
पाण्डेय जी की आलोचना में शोध की प्रवृत्ति अधिक है। उनका विवेच्य विषय मुख्यत: काव्य है। किन्तु काव्य के साथ कवि के जीवन पर भी उन्होंने विस्तार से लिखा है। उन्हें लगता है कि कवि की जीवन यात्रा को समझे बिना उसके काव्य को समझना कठिन है। ‘तुलसी की जीवन –भूमि’ ऐसा ही ग्रंथ है जिसमें कवि के जीवन-वृत्त को ही ग्रंथ का विषय बनाया गया है।
वे अपने गुरु आचार्य रामचंद्र शुक्ल की भाँति साहित्य में सौन्दर्य के साथ, सामाजिक और नैतिक मूल्यों को अधिक महत्व देते हैं। उनकी दृष्टि में साहित्य का कोई भी मूल्य शास्वत नहीं होता। युग की परिस्थितियों के साथ इनकी प्रकृति में भी परिवर्तन होता रहता है। पाण्डेय जी साहित्य शास्त्र की भारतीय परंपरा के पक्षधर हैं।
हिन्दी की चिन्ता, पाण्डेय जी की मुख्य चिन्ताओं में से एक है। भाषा की समस्या पर उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हैं। विदेशी परंपरा और संस्कृति से संबंध होने के कारण उर्दू के प्रति उनकी दृष्टि उपेक्षात्मक है। इस संबंध में वे राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन की तरह महात्मा गाँधी के विचारों से भी अपनी असहमति व्यक्त करते हैं। महात्मा गाँधी की ‘हिदुस्तानी’ को वे उर्दू से भिन्न नहीं मानते।
हिन्दी –उर्दू विवाद पर उनके अनेक लेख प्रकाशित हैं जिनमें ‘उर्दू की जुबान’, ‘उर्दू की हकीकत क्या है?’, ‘कचहरी की भाषा और लिपि’, ‘बिहार में हिन्दुस्तानी’, ‘भाषा का प्रश्न’, ‘नागरी का अभिशाप’, ‘मौलाना अबुल कलाम की हिन्दुस्तानी’, ‘हिन्दी के हितैषी क्या करें?,’ ‘हिन्दी की हिमायत क्यों?’, ‘हिन्दुस्तानी से सावधान’ आदि प्रमुख है। इस तरह उर्दू के संकीर्णतावादी समूह द्वारा अपनाए गए मतरुकात के सिद्धांत की तरह पाण्डेय जी ने भी हिन्दी में संस्कृतनिष्ठता की वकालत की और एक ही जाति ( हिन्दुस्तानी या हिन्दी जाति ) के लिए दो भाषा के अव्यावहारिक सिद्धांत को प्रश्रय दिया। दुर्भाग्य से आज भारत उसी पथ पर अग्रसर है और आजादी के सत्तर वर्ष बाद भी सांप्रदायिकता के चंगुल से उबर नहीं सका है।
राष्ट्रभाषा के सवाल पर लड़ते हुए उन्होंने 1932 से लेकर 1949 तक हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी में लगभग दो दर्जन पैम्फ्लेटों की रचना की। उनके पैम्फ्लेटों को देखकर प्रख्यात भाषा वैज्ञानिक सुनीति कुमार चाटुर्ज्या ने कहा था कि “पाण्डेय जी के एक –एक पैम्फ्लेट भी डॉक्टरेट के लिए पर्याप्त है।“ पाण्डेय जी के विचारों की छाप उनकी अपनी भाषा व शैली पर भी स्पष्ट दिखायी पड़ती है। हां, उन्होंने कचहरियों में प्रचलित फारसी को हटाकर उसकी जगह देवनागरी लिपि के इस्तेमाल पर लगातार जोर दिया और इस तरह देश की बहुसंख्यक आम जनता के पक्ष में खड़े होने का प्रशंसनीय और न्यायसंगत कार्य किया।पं. चंद्रबली पाण्डेय हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग तथा नागरी प्रचारिणी सभा, काशी के भी सभापति रह चुके हैं। उनका निधन में 1958 ई. में उनकी साधना स्थली काशी में हो गया। हिन्दी के ऐसे त्यागी और निस्पृह योद्धा को उनके जन्मदिन के अवसर पर हम नमन करते हैं।
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