शाहीन बाग़ के प्रकाशपुंज – स्वराजबीर – अनु. – जगजीत विर्क

अनुवाद – जगजीत विर्क

1980 के दशक में बिहार में जातिवादी संघर्ष तीव्र हिंसक हो गया था। यह संघर्ष तो सदियों से हिंसक रहा है परन्तु 1970 और 1980 के दशकों में दलित और दमित जातिवाद के भेदभाव और ज़ुल्मों के खिलाफ संगठित हुए और कई जगहों पर संघर्ष का रूप हथियारबंद हो गया। उन वर्षों में बिहार में अपने आप को ऊँची जातियों के कहलाने वाले लोगों ने गुंडों के गिरोह, जिन्हें ‘प्राइवेट आर्मी कहा जाता था, बनाए और इन गिरोहों ने समाज के दबे कुचले लोगों पर भारी ज़ुल्म किये। जिस तरफ से भी जुल्म की आवाज़ उठी, उसे कुचलने के लिए उन पर हमला किया गया। बिहार के एक गांव में आदिवासी मज़दूर औरतों को आधी रात जला दिया गया। इस घटना पर प्रख्यात हिंदी कवि आलोक धन्वा ने बहुत ही मार्मिक कविता ‘ब्रूनो की बेटियां’ लिखी। 

जीओदरानो ब्रूनो रोमन कैथोलिक ईसाई धर्म से सम्बंधित डोमिनीशिन फिरके का एक भिक्षु होने के साथ साथ गणित-शास्त्री, शायर, तारा-विज्ञानी व चिंतक भी था। उसने गणित-शासत्री व तारा-विज्ञानी निकोलस कोपरनिकस के इस सिद्धांत कि ‘धरती सूर्य के गिर्द घूमती है’ की हिमायत की।  उस समय के ईसाई धर्म का प्रबंध देखने वालों ने पहले उसे सात साल नज़रबंद कराया और 1600 में उसे धर्मद्रोही (Heretic) कहकर उसे जिन्दा जला दिया गया। इस तरह ब्रूनो स्थापित सत्ता विरोधी विचार प्रकट करने की आज़ादी और ज़ुल्म के खिलाफ संघर्ष करने का प्रतीक बन गया। अलोक धन्वा ने 1980  के दशक में बिहार में जिन्दा जलाई गई मज़दूर औरतों को ब्रूनो  की बेटियां कहा।  

ब्रूनो  की बेटियां लासानी कविता है। इसमें कहीं भी जुल्म का शिकार हुई औरतों की कहानी बताते हुए उनके लिए किसी तरह के विशेषण नहीं प्रयोग किये गये। उनकी ज़िंदगी अलोक धन्वा के शब्दों में इस तरह उतर आयी है जिस तरह की वे खुद थीं , सरल व जटिल, ज़िंदगी के लिए सहकती हुई और जीवन में महकती हुई। अलोक धन्वा उन औरतों का बयान कुछ इस तरह करता है :

वे ख़ुद टाट और काई से नहीं बनी थीं
उनकी माताएँ थीं
और वे ख़ुद माताएँ थीं।

उनके नाम थे
जिन्हें बचपन से ही पुकारा गया
हत्या के दिन तक
उनकी आवाज़ में भी
जिन्होंने उनकी हत्या की !

उनके चेहरे थे
शरीर थे, केश थे
और उनकी परछाइयाँ थी धूप में.

वे राख और झूठ नहीं थीं
माताएँ थीं
और कौन कहता है? कौन? कौन वहशी?
कि उन्होंने बगैर किसी इच्छा के जन्म दिया?

उनके सनम थे
उनमें झंकार थी

वे ख़ानाबदोश नहीं थीं
कुएँ के जगत पर उनके घड़ों के निशान हैं
उनकी कुल्हाड़ियों के दाग़
शीशम के उस सफेद तने पर

बाँध की ढलान पर उतरने के लिए
टिकाये गये उनके पत्थर
उनके रोज़-रोज़ से रास्ते बने हैं मिट्टी के ऊपर

यह लम्बी कविता के कुछ अंश हैं। ज़रा सोचो, 1980 के दहाके में जलाई गई मज़दूर औरतों के बारे में आलोक धन्वा का यह चित्र क्या शाहीन बाग की दादियों व नानियों का भी चित्रण नहीं करता, जिन्होंने सर्वशक्तिमान भारत सरकार द्वारा बनाये गये ‘नागरिकता संशोधन कानून’ का विरोध करने के लिए दिसंबर 2019 में शाहीन बाग में मोर्चा लगा दिया। लोगों ने तरह तरह के सवाल पूछे कि “यह मोर्चा किस जत्थेबंदी ने लगाया ? इस धरने के पीछे कौन सी ताकतें काम कर रही हैं ?” देश के कई महान नेताओं ने इस धरने की डोर पाकिस्तान से जोड़ी। हमारे देश में यह सब कुछ कैसे संभव हुआ ? देश के अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों ने कई साल ज़मीनी हालात की आंच अपने शरीरों पर झेली। वे भीड़ हिंसा का शिकार हुए; धर्म के आधार पर उनका तिरस्कार करते हुए उन्हें पाकिस्तान जाने के लिये कहा गया; उनके खान-पान एवं लिबास पहनने के तरीकों पर सवाल किये गए। फिर नागरिकता संशोधन कानून (Citizen Amendment Act – CAA) आया जिसके तहत पाकिस्तान, अफगानिस्तान व बांग्लादेश में बसते गैर-मुस्लिम फिरकों के लोगों को धर्म के आधार पर भारतीय नागरिकता देने की बात कही गई। 

इसके साथ ही ऐसी कार्यवाहियां  (राष्ट्रीय आबादी रजिस्टर, National Population Register, नागरिकों का राष्ट्रीय रजिस्टर, National Register of Citizens) करने की कानाफूसी भी सुनाई देने लगी, जिनके अनुसार सदियों से इस धरती पर रह रहे लोगों से पूछा जाएगा कि वे इस धरती के साथ अपने सबंधों का सबूत दें। लोगों के मन में यह बात आ गई कि पानी अब सिर पर से निकल चुका है; उन्होंने देखा कि वामपंथी, दक्षिणपंथी व केंद्रवादी पार्टियां एवं ग्रुप हमारे हक में बयान देने और अपनी एकत्रता करने तक सीमित हैं। लोगों ने अपने आंदोलन का स्वरूप खुद रचा; किसी ने अपना धार्मिक लिबास पहन लिया व किसी ने कोई और तरह का पहरावा; किसी ने तिरंगा पकड़ लिया व किसी ने किसी और रंग का झंडा; किसी ने संविधान की प्रस्तावना को अपने पोस्टर पर लिख लिया एवं किसी ने इंकलाब ज़िंदाबाद; किसी ने फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की कविता गाई और किसी ने लोक गीत। उन्होंने जम्हूरियत और अपनी पहचान बचाने की खातिर मोर्चे लगा दिए; दिल्ली का शाहीन बाग, लखनऊ का सब्जी बाग, कलकत्ते का पार्क सर्कस, मालेरकोटले व लुधियाने की सड़कें; जगह जगह पर लगे लोग मोर्चे, लोक-मन की अपनी ईजाद थे।   

इन औरतों ने अपने आंदोलन को पूरी तरह शांतिपूर्ण रखा था। वह न तो किसी के भाषणों से उत्तेजित हुई और न ही उन्होंने किसी के विरुद्ध गाली गलौच वाली भाषा प्रयोग की। उन्होंने अपना टीचा बड़ा स्पष्ट रूप में पेश किया कि नागरिकता को धर्म के साथ नहीं जोड़ा जाना चाहिए। उनके तर्क और विरोध करने के तरीके का सामना करना स्थापति को बहुत कठिन लग रहा था। अब करोनावायरस फैलने के दिनों में धरने को उठाने के लिए यह दलील दी गई है की यह धरना इस वायरस को फैलने से बचाने के लिए उठाया गया है, जब की धरना देने वाली औरतें सरकार की सभी हिदायतों पर  अमल कर रही थी; थोड़ी गिनती में और आपस में दूरी रख कर बैठ रही थी। सरकार ने किसी बहाने इस धरने को उठाना तो था परन्तु बड़ा प्रशन यह है कि इतनी कम संख्या में औरतों का धरना क्या इतना खतरनाक हो गया था की उसे उठाना जरुरी था। आदिवासी औरतों को जलाने सबंधी यही प्रश्न अलोक धनवा ने अपनी कविता में इस तरह पूछा था :

वह क्या था उनके होने में 
जिसके चलते उन्हें ज़िन्दा जला दिया गया?
बीसवीं शताब्दी के आखिरी वर्षों में
एक ऐसे देश के सामने
जहाँ संसद लगती है?

वह क्या था उनके होने में
जिसे ख़रीदा नहीं जा सका
जिसका इस्तेमाल नहीं किया जा सका

यही सवाल दिल्ली के शाहीन बाग और दूसरी जगहों पर धरना दे रही औरतों के बारे में पूछा जा सकता है कि इन औरतों के धरनों में ऐसा क्या था जिस कारण  सरकार इन्हें खतरनाक समझ रही थी।

क्या सरकार असहमति और विरोध की कोई आवाज़ नहीं सुनना चाहती ? इस धरने में औरतों ने अपनी आवाज़ बुलंद की; कवियों ने कविताएं सुनाई और गायकों ने गीत गाए। शायद इस सब कुछ के संगम से देश के लोगों के मन में कुछ ऐसा पनप रहा था जिस से देश के शासक डर रहे थे और डरे हुए लोग ही इस तरह की कार्यवाही करते हैं जो मंगलवार सुबह सरकार ने दिल्ली पुलिस को साथ लेकर की। लोगों को एक दूसरे से दूर रहने को कहा जा रहा है और उसके लिए कर्फ्यू लगाए जा रहे हैं लेकिन दिल्ली पुलिस की भीड़ ने शाहीन बाग की औरतों का धरना जबरदस्ती उठा दिया; शाहीन बाग व जामिया मिलिया की दीवारों पर कलाकारों द्वारा बनाए गए चित्रों पर कूची फेर दी गई। कट्टरपंथी इतिहास विरोधी भी हैं और कला विरोधी भी। अफगानिस्तान में कट्टरपंथीयों ने बामियान के बुत, जो बुद्ध धर्म की धरोहर थे, तोड़ दिए थे। शाहीन बाग में धरने पर बैठी औरतों और कुछ अन्य लोगों को गरिफ्तार कर लिया गया है। धरना चाहे केन्द्रीय सरकार के हुकमों पर उठाया गया है (दिल्ली पुलिस केन्द्रीय सरकार के अधीन है) परन्तु इसमें आम आदमी पार्टी की सहमति भी निहित है।  

गुरु गोबिन्द सिंह की अगुवाई में सिखों ने चमकौर की गढ़ी और नारनौल के सतनामियों ने नारनौल इलाके की कच्ची गढ़ियों में से हाकिमों के विरुद्ध लड़ाई लड़ी थी। उन गढ़ियों में से उठे संघर्ष कामयाब हुए और लाल किले में बैठे हाकिमों को हार का मुंह देखना पड़ा। ज़ुल्म के खिलाफ आवाज़ उठाना अपने आप में मानवता की जीत है।यहां जम्हूरियत के लिए हो रहे संघर्षों की खुशबू बसी हुई है और खुशबू को कत्ल नहीं किया जा सकता।

शाहीन बाग एवं इस से प्रेरणा लेने वाले आंदोलनों की खासियत यह थी कि इस बार औरतें इतनी बड़ी गिनती में आंदोलनों की अगुवाई करने व उनमें हिस्सा लेने के लिए आगे आई। देश के सारे भाईचारों के लोग, नौजवान, छात्र, कर्मी, किसान व अलग अलग क्षेत्रों में काम करने वाले मेहनतकश साझीवालता, समाजिक समानता, जम्हूरियत एवं धर्मनिरपेक्षता के आदर्शों के साथ जुड़े। अलग अलग क्षेत्रों के लोगों का जुड़ना इंसानी बिरादरी की बुनियाद है। लोगों की एकता शासक वर्गों की आँखों में हमेशा खटकती है।  बताया जाता है कि जब गवर्नर जनरल ने अपने सलाहकार को भगत सिंह बारे पूछा तो सलाहकार ने कहा कि यह बंदा हिन्दू-मुसलमान एकता का पक्षधर है। यह सुन कर गवर्नर जरनल ने कहा कि यह आदमी खतरनाक हो सकता है। हकूमतें हमेशा अलग अलग भाईचारों एवं वर्गों की एकता को खतरनाक समझती हैं। शाहीन बाग व अन्य जगहों पर हो रहे आंदोलन भी इसी तरह हकूमत के लिए खतरनाक थे। वह लोगों को उनकी ज़मीर जीवित होने का अहसास दिला रहे थे। यह आंदोलन जनता की खरोंची जा रही आत्मा की आवाज़ थे/हैं। ऐसी आवाज़ों को दबाया नहीं जा सकता।      

आज दिल्ली का शाहीन बाग, लखनऊ का सब्जी पार्क और धरने वाली अन्य जगहों को खाली करा लिया गया है। जगहें खाली कराए जाने से उन जगहों पर हुए ज़ुल्म खिलाफ संघर्ष के निशान मिट नहीं जाते। गुरु गोबिन्द सिंह की अगुवाई में सिखों ने चमकौर की गढ़ी और नारनौल के सतनामियों ने नारनौल इलाके की कच्ची गढ़ियों में से हाकिमों के विरुद्ध लड़ाई लड़ी थी। उन गढ़ियों में से उठे संघर्ष कामयाब हुए और लाल किले में बैठे हाकिमों को हार का मुंह देखना पड़ा। इसी तरह शाहीन बाग व इससे प्रेरणा लेकर चलाए गए दूसरे आंदोलन जगहें खाली कराने से नाकाम नहीं हुए। इन जगहों पर हुए आंदोलनों ने जन-आक्रोश को नया रूप दिया है। ज़ुल्म के खिलाफ आवाज़ उठाना अपने आप में मानवता की जीत है। शाहीन बाग में खाली पड़ी जगह जम्हूरियत के लिए लड़ी जा रही लड़ाई का चिन्ह है। यह जगह खाली नहीं है। यहाँ जम्हूरियत के लिए हो रहे संघर्षों की खुशबू बसी हुई है और खुशबू को कत्ल नहीं किया जा सकता।  

( 29 मार्च 2020 के पंजाबी ट्रिब्यून में प्रकाशित हुआ था, जिसका अनुवाद किया है जगजीत सिंह विर्क ने)

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