निराला ने कविता सरोज स्मृति सन् 1935 में लिखी।और इसका पहली बार प्रकाशन हुआ 1938 में उनके अनामिका संग्रह में। यह कविता हिंदी साहित्य में भी निराली है और निराला की अन्य कविता से भी अलग है। निराला को विद्रोही कवि के तौर पर जाना जाता है जिसने हिंदी साहित्य आग दी। बादल राग, जागो फिर एक बार, राम की शक्ति पूजा, कुकुरमुत्ता, राजे ने रखवाली की, वह तोड़ती पत्थर जैसी कविताएं निराला की पहचान हैं।इन सब कविताओं से ‘सरोज-स्मृति’ का स्वर कुछ भिन्न है नदी की निचली सतह की तरह शांत और गंभीर।
यह कविता असल में एक शोकगीत है। एक पिता ने अपनी जवान पुत्री की मौत पर लिखा है।इसमें निजी दुख भी हैं, जीवन संघर्ष भी और एक पिता की मनोदशा भी। अंग्रेजी में एलेजी Elegy शोकगीत जिसे उर्दू में मरसिया की समृद्ध परंपरा है, लेकिन हिंदी में शोकगीत का अभाव ही है।
इसलिए निराला के व्यक्तिगत जीवन पर एक नजर डालना अप्रासंगिक नहीं होगा। निराला का जन्म हुआ 21 फरवरी 1896 में। बंगाल के मिदनापुर में। उनका विवाह हुआ सन् 1911 में। मनोहरा देवी के साथ। उनकी सरोज का जन्म 1917 में हुआ। बेटी की शादी कर दी। सरोज पहले विधवा हुई। 18 साल पूरे करके उसकी मृत्यु हो गई। मृत्यु हुई बीमार पड़ने से।गौर करने की बात है कि निराला की पत्नी की मृत्यु भी बीमार पड़ने से हुई थी।
सरोज स्मृति छायावाद के अवसान काल में लिखी गई थी इसलिए उसमें छायावादी रूझान हावी नहीं हैं। छायावादी कविताओं में दुख की अभिव्यक्ति हुई है, लेकिन यह दुख तकलीफ नहीं देता। यह ऐसा दुख नहीं है कि व्यक्ति को तोड़ दे। यह अमूर्त किस्म का दुख है जिसे कवि को धारण करने में मजा आता है एक गहने की तरह दुख कविता का हिस्सा बन गया है। यह दुख कवि का कल्पित दुख है वास्तविकता से इसका संबंध नहीं है।
सरोज-स्मृति इस अर्थ में अलग कविता है इसका दुख एकदम वास्तविक है, मूर्त है और कवि को भीतर तक हिला देने वाला है।जीवन की कड़वी सच्चाइयों में से यह दुख निकल रहा है। इस दुख की गहरी अनुभूति को निराला ने अपने जीवन के संघर्ष, उपलब्धियों, अपनी पराजयों पर आत्ममंथन करने के अवसर रूप में लिया है इसलिए यह कविता वैयक्तिक दुख की सीमाओं को लांघ गई है और तत्कालीन सामाजिक वास्तविकता से संबद्ध हो गई है। इस तरह ‘सरोज-स्मृति’ निराला के साथ हर पिता के दुख की अभिव्यक्ति हो गई है। हिंदी में शायद ही इस तरह की दूसरी कविता हो।
‘सरोज स्मृति’ कविता की आंतरिक बुनावट निराला के कवि व्यक्तित्व में उल्लेखनीय बदलाव की सूचक है। कविता के आरंभ में निराला ने बेटी की मृत्यु को जिस भव्यता से चित्रित किया है वह एक पिता के लिए अस्वाभाविक है।
ऊनविंश पर जो प्रथम चरण
तेरा वह जीवन-सिन्धु-तरण;
गीते मेरी, तज रूप-नाम
वर लिया अमर शाश्वत विराम
पूरे कर शुचितर सपर्याय
जीवन के अष्टादशाध्याय,
चढ़ मृत्यु-तरणि पर तूर्ण-चरण
कह – “पित:, पूर्ण आलोक-वरण
करती हूँ मैं, यह नहीं मरण,
‘सरोज’ का ज्योति:शरण – तरण!”
यहां छायावादी रचना संस्कारों के स्पष्ट तौर पर दर्शन होते हैं। लेकिन जैसे ही सामाजिक व वैयक्तिक जीवन की वास्तविकताएं कविता का हिस्सा बनती हैं तो सामाजिक यथार्थ की अनेक परतें और स्तर उद्घाटित होने लगते हैं।
धन्ये, मैं पिता निरर्थक था,
कुछ भी तेरे हित न कर सका!
…
अस्तु मैं उपार्जन को अक्षम
कर नहीं सका पोषण उत्तम
….
लौटी लेकर रचना उदास
ताकता हुआ मैं दिशाकाश
बैठा प्रान्तर में दीर्घ प्रहर
व्यतीत करता था गुन-गुन कर
सम्पादक के गुण; यथाभ्यास
पास की नोंचता हुआ घास
सामाजिक व पारिवारिक संरचनाओं के साथ संघर्ष, परंपरा के साथ टकराहट, लेखक के तौर पर संघर्ष, एक पिता का संघर्ष, प्रगतिशील विचार को व्यवहार में स्थापित करने का संघर्ष उद्घाटित होने लगता है। सरोज की स्मृति असल में निराला के जीवन संघर्षों की स्मृतियां हैं जिसके अनेक आयाम हैं।
सरोज स्मृति एक शोक गीत है। गौर करने की बात है कि यह एक गीत है। लोकगीतों के रेशे रेशे में जिस तरह स्त्रियों के दुख समाये रहते हैं, उसी तरह ‘सरोज स्मृति’ में भी समाया हुआ है।इस गीत में दुख की जो कथा बुनी गई है, वह सीधी सरल नहीं है, बल्कि उसमें कई घुमाव हैं। गीत की लय में दुख कथा को सहजता से पाठकों से जोड़ने की क्षमता है।
सरोज निराला की पुत्री भी है और सृजन प्रेरणा भी। सरोज के लालन-पालन की कष्टों-कठिनाइयों, पिता के सामाजिक दायित्वों के निर्वहन के मार्मिक चित्रण इस कविता में अद्भुत ढंग से अभिव्यक्त हुए हैं। सरोज का बचपन, उसकी किशोरावस्था और नवविवाहिता के सजीव चित्रण के माध्यम निराला व्यक्तित्व के अनेक आयामों को उद्घाटित होते हैं। बेटी के बचपन के चित्र विशेषतौर पर कुंडली का फाड़ देना, आंसुओं से धुला मुंह और गंगा किनारे रेत पर घूमने जाना तथा किशोर-जवान बेटी के रूप-सौंदर्य वर्णन की मिसाल अन्यत्र शायद ही मिले।
देखती मुझे तू हँसी मन्द,
होंठो में बिजली फँसी स्पन्द
उर में भर झूली छवि सुन्दर,
प्रिय की अशब्द श्रृंगार-मुखर।
…
रति-रूप प्राप्त कर रहा वही,
आकाश बदल कर बना मही।
निराला की कविताओं में अपना परिवेश और भारतीय परंपरा दोनों साथ साथ रहते हैं। अपनी लड़की को विदा करते हैं और कण्व ऋषि की बेटी शंकुतला को याद करते हैं। स्वाभाविक है पति सेवा व अपमानित होने पर भी रोष से उनके विरुद्ध आचरण न करने का वह उपदेश तो याद आया होगा जो कण्व ने अपनी बेटी शकुंतला दिया था।
माँ की कुल शिक्षा मैंने दी,
पुष्प-सेज तेरी स्वयं रची,
सोचा मन में, “वह शकुन्तला,
पर पाठ अन्य यह अन्य कला।”
छंदमुक्त कविता रचना के कारण कवि के तौर पर उपेक्षा और संपादकों द्वारा कविताओं को प्रकाशित करने से मना करना, प्रगतिशील विचार के कारण अपने समाज द्वारा उपेक्षा को निराला ने जिस सघनता के साथ व्यक्त किया है।अपने समाज की परंपराओं को निभाने के लिए अपने स्वाभिमान की तिलांजलि नहीं दे सकते। दामाद के पैर पूजने जैसी परंपराओं के अंधानुकरण से इनकार किया।
वे जो यमुना के-से कछार
पद फटे बिवाई के, उधार
खाये के मुख ज्यों पिये तेल
चमरौधे जूते से सकेल
निकले, जी लेते, घोर-गंध,
उन चरणों को मैं यथा अंध,
कल ध्राण-प्राण से रहित व्यक्ति
हो पूजूं, ऐसी नहीं शक्ति।
ऐसे शिव से गिरिजा-विवाह
करने की मुझको नहीं चाह!”
मुहावरों- लोकोक्तियों का प्रयोग निराला की भाषा की विशेषता है, । मुहावरे उनकी कविता की अर्थभंगिमाओं का तीव्र भी करती हैं और व्यापक भी।सरोज स्मृति कविता में ‘खाकर पत्तल में करें छेद’, ‘उधार खाये के मुख’ आदि मुहावरों के प्रयोग से समाज की आलोचना का स्वर प्रखर हुआ है। निराला की भाषा में व्यंग्य की धार बहुत तीखी है।
निराला का ‘कवि-जीवन में व्यर्थ भी व्यस्त’ कहना हिंदी साहित्यकार की सार्वजनिक छवि व उसकी साहित्यजीविता पर भी सवाल उठाता है। अपने साहित्य के बल पर निराला भी अपना जीवन बेहतर ढंग से नहीं जी पाए।
सरोज स्मृति कविता निराला के जीवन संघर्ष व कवि-व्यक्तित्व के कई पहलुओं को उजागर करती है।इसकी विषयवस्तु और बुनावट में निराला के कवि व्यक्तित्व के विकास अगला पड़ाव स्पष्ट तौर पर रेखांकित किया जा सकता है। निराला के वात्सल्य प्रेम और सामाजिक रूढ़ियों के प्रति विद्रोह के साथ साथ दर्शन होते हैं।