मकदूम अबी उल हसन जुनैदी बिन सैयद हुसैन खुरासान दिल्ली विजय के लिए चले किंतु सफलता प्राप्त नहीं हुई। दिल्ली पहुंचने के कुछ दिन बाद इनका देहांत हो गया। इनका परिवार दिल्ली में बस गया। इसी परिवार में 1322 ई. में बंदा नवाज का जन्म हुआ। बंदा नवाज का पूरा नाम था सैयद मुहम्मद बिन सैयद युसुफुल अरूफ। आगे चल कर ये बंदा नवाज के नाम से प्रसिद्ध हुए। इनके बाल बहुत बड़े-बड़े थे। अतः लोग इन्हें गेसू दराज (गेसू-बाल, दराज-बड़ा) भी कहते थे। इस समय ये ख्वाजा बन्दे नवाज गेसूदराज के नाम से स्मरण किए जाते हैं।
दक्षिण में जितने भी मुस्लिम संत आए उनमें बंदा नवाज का स्थान महत्वपूर्ण है। जो सम्मान इन्हें अपने समय में मिला वह किसी दूसरे संत को प्राप्त नहीं हो सका। इनकी मृत्यु के बाद भी आज तक कोई मुस्लिम संत इनकी कीर्ति को अतिक्रमण नहीं कर सका। इसी से इन बंदा नवाज के व्यक्तित्व का अनुमान लगाया जा सकता है।
यह प्रमाणित किया जाता है कि बंदा नवाज इमाम-हुसैन की 22वीं पीढ़ी में उत्पन्न हुए थे। इस तरह वंश परंपरा के आधार पर भी इनके महत्व का प्रतिपादन किया जाता है।
जब बंदानवाज की आयु 4 या 5 वर्ष की थी, तब इनके पिता दौलताबाद आए थे। बंदानवाज भी इनके साथ थे। यहां इनके पिता का देहांत हुआ। पिता की मृत्यु के बाद बंदानवाज दिल्ली लौट आए। यहां इन्होंने प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की। ताजुद्दीन बहादुर और मौलाना शर्फुद्दीन से शिक्षा ग्रहण करने के बाद इन्होंने सोलह वर्ष की आयु में नसीरुद्दीन महमूद की शिष्यता स्वीकार की।
ये चालीस वर्ष तक कुंवारे र हे, किंतु मां मकदूमा के आग्रह पर इन्होंने आयु के 42वें वर्ष में मौलाना मुहम्मद जमालुद्दीन हुसेनी मगरबी की पुत्री रजा खातून से विवाह किया। जिससे इन्हें दो लड़के और तीन लड़कियां हुई। इनके पुत्रों ने भी ईश्वराराधन और अध्ययन में मन लगाया।
जब बंदानवाज 20 वर्ष के थे, दिल्ली पर तैमूर लंग का आक्रमण हुआ। दिल्ली के नागरिक बहुत भयभीत थे। बहुत से नागरिक दिल्ली छोड़कर चले गए। बंदानवाज भी अपने परिवार के साथ चल दिए। कुछ दिन गुजरात में रहे। गुजरात के सूफी संतों का प्रभाव इन पर पड़ा। गुजरात से इन्होंने दौलताबाद आना चाहा। उन दिनों दक्खिन में बहमनी वंश का शासन दूर-दूर तक फैल चुका था। इस वंश में फिरोजशाह बहमनी अपनी अनेक विशेषताओं के कारण स्मरणीय रहेंगे। जब फिरोजशाह को बंदानवाज के आगमन का समाचार मिला तो उन्होंने दौलताबाद के दुर्गपाल को बंदानवाज के स्वागत के लिए लिखा। जब बंदानवाज दौलताबाद पहुंचे तो उनका स्वागत किया गया।
बंदानवाज दौलताबाद से गुलबर्गा गए। गुलबर्ग में फिरोजशाह ने इनका अभिनंदन किया। फिरोजशाह की प्रार्थना पर इन्होंने गुलबर्ग में रहने का निश्चय किया।
कुछ घटनाएं ऐसी घटित हुईं कि फिरोजशाह बंदानवाज में अप्रसन्न हो गया। फिरोजशाह का भाई अहमदशाह बंदानवाज का भक्त बन गया। फिरोजशाह ने एक दिन बंदानवाज से पूछा कि मेरी मृत्यु के बाद मेरा उत्तराधिकारी मेरा पुत्र हसनखां होगा या भाई अहमदशाह। बंदानवाज ने भविष्यवाणी की कि अहमदशाह ही गद्दी पर बैठेगा। इसी तरह फिरोजशाह बीजापुर पर आक्रमण करना चाहता था। जब वह बंदानवाज से अनुमति लेने गया तो उन्होंने आक्रमण करने से रोका। इस युद्ध में फिरोजशाह की पराजय हुई। इन बातों से फिरोजशाह बंदानवाज के विरुद्ध होता गया। बंदानवाज किले के पास ही ठहरे थे। उनके निवास स्थान पर बहुत से लोग दर्शनों के लिए आते थे। उपासना के समय सैंकड़ों लोग प्रार्थना करते थे। फिरोजशाह ने बंदानवाज से कहा कि उनके किले के पास रहने से राजकीय कामों में बाधा पहुंचती है। वे कहीं दूर चले जाएं। बंदानवाज किले से कुछ दूर रहने लगे।
बंदानवाज की भविष्यवाणी के अनुसार फिरोज की मृत्यु के बाद अहमदशाह गद्दी पर बैठा। अहमदशाह अपनी इस सफलता का एकमात्र कारण बंदानवाज के आर्शीवाद को मानता था। उसकी भक्ति और भी बढ़ गई। बंदानवाज को जागीर दी गई, जो उनके वंशजों के पास अब तक है।
105 वर्ष की आुय में बंदानवाज का देहांत 1423 ई. में गुलबर्ग में हुआ। जिस स्थान पर ये दफनाए गए, वहां बहमनी वंश की ओर से बहुत शानदार गुम्बज बनवाई गई। इस गुम्बज के पास ही इनकी पत्नी, इनके पुत्र तथा अन्य संबंधी दफनाए गए। यह स्थान बहुत पवित्र माना जाता है। बंदानवाज की मृत्यु-तिथि पर लगभग एक लाख व्यक्ति वहां श्रद्धांजलि अर्पित करने जाते हैं।
ब्ंदानवाज साधक होने के साथ-साथ विद्वान पुरुष थे। इन्होंने धार्मिक विषयों पर फारसी में कई ग्रंथ लिखे हैं। इस्लामी धर्म-ग्रंथों का इन्होंने गंभीर अध्ययन किया था। ये स्वयं सूफी सम्प्रदाय के साधक थे। सूफी सम्प्रदाय की चिश्ती शाखा की मान्यताओं पर आचरण करते थे। कन्नड़ भाषी प्रदेश पर इनके व्यक्तित्व का बहुत प्रभाव पड़ा। मुसलमान ही नहीं बहुत से हिन्दू भी इन्हें मनोवांछित फल प्रदान करने वाला मानते हैं।
कुछ लोग बंदानवाज की लिखी हुई मीराजुल आशकीन और तर्जुमा वजुदुल आरफीन को दक्खिनी कमी सर्वप्रथम रचना बताते हैं। किंतु अधिकृत रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि इन पुस्तकों की रचना बंदानवाज ने ही की। यदि इन दोनों पुस्तकों की रचना बंदानवाज ने ही की है, तब भी बंदानवाज दक्खिनी के प्रथम लेखक नहीं कहला सकते। उन्होंने अपनी रचनाओं में अपने से पूर्ववर्ती संत हजरत शाह बुरहान की उक्तियां उद्धृत की हैं।
बंदानवाज के लिए यह प्रसिद्ध है कि वे जब धर्मोपदेश करते थे तो अन्य धर्मोपदेशकों की तरह अरबी या फारसी में उपदेश देने के बजाए हिन्दी में ही उपदेश देते थे। बंदानवाज के जीवन का ध्येय एकांत साधना के अतिरिक्त इस्लाम का प्रचार करना भी था। इसी लिए उन्होंने परम्परा को तोड़ कर वाज के समय कि हिन्दी को अपनाया। बंदानवाज वाज या धर्मोपदेश के समय जो कुछ कहते थे, उसी को उनके शिष्य लिखते जाते थे। उपर्युक्त दोनों पुस्तकें संभवतः इसी प्रकार के उपदेश संकलन हैं। यद्यपि दोनों पुस्तकें मूल रूप से बंदानवाज की लिखी हुई हैं, तब भी उनमें मूल स्वरूप् की बहुत हद तक रक्षा हुई है। बंदानवाज के गद्य को हम लोग हिन्दी का प्राचीनतम लिखित गद्य मान सकते हैं।
साभार – श्रीराम शर्मा, दक्खिनी हिंदी का पद्य और गद्य