हिन्दी की उन्नति – बालमुकुंद गुप्त

बालमुकुंद गुप्त

हिन्दी भाषा के संबंध में शुभ केवल इतना ही देखने में आता है कि कुछ लोगों को इसे उन्नत देखने की इच्छा हुई है। किंतु केवल इच्छा करने से कार्य सिद्ध नहीं होता है। यदि इच्छा करने ही से कार्य पूरा होता हो तो शायद पृथ्वी-लखपति, करोड़पति जमींदार, राजा-महाराजाओं से भर जाती। क्यासेंकि अपरमित धन की इच्छा न रखने वाला संसार में कोई भी मनुष्य नहीं है।

इच्छा होने से उसको पूरा करने के लिए इच्छा के साथ-साथ और भी एक वस्तु जरूरी है। उसका नाम है चेष्टा। किंतु हिन्दी की उन्नति की इच्छा रखने वालों में से आज तक कितने आदमियों ने कितनी चेष्टा की है? हम उन्नति-उन्नति चिल्लाने वालों से विनयपूर्वक पूछते हैं,-भाइयो, छाती पर हाथ रखकर कहिए तो सही, आपने मातृभाषा की उन्नति के लिए कितनी चेष्टा की है?

आप कहेंगे, यह देखो, हमने अखबार जारी किया है। आप कहेंगे यह देखो, हमने सरकारी अदालतों में नागरी अक्षर जारी कराए हैं। आप कहेंगे कि हमने बड़ी-बड़ी चेष्टा से बंगदेश की यूनिवर्सिटी की एलए परीक्षा में हिन्दी के लिए भी कुछ जगह देने के लिए शिक्षाधिकारियों को लाचार किया है। किंतु क्या यही सब हिन्दी की उन्नति के लक्षण हैं?

इस लेख के लेखक ने मिडल क्लास के अतिरिक्त हिन्दी नहीं पढ़ी थी, किंतु आज वह हिन्दी-साहित्य के लेख लिखने का दावा रखता है, बड़े-बड़े लोगों को हिन्दी के संबंध में दो बात कहकर लज्जित नहीं होता है। इसके क्या माने हैं? क्या इस लेखक की प्रकृति का दोष है अथवा मिडल क्लास तक पढ़ना ही हिन्दी-विद्या पूर्ण रूप से प्राप्त करने के लिए यथेष्ट है? मालूम होता है कि यह पिछली बात सही है। किसी लाइब्रेरी में जाइए, देखेंगे कि अलमारी की अलमारी अंग्रेजी किताबों से भरी हुई है। काव्य, अलंकार, न्याय, दर्शन, विज्ञान प्रकृति में से चाहे जिस विषय की पुस्तकों की आलोचना करने में जीवन गंवा डालिए, किंतु किताबों का शेष नहीं होगा और संस्कृत विद्या? संस्कृत विद्या के हर एक विभाग में केश पकाए हुए कितने सुविज्ञ लोग आज तक काशी की विद्यापुरी में विद्यमान है, अब तक विद्या ही सीख रहे हैं, विद्या का पार नहीं देख सकते। किंतु हमारी हिन्दी-विद्या मिडल क्लास तक पढ़ने में प्रायः पूरी हो जाती है। आगे और किताब नहीं कि पढ़कर विद्या बढ़ावें।

पूर्वज कवियों के हिन्दी काव्य-साहित्य की बात नहीं करेंगे, प्रचलित गद्य पुस्तकें ही भाषा की उन्नति विचारने का निदान गिनी जाती हैं। यह किताबें हिन्दी में कितमनी हैं? यदि स्वर्गीय बाबू हरिश्चन्द्र की अमृतमयी लेखनी कुछ भिन्न भाषा की पुस्तकों के अनुवाद प्रभृति न रचती तो आज तक शायद हिन्दी-गद्य साहित्य का नाम तक सुनने में नहीं आता। वही आदि, वही अन्त। बाबू हरिश्चन्द्र के पीछे और किसी में हिन्दी की उन्नति के लिए उनके जैसा उत्साह दिखाय है? सिर्फ यही नहीं, उनकी किताबें ही कितनी बिकी हैं? जो लोग आज हिन्दी की उन्नति उन्नति पुकार रहे हैं, क्या उनमें से हर-एक को हरिश्चन्द्र ग्रंथावली की एक-एक प्रति अपने घर में देखने का सौभाग्य प्राप्त है?

केवल गाल बजाने से भाषा की उन्नति नहीं होती है। भाषा की उन्नति के लिए लेखक चाहिए। लेखक बनाने के लिए पाठक चाहिए और पाठक होने के लिए मातृभाषा पर अनन्त अनुराग, अनन्त प्रेम, अनन्त भक्ति चाहिए। जब तक इन वस्तुओं का अभाव रहेगा, तब तक मातृ-भाषा की उन्नति चिल्लाना केवल गाल बजाकर भूख बढ़ाना है।

यदि सचमुच हिन्दी की उन्नति की कामना आपके हृदय में चुभ गई है तो कमर कसकर खड़े हो जाइए। आप ही आप प्रतिज्ञा कीजिए-‘यत्नं साधयं वा शरीरं पातयं वा।’ वह देखिए प्रति वर्ष कितने ही युवक अंग्रेजी विद्या की बीए, एमए, परीक्षा पास कर रहे हैं। उनके हृदय में हिन्दी का रस प्रवेश कराइए। अब वह न हिन्दी पढ़ते हैं, उनमें से बहुत ही थोड़े लोग पढ़ी हुई बात को समझने की शक्ति रखते हैं। यदि सचमुच ही आप हिन्दी की उन्नति चाहते हैं, तो यह दोष दूर करने की चेष्टा कीजिए। दोष दूर करने का उपाय केवल पढे़ हुए लोगों से लिखाने के साथ उनकी लिखी हुई चीजें बिकवाने की चेष्टा करना है। वह चेष्टा धन के बिना नहीं हो सकती। यदि हिन्दी पर सचमुच अनुराग हुआ हो तो हिन्दी की उन्नति के लिए धन संग्रह कीजिए, सुयोग्य सुपंडितों से हिन्दी की प्रयोजनीय पुस्तकें लिखाकर संगृहीत धन से खरीद लीजिए। वह पुस्तकें देश में बांट कर देशवासियों में हिन्दी पढ़ने का शौक फैलाइए। तभी मातृभाषा की उन्नति होगी, तभी हिन्दी अपने उचित स्थान को प्राप्त कर देशवासियों को अपने फल-फूल-पत्र-पल्लवों से सुशोभित होकर बहार दिखा सकेगी।

भारतमित्र 1901 ई.

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