हिंदी भाषा की भूमिका – बालमुकुंद गुप्त

(बालमुकुंद गुप्त की ‘हिंदी भाषा’ के नामक पुस्तक प्रकाशित हुई। बालमुकुंद गुप्त हिंदी भाषा का इतिहास लिख रहे थे। इसके लिए उन्होंने सामग्री एकत्रित कर ली थी और इसका मसौदा भी तैयार कर लिया था। इस संबंध में दो लेख भी लिखे, जिसमें हिंदी भाषा का विकास दर्शाया है। हिंदी साहित्य के आदिकाल के कवियों की बाषा के बारे में विचार करते हुए उन्होंने कबीर, नानक, मलिक मुहम्मद जायसी आदि की बाषा के बारे में लिखा है। लेकिन इससे पहले कि वे इसे अंतिम रूप देते उनका देहांत हो गया। हिंदी के साहित्यकारों की भाषा और साहित्य पर उनके विचार महत्वपूर्ण हैं और उनका ऐतिहासिक मूल्य है। पाठकों के लिए यहां इस पुस्तक की भूमिक प्रस्तुत कर रहे हैं।-सं.)

वर्तमान हिन्दी भाषा की जन्मभूमि दिल्ली है। वहीं ब्रज-भाषा से वह उत्पन्न हुई और वहीं उसका नाम हिन्दी रखा गया।आरंभ में उसका नाम रेखता पड़ा था। बहुत दिनों यही नाम रहा। पीछे हिन्दी कहलाई। कुछ और पीछे इसका नाम उर्दू हुआ। अब फारसी वेष में अपना उर्दू नाम ज्यों का त्यों बना हुआ रखकर देवनागरी वस्त्रों में हिन्दी-भाषा कहलाती है।

हिन्दी के जन्म-समय उसकी माता ब्रज-भाषा खाली भाषा कहलाती थी, क्योंकि वही उस समय उत्तर भारत की देश भाषा थी। पर बेटी का प्रताप शीघ्र ही इतना बढ़ा कि माता के नाम के साथ ब्रज शब्द जोड़ने की आवश्यकता पड़ी। क्योंकि कुछ बड़ी होकर बेटी भारतवर्ष की प्रधान भाषा बन गई और माता केवल एक प्रांत की भाषा रह गई। अब माता ब्रज भाषा और पुत्री हिन्दी-भाषा कहलाती है।

यद्यपि हिन्दी की नींव बहुत दिनों से पड़ गई थी, पर इसका जन्मकाल शाहजहां के समय से माना जाता है। मुगल सम्राट शाहजहां के बसाए शााहजहानाबाद के बाजार में इसका जन्म हुआ कुछ दिनों तक वह निरी बाजारी भाषा बनी रही। बाजार में जन्म ग्रहण करने से ही इसका नाम उर्दू हुआ। उर्दू तुर्की भाषा का शब्द है। तुर्की में उर्दू लश्कर या छावनी के बाजार को कहते हैं। शाहजहानी लश्कर के बाजार में उत्पन्न होने के कारण जन्म स्थान के नाम पर उसका नाम उर्दू हुआ।

उसका नाम हिन्दी भी मुसलमानों ने रखा हुआ है। हिन्दी फारसी भाषा का शब्द है। उसका अर्थ है हिन्द से संबंध रखने वाली, अर्थात् हिन्दुस्तान की भाषा। ब्रजभाषा में फारसी, अरबी, तुर्की आदि भाषाओं के मिलने से हिन्दी की सृष्टि हुई। उक्त तीनों भाषाओं को विजेता मुसलमान अपने देशों से अपने साथ भारतवर्ष लाए थे। सैंकड़ों साल तक मुसलमान इस देश में फारसी बोलते रहे। फारिस के विजेताओं का ही इस देश में अधिक बल रहा है। अरबी, तुर्की बोलने वाले बहुत कम थे।

जब इन लोगों की कई पीढ़ियां इस देश में बस गई तो इस देश की भाषा का भी उन पर प्रभाव पड़ा। भारत की भाषा उनकी भाषा में मिलने लगी और उनकी भाषा भारत की भाषा में युक्त होने लगी। जिस समय यह मेल होने लगा था, उसे अब छः सौ वर्ष से अधिक हो गए। आरंभ में उक्त मेलजोल सामान्य-सा था। धीरे-धीरे इतना बढ़ा कि फारसी और ब्रज भाषा दोनों के संयोग से एक तीसरी भाषा उत्पन्न हो गई। उसका नाम हिन्दी या उर्दू जो चाहिए, सो समझ लीजिए।

फारसी-भाषा के कवियों ने इस नई भाषा को शाहजहानी बाजार में अनाथावस्था में इधर-उधर फिरते देखा। उन्हें इसकी भोली-भाली सूरत बहुत पसंद आई। वह उसे अपने घर ले जाकर पालने लगे। उन्होंने उसका नामकरण किया और उसे रेखता कहकर पुकारने लगे। औरंगजेब के समय में उक्त भाषा में कविता होने लगी। मुहम्मदशाह के समय में उन्नति हुई और शाहआलम सानी के समय में यहां तक उन्नति हुई कि बहुत अच्छे-अच्छे कवियासें के सिवा स्वयं बादशाह उक्त भाषा में कविता करने लगे और उक नामी कवि कहलाए। कितने ही हिन्दू कवि भी इस भाषा में कविता करने लगे। साधु-महात्माओं की कुटीर तक भी इसका प्रचार होने लगा, वह अपने भगवद्भक्ति के पद इस भाषा में रचने लगे। मुसलमानी अमलदारी में इस भाषा में केवल फारसी कविता के ढंग की कविता ही होती रही।

गद्य की उस समय तक कुछ जरूरत न पड़ी। जब अंग्रेजों के पांव इस देश में जम गये और मुसलमानी राज्य का चिराग ठंडा होने लगा, तब इस भाषा में गद्य की नींव पड़ी। गद्य की पहली पोथी सन् 1799 ई. में लिखी गई। सन् 1802 ई. में जब दिल्ली में ‘बगोबहार’, नाम की पोथी तैयार हुई, तो गद्य की चर्चा कुछ बढ़ी। यहां तक कि हिन्दुओं का भी इधर ध्यान हुआ। कविवर लल्लूलालजी आगरा निवासी ने अगले ही वर्ष सन् 1803 ई. में ‘प्रेम सागर’ लिखा। मुसलमान लोग अपनी पोथियां फारसी अक्षर में लिखते थे। लल्लूलालजी ने देवनागरी अक्षरों में अपनी पोथी लिखी। पर दुख की बात है, लल्लूजी के पीछे बहुत काल तक ऐसे लोग उत्पन्न न हुए जो उनके दिखाए मार्ग पर चलते और उनके किए काम की उन्न्ति करते। इसी से उनका काम जहां का तहां रह गया। देवनागरी अक्षरों में प्रेमससागर के ढंग की नई-नई रचनाएं करने वाले लोग साठ साल तक फिर न दिखाई दिए। फारसी अक्षरों वाले उन्नति करते गये। गद्य में उन्होंने और भी कितनी ही पोथियां लिखीं। पीछे सन् 1835 ई. में उनके सौभाग्य से सरकारी दफ्तरों में फारसी अक्षरों के साथ हिन्दी जारी हुई। इससे नागरी अक्षरों को बड़ा अधिक धक्का पहुंचा। उनका प्रचार बहुत कम हो चला। जो लोग नागरी अक्षर सीखते थे, वह फारसी अक्षर सीखने पर विवश हुए। फल यह हुआ कि हिन्दी-भाषा न रहकर उर्दू बन गई।

हिन्दी उस भाषा का नाम रहा जो टूटी-फूटी चाल पर देवनागरी अक्षरों में लिखी जाती थी। न वह नियमपूर्वक सीखी जाती थी और न उसके लिखने का कोई अच्छा ढंग था। कविता करने वाले ब्रज भाषा में कविता करते हुए पुरानी चाल चले जाते थे, जो अब भी एकदम बन्द नहीं हो गई है। गद्य या तो आपस की चिट्ठी-पत्रियों में बड़े गंवारी ढंग से जारी था या कोई एक-आध गुनाम बेढंग पोथी में दिखाई देता था।

पचास साल से अधिक हिन्दी की यही दशा रही। उसका नाम-निशान मिटने का समय आ गया था। उसके साथ ही साथ देवनागरी अक्षरों का प्रचार एकदम उठ चला था। देवनागरी अक्षरों में एक छोटी-मोटी चिट्ठी भी शुद्ध लिखना लोग भूल चले थे। उर्दू का जोर बहुत बढ़ गया था।

अचानक समय ने पल्टा खाया। कुछ फारसी-अंग्रेजी पढ़े हुए हिन्दू सज्जनों के हृदय में यह विचार उत्पन्न हुआ कि फारसी अक्षरों का चाहे कितना ही प्रचार हो जाए और सरकारी आफिसों में भी उनका कैसा ही आदर बढ़ जाये, सर्वसाधारण में फैलने योग्य देवनागरी अक्षर ही हैं। स्वर्गीय राजा शिवप्रसाद की चेष्टा से काशी से बनारस अखबार निकाला, उसकी भाषा उर्दू और लिपि देवनागरी थी। राजा शिवप्रसादजी द्वारा देवनागरी  अक्षरों का और भी बहुत कुछ प्रचार हुआ। पीछे काशीवालों ने हिन्दी भाषा के सुधार की ओर भी ध्यान दिया और ‘सुधाकर-पत्र’ निकाला। पर वह चेष्टा भी विफल हुई। अंत को आगरा निवासी स्वर्गीय लक्ष्मण सिंह जी ने शकुंतला का हिन्दी अनुवाद किया और अच्छी हिन्दी लिखने वालों को फिर से एक मार्ग दिखाया। यद्यपि उसका शुद्ध अनुवाद 25 साल पीछे सन् 1888 ई. में प्रकाशित हुआ, जबकि हिन्दी की चर्चा बहुत कुछ फैल चुकी थी-तथापि राजा शिवप्रसाद के गुटके में मिल जाने से उसके पहले अनुवाद का बहुत प्रचार हो चुका था। सन् 1878 ई. में उक्त राजा साहब ने रघुवंश का गद्य हिन्दी में अनुवाद किया। उसकी भूमिका में वह लिखते हैं:

‘हमारे मत में हिन्दी और उर्दू दो बोली न्यारी-न्यारी हैं। हिन्दी इस देश के हिन्दू बोलते हैं और उर्दू यहां के मुसलमानों और पारसी पढ़े हुए हिन्दुओं की बोलचाल है। हिन्दी में संस्कृत पद बहुत आते हैं, उर्दू में अरब पारसी के। परन्तु कुछ आवश्यक नहीं है कि अरबी पारसी के शब्दों के बिना हिन्दी न बोली जाए और न हम उस भाषा को हिन्दी कहते हैं, जिसमें अरबी पारसी के शब्द भरे हों। इस उल्था में यह भी नियम रखा गया है कि कोई पद अरबी पारसी न आवे।

राजा साहब उर्दू फारसी भली-भांति जानते थे, जिस पर भी हिन्दी और उर्दू को केवल इसलिए वह दो न्यारी-न्यारी बोली बताते थे कि एक में संस्कृत के शब्द अधिक होते थे और दूसरी में फारसी अरबी के शब्द। अस्तु, इस कथन से यह स्पष्ट है कि हिन्दी और उर्दू में केवल संस्कृत और फारसी आदि के शब्दों के लिए अधिक भेद है और सब प्रकार दोनों एक हैं।

साथ ही यह भी विदित होता है कि उर्दू से उस समय कुछ शिक्षित हिन्दू घबराने लगे थे और समझाने लगे थे कि फारसी, अरबी शब्दों के बहुत मिल जाने से हिन्दी हिन्दी न रही, कुछ और ही हो गई, हिन्दुओं के काम वह नहीं आ सकती। ईश्वर की इच्छा थी कि हिन्दी की रक्षा हो, इसी से यह विचार कुछ शिक्षित हिन्दुओं के हृदय में उसने अंकुरित किया। गिरती हुई हिन्दी को उठाने के लिए उसकी प्रेरणा से स्वर्गीय भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जन्म हुआ।

हरिश्चन्द्र ने हिन्दी को फिर से प्राण-दान किया। उन्होंने हिन्दी में अच्छे-अच्छे समाचार पत्र, मासिक पत्र आदि निकाले और उत्तम नाटकों और पुस्तकों से उसका गौरव बढ़ाना आरंभ किया। यद्यपि उन्होंने बहुत थोड़ी आयु पाई और सतरह-अठारह वर्ष से अधिक हिन्दी की सेवा न कर सके, तथापि इस अल्पकाल ही में हिन्दी-संसार में युगान्तर उपस्थित कर दिया। उनके सामने ही कितने ही हिन्दी के अच्छे लेखक हो गए थे। कितने ही समाचार पत्र निकलने लगे थे, वह सबकी आंखों का तारा हो चली थी। हरिश्चन्द्र ने हिन्दी के लिए क्या किया, यह बात आगे कही जाएगी। यहां केवल इतना ही कहना है कि आज उन्हीं की चलाई हिन्छी सब जगह फैल रही है। उन्हीं की हिन्दी में आजकल के सामयिक पत्र निकलते हैं और पुस्तकें बनती हैं। दिन पर दिन लोग शुद्ध हिन्दी लिखना और शुद्ध देवनागरी लिपि में पत्र व्यवहार करना सीखते जाते हैं।

यद्यपि बांग्ला, मराठी आदि भारतवर्ष की अन्य कई भाषाओं से हिन्दी अभी तक पीछे है, तथापि समस्त भारतवर्ष में यह विचार फैलता जाता है कि इस देश की प्रधान भाषा हिन्दी ही है और वही यहां की राष्ट्रभाषा होने के योग्य है। साथ ही साथ यह भी मानते जाते हैं कि सारे भारतवर्ष में देवनागरी अक्षरों का प्रचार होना उचित है। हरिश्चन्द्र के प्रसाद से यह सब हुआ और हिन्दी की चर्चा करने का अवसर मिला।

इस समय हिन्दी के दो रूप हैं एक उर्दू दूसरा हिन्दी। दोनों में केवल शब्दों का ही नहीं, लिपि-भेद बड़ा भारी पड़ा हुआ है। यदि यह भेद न होता तो दोनों रूप मिलकर एक हो जाते। यदि आदि से फारसी लिपि के स्थान पर देवनागरी लिपि रहती तो यह भेद ही न होता। अब भी लिपि एक होने से भेद मिट सकता है। पर जल्द ही ऐसा होने की आशा कम है। अभी दोनों रूप कुछ काल तक अलग-अलग अपनी-अपनी चमक-दमक दिखाने की चेष्टा करते हैं। इससे बड़ा भारी अंतर हो जाता है। जो लोग उर्दू के अच्छे कवि और ज्ञाता हैं, वह हिन्दी की ओर ध्यान देना कुछ आवश्यक नहीं समझते। इसी से देवनागरी अक्षर भी नहीं सीखते और भारतवर्ष के साहित्य से निरे अनभिज्ञ हैं अरब और फारिस के साहित्य की ओर खिंचते हैं। साथ-साथ भारतवर्ष के साहित्य से घृणा करते और जी चुराते हैं। उधर हिन्दी के प्रेमी भी उर्दू की ओर कम दृष्टि रखते हैं और उर्दू वालों को अपनी ओर की बातें ठीक-ठीक समझाने की चेष्टा नहीं करते। यदि दोनों ओर से चेष्टा हो तो इस भाषा की बहुत कुछ उन्नति हो सकती है। मैं इस पुस्तक द्वारा दोनों ओर के लोगों को एक-दूसरे की बातें ठीक-ठीक समझा देने की चेष्टा करूंगा। इसमें मेरा अधिक श्रम हिन्दी वालों के लिए होगा।

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