भादव के शुरू होते ही डेरू बजने की परम्परा भी जीवंत होती है. गांव देहात मे भादव के आने पर डेरू वाले एकम से लेकर नवमी तक डेरू बजाते हुए फेरी लगाते हैं। डेरू वो साज है जिसको हम केवल भादव मे ही सुनते हैं, एक तो ये बजाना बड़ा कठिन है और सीखना तो उससे भी कठिन।
ढू ढू ढू की ध्वनि के साथ गुगा महिमा गाते डेरू बजाने वालों को “सवैये”कहा जाता है।सवैये अपने परम्परागत काम को आगे बढ़ाते हुए डेरू बजाने की कला को अपने परिवार तक ही सीमित कर पाते हैं.एक तो इस रूहानी संगीत से हमारा परिचय नहीं है और ना ही हमने कभी गुगा पीर की नवमी के बाद इस संगीत के प्रति कोई भावना दिखाई है।
भादव की अंधेर(कृष्ण पक्ष)की नवमी को बहुत जगह मेले लगते हैं.मान्यता है कि इसी दिन ददरेवा शहर जो की राजस्थान मे है ,वही इनका जन्म माता बाछल और पिता जेवर के घर हुआ था. माता बाछल और काछल दो बहनें थी, जब गुरु गोरख नाथ इनके बाग मे आये थे तो उस वक्त दोनों बहनों को पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद दिया था.
हुआ यूं था कि काछल दो बेटों का वर मांग कर आई थी और बाछल बाद मे गयी तो गुरु गोरखनाथ गुस्सा हुए तो बाछल ने बताया की वो उनकी हमशक्ल बहन थी. फिर गुरु गोरक्षनाथ ने माता बाछल को गुगा पीर के जन्म का वर दिया था.
गुगा नवमी के दिन कहते हैं कि सर्दी इस दिन जन्म लेती है और गर्मी जाने का संदेश देती है.”जाड़े का ड़ाँडा” इसी दिन गाड़ा जाता है और इसी आधार पर पहले समय धान, बाड़ी की, बाजरा की फसल के लाभ और हानि को नापा जाता था। गुगा नवमी के दिन सुबह उठते ही तवे की कालिख या गेरू से गुगा पीर और उनके नीले घोड़े का चित्र दीवार पर बनाया जाता है. इसके बाद गुड़, चीनी और पतासे आस पड़ोस मे बांटे जाते हैं, इसे सिरणी कहा जाता है. ए सिरणी बाँट आओ ए, फेर यो प्रसाद पीर की छड़ी आल्या तै देणा सै. इस दिन घर की बड़ी महिला द्वारा पुड़े,गुड़ के चावल खीर और हलवे का भोग गुगा पीर के बनाए चित्र के सामने अंगारी(जलती आग) पर दिया जाता है.
शाम के वक्त डेरू बजाने वाले पीर की छड़ी सजाते हैं और पूरे गाँव मे परिक्रमा करते हैं. इस वक्त का नजारा इतना रूहानी होता है की लगता है हम किसी दूसरी दुनिया का ही हिस्सा हैं.
अक्सर डेरू बजाने वालों के भजन हमें कम ही समझ आते हैं. खास तौर पर ये भजन गाया जाता है….
रँग सै हो रँग सै
हो गुरु गोरख नै रँग सै
रँग सै हो रँग सै
हो माता बाछल नै रँग सै
रँग सै हो रँग सै
हो म्हारै बागड़ म्ह रँग सै हो…..
हो रँग सै हो रँग सै
हो फकीर गुगा मेड़ी म्ह रँग सै हो….
हो रँग सै हो रँग सै
हो…लीले घोड़े नै रंग सै हो…
लाग्या हुमाया हो ..गोरख का चेला लाग्या हु माया आलिया..
गुरु गोरख का जाया हो गुगा राणा लाग्या हुमाया आलिया..
दादा अमर का बीर हुमाया हो आ लिया..
हो माता बाछल का चाव हे गुगा राणा लाग्या हुमाया आलिया….
लाग्या हुमाया हो गोरख का चेला लाग्या हुमाया हो..
होली ले रै घोड़े का चाव हो..
मार दरवाजे के पाँ(पैर) हो पीर मन्ने लाग्या हुमाया हो..
लाग्या ऍ सवैये का चाव हे पीर मन्ने लाग्या हुमाया हो ..
जाहरवीर गुगा पीर को गोगा पीर भी कहा जाता है.नवमी को” ददरेवा” मे और गुगा मेड़ी मे खूब भीड़ देखी जाती है. डेरू की धुन के साथ सवैये “छबील” भी खुद को मारते हुए, मोर के चंदे(मोरपंख) के मोटे गाँठे से खुद मे गुगा पीर का आभास करते हैं और लोगों को आशीर्वाद देते हैं। लोहे की इतनी मोटी छाबुक से मारने के बाद भी ये सवैये किसी चोट या थकान को महसूस नहीं करते. गुगा पीर की छड़ी उठाते वक्त महिलाएं शामिल नहीं होती. इस छड़ी पर महिलाएं चुनरी, दुप्पटे और नीली चादर बांधती हुई सवैयों को प्रसाद, गेंहू और दक्षिणा देती हैं।
“गुगा पीर की छड़ी, दादी कूद के पड़ी
गुगा पीर की छड़ी, नानी कूद के पड़ी”
बचपन में हम ये पंक्तिया गाकर एक अलग ही उल्लास मनाया करते थे। पता नही ये पंक्तियां क्यों जुड़ी? हो सकता है डेरू की आवाज सुनकर बडी महिलाओं मे अलग तरह की उत्सुकता होती थी पर अब ये नवमी महज नवमी बनकर रह गयी है.बिल्कुल एक आम दिन की तरह ही मन्नतों को मांगते हुए गुगा मेड़ी से लेकर गांव की पीर की छड़ी तक महिलाओं मे बहुत से भाव देखने को मिलते हैं. पूरे गाँव के दादा खेड़ा,मन्दिर और शिवालयों की दर्शन के बाद पीर की छड़ी को सवैये घर ले जाते हैं . कई सवैये इस पीर की छड़ी को गुगा मेड़ी तक लेकर जाते हैं. भादव महीने की ये नवमी मेरे लिए साल के सबसे खास दिनों मे से एक है. मॉडर्न लोग इसे अंधविश्वास या पाखंड कह सकते हैं पर मुझे डेरू के संगीत की रूहानियत एक अलग दुनिया मे ही जीने का मौका देती है.
सोनिया सत्या नीता