वाघा-अटारी बॉर्डर : जश्न रिश्तों के अलगाव का

अंजू आजाद
भारत विभाजन की दास्तान को बयान करती पहली विभाजन रेखा वाघा -अटारी सीमा। जिसके एक तरफ भारत में अटारी गाँव और पाकिस्तान में वाघा गाँव स्थित है। बहुत सुना था इसके बारे में बचपन से, कि वहाँ दोनों देशों के सिपाही परेड करते हैं। तो मन किया कि इस बार वाघा बॉर्डर ही चला जाए।
अमृतसर से करीब 30 किलोमीटर की दूरी पर बना है। हर रोज़ शाम 6 बजे दोनों ओर के सिपाही परेड के बाद अपने-अपने राष्ट्र ध्वज ससम्मान नीचे उतारते हैं। वहाँ पहुँचे तो नज़ारा बहुत हैरान कर देने वाला था। इतनी  गर्मी में दोपहर के 3 बजे भी वहाँ 5000 से ज्यादा लोग स्टेडियम में जाने के लिए कतारों में लगे थे और ये सिलसिला स्टेडियम के खचाखच भर जाने तक बदस्तूर चलता रहता है। 

समझ ही नहीं आया कि वहाँ क्या चल रहा है उस वक्त ज़हन में थे तो बस दो गाँव अटारी और वाघा। जिनके बीच की दूरी महज 2 किलोमीटर की शायद रही हो। वहाँ के लोगों की मनोदशा उस वक्त क्या होती होगी जब वो उन तारों को देखते होगें, चाहकर भी उस ओर नहीं जा सकते हों जहां शायद कभी बचपन बिताया हो, दोस्त बनाए हो। वहाँ बज रहे गीतों पर लोग इस तरह पागल होकर नाच रहे थे मानों शादी समारोह में आए हों। रिश्तों के टूटने का, इज्जत के तार-तार होने का जश्न मनते उस दिन देखा।

वहाँ मैं भी चल पड़ी थी उस भेड़ चाल में शामिल होने, प्रवेश करने के बाद उचित स्थान खोजने की जदोजहद में एक बार को तो मन किया कि लौट जाऊँ वापिस, पर उत्सुकता इतनी थी कि जैसे तैसे खुद को वहाँ ऐसी जगह पर जमा लिया कि सब कुछ किसी तरह दिखलाई पड़ जाए। लोगों का हुजूम इस कदर पागल हुआ जा रहा था कि उनका बस चले तो अभी के अभी पाकिस्तानवासियों को कच्चा चबा जाएगें।
 स्टेडियम के अन्दर इतना शोर, कुछ तो डी.जे. पर ऊँची आवाज में चलते गीत और उनसे भी अधिक ऊँचा लोगों का गला फाड़ना। क्योंकि ये भीड़ है और भीड़ की न कोई दिशा, न कोई चेतना होती है। उस समय का मंजर देख कर तो ऐसा लग रहा था अगर इस भीड़ को कश्मीर भेज दिया जाए तो ये अवश्य ही कश्मीर को पाकिस्तान के कब्जे से छुड़ा लाएगी। जोश, उमंग तो नहीं कहूंगी क्योंकि ऐसा कुछ मुझे लोगों में दीखा नहीं, दिखी तो बस भेड़चाल और कमअक्ली। 

PHOTO / NARINDER NANU

अब परेड़ का समय नजदीक आ रहा था। उससे पहले एक घोषणा हुई कि आज की परेड़ की अगुवाई व उनके सहायक सिपाही कौन-कौन होगें। हर रोज़ इस परेड़ की अगुवाई करने वाला कैप्टन परिवर्तित होता रहता है। दुसरी तरफ का मंजर भी कुछ ऐसा ही दिखलाई पड़ रहा था। इस ओर के कोलाहल ने उस ओर के शोर को अपने में समेट लिया था। संख्या में उस ओर के लोग कुछ कम ही थे इसलिए उनका शोर शायद हमारे शोर को टक्कर नहीं दे पा रहा था या फिर शायद उस ओर कोई ऐसा निर्देशक नहीं था, जो भीड़ को अपने हाथों की मुद्राओं (जैसे गेंद या बम को हवा में घुमाकर उस ओर फेंकना ) से भीड़ को ओर अधिक ज़ोर से चिल्लाने के लिए उकसाए। एक व्यक्ति बिना बोले अपने हाथों की मुद्राओं से हजारों की संख्या में आए लोगों को अपने काबु में कर लेता और सारी भीड़ इंतजार करती है उसके निर्देश देने का और चीखने लगते है।ये बात मुझे समझ नहीं आई कि वह शक्ति प्रदर्शन था या कुछ और। परन्तु लोगों का ऐसा व्यवहार देखकर समझ आई कि आवारा भीड़ के खतरे कितने होते है। 
फिर शुरु हुआ मनुष्यों के दम्भ का समारोह, जहाँ पर मुझे सम्मान और देशप्रेम से कहीं अधिक एक-दूसरे को नीचा दिखाने की लालसा दिखाई दी। वहाँ खडे़ होकर जब दूर तक नज़र दौड़ाई तो मुझे दोनों देशों में कोई भिन्नता नहीं दिखी, वही जमीन, एक सी फसल, एक जैसे लोग, दिखा तो एक फर्क बस सीमाओं को बांटती वो तारे जो शायद किसी के अहंकार और गलतफहमी की वज़ह से बिछ गयी थी और लोगों के दिलों और रिश्तों को भी तार-तार कर रही थी। सारी उत्सुकता उस एक ख्याल के साथ ही मिट गई जो उस वक्त मन में अनायास ही चला आया कि ये जश्न आजादी का है या फिर आपसी प्रेम और रिश्तों के बिखरने का।

समझ ही नहीं आया कि वहाँ क्या चल रहा है उस वक्त ज़हन में थे तो बस दो गाँव अटारी और वाघा। जिनके बीच की दूरी महज 2 किलोमीटर की शायद रही हो। वहाँ के लोगों की मनोदशा उस वक्त क्या होती होगी जब वो उन तारों को देखते होगें, चाहकर भी उस ओर नहीं जा सकते हों जहां शायद कभी बचपन बिताया हो, दोस्त बनाए हो। वहाँ बज रहे गीतों पर लोग इस तरह पागल होकर नाच रहे थे मानों शादी समारोह में आए हों। रिश्तों के टूटने का, इज्जत के तार-तार होने का जश्न मनते उस दिन देखा। वहाँ उस परेड़ में और लोगों की चिल्लाहट में घर से बिछडे़-उजड़े लोगों का रुदन और बेआबरु हो चुकी औरतों का क्रंदन सुनाई पड़ रहा था। उन बुजुर्गों की अपनी मातृभूमि पर लौट जाने की कसक जहाँ उन्होनें अपनी जिंदगी की न जाने कितनी दिवाली-ईद बितायी थी।

 स्टेडियम की ओर जाते समय एक सिपाही (जो वहाँ आने वाले विदेशी पर्यटकों का ब्योरा लिख रहे थे) से बात करने पर पता चला कि रोजाना यहाँ लगभग 20000 लोग आते हैं। उन्होनें एक बात कही कि हम खुद हैरान है कि इतनी जनता आ कहाँ से रही है, अब तक तो सब निपट जाने चाहिए थे। उनके एक सवाल ने मेरे मन में लाखों सवाल खड़े कर दिए। क्या रिश्तों के टूटने का, उजड़ने का जश्न मनाना जरुरी है? हां, एक बात जरुर समझ आ गयी कि क्यूँ लोग इस कदर वहाँ जाने के लिए लालायित रहते हैं। छुटकपन से ही हमारी सोच को छोटा कर दिया जाता है। हमें यही पाठ पढ़ाया जाता है कि पाकिस्तान हमारा दुश्मन है। भले ही ये स्पष्ट शब्दों में न पढ़ाया जाए पर मूल में भावार्थ यही छिपा रहता है और यही वजह है रोज वहां इतनी भीड़ के पहुँचने की। 

हम सबके मन में ये जानने की एक ललक सी रहती है कि बॉर्डर पर सिपाही कैसे दुश्मन के छक्के छुड़ाते होगें। जबकि वो तो एक प्रकार की औपचारिकता मात्र है राष्ट्रीय ध्वजों को सम्मान के साथ नीचे उतारने की। फिर क्यों इतना प्रपंच रचा जाता है इस औपचारिकता को पूरा करने के लिए। अगर ये एक शांति संदेश है कि दोनों देशों के बीच सब ठीक है तो क्या वाकई में हर रोज होने वाले शक्ति प्रदर्शन की जरुरत है? 
एक व्यक्ति से सामान्य बातचीत चल रही थी तो वे जनाब बोले कि देखता हूँ जब आप वहाँ खड़े होते है तो आप के मुँह से वंदे मातरम कैसे नहीं निकलता, अगर आप अपने देश से प्यार करते है तो जरुर वंदे मातरम निकलेगा। तब एक विचार आया कि ये केैसी मानसिकता विकसित की हमने और क्या पैमाने है? देश के प्रति प्रेम के।शायद मुझ पर भी देशद्रोही होने का तमगा लगा दिया जाए क्योंकि शायद देशों के बीच की दूरी मिटाने या कम करने की बात करना तो कुछ देश के ठेकेदारों के अनुसार देशद्रोह ही है। असल देशभक्ति के पैमाने क्या है, इस सवाल का जवाब मैं नहीं ढूंढ पाई।  

अकसर देखती हूं कि निकल पड़ते हैं सब के सब मोर्चा लेकर, बात है अपना उल्लू सीधा करने की, मौका मिला नहीं के निकल पड़े बहती गंगा में हाथ धोने । अब खाली बैठे कुछ करना भी तो है।तो जनता का बदंर नाच ही करवा लिया जाता है। क्योंकि हमारी जनता बस भेड़ों का झुंड़ है जहाँ चाहे हाँक लो। एक बात मेरे मन में यह भी है कि अगर पाकिस्तान न होता तो हमारे अंदर क्या देश प्रेम की भावना न होती और पाकिस्तान न होता तो देश की राजनीति का क्या होता और हमारे नेता किस मुद्दे पर एक दूसरे पर देशद्रोही होने का लांछन लगाते।
सुकून सा तब मिला जब दोनों देशों के राष्ट्रीय ध्वजों को ससम्मान नीचे उतारा जा रहा था। उस क्षण वहाँ कोई होड़ नहीं थी एक-दूसरे से श्रेष्ठ व ताकतवर दिखने की, अगर कुछ था तो सिर्फ अपनेपन का अहसास जब दोनों झड़ें एक साथ नीचे आ रहे थे तो लगा कि सरहदें जरुर बदल गयी हैं पर मन में सम्मान और प्यार का भाव अभी भी वही है जो रिश्तों के बिखरने और सरहदों के बनने से पहले था। जरुरत है तो बस एक उस ख्याल को निकाल फेंकने की जो हमें सरहदें पार नहीं करने देता ,मौका नहीं देता रिश्तों को फिर से समेटने का ।फिर होगी असली आज़ादी रिश्तों की ,प्यार की ,मानवीयता की । फिर सरहदें होकर भी मिट जाएगी और हर रोज़ बॉर्डर पर लगने वाली भीड़ खुद ब खुद निपट जाएगी ।

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