‘तीज रंगीली री सासड़ पींग रंगीली’ – प्रो. राजेंद्र गौतम

हरियाणवी कवि लखमीचन्द की कविता की कला को जितनी-जितनी बार निरखा जाता है, उसकी सुंदरता की उतनी-उतनी नई परतें खुलती चली जाती हैं। वह साधारण में असाधारणता को प्रस्तुत करने वाला महान् कवि है। उनके ‘पदमावत’ साँग का एक छोटा-सा नमूना उनकी महानता को प्रमाणित कर देता है। लोक-लय की मिठास, लोक-संस्कृति का चटक रंग, लोक-संवेदना की तरलता, लोक-भाषा की जीवन्तता और लोक-जीवन के बिंबों को एक छोटे-से गीत में पिरो दिया है– लखमीचन्द ने।

भारतीय प्रेम-काव्य में पावस, सावन या वर्षा का चित्रण न हो, ऐसा विरल ही हुआ है. प्रेम और शृंगार की दृष्टि से ‘पदमावत’ लखमीचन्द का सर्वश्रेष्ठ सांग है. लख्मीचंद ने भले ही औपचारिक शिक्षा ग्रहण न की हो लेकिन एक तो जनमानस की उन्हें गहरी पहचान थी, दूसरे भारतीय साहित्य को वे सुन कर ही आत्मसात कर चुके थे. उनकी बहुश्रुतता ही उनकी बहुपठितता का विकल्प थी. यही कारण है कि  ‘पदमावत’ जैसे प्रेम काव्य में वे कहीं अप्रस्तुत रूप में और कहीं प्रस्तुत रूप में सावन को विशिष्ट जगह देते हैं.

हरियाणवी कवि लखमीचन्द की कविता की कला को जितनी-जितनी बार निरखा जाता है, उसकी सुंदरता की उतनी-उतनी नई परतें खुलती चली जाती हैं। वह साधारण में असाधारणता को प्रस्तुत करने वाला महान् कवि है। उनके ‘पदमावत’ साँग का एक छोटा-सा नमूना उनकी महानता को प्रमाणित कर देता है। लोक-लय की मिठास, लोक-संस्कृति का चटक रंग, लोक-संवेदना की तरलता, लोक-भाषा की जीवन्तता और लोक-जीवन के बिंबों को एक छोटे-से गीत में पिरो दिया है– लखमीचन्द ने। पदमावत रणबीर पर मोहित हो प्रेमोन्माद में खो चुकी है। कुछ भी उसे भा नहीं रहा है लेकिन सखियों के समझाने-बुझाने से वह तीज के त्योहार पर झूला झूलने उनके साथ चली जाती है। झूला झूलते हुए सखियाँ गीत गा रही हैं। यह गीत ‘सासड़’ यानी सास को संबोधित है। तब तक पदमावत तो कँवारी है। अतः स्वाभाविक है कि यह गीत पदमावत की किसी विवाहिता सखी ने गाया होगा लेकिन विरह का संदर्भ विवाहिता से भी जुड़ रहा है और पदमावत से भी। गीत इस प्रकार है:

चन्दन की पाटड़ी 
री सासड़, 
रेशम की द्यई झूल।
खुसीए मनावैं 
री सासड़ गाणे गांवैं, 
मद जोबन की गाठड़ी 
री सासड़, 
ठेस लगै जा खूल।  

तीज रंगीली 
री सासड़ पींग रंगीली,
बनिए कैसी हाटड़ी 
री सासड़ 
ब्याज मिल्या ना मूल। 

पतिए मिल्या ना 
री सासड़ च्यमन खिल्या ना,
खा कै त्यवाला जा पड़ी 
री सासड़, 
मुसग्या चमेली केसा फूल।

लखमीचंद न्यू गावै 
री सासड़ साँग बनावै,
जिसका गाम सै जाटड़ी
री सासड़, 
गाणै मैं रहा टूल

आम तौर पर लोकगीतों में सास को खलनायिका के रूप में दिखाया जाता है जबकि इस रागणी में युवती अपनी सास को इस रूप में नहीं देख रही है। यहाँ सास-बहू के बीच एक प्यार-भरा रिश्ता है। इसका पता इसके मीठे सम्बोधन ‘री सासड़’ से चल जाता है। सास ने बहू को झूलने के लिए साधारण पाटड़ी या झूल नहीं दी हैं बल्कि पाटड़ी चन्दन की है और झूल रेशम की।

हम सब गाँव के अभावों से परिचित हैं लेकिन लोक-मन की कल्पना दरिद्र नहीं होती। किशोरियों की कहानियों में राजकुमार की ही कल्पना स्वाभाविक है। यह वह जीवन है जहाँ बड़े-से-बड़े दु:ख को भी छोटा करके देखा जाता है और अंजुरी-भर सुख भी जीवन को भरपूर सींचता अनुभव होता है। आम तौर पर लोकगीतों में सास को खलनायिका के रूप में दिखाया जाता है जबकि इस रागणी में युवती अपनी सास को इस रूप में नहीं देख रही है। यहाँ सास-बहू के बीच एक प्यार-भरा रिश्ता है। इसका पता इसके मीठे सम्बोधन ‘री सासड़’ से चल जाता है। सास ने बहू को झूलने के लिए साधारण पाटड़ी या झूल नहीं दी हैं बल्कि पाटड़ी चन्दन की है और झूल रेशम की। यह सही है कि पदमावत राजकुमारी है और उसके लिए चन्दन की पाटड़ी तथा रेशम की झूल दुर्लभ नहीं है लेकिन लखमीचन्द की यह बहुत बड़ी विशेषता है कि वह राजसिक जीवन की कहानियों को गाँव के आम आदमी के साथ जोड़ देता है। इस गीत में भी उसने यही किया है। ‘चन्दन की पाटड़ी तथा रेशम की झूल’ का ज़िक्र करने के बाद गीत का पूरा मिज़ाज लोक के साथ जुड़ जाता है। ज़रा इस गीत की बुनावट को देखें। टेक पंक्ति में तीन चरण हैं: 

चन्दन की पाटड़ी 
री सासड़, 
रेशम की द्यई झूल|
चारों अंतरों (तोड़ के बोलों) के बाद जितनी भी स्थायी (कली) की पंक्तियाँ आई हैं उनमें गज़ब की तुकें मिलाई गई हैं। कविता की संवेदना को लेश-मात्र भी नुकसान पहुंचाए बिना तुकों का जैसा विधान लखमीचन्द ने अपनी कविता में किया है, उसका कोई दूसरा उदाहरण हरियाणी में तो छोड़िए, आप सम्पूर्ण हिन्दी कविता में नहीं खोज पाएंगे। यहाँ पहले चरण के ‘पाटड़ी’ के रदीफ़ देखिये: गाठड़ी, हाटड़ी, जा/पड़ी और जाटड़ी। आंचलिकता का क्या अद्भुत रंग है इनमें! जिस सहजता से हाट को हाटड़ी और जाटी को जाटड़ी किया गया है वह कृत्रिम लगने की अपेक्षा और भी आकर्षक हो गया है। टेक का दूसरा चरण ‘री सासड़’ सभी अंतरों में दोहराया जाकर अद्भुत मिठास पैदा करता है। तीसरे चरण के ‘झूल’ की पहली ही तुक मिलाई है खूल से। अपने विशेष हरयाणी उच्चारण में खुल कैसे खूल बन जाता है यह देखते ही बनता है। उसके बाद के अंतरों में मूल, फूल, टूल का बहुत संगत प्रयोग है। इस गीत की सबसे बड़ी खाशियत यह है कि इसकी चारों कलियों में दो-दो बहुत छोटी-छोटी पंक्तियाँ हैं। इनका तुक-विधान भी दर्शनीय है। कलियों के चरणों में भी संयोजन की कुशलता दिखाई देती है। प्रत्येक कली में चरणों में समानुपातिकता है। पहला चरण छोटा है, दूसरा उससे थोड़ा लंबा। असल में यह सम्पूर्ण विधान गत्यात्मक है और इसका सीधा रिश्ता उस वातावरण से है, जिसका इसमें चित्रण है। युवतियों का दल क्रीडा करता हुआ, चूहल करता हुआ, हँसी-ठिठोली करता हुआ झूला झूल रहा है। इस वातावरण में संगीत भरा है, नाच की थिरकन है, कदम कभी लंबे और कभी छोटे पड़ रहे हैं। पूरे गीत की पंक्तियाँ भी उसी तरह नाचती हुई, थिरकती हुई प्रतीत होती हैं, जिस तरह से युवतियों का वह दल नाच रहा है, थिरक रहा है। संरचना की दृष्टि से लखमीचन्द ने रागनी के कम से कम सौ रूपों का प्रयोग किया है लेकिन यह केशव के द्वारा छंदों का अजायबघर बनाने जैसा कौतुकी प्रयास न हो कर विषय के साथ तुक मिलाने का प्रयास है। शब्दों से तुक तो सारी दुनिया मिलाती है, लखमीचन्द ने संवेदना की तुक मिलाई है। इस विशेषता को पहचानने के लिए पारखी नज़र भी चाहिए।

लखमीचन्द के उपमानों की एक विशेषता यह रहती है कि सादृश्य को क्रियाओं तक ले जाकर एक गत्यात्मक बिम्ब प्रस्तुत करते हैं। यहा भी जोबन की गठड़ी के हल्की ठेस से खुल जाने का जो संकेत कवि दे रहा है, उसमें असंख्य अर्थ-छवियाँ भरी हुई हैं। आगे पति के पास न होने पर युवती ने अपने लिए तीजों के पर्व को बनिए की ऐसी हाट के रूप में दिखाया है, जिसकी भरपूरता उसके जीवन में कोई सुख नहीं लाती।

और अब गौर करें ज़रा अर्थ की दृष्टि से! इस गीत के सभी अंतरों (तोड़ के बोलों) में बहुत मर्मस्पर्शी अप्रस्तुतों का प्रयोग हुआ है। मद से भरे जोबन का रूपक लखमीचन्द ने गठड़ी से दिया है लेकिन लखमीचन्द के उपमानों की एक विशेषता यह रहती है कि सादृश्य को क्रियाओं तक ले जाकर एक गत्यात्मक बिम्ब प्रस्तुत करते हैं। यहा भी जोबन की गठड़ी के हल्की ठेस से खुल जाने का जो संकेत कवि दे रहा है, उसमें असंख्य अर्थ-छवियाँ भरी हुई हैं। आगे पति के पास न होने पर युवती ने अपने लिए तीजों के पर्व को बनिए की ऐसी हाट के रूप में दिखाया है, जिसकी भरपूरता उसके जीवन में कोई सुख नहीं लाती। एक तरफ तो ‘तीज रंगीली, री सासड़, पींग रंगीली’ है, दूसरी तरफ मन के लिए सुख दुर्लभ हो गया है। स्थिति कुछ ऐसी है: ‘ब्याज मिल्या ना मूल’। अगले पद में बात और स्पष्ट हो जाती है। पति के पास न होने से जीवन का चमन नहीं खिला और उसकी स्थिति चमेली के मुरझाए हुए फूल जैसी हो गई। मुरझाने के लिए ‘मुसना’ क्रिया का प्रयोग हरियाणी के अलग ही स्वाद से परिचित कराता है। पूरा गीत वर्षा ऋतु के वातावरण मे मनोभावों का दिल को छूने वाला चित्रण करता है। सादगी में श्रेष्ठता का अद्भुत नमूना है यह गीत। 

906, प्लॉटः 8, सेक्ट. 5, द्वारका, नई दिल्ली-110075
मो. 9868140469. 

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