पं. लख्मीचंद के पदमावत सांग से एक रागनी. मर्दवाद पर स्त्री की प्रतिक्रिया. ये सृजनात्मक दृष्टि का ही प्रतिफल है कि जब कोई लेखक चाहे वह खुद किसी विचार को मानता हो यदि वर्ण्य वर्ग-विषय में डुबकी मार जाता है तो सच्चाई के मोती निकाल ही लाता है। यही हुआ पं. लख्मीचंद के साथ तत्कालीन पुरुषवादी समाज की सच्चाई के प्रति स्त्री की प्रतिक्रिया के शब्द फूटने लगे. उनके समस्त पौराणिक ज्ञान से स्त्री संबंधी उदाहरण आ बैठे रागनी में.
जाण द्यो बस रहाण द्यो हे दबी दबाई बात।
और के दुख की जाणै कोन्यां या मर्दां की जात।।
जाणूं मरदां के छल नै, मीठा बोल काट लें गळ नै।
किसी करी थी राजा नल नै साड़ी गैल खुबात,
सोंवती नै छोड डिगरग्या बण मैं आधी रात।
फूहड़ का ना लाल खिलाणा चाहिए, गैर ना घरां हिलाणा चाहिए।
भूल कै नहीं मिलाणां चाहिए, इसे मरद तै गात।
श्री रामचंद्र नै त्याग दई गई बण म्हं सिया मात।।
जब कैरों चीर हरैं थे, पांचों पाण्डों ऊड़ए मरैं थे।
जब द्रोपदी नै नग्न करैं थे देखै थी पंचात,
फेर भी बण म्हं साथ रही खा कै नै फळ पात।
लख्मीचंद कहै नक्शा झड़ग्या, सखी मेरै नाग इशक का लड़ग्या।
एक मूर्ख यो पल्ले पड़ग्या तुम ठगणी छः सात।
मैं मरग्यी मेरे लग जिगर पै बणिए आळी लात।।
(पदमावत सांग से)