हिंदी-साहित्य के इतिहास पर पुनर्विचार – नामवर सिंह

इतिहास लिखने की ओर कोई जाति तभी प्रवृत्त होती है जब उसका ध्‍यान अपने इतिहास के निर्माण की ओर जाता है। यह बात साहित्‍य के बारे में उतनी ही सच है जितनी जीवन के। हिंदी में आज इतिहास लिखने के लिए यदि विशेष उत्‍साह दिखाई पड़ रहा है तो यही समझा जाएगा कि स्‍वराज्‍य-प्राप्ति के बाद सारा भारत जिस प्रकार सभी क्षेत्रों में इतिहास-निर्माण के लिए आकुल है उसी प्रकार हिंदी के विद्वान एवं साहित्‍यकार भी अपना ऐतिहासिक दायित्‍व निभाने के लिए प्रयत्‍नशील हैं। पहले भी जब साहित्‍य का इतिहास लिखने की परंपरा का सूत्रपात हुआ था तो संपूर्ण राष्‍ट्रीय जीवन के विभिन्‍न क्षेत्रों के इतिहास-निर्माण के साथ ही। यदि आरंभिक इतिहासों के इतिहास में न जाकर पं. रामचंद्र शुक्‍ल के इतिहास को ही लें, जो हिंदी-साहित्‍य का पहला व्‍यवस्थित इतिहास माना जाता है, तो उसकी ऐतिहासिकता द्योतित करने के लिए उस युग का राष्‍ट्रीय आंदोलन समानांतर दिखाई पड़ेगा। राजनीतिक इतिहास-ग्रंथों का सिलसिला भी उसी ऐतिहासिक दौर में जमा। परंतु शुक्‍लजी के इतिहास के संदर्भ में जो सबसे प्रासंगिक तथ्‍य है वह है तत्‍कालीन रचनात्‍मक साहित्य की ऐतिहासिक क्रांति – कविता और कथा-साहित्‍य का नवीन सृजनात्‍मक प्रयत्‍न। साहित्‍य का वैसा इतिहास तभी संभव हुआ जब साहित्‍य-रचना के क्षेत्र में एक ऐतिहासिक परिवर्तन आया, जब सच्चे अर्थों में इतिहास बना।

इसके अतिरिक्‍त, शुक्‍लजी का इतिहास ‘हिंदी शब्‍द सागर’ के साथ आया था, जिसके आसपास ही पं. कामताप्रसाद गुरु का पहला प्रामाणिक ‘हिंदी व्‍याकरण’ भी निकला था। साहित्य का इतिहास, शब्‍दकोश एवं व्‍याकरण-क्‍या इन तीनों का एक साथ बनना आकस्मिक है? यह तथ्‍य इसलिए ध्‍यान देने योग्‍य है कि आज फिर जब साहित्यिक इतिहास लिखने का उत्‍साह उमड़ा है तो साथ-साथ शब्‍दकोश और व्‍याकरण के संशोधन एवं परिवर्तन के प्रयत्‍न भी हो रहे हैं; बल्कि जिस काशी नगरी प्रचारिणी सभा ने पिछले ऐतिहासिक दौर में ये तीनों कार्य किए थे, वही संस्‍था आज फिर बहुत बड़े पैमाने पर तीनों योजनाओं के साथ प्रस्तुत है। और चूँकि अब हिंदी का कार्यक्षेत्र पहले से कहीं अधिक व्‍यापक हो गया है इसलिए इस प्रकार के प्रयत्‍न यदि अन्‍य अनेक जगहों से भी हों तो स्वाभाविक ही कहा जाएगा, जैसे भारतीय हिंदी परिषद, प्रयाग की ओर से तीन जिल्‍दों में प्रकाशित होनेवाला ‘हिंदी-साहित्‍य’। इन तथ्‍यों से प्रमाणित होता है कि आज भी हिंदी उन सभी आवश्‍यकताओं की पूर्ति के लिए पूर्णत: तत्‍पर है, जो‍ कि उससे अपेक्षित भाषाएँ जो कार्य काफी पहले कर चुकी हैं उसे थोड़े समय में ही जल्‍द से जल्‍द पूरा करके हिंदी भी सबके साथ आ जाना चाहती है, बल्कि संभव हुआ तो आगे निकल जाने के लिए भी आकुल है। सभा एवं परिषद के बृहद् – मध्‍यम इतिहास अनायास ही ‘कैम्ब्रिज हिस्‍ट्री ऑफ इंगलिश लिटरेचर’ और ‘ऑक्‍सफोर्ड हिस्‍ट्री आफ इंगलिश लिटरेचर’ की याद दिला देते हैं। जैसा कि इन हिंदी इतिहासों का मंतव्‍य स्‍पष्‍ट किया गया है, ‘कोई एक लेखक सभी विषयों पर विशेषज्ञता की दृष्टि से विचार नहीं कर सकता है, इसलिए विभिन्‍न विषयों के विशेषज्ञों के सहयोग से ऐसा इतिहास प्रस्‍तुत किया जाए जिसमें नवीनतम खोजों और नवीन व्‍याख्‍याओं का समुचित उपयोग हो सके।’ ऐसे संदर्भ-ग्रंथों की एक निश्चित उपयोगिता है किंतु यह उनकी अनिवार्य सीमा भी है। इस सीमा को ध्‍यान में रखकर ही साहित्यिक इतिहास पर पुनर्विचार संभव है।

वस्‍तुत: इतिहास लिखने का कार्य वही कर सकता है जो स्‍वयं इतिहास बनाने में योग देता है अथवा दिलचस्‍पी रखता है – इतिहास अर्थात् समसामायिक इतिहास, क्‍योंकि जो बीत चुका उसका अब क्‍या बनाया जा सकता है? इसलिए साहित्‍य के इतिहास की मुख्‍य समस्‍या है समसा‍मायिक साहित्‍य समस्‍या; अन्‍य युगों की सारी समस्‍याएँ सहायक हैं, अथच गौण। इस प्रकार जो समसामयिक साहित्‍य की समस्‍याओं से जूझ रहे हैं वे इतिहास न लिखते हुए भी वस्‍तुत: इतिहास बनाने में योग दे रहे हैं। समसामायिक साहित्‍य इतिहास के सदंर्भ में उठी हुई सारी समस्‍याएँ इतिहास की समस्‍याएँ हैं।

ये ग्रंथ अपनी प्रकृति से सूचना-धर्मी हैं और आवश्‍यक जानकारी के लिए समय-समय पर इन्‍हें देखने की जरूरत पड़ती है। अपने सर्वोत्तम रूप में ये इतिहास की सामग्री ही हो सकते हैं, इतिहास नहीं। जिन ग्रंथों का लक्ष्‍य नवीनतम खोजों और नवीन व्‍याख्‍याओं का ‘उपयोग’ करना-भर हो, उनका उपयोग अधिक-से-अधिक नवीनतम खोजों और नवीन व्‍याख्‍याओं की जानकारी प्राप्‍त करने के लिए ही हो सकता है। नवीन व्‍याख्‍याओं का ‘उपयोग’ इतिहास नहीं है, इतिहास स्‍वयं एक नई व्‍याख्‍या है। ये स्‍वयं इतिहास को बनाने या बदलने में असमर्थ हैं, इनका उपयोग करके कोई चाहे तो इतिहास भले ही बना दे। इसीलिए इन ग्रंथों की समस्‍याएँ भी दूसरे प्रकार की हैं जिनका संबंध पाठालोचन, तथ्‍य-संग्रह, तथ्‍य-वचन, सामग्रियों के वर्गीकरण आदि से है। काल-विभाजन की समस्‍या भी एक तरह से इन्‍हीं समस्‍याओं से संबंद्ध है जो हिंदी-साहित्‍य के इतिहासकारों को प्राय: सबसे बड़ी समस्‍या मालूम होती है और इतिहास पर पुनर्विचार करते समय सबसे पहले इस काल-विभाजन की समस्‍या को ही सामने रखा जाता है – यहाँ तक कि काल-विभाजन हिंदी-साहित्‍य के इतिहास-संबंधी पुनर्विचार का पर्याय हो चला है। ध्‍यान से देखा जाए तो इनमें से एक भी ठेठ इतिहास की समस्‍या नहीं है। जहाँ अब तक की प्राप्‍त सामग्री के वर्गीकरण एवं संपादन की समस्‍या प्रधान हो वहाँ विचार का रूप बहुत कुछ शुद्ध ‘तकनीकी’ होगा जैसा कि पुस्‍तकालय-विज्ञान या संग्रहालय-विज्ञान में होता है। जहाँ दृष्टि अतीतोन्‍मुखी हो वहाँ इतिहास नहीं है, क्‍योंकि इतिहास में दृष्टि भविष्‍योन्‍मुखी होती है और इतिहास की चिंता का केंद्र-बिंदु ठेठ समसामायिक होता है।

वस्‍तुत: इतिहास लिखने का कार्य वही कर सकता है जो स्‍वयं इतिहास बनाने में योग देता है अथवा दिलचस्‍पी रखता है – इतिहास अर्थात् समसामायिक इतिहास, क्‍योंकि जो बीत चुका उसका अब क्‍या बनाया जा सकता है? इसलिए साहित्‍य के इतिहास की मुख्‍य समस्‍या है समसा‍मायिक साहित्‍य समस्‍या; अन्‍य युगों की सारी समस्‍याएँ सहायक हैं, अथच गौण। इस प्रकार जो समसामयिक साहित्‍य की समस्‍याओं से जूझ रहे हैं वे इतिहास न लिखते हुए भी वस्‍तुत: इतिहास बनाने में योग दे रहे हैं। समसामायिक साहित्‍य इतिहास के सदंर्भ में उठी हुई सारी समस्‍याएँ इतिहास की समस्‍याएँ हैं। यह आकस्मिक नहीं है कि साहित्‍य के अनेक इतिहासकार अपने इतिहास में समसामयिक साहित्‍य की चर्चा करने से प्राय: कतराते रहे हैं और अपनी दस कमी या कमजोरी को ढकने के लिए तरह-तरह के सिद्धांत गढ़ते रहे हैं। वैसे, समसामयिक साहित्‍यकारों तथा साहित्‍य-कृतियों की चर्चा लक्षण-मात्र है, अपने-आप में नितांत अनिवार्य न होते हुए भी वस्‍तुत: यह एक इतिहासकार की बद्धमूल, ऐतिहासिक समझ का आभास देती है। इससे एक इतिहासकार की अपनी ऐतिहासिक सीमा का पता चलता है।

समसामायिक साहित्‍य का इतिहास बनाने में सबसे अधिक योग एक रचनाकार का होता है क्‍योंकि रचना के द्वारा ही इतिहास का निर्माण संभव है; किंतु कभी-कभी, और आज की जटिल परिस्थिति में तो अधिकांशत:, रचनाकार को भी समीक्षक का कार्य करना पड़ता है। निस्संदेह इस कार्य में उसे कतिपय समीक्षकों का भी सहयोग प्राप्‍त होता है जो अनिवार्यत: सहमतिपरक न होते हुए भी अंतत: इतिहास की सामान्‍य धारा के लिए उपयोगी होता है। चूँकि साहित्‍य-समीक्षा के द्वारा ही समसामयिक समस्‍याओं का विचार संभव है, इसलिए जहाँ तक इतिहास लिखने का कार्य है उसका उत्तरदायित्‍व एक समीक्षक के ही कंधो पर है। इसका अर्थ स्‍पष्‍ट है कि बहुत काफी जानकारी तथा सूचनाओं की पूँजी रखते हुए भी कोई विद्वान अध्‍यापक यदि जागरूक समीक्षक नहीं है तो एक अध्‍यापक की हैसियत से वह ‘इतिहास’ नहीं लिख सकता- इतिहास के नाम पर कोई सूचनाधर्मी कार्य भले कर दे। ध्‍यान देने योग्य है कि हिंदी-साहित्‍य का पहला व्‍यवस्थित इतिहास लिखनेवाले पंडित रामचंद्र शुक्‍ल अपने युग के सबसे जागरूक आलोचक भी थे – बल्कि वे मूलत: आलोचक ही थे और उनके इतिहास का स्‍थायित्‍व उनके आलोचनात्‍मक मूल्‍यांकन के कारण है। निसंदेह वे साहित्‍य एवं दर्शन के गंभीर विद्वान भी थे और उस विद्वत्ता के योग से उनकी समीक्षा – दृष्टि और भी प्रखर हो उठी; किंतु जहाँ तक उनके इतिहास का विद्वत्ता-प्राप्‍त पक्ष है उसका आधार स्‍वयं उन्‍हीं के शब्‍दों में अन्‍य विद्वानों का ही श्रमसिद्ध ‘वृत्तांत’ रहा है। इधर कुछ ऐसी परंपरा चल पड़ी है कि इतिहास-लेखन एवं साहित्‍य-समीक्षा के बीच संबंध टूट गया है। इतिहास लिखने का कार्य अध्‍यापकों ने अपने जिम्‍मे कर लिया है और समसामायिक साहित्‍य की समीक्षा लिखने का कार्य साहित्‍य-जीवी लेखक करते हैं या फिर पत्रकार (और अध्‍यापक तो सब-कुछ करने का अधिकार रखता ही है, इ‍सलिए कभी-कभी कृपापूर्वक किसी कृति की समीक्षा भी लिख देता है।)

परंतु इतिहास-लेखन एवं साहित्‍य-समीक्षा का संबंध-विच्‍छेद और भी गहरे स्‍तर पर हो चुका है। इतिहास की समस्‍याएँ अलग मानी जाती हैं और साहित्‍य-समीक्षा की समस्‍याएँ अलग।

परंतु इतिहास-लेखन एवं साहित्‍य-समीक्षा का संबंध-विच्‍छेद और भी गहरे स्‍तर पर हो चुका है। इतिहास की समस्‍याएँ अलग मानी जाती हैं और साहित्‍य-समीक्षा की समस्‍याएँ अलग। उदाहरण के लिए, इतिहास की समस्‍याओं पर विचार करते समय यदि कोई आलोचना के प्रतिमान की बात उठा दे तो समझा जाएगा कि विषय से बाहर की बात है, गोया काल-विभाजन वगैरह ही इतिहास की अपनी समस्‍याएँ हैं। इतिहास और आलोचना के इस बिलगाव से स्‍पष्‍ट हो जाता है कि हमारे साहित्‍य-चिंतन में अतीत और वर्तमान के बीच कितनी गहरी और चौड़ी खाई आ गई है। व्यवहार में परिणाम प्रकट है : इतिहास नामधारी इधर के अधिकांश ग्रंथों का आलोचना – पक्ष दरिद्र है; किसी कवि या कृति के बारे में जाने कब की स्थिर की हुई मान्‍यताएँ प्रमाणपत्र की तरह उद्धृत होती चली आ रही हैं। दो-चार नए तथ्‍यों के विवरण भले जुड़ जाएँ, किसी कवि-कृति या युग-प्रवृत्ति का मूल्‍यांकन यथावत् बना रहता है, गोया तथ्‍य और मूल्‍यांकन में कोई संभावित संबंध नहीं है और न नए तथ्‍यों के द्वारा मूल्‍यांकन में किसी प्रकार के परिवर्तन की आशंका ही है। ऐसे अविचलित‍ इतिहासकारों के लिए नवीनतम खोजों का उपयोग क्‍या और अनुपयोग क्‍या? खोज में प्राप्‍त नए तथ्‍य ऐसे इतिहास में स्‍थान पाकर भी क्‍या करेंगे – पातालफोड़ कुएँ में दस लोटा दूध डालिए चाहे सौ लोटा, क्‍या फर्क पड़ता है!

निसंदेह जुलाई-54 की त्रैमासिक ‘आलोचना’ में ‘इतिहास का पुनर्नवीकरण’ शीर्षक संपादकीय के अंतर्गत संभवत: पहली बार स्‍पष्‍ट शब्‍दों में कहा गया है कि ‘इतिहास के नवीकरण का प्रश्‍न समीक्षा के नवीकरण का प्रश्‍न हो जाता है।’ किंतु वहाँ इस कथन पर आगे और विचार न देखकर ऐसा प्रतीत होता है जैसे यह एक वाक्‍य अनायास ही कलम से फिसल गया हो। निश्चयवाचक ‘है’ के स्‍थान पर ‘हो जाता है’ क्रिया स्‍वयं एक प्रकार के अनिश्चिय का आभास देती है। इससे पहले अक्‍टूबर 52 की त्रैमासिक ‘आलोचना’ के इतिहास-विशेषांक के संपादकीय में भी हिंदी-साहित्‍य की नई-पुरानी सभी प्रवृत्तियों को ‘विशिष्‍ट ऐतिहासिक परिस्थितियों के प्रसंग में रखकर जाँचने’ और चन्‍द से लेकर पंत तक की ‘कृतियों के अध्‍ययन से उनकी वास्तविक महत्ता को उद्​घाटित करने’ की आवाज उठाई गई है लेकिन वहाँ भी स्‍पष्‍ट रूप से यह नहीं कहा गया कि इतिहास के पुनर्नवीकरण की समस्‍या वस्‍तुत: आलोचना के प्रतिमान के पुनर्नवीकरण की समस्‍या है। यह अस्‍पष्‍टता इतिहास और आलोचना के आपसी संबंध के बारे में दिमागी अस्‍पष्‍टता को सूचित करती है, क्‍योंकि अनजान ढंग से तो किसी-न-किसी रूप में हर इतिहासकार आलोचना करता ही है और आलोचक भी इतिहास का हवाला देता ही रहता है, लेकिन मुख्‍य प्रश्‍न इसके प्रति आत्‍मचेता होने का है वरना ‘अंधे के हाथ बटेर’ लगी भी तो क्‍या?

इसलिए साहित्‍य के इतिहासकार की पहली समस्‍या ‘समसामयिकता के बोध’ की है और यह कहते हुए मुझे पता है कि सिद्धांत रूप से इस बात को सभी जानते हैं और स्‍वयंसिद्धि के समान मानते भी हैं। कठिनाई सिर्फ इतनी है कि यह केवल जान लेने और मान लेने की बात नहीं है। कौन नहीं कहता कि हर युग की आवश्‍यकता के अनुसार इतिहास की बार-बार पुनर्व्‍यवस्‍था होनी चाहिए? परिवर्तन का सत्‍य इतना प्रत्‍यक्ष है कि बड़े-से-बड़ा शाश्‍वतवादी भी ‘संसार परिवर्तनशील है’ कहता पाया जाता है। जुलार्ह-54 की ‘आलोचना’ के उसी संपादकीय में ‘इतिहास के युगीन-सापेक्ष पुनर्नवीकरण की आवश्‍यकता’ व्‍यक्‍त की गई है ओर इस बात पर खेद प्रकट किया गया है कि ‘हिंदी-सा‍हित्‍य के इतिहास-लेखन की प्रगति युग-जीवन की प्रगति के साथ नहीं चल सकी है।’ किंतु इसके बाद ही हिंदी-साहित्‍य के इतिहासों की जो युग-सापेक्ष सीमाएँ बताई गई हैं उनसे स्‍पष्‍ट हो जाता है कि साहित्यिक इतिहास की युग-सापेक्षता के बारे में समझ कितनी सतही जो सकती है। उदाहरण के लिए, शुक्‍लजी के इतिहास की युग-सापेक्ष सीमा बतलाते हुए जहाँ तत्‍कालीन राष्‍ट्रीय जागरण की राजनीतिक पृष्‍ठभूमि को तूल दिया गया है, वहाँ यह अत्‍यंत प्रासंगिक प्रश्‍न नहीं उठाया गया कि साहित्‍य के संबंध में शुक्‍लजी का ऐतिहासिक दृष्टिकोण अपने समकालीन साहित्‍य के राग-बोध से किस हद तक निर्धारित हुआ था। यदि शुक्‍लजी का इतिहास सचमुच ही युग-सापेक्ष था तो उसे प्रथमत: साहित्यिक स्‍तर पर युग-सापेक्ष होना चाहिए। कवियों, कृतियों एवं प्रवृत्तियों के मूल्‍यांकन में शुक्‍लजी की जो विशेष प्रकार की सा‍हित्यिक, अभिरुचि दिखाई पड़ती है उस पर उनके समकालीन काव्‍य-बोध का कितना गहरा रंग है? शुक्‍लजी के इतिहास की आलोचना करते हुए क्‍या यह प्रश्‍न कभी उठाया गया है? किसी को उनके पक्‍के काल-विभाजन को तोड़ने की चिंता है तो किसी को किसी कवि-संबंधी मूल्‍यांकन से मतभेद; किसी को कुछ छूट जाने की शिकायत है तो किसी को कुछ जोड़ देने की लालसा-लेकिन इस तथ्‍य की ओर किसी का ध्‍यान नहीं गया कि इतिहास की हर व्‍याख्‍या और हर मूल्‍यांकन कालक्रम से स्‍वयं उस इतिहास के अभिन्‍न अंग बन जाते हैं। आगे चलकर उनका मूल्‍यांकन करने के लिए हर कोई स्‍वतंत्र है लेकिन इतिहास का एक तथ्‍य मानकर। फिर वह तथ्‍य चाहे जितना ‘गलत’ हो लेकिन है इतिहास का अमिट तथ्‍य। ऐसी स्थि‍ति में उसकी साहित्यिक युग-सापेक्षता सबसे पहले विचारणीय है। परंतु उस युग-सापेक्षता का ठीक-ठीक निर्णय करने के लिए इस बारीक भेद का विवेक होना बहुत जरूरी है कि इतिहासकार समीक्षक का काव्‍य-बोध ‘सदोष’ है या ‘सीमित’।

इसी प्रकार पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी का ‘हिंदी-साहित्‍य : उसका उद्भव और विकास’ प्रकाशित हुआ तो अनेक लोगों का धीरज टूट गया और बहुतों की ओर से शिकायत आई कि इति‍हास द्विवेदीजी के गौरव के अनुकूल नहीं है, वैसे ज्‍यादातर लोगों को उनके सम्यक अद्यतन न हो पाने का कष्‍ट था। यह जानते हुए भी कि इतिहास घोषित रूप से छात्रों के उपयोगार्थ लिखा गया है, किसी का ध्‍यान उसके युग-सापेक्ष साहित्यिक बोध की नवीनता एवं सीमा की ओर नहीं गया। शुक्‍लजी के इतिहास के साथ उसे मिलाकर किसी ने यह देखने की कोशिश नहीं की कि दोनों इतिहासों में जो एक पीढ़ी का अंतर है उसके कारण परंपरा के निरूपण एवं मूल्‍यांकन में कहाँ-कहाँ अंतर आ गया है! क्‍या यह आकस्मिक है कि शुक्‍लजी ने जहाँ तुलसीदास को अपना मानदंड बनाया, द्विवेदीजी ने कबीरदास को? यही नहीं, बल्कि उन्‍होंने तुलसीदास को भी कबीर के रंग से रँग दियाᣛ? और नहीं तो शुक्‍लजी और द्विवेदीजी के तुलसीदास संबंधी विचारों की तुलना से ही स्‍पष्‍ट हो जाएगा कि दोनों इतिहासकारों के ऐतिहासिक-बोध में कितना और क्‍या अंतर है। यह अंतर सूरदास की समीक्षा में भी देखा जा सकता है या फिर मतिराम, बिहारी, देव, पद्​माकर, घनानंद आदि तथाकथित रीतिकालीन कवियों की तुलनात्मक समीक्षा में। क्‍या अक्‍खड़ता, फक्कड़ता, सहजता, मस्‍ती आदि के आधार पर साहित्यिक परंपरा बाँधनेवाले द्विवेदीजी के इतिहास तथा उनकी पीढ़ी के दिनकर, नवीन, भगवतीचरण वर्मा आदि ‘जवानी’ के कवियों में कोई बिंब-प्रतिबिंब संबंध नहीं है? और यहाँ भी उस बात को एक बार फिर दुहराना आवश्‍यक है कि इतिहास की यह व्‍याख्‍या भी इतिहास का एक अमिट तथ्‍य है। यह किसी आचार्य की सम्मति नहीं है कि प्रमाणपत्र के रूप में चुपचाप नत्‍थी कर दी जाए और न किसी की व्‍यक्तिगत चुनौती ही है कि अपनी मौलिकता प्रमाणित करने के लिए खामखाह गलत काटी जाए।

तात्‍पर्य यह कि इन दो इतिहासों की प्रचलित आलोचनाओं से स्‍पष्‍ट है कि इतिहास पर पुनर्विचार करनेवालों में स्‍वयं अपने युग का बोध कितना कम है। जिसे इतिहास के एक तथ्‍य की युग-सापेक्षता का बोध न हो उसके अपने युग-सापेक्ष बोध का क्‍या प्रमाण? पूर्ववर्ती इतिहासों एवं इतिहासकारों की अंधाधुंध आलोचना इतिहास का पुनर्विचार नहीं है और न ही है उनकी तथ्‍य अथवा व्‍याख्‍या संबंधी सीमाओं को ‘गलत’ मानना। ‘गलती’ युग-निरपेक्ष होती है जबकि किसी इतिहास की युग-सापेक्ष ‘गलती’ ‘सीमा’ कहलाती है।

जब किसी पूर्ववर्ती इतिहास में गलती दिखाई पड़े तो उसके साथ अपने युगबोध के अंतर का परीक्षण करना वास्‍तविक ऐतिहासिक बोध है। ऐसी स्थिति में इस तथ्‍य की छानबीन आवश्‍यक हो जाती है कि उस इतिहासकार ने ऐसी व्‍याख्‍या क्‍यों की? क्‍यों उसने किसी कृति को मूल्‍यवान माना और किस प्रकार का है उसका मूल्‍य? उस मूल्‍य का स्रोत क्‍या हैं? यदि आज हम उससे सहमत होने में अपने को असमर्थ पा रहे हैं तो क्‍यों? हमारे भीतर का वह कौन-सा तत्त्‍व है जो असहमति प्रकट कर रहा है और इस तत्त्व के पीछे कौन-सा समसामयिक बोध है? लेकिन ये प्रश्‍न तभी उठ सकते हैं जब इन तमाम व्‍याख्‍याओं का अवरोध पार करके मूल कृति के साथ हमारा सीधा साक्षात्‍कार संभव हो सके – ऐसा साक्षात्‍कार जो प्रथम परिचय जैसा प्रत्‍यग्र एवं संवेदनक्षम हो। इतिहास-संबंधी पुनर्विचार का आरंभ कदाचित इसी प्रक्रिया से होता है, अन्‍यथा पुनर्विचार के नाम पर ‘पुनि-पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं’ का ही दृश्‍य उपस्थित होगा, मुस्‍कानेवाले ‘हरगन’ भले ही न दिखें।

लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि आज की हिंदी मनीषा में ‘समसामयिकता के बोध’ का नितांत अभाव है। निश्चित रूप से हमारे सामने अपना एक ‘जीवित’ रचनात्‍मक साहित्‍य है, इससे संबंद्ध एक ओर जागरूक रचनाकार हैं तो दूसरी ओर ग्रहणशील पाठक भी, और एक हद तक दोनों ही अपनी ऐतिहासिक परंपरा के प्रति सचेत साकांक्ष हैं। किंतु कुछ तो आज का व्‍यापक सांस्‍कृतिक संकट, उससे उत्‍पन्‍न कुछ नए साहित्‍य की क्षणवादी प्रवृत्ति और कुछ नए साहित्‍य के प्रति साहित्‍य के विद्वानों का कभी विरोधभाव एवं कभी उपेक्षाभाव – नई पीढ़ी अपने इतिहास के प्रति यदि उदासीन नहीं तो काफी सशंक हो उठी है और कुल मिलाकर इतिहास-विधायक शक्तियों में एक हद तक बिखराव आ गया है। इसका प्रत्‍यक्ष प्रमाण है ऐसे स्‍वयंसिद्ध वक्‍तव्‍य की इतनी साग्रह पुनरुक्ति! अन्‍यथा कौन नहीं जानता कि वर्तमान साहित्‍य को समझने-समझाने और आँकने के लिए आलोचना के प्रतिमान बनते हैं तथा वर्तमान साहित्‍य को समझने-समझाने और आँकने के लिए ही इतिहास भी लिखा जाता है। इस प्रकार लक्ष्‍य की एकता प्रतिमान-निर्माण एवं इतिहास-निर्माण की प्रक्रिया को भी आरंभ से ही समेकित कर देती है। ‘परंपरा और प्रगति’ तथा ‘परंपरा और प्रयोग’ पर इधर जो इतनी सैद्धांतिक तथा व्‍यावहारिक चर्चा हुई, वह भी एक प्रकार से इतिहास पर पुनर्विचार ही है, निसंदेह एकेडमिक क्षेत्रों में ‘इतिहास पर पुनर्विचार’ को जिस रूप में समझा जाता है, उससे इसकी संज्ञा भिन्‍न है। शायद विद्वानों के उस शब्‍दकोश में ‘परंपरा’ और ‘इतिहास’ अकारादि क्रम से ही अलग-अलग नहीं है बल्कि अर्थ की दृष्टि से भी विजातीय हैं। यहाँ तो ऐसी स्थि‍ति है कि जब तक साफ शब्‍दों में शीर्षक देकर लिख नहीं दिया जाएगा कि यह ‘इतिहास’ पर पुनर्विचार है, तब तक लोग मानेंगे ही नहीं कि परंपरा-संबंधी किसी विचार की प्रासंगिकता इतिहास में संभव है।

अज्ञेय ने टी.एस. इलियट के विख्‍यात निबंध का भावानुवाद ‘रूढ़ि. और मौलिकता’ शीर्षक से सन् – 40 के आसपास ही कर लिया था और इस प्रकार वह निबंध हिंदी की अपनी समीक्षा-परंपरा के अंतर्गत एक ऐतिहासिक तथ्‍य बनकर स्‍थापित हो गया, किंतु इतिहास पर पुनर्विचार करते हुए कितने लोगों ने इस तथ्‍य को लक्षि‍त किया? क्‍या यह भी कहना पड़ेगा कि वह संबंध एक नए ऐतिहासिक दृष्टिकोण का ही नहीं बल्कि हिंदी के एक साहित्‍यकार के माध्‍यम से हिंदी में एक नए ऐतिहासिक बोध के उदय का सूचक है?

उस निबंध में साफ कहा गया है कि ‘परंपरा के सजीव स्‍पंदन की चेतना के लिए निरी जानकारी और पांडित्य जरूरी नहीं है’ अर्थात् एक बहुत बड़े पंडित के लिए वह दुर्लभ हो सकती है और एक अनुभूति-प्रवण नवयुवक उसे अनायास ही प्राप्‍त कर सकता है, क्‍योंकि उसमें अपने वर्तमान का तीखा बोध होता है और चूँकि ‘जागरूक वर्तमान अतीत की एक नए ढंग की और नए परिमाण में अनुभूति का नाम है, जैसी और जितनी अनुभूति उस अतीत को स्‍वयं नहीं थी’, इसलिए वर्तमान के गहरे बोध के माध्‍यम से ही उसे अतीत की भी ऐतिहासिक चेतना सहज प्राप्‍त हो जाती है। इस प्रकार ‘अतीत और वर्तमान के इस दुहरे अस्तित्‍व की, उनकी पृथक वर्तमानता और उनकी एक-सूत्रता की, निरंतर अनुभूति ही ऐतिहासिक चेतना है।’ इस ऐतिहासिक चेतना से युक्‍त होने के कारण ही समर्थ नया लेखक यह देख लेता है कि अतीत के साहित्‍य का कितना अंश आज भी हमारे लिए जीवंत या जीविष्‍णु है। यदि इतिहास लिखने का हौसला रखनेवाले अनेक विद्वान इस विवेक में सफल न दिखाई पड़ें तो यही कहा जाएगा कि उन्‍हें अपने वर्तमान का सम्यक बोध नहीं है, इसलिए अतीत का भी बोध नहीं है। जो अपने युग वर्तमान का सम्यक बोध नहीं है, इसलिए अतीत का भी बोध नहीं है। जो अपने युग के बोध से रिक्‍त है वह किसी दूसरे युग को जान सकने में क्‍योंकर समर्थ होगाᣛ? आखिर अतीत युग ‘जैसा था’ वैसा-का-वैसा आज किस प्रकार जाना जा सकता है: प्रमाण-विद्या का यह बहुत ही जटिल प्रश्‍न है।

प्रश्‍न यह है कि इस प्रकार की ऐतिहासिक चेतना आज सचमुच कितने लोगों में है? यदि केवल कुछ लेखकों और कुछ सहृदय पाठकों में यह चेतना हो भी तो इतने से क्‍या हो सकता है?

यदि किसी युग के बहुसंख्‍यक समाज में परंपरा का जीवित बोध हो तो संभवत: साहित्‍य के इतिहास की कोई आवश्‍यकता ही न रहे। जिस जाति के लिए संपूर्ण परंपरा एक जीता-जागता वर्तमान सत्‍य हो उसे अलग से इतिहास पढ़ने की आवश्‍यकता क्‍यों पड़े? ऐसा प्रतीत होता है कि संस्‍कृत काव्‍यशास्‍त्र में जो अलग से इतिहास लिखने की प्रणाली नहीं थी उसका एक कारण संभवत: यह भी था। उस युग के अधिकांश लोगों के लिए सारा अतीत साहित्‍य बहुत-कुछ समसामयिक-जैसा रहा होगा और बहुत संभव है कि वे संपूर्ण साहित्यिक परंपरा को समसामयिक-सा ग्रहण करके रसास्‍वादन करने में समर्थ रहे होंगे।

कालक्रम से यह परंपरा टूट गई, इसीलिए अतीत को वर्तमान से जोड़ने के लिए इतिहास-ग्रंथों की आवश्‍यकता पड़ी। पंडित हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ‘साहित्‍य का मर्म’ में इस कष्‍टदायक अवस्‍था के परिणामों की ओर काफी पहले संकेत किया था। ‘जब नए विज्ञान-युग का आविर्भाव इस देश में हुआ तो दुर्भाग्‍यवश हमारी शिक्षा-पद्धति एकदम अभारतीय हो गई और नवीन शिक्षितों के सामने हमारे देश की एक सुचिंतित विचारधारा का उत्तराधिकार नहीं मिला… देश के विचारशील लोगों को यह अवस्‍था कष्‍टदायक लगी। नाना भाव से अपने देश को समझने-समझाने की आवश्‍यकता पर जोर दिया गया। विशेषज्ञों का एक दल – जिसमें विदेशी पंडितों का महत्‍वपूर्ण स्‍थान था – अपने देश की विद्या का अध्‍ययन करके लुप्‍त होती हुई सामग्री का उद्धार करने में लग गया। बहुत-कुछ बचाया जा सका, बहुत-कुछ उबारा जा सका, परंतु इन विषयों का उस प्रकार उपयोग नहीं किया जा सका जिस प्रकार जीवन-रस देनेवाले साहित्‍य का होना चाहिए। प्रधान प्रेरणा-स्रोत विदेशी विचारक बने रहे और इस देश के शिक्षितों ने अपने पुराने साहित्‍य के प्रति एक ऐसा मनोभाव पैदा कर लिया जिसे अंग्रेजी में ‘म्‍यूजियम इंटरेस्‍ट’ कहते हैं। यह एक दृष्टि से बहुत बुरा हुआ। इनको यदि संपूर्ण समाज की बृहत्तर पटभूमिका में रखकर और प्रधान प्रेरणा-स्‍त्रोत मानकर अपना आलोचना-मान निर्धारित किया गया होता तो कुछ और ही फल होता। उनका अधिक-से-अधिक उपयोग केवल इतना समझा गया कि उनसे प्राचीन भारतीय साहित्‍य के अध्‍ययन में सहायता मिलती है।’

जीवंत तथ्‍यों से निरंतर संपर्क बनाए रखने के लिए भी इतिहास पर सतत् विचार करते रहना आवश्‍यक है। अपनी ऐतिहासिक चेतना को जीवंत बनाए रखने के लिए संबंधी पुनर्विचार का अर्थ है क्रमश: अपने वास्‍तव-बोध को जटिल बनाते रहना। चूँकि हमारे जाने या अनजाने किसी-न-किसी प्रकार इतिहास-बोध सदा हमारे साथ है, इसलिए उसके दुरुपयोग के संकट से बचने के लिए इतिहास-बोध को सतत सूक्ष्‍मतर एवं यथातथ्‍य बनाए रखना नितांत आवयश्‍क है।

यह स्थिति बहुत-कुछ आज भी है, यहाँ तक कि इतिहास पर पुनर्विचार करते समय भी अधिकांश चर्चा पाश्‍चात्‍य विचारकों के विचारों की उद्धरणी होकर रह जाती है; अपनी प्रस्‍तुत समस्‍याओं से वे सिद्धांत निकलते हुए नहीं दिखते, बल्कि उन्‍हें बाहर से लेकर अपने यहाँ ‘लागू’ करने की समस्‍या रह जाती है। और स्‍वाभाविक है कि इस प्रकार सिद्धांत को व्‍यवहार में ‘लागू’ करते हुए क्‍वचित्-कदाचित् मेल न खाए। इसलिए हिंदी के इतिहास-सिद्धांत-संबंधी पहली और अभी तक अकेली पुस्‍तक ‘साहित्‍य का इतिहास-दर्शन’ में श्री नलिन विलोचन शर्मा जैसे कृती कवि, कहानीकार, आलोचक एवं प्राध्‍यापक को भी यदि यही कठिनाई दिखाई पड़ती है तो कोई आश्‍चर्य नहीं होता। संसार के प्राय: समस्‍त साहित्‍यों की प्रचलित ऐतिहासिक पद्धति का विवरण देने एवं हिंदी-साहित्‍य के समस्‍त इतिहासों की सूक्ष्‍म समीक्षा करने के बाद जब नलिनजी स्‍वयं ही हिंदी-साहित्‍य की परंपरा निरूपित करने चलते हैं तो उनके निष्‍कर्षों की अतिसरलता देखकर दंग रह जाना पड़ता है। यहाँ तक कि स्‍वयं उसी निबंध में बार-बार टी.एस. इलियट के निबंध का उद्धरण देते हुए भी वे हिंदी-साहित्‍य की परंपरा-भौतिकता, यथार्थता, मानवाद, मानवतावाद और धार्मिकता जैसी-पाँच सदानीरा धाराओं के रूप में गिनाते हैं। इसे अतिसरलता कहें या कोई अपरिहार्य विवशता!

हिंदी-साहित्‍य के इतिहास में इस प्रकार जो भौतिकता, यथार्थता, मानववाद, मानवतावाद एवं धार्मिकता की पाँच परंपराएँ दिखाई गई हैं, वे संसार के किसी भी साहित्‍य में दिखलाई जा सकती हैं, वस्‍तुत: वे हिंदी-साहित्‍य की अपनी विशिष्‍ट परंपराएँ नहीं हैं। इसलिए बहस इनके होने या न होने को लेकर नहीं है और न इस संख्‍या को घटाने या बढ़ाने पर ही कोई आग्रह है। बहस इस बात से भी नहीं है कि ये तथाकथित सदानीरा धाराएँ साहित्यिक हैं या नहीं। बहस है उस ऐतिहासिक दृष्टि से, उस ऐतिहासिक पद्धति से जो किसी साहित्‍य की विशिष्‍टता की परीक्षा न करके एक सरल रूपाकार या पैटर्न के रूप में ऊपर से आरोपित कर दी जाती है। इससे स्‍पष्‍ट है कि हमारे यहाँ वर्तमान का संबंध परंपरा से कितना टूट चुका है, साथ ही इससे यह भी सूचित होता है कि हमारी ऐतिहासिक चिंतन-पद्धति भी ठोस ऐतिहासिक वास्‍तविकता से कितनी अलग जा पड़ी है; और यह स्थिति और भी खतरनाक है। जब किसी साहित्‍य में वर्तमान का संबंध अतीत से टूट जाता है तो चिंतन-पद्धति भी वास्‍तविक परंपरा से वि‍च्‍छन्‍न होकर अमूर्त सैद्धांतिकता और शास्‍त्रीयता के संकीर्ण हवामहल में कैद हो जाती है।

वस्‍तुत: एक प्रकार से यह खतरा स्‍वयं ऐतिहासिक चिंतन-पद्धति क्‍या, किसी भी चिंतन-पद्धति में प्रकृत्‍या अंतर्निहित है; क्‍योंकि इतिहास-लेखन एक प्रकार का सामान्‍यीकरण है – मूर्त तथ्‍यों से निकाले हुए अमूर्त नियमों का विचार-क्रम। इस‍लिए जीवंत तथ्‍यों से निरंतर संपर्क बनाए रखने के लिए भी इतिहास पर सतत् विचार करते रहना आवश्‍यक है। अपनी ऐतिहासिक चेतना को जीवंत बनाए रखने के लिए संबंधी पुनर्विचार का अर्थ है क्रमश: अपने वास्‍तव-बोध को जटिल बनाते रहना। चूँकि हमारे जाने या अनजाने किसी-न-किसी प्रकार इतिहास-बोध सदा हमारे साथ है, इसलिए उसके दुरुपयोग के संकट से बचने के लिए इतिहास-बोध को सतत सूक्ष्‍मतर एवं यथातथ्‍य बनाए रखना नितांत आवयश्‍क है।

इस संदर्भ में बहुचर्चित ‘काल-विभाजन’ की समस्‍या ली जा सकती है। हिंदी-साहित्‍य को तिथिक्रम की दृष्टि से, आदिकाल, मध्‍यकाल एवं आधुनिक काल तीन काल खंडों में बाँटने की परिपाटी है; मध्‍यकाल के दो उपविभाग हैं: पूर्व मध्‍यकाल और उत्तर मध्‍यकाल। आधुनिक काल का विभाजन कई ढंग से किया जाता है। जिनमें पच्‍चीस -पच्‍चीस वर्षों का विभाजन अधिक प्रचलित है। इस काल-विभाजन का साहित्यिक रूप वीरगाथा काल, भक्तिकाल, रीतिकाल,भारतेंदु-काल, द्विवेदी-काल, छायावाद-युग, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद आदि नामों से स्‍थापित है। काल-विभाजन का यह ढाँचा बहुत-कुछ शुक्‍लजी के इतिहास द्वारा प्रतिष्ठित हुआ है। बहुत दिनों से इसमें संशोधन उपस्थित किए जा रहे हैं। एक भक्तिकाल को छोड़कर प्राय: सभी नामों के औचित्‍य को चुनौतियाँ दी गई हैं। प्राय: प्रत्‍येक युग के अंतर्गत एक से अधिक साहित्यिक प्रवृत्तियों के अस्तित्‍व की ओर संकेत किया गया है। एक युग के अंदर अनेक प्रवृत्तियों के मिलने से हर युग के अंतर्विरोध का पता चलता है और कभी-कभी इस अंतर्विरोध के कारण युग-विभाजन का ढाँचा चरमराता दिखता है। कुछ लोगों ने इस काल-विभाजन– व्‍यवस्‍था के अंतर्गत सीमा-रेखाओं को कहीं-कहीं दस-बीस वर्ष इधर-उधर भी करने की कोशिश की है और कुछ लोगों ने, यदि प्राचीन नहीं तो, आधुनिक काल में महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाओं के अनुसार युग की सीमा-रेखाएँ निर्धारित करने का सुझाव रखा है। इधर ‘भारतीय हिंदी परिषद’ से ‘हिंदी-साहित्‍य’ का जो द्वितीय खंड प्रकाश में आया है उसमें आदि, मध्‍य, आधुनिक तीन कालों को तोड़कर प्राचीन एवं आधुनिक – केवल दो कालों का अस्तित्‍व वैज्ञानिक माना गया है जो और नहीं तो, राजनीतिक इतिहासों की परिपाटी के अनुरूप तो है ही; क्‍योंकि हिंदी-साहित्‍य के उदय-काल से भारतीय इतिहास के केवल मध्‍यकाल और आधुनिक काल -दो ही होते हैं। परंतु नागरी-प्रचारिणी सभा के वृहद् इतिहास में मूलत: ढाँचा प्राय: शुक्‍लजी के ही इतिहास का रखा गया है बल्कि भेदोपभेदों की जटिलता के द्वारा उसे और भी खंड-खंड कर दिया गया है जो नलिनजी के शब्दों में ‘भारतीय मनीषा के ह्रासकालीन वर्गीकरण-प्रेम के सर्वथा अनुरूप है।’

इस विचार-वैविध्‍य की सतह के नीचे साहित्‍य के सामान्‍य विद्यार्थियों का वह विशाल समूह है जो अविचलित चित्त से शुक्‍लजी द्वारा निर्धारित काल-विभाजन को ही स्‍वीकार किए चल रहा है। विवादों के कोलाहल से घबड़ाकर कुछ विद्वान भी अंतत: शुक्‍लजी के ही काल-विभाजन में अपना चित्त स्थिर करते पाए जाते हैं: ‘जैसे उड़ि‍ जहाज को पंछी फिर जहाज पै आवै।’ इधर कोई परिवर्तन हुआ हो तो नहीं पता, किंतु ‘रीतिकाव्‍य की भूमिका’ मे डॉ. नगेंद्र ने भी यही स्‍वीकार किया है कि शुक्‍लजी का काल-विभाजन ‘वास्‍तव में सर्वथा निर्दोष न होते हुए भी, बहुत कुछ संगत एवं विवेकपूर्ण है।’

‘साहित्‍य का इतिहास-दर्शन’ में युग-विभाजन की जटिल समस्‍या में अंतर्निहित कठिनाइयों पर रोशनी डालने के लिए श्री नलिनविलोचन शर्मा ने ‘ऑक्‍सफोर्ड हिस्‍ट्री ऑफ इंगलिश लिटरेचर’ का यह उद्धरण दिया है-

‘किसी युग, सप्‍ताह या दिवस में जो जीवन वस्‍तुत: जिया जाता है वह ऐसे सूक्ष्‍म तत्‍त्वों और असंप्रेषित, असंप्रेष्‍य तक, अनुभवों से बना होता है जो समस्‍त आलेखों को चकमा दे जाते हैं। जो कुछ भी बचता है, संयोग से ही बचता है। ऐसे आधार पर, मैं समझता हूँ, वैसे ज्ञान तक पहुँचना असंभव है जो इतिहास के ‘दर्शन’ के विचार में अंतर्निहित है। ऐतिहासिक युगों पर आरोपित प्रवृत्तियों, ‘अर्थों’ और ‘गुणों’ के बारे में यह भी कहना रह जाता है कि वे उन्‍हीं युगों में सर्वाधिक परिलक्षित होते हैं जिनका हमने न्‍यूनतम अध्‍ययन किया है। किंतु यद्यपि ‘युग’ सदोष विभाजन है, फिर भी वे पद्धतिक अनिवार्यता हैं। ‘

वस्‍तुत: इस प्रवृत्ति-निरूपण का घातक प्रभाव साहित्‍य – रचना के क्षेत्र पर भी पड़ता है और स्‍पष्‍टत: आज भी पड़ रहा है। जब कोई रचनाकार देखता है कि किसी रचनाकार का उल्‍लेख आलोचना में केवल इसलिए होता है कि उसमें किसी वाद, संप्रदाय या प्रवृत्ति की अधिकांश विशेषताएँ आपातत: मिल जाती हैं तो वह अपनी विशिष्‍ट रचना-प्रक्रिया को छोड़कर उस प्रवृत्ति-विशेष से सम्‍बद्ध होने के लिए प्रचलित सामान्‍य परिपाटी का ही अनुसरण करना श्रेयस्‍कर समझता है। इस प्रकार रचना के क्षेत्र में नए प्रयोगों की संभावना कुंठित होती है और केवल रूढ़ियों की लीक बनती है।

स्‍वयं नलिनजी ने इसके बाद हिंदी-साहित्‍य के संबंध में अपनी ओर से काल-विभाजन की कोई नई योजना प्रस्‍तुत नहीं की है और न उन्‍होंने इतिहास में युग-विभाजन की ‘पद्धतिक अनिवार्यता’ पर आगे और प्रकाश ही डाला है। इसलिए इस ‘पद्धतिक अनिवार्यता’ के प्रश्‍न को थोड़ा और आगे बढ़ाना आवश्‍यक हो जाता है। क्‍या यह ‘पद्धतिक अनिवार्यता’ सचमुच अनिवार्य हैᣛ? यह अनिवार्यता क्‍या इतिहास के तथ्‍यों से पुष्‍ट होती है? ‘युग’ इतिहास की तथ्‍यपूर्ण वास्‍तविकता है या इतिहासकार के मन से उत्‍पन्‍न एक अवबोध? इतिहास में समय-समय पर आनेवाले परिवर्तन ऐतिहासिक तथ्‍य हैं या इतिहासकारों द्वारा खोजे हुए ‘सत्‍य’? इसके अतिरिक्‍त, राजनीतिक इतिहास की तरह क्‍या साहित्यिक इतिहास में भी इस प्रकार की क्रांतियाँ या परिवर्तन वस्‍तुत: परिलक्ष्‍य हैं? कहीं ऐसा तो नहीं है कि साहित्‍य के इतिहास में जितनी क्रांतियाँ वस्‍तुत: होती नहीं उनसे अधिक गिना दी जाती हैंᣛ? यदि ऐसा है तो जैसा कि ज्‍़याक बार्जून ने कहीं कहा है, ऐसी ‘बौद्धिक व्‍यवस्‍था’ (Intellectual order) से इतिहास की वह ‘बोधगम्‍य अव्यवस्‍था’ (Intelligible disorder) ही अच्‍छी। यदि युग-विभाजन इतिहास की केवल ‘पद्धतिक अनिवार्यता’ है तो इसका औचित्‍य केवल ऐतिहासिक बोध की उपयोगिता से ही समर्थित हो सकता है। इसलिए यदि इस पद्धति के द्वारा इतिहास के वास्‍तविक रूप को समझने में बाधा पड़ती है तो इसे छोड़ देने में ही कल्‍याण है।

और हिंदी-साहित्‍य के इतिहास का अभी तक काल-विभाजन किया गया है, उसके परिणामों को देखते हुए हम यह कह सकते हैं कि इन युग-विभाजनों से इतिहास के वास्‍तविक स्‍वरूप को समझने में बाधा ही पहुँची है। इन प्रस्‍तावित कालों के कारण हमारा साहित्यिक इतिहास खंडित हुआ है। इन युगों के द्वारा हमें इतिहास के खंडचित्र प्राप्‍त होते हैं, इतिहास का अखंड प्रवाह नहीं मिलता। जिस संक्रमण-बिंदु अथवा संधिरेखा पर इतिहास दो युगों में तोड़ा जाता है, वहाँ इतिहास की चिंताधारा ही नहीं टूटती, बल्कि इस टूटने की क्रिया में बहुत-कुछ छूट भी जाता है और छूटा भी जाता है और छूटा ही रह जाता है। इसी प्रकार एक कालखंड का व्‍यवस्थित ढाँचा बनाते समय कुछ महत्‍वपूर्ण तथ्‍य, अथवा ऐसे तथ्‍य जो महत्वपूर्ण हो सकते हैं, समेटने से रह जाते हैं।

इसके अतिरिक्‍त, इस प्रवृत्ति का सबसे खतरनाक असर समीक्षा-पद्धति पर पड़ता है। साहित्‍य की, शिक्षा प्राप्‍त करने के बाद जब हिंदी के छात्र समसामयिक साहित्‍य की आलोचना में प्रवृत्त होते हैं तो उनका ध्‍यान मुख्‍यत: विभाजन एवं वर्गीकरण की ओर रहता है। वे किसी रचनाकार या रचना के वैशिष्‍ट्य का मूल्‍यांकन करने की अपेक्षा उसमें उस सामान्‍य गुण की खोज पहले करते हैं जिनके द्वारा वह किसी अन्‍य रचनाकार अथवा रचना के सदृश या उससे सम्‍बद्ध दिखाई पड़ती है; और इस प्रकार वे ‘प्रवृत्ति‍यों’ का निरूपण करते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि अध्‍ययन-अध्‍यापन में सुविधा के लिए ही प्राय: ऐसा किया जाता है। किंतु इससे निश्‍चय ही किसी रचना के स्‍वच्‍छ रसास्‍वादन एवं स्‍वस्‍थ मूल्‍यांकन में बाधा पड़ती है। इससे किसी छात्र, अध्‍यापक या आलोचक का काम चाहे जितना सरल हो जाए लेकिन यह सरलता बड़ी महँगी पड़ती है। इस प्रवृत्ति के कारण आलोचना का कार्य इतना ‘सरल’ हो गया है कि हर कोई प्रवृत्तियों पर लेख लिखकर आलोचक बन बैठा है। इस ‘प्रवृत्ति-मार्ग’ की प्रतिक्रिया में यदि हिंदी-साहित्‍य का अधिकांश पाठक समुदाय ‘निवृत्ति-मार्गी हो जाए तो किमाश्‍चर्यमत: परम्। इस साहित्यिक अहित की जिम्‍मेदारी किस पर होगी? ध्‍यान देने की बात है कि आज के अनेक रचनाकारों ने इस प्रचलित प्रवृत्ति के प्रति घोर असंतोष प्रकट किया है।

वस्‍तुत: इस प्रवृत्ति-निरूपण का घातक प्रभाव साहित्‍य – रचना के क्षेत्र पर भी पड़ता है और स्‍पष्‍टत: आज भी पड़ रहा है। जब कोई रचनाकार देखता है कि किसी रचनाकार का उल्‍लेख आलोचना में केवल इसलिए होता है कि उसमें किसी वाद, संप्रदाय या प्रवृत्ति की अधिकांश विशेषताएँ आपातत: मिल जाती हैं तो वह अपनी विशिष्‍ट रचना-प्रक्रिया को छोड़कर उस प्रवृत्ति-विशेष से सम्‍बद्ध होने के लिए प्रचलित सामान्‍य परिपाटी का ही अनुसरण करना श्रेयस्‍कर समझता है। इस प्रकार रचना के क्षेत्र में नए प्रयोगों की संभावना कुंठित होती है और केवल रूढ़ियों की लीक बनती है।

इस ऐतिहासिक प्रवृत्ति का प्रभाव नए इतिहासकार की ऐतिहासिक चेतना को भी किसी हद तक धूमिल कर सकता है। इस प्रभाव की व्‍यापकता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि हिंदी की शिक्षा-परिपाटी से सर्वथा अछूते अज्ञेय जैसे रचनाकार को भी ऐसा प्रतीत होता है कि ‘हिंदी साहित्‍य व्‍यक्तिगत कृतित्‍व की अपेक्षा प्रवृत्तियों का साहित्‍य रहा है और इतिहास में प्रमुख स्‍थान अलग-अलग महान प्रतिभाओं का नहीं बल्कि वैचारिक आंदोलनों और संवेदना के रूप-परिवर्तन का रहा है।’ साहित्‍य के इतिहास में विद्यापति, कबीर, सूर, तुलसी जैसी प्रतिभाओं की मान्‍यता को देखते हुए भी जब इस तरह का वक्‍तव्‍य दिया जा रहा हो तो यह कहना पड़ेगा कि प्रवृत्तिमार्गी इतिहासकारों ने काल-विभाजन के द्वारा महान प्रतिभाओं के महत्‍व को भी काफी घटा दिया है। यहाँ यह ध्‍यान देने योग्‍य है कि सामान्‍य जनता कबीर, सूर, तुलसी को जानती है, किसी भक्तिकाल या भक्ति-आंदोलन को नहीं; और साहित्‍य का सामान्‍य पाठक भी गोदान, कामायनी , मैला आँचल या कोई अन्‍य कृति-विशेष ही पढ़ता है, यथार्थवाद, छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद आदि नहीं। क्‍या ये तथ्‍य इतिहासकार के लिए मार्गदर्शक नहीं है?

किंतु इसका मतलब यह बिल्‍कुल नहीं है कि इतिहास में वस्‍तुत: समय-समय पर उठने वाले आंदोलनों तथा कुछ समय तक व्‍यापक रूप से प्रचलित रहनेवाली प्रवृत्तियों का सामूहिक विवेचन किया ही न जाए। कभी-कभी किसी कृति अथवा कृति कवि को पूर्णत: समझने एवं रसास्‍वादन करने के लिए उसके साहित्यिक परिदृश्‍य-समय तथा रूढ़ि‍ का ज्ञान अनिवार्य हो जाता है। वैसे भी, किसी युग की कृतियों में ‘पारिवारिक सादृश्‍य’ लक्षित कर लेना विकसित साहित्‍यबोध का सूचक है। किसी रचना का रचनाकाल न मालूम होते हुए भी केवल उसकी ‘शैली’ को देखकर लगभग रचना-काल बता देना एक इतिहासकार के इतिहास-बोध की कसौटी है। एक इतिहासकार की ऐतिहासिक सूझ की परीक्षा केवल इस बात से हो जाती है कि उसमें ‘शैली की पहचान’ कितनी है? और जब हम ‘शैली की पहचान’ को इतिहासकार की कसौटी मानते हैं तो शैली के स्‍थूल अर्थ से आगे बढ़कर – जिसे किसी युग की ‘नब्‍ज’ कहा जाता है या अंग्रेजी में कोई अर्थ से आगे बढ़कर – जिसे ‘शैली’ से कोई युग अपने आंतरिक रूप में पहचाना जाता है, एक प्रकार से ‘वह चितवन औरे कछू’ है। यह ‘शैली’ किसी युग के समूचे कृतित्‍व का वह आंतरिक स्‍पर्श है जिसकी सूक्ष्‍म अनुभूति उस कृतित्‍व के किसी भी अंग के संपर्क में आने पर एक संवेदनशील इतिहासकार को सबसे पहले झटके की तरह होती है। इतिहासकार के इस शैली-बोध में इतनी क्षमता होती है कि किसी युग की केवल एक कृति के एक सामान्‍य-से अंश की भी परीक्षा करके उसके सहारे समूचे युग की केवल एक कृति के एक सामान्‍य-से अंश की भी परीक्षा करके उसके सहारे समूचे युग की मूल चेतना का एहसास करा सकती है। ‘शब्‍दों’ से अधिक होते हुए भी यह ‘शैली’ केवल ‘शब्‍दों’ के द्वारा ही प्रत्‍यभिज्ञान करा सकने में समर्थ है।

ऐसे ‘शैलीबोध’ के द्वारा साहित्यिक इतिहास की विभिन्‍न अवस्‍थाओं को विविक्‍त करते हुए भी एक धारावाहिक परंपरा का निरूपण किया जा सकता है। अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि विभिन्‍न साहित्यिक कालों के बीच की आंतरिक एकता स्‍वयं उनके विचारों या साहित्‍य-रूपों की ऊपरी समानता के द्वारा नहीं बल्कि हर युग द्वारा उठाए गए प्रश्‍नों की परंपरा से उभरती है, जिनका समाधान उपस्थित करने के लिए वे विचार एवं साहित्‍य-रूप निर्मित होते हैं। इस सूक्ष्‍म परंपरा-बोध के अभाव के कारणही अब तक के साहित्यिक इतिहास आपातत: खंडित एवं सायास एकसूत्रित दिखाई पड़‍ते हैं। कहना न होगा कि आज इस आंतरिक परंपरा के निरूपण की कितनी आवश्‍यकता है।

हमारे समकालीन साहित्‍य में परंपरा का प्रश्‍न सबसे ज्वलंत दिखाई पड़ता है। ज्‍वलंत इसलिए कि वह अत्‍यंत व्‍यावहारिक है, जैसे कि कुछ जीवन-मरण की समस्‍याएँ होती हैं। इसीलिए यह प्रश्‍न कई रूपों में उठाया गया है। कभी परंपरा बनाम प्रगति, कभी परंपरा बनाम प्रयोग, कभी रूढ़ि बनाम मौलिकता, कभी इतिहास बनाम व्‍यक्ति-प्रतिभा, कभी पूर्व बनाम पश्चिम आदि। प्रेषणीयता की समस्‍या भी अंतत: परंपरा के प्रश्‍न से ही आकर जुड़ जाती है। इधर जो ‘आधुनिकता बोध’ संबंधी विचार-विमर्श आरंभ हुआ है वह भी इसी व्‍यावहारिक समस्‍या से उत्‍पन्‍न है। निस्संदेह कुछ लोगों के लिए यह शुद्ध बुद्धि-विलास है और ‘एकेडेमिक’ रुचि के विद्वान इस पर शास्‍त्रीय व्‍यायाम करके कृतकार्य हो रहे हैं, किंतु इससे यही प्रमाणित होता है कि आज का साहित्यिक इतिहासकार अपना कर्त्तव्‍य-पालन नहीं कर रहा है। समकालीन साहित्‍य को परंपराच्‍युत कह देने मात्र से इतिहासकार के कर्त्तव्‍य की इतिश्री नहीं हो जाती। इतिहासकार को अपनी सार्थकता प्रमाणित करने के लिए समकालीन रचनाकारों द्वारा उठाए गए प्रश्‍नों का समुचित समाधान प्रस्‍तुत करना पड़ेगा। क्‍या यह तथ्‍य नहीं है कि ‘छायावाद जब तक एक जीवित अभिव्‍यक्ति था, तब तक वह जिन्‍हें अग्राह्य था, आज वे उसके समर्थक और प्रतिपादक हैं जब वह मृत हो चुका है, आज वे उसे उनसे बचाना चाहते हैं जिनमें आज का जीवित सत्‍य अभिव्‍यक्ति खोज रही है, भले ही अटपटे शब्‍दों में।’ कहने के लिए यह वक्‍तव्‍य ‘दूसरा सप्‍तक’ की भूमिका में अज्ञेय द्वारा उपस्थित है किंतु क्‍या यह आज के अनेक रचनाकारों के मन की प्रतिध्‍वनि नहीं है? एक ओर आज के साहित्‍यकार का यह प्रयत्‍न है कि परंपरा को इस प्रकार आत्‍मसात् करे कि ‘जब तक वह इतना गहरा संस्‍कार नहीं बन जाती कि उसका चेष्‍टापूर्वक ध्‍यान रखकर उसका निर्वाह करना आवश्‍यक न हो जाए’, वहाँ ओर आज के अधिकांश इतिहासकारों के अतिरिक्‍त सचेष्‍ट प्रयत्‍न से वह परंपरा अभी से ‘अनावश्‍यक’ हो उठी है। जब अज्ञेय कहते हैं कि जो परंपरा कवि को संस्‍कार नहीं देती, ‘वह इतिहास है, शास्‍त्र है, ज्ञान-भंडार है, जिससे अपरिचित ही रहा जा सकता है और इससे अपरिचित रहकर भी परंपरा से अवगत हुआ जा सकता है और कविता की जा सकती है’, तो सहज चिंता होती है कि क्‍या हिंदी के इतिहासकारों ने इतिहास को सचमुच ही ‘इतिहास’ बना दिया है, ‘शास्‍त्र’ बना दिया है! जिस ‘इतिहास’ से आज का समवर्ती रचनाकार अपरिचित रहने की धमकी दे रहा है, उस इतिहास की क्‍या उपयोगिता है? जिस ‘इतिहास’ से अपरिचित रहकर भी आज का रचनाकार ‘परंपरा से अवगत’ होने का दावा करता है उस इतिहास का होना-न-होना, लिखा जाना-न लिखा जाना बराबर है। प्रश्‍न यह है कि यह आज के रचनाकार का कोरा दंभ है आज के इतिहासों की सीमाᣛ? क्‍या है यह? प्रश्‍न गंभीर है, इसलिए गंभीरतापूर्वक विचारणीय भी।

आगे कही हुई यह बात कहाँ तक सच है कि ‘जो आलोचक इस परिवर्तन को नहीं समझ पा रहे हैं वे उस वास्‍तविकता से टूट गए हैं जो आज की वास्‍तविकता है, उससे रागात्‍मक संबंध जोड़ने में असमर्थ वे उसे केवल बाह्य वास्‍तविकता मानते हैं?’ क्‍या ये आलोचक सचमुच ‘यह कहते हैं कि उसे केवल सत्‍य कल सब समझते थे, आज सत्‍य अगर आज सब एक साथ नहीं समझते तो हम उसे छोड़कर कल ही का सत्‍य कहें – बिना यह विचारे कि कल उस सत्‍य की प्रासंगिकता है, आज कौन कहें’ – बिना यह विचारे कि कल के उस सत्‍य की आज क्‍या प्रासंगिकता है, आज कौन उसके साथ तुष्टिकर रागात्‍मक संबंध जोड़ सकता है?’ यदि यह तथ्‍य है तो इतिहास की ‘प्रासंगकिता’ के लिए बहुत बड़ी चुनौती है।

प्रस्‍तुत स्थिति में एक बार यह प्रश्‍न भी उठ सकता है कि हिंदी-साहित्‍य, या फिर हिंदी कविता की सचमुच कोई एक परंपरा है भी या नहीं? इस परंपरा के प्रति हर युग के कवि कितने सचेत थे? अपने पूर्ववर्तियों के प्रति अचेत रहते हुए भी क्‍या परंपरा का निर्वाह किया जा सकता है? या फिर हिंदी भाषा में लिखने मात्र से ही कोई हिंदी की साहित्‍य-परंपरा में स्‍थान पाने का अधिकारी हो जाता है! जिस बात को पूर्ववर्ती इतिहासकार स्‍वयं-सिद्ध सत्‍य मानकर चलते थे आज वह भी एक प्रश्‍न बनकर हमारे सामने उपस्थित है। ऐसे प्रश्‍नों का उत्तर खोजने के लिए ही नहीं बल्कि इस प्रकार के अनेक प्रश्‍न उठाने के लिए भी आज के इतिहासकार से एक ‘खुलेपन’ की अपेक्षा है।

परंपरा के प्रश्‍न को ‘काव्‍य-भाषा’ के भी स्‍तर पर उठकर नए रचनाकारों ने इतिहासकारों के संमुख एक जटिल समस्‍या रख दी है – ऐसी समस्‍या जिस पर अभी तक हिंदी-साहित्‍य के इतिहास में समुचित विचार नहीं हुआ है। वस्‍तुत: ‘काव्‍य-भाषा’ का प्रश्‍न नई कविता के रचना-प्रक्रिया संबंधी अनुभवों से उत्‍पन्‍न हुआ है और इस पर अभी तक सबसे अधिक विचार नए कवियों द्वारा लिखित कुछ रचना-प्रक्रिया संबंधी निबंधों में ही हुआ है। कौन नहीं जानता कि ‘भाषा के उपयोग में ही परंपरा का पालन भी और उसका न्‍यूनाधिक परिवर्तन भी निहित है,’ किंतु नए कवियों ने परंपरा-प्राप्‍त शब्‍दों में नए अर्थ भरने का प्रयोग करके पूर्ववर्ती काव्‍य-कृतियों में भी इस प्रवृत्ति के अन्‍वेषण की संभावना की ओर संकेत किया है। इस प्रकार आज के इतिहासकार के लिए आवश्‍यक हो जाता है कि भक्तिकाव्‍य और रीति-काव्‍य की भाषा-प्रकृति की सूक्ष्‍मताओं का विश्‍लेषण करके साहित्‍य के माध्‍यम की रचनात्‍मक परंपरा का निरूपण करे।

रचना-प्रक्रि‍या संबंधी नवीन काव्‍य-विमर्श से साहित्‍य-रचना के और भी अनेक कलात्‍मक, मनोवैज्ञानिक तथा सामाजिक पक्षों के उद्​घाटन की संभावनाएँ दिखती हैं जिनसे किसी भी इतिहास-लेखन का प्रभावित होना अवश्‍यभावी है। जहाँ अभी तक साहित्‍यकारों के जीवन-वृत्त, सामाजिक वातावरण तथा अन्‍य बाह्य ‘प्रभावों’ के आधार पर इतिहास खड़ा करने की स्‍थूल परिपाटी चली आ रही थी, अब हर रचना के जटिल संदर्भों की गहराई में उतरने की स्थिति उत्‍पन्‍न हो गई है। संदर्भ की जटिलता का एक सूत्र है उस मूल पाठक समुदाय की खोज जिसके लिए कोई साहित्यिक कृति लिखी गई; क्‍योंकि कुछ इतिहासकारों के विचार से किसी साहित्यिक कृति का मूल अर्थ स्‍वयं उस कृति तथा उसके मूल अथवा अभीष्‍ट पाठकों की ग्रहणशीलता के द्वंद्वात्मक संबंध में ही निहित होता है। इस प्रकार किसी रचना के संदर्भ की खोज का अर्थ है उसके ऐतिहासिक अर्थ की खोज! यह सूत्र हमें एक दूसरे संबंध-सूत्र को भी खोजने के लिए मार्ग दिखाता है कि यदि कोई रचना अपने युग के संपूर्ण सामाजिक सत्‍य को वाणी सामाजिक-राजनीतिक नियंत्रण या कवि-समय अथवा माध्‍यम की सीमा या फिर लेखक एवं पाठक के बीच की कोई खाई! फिलहाल इन बारिकियों के ब्‍यौरे में न जाकर केवल, इतना ही कहना काफी होगा कि हमारे समसामयिक साहित्‍य ने संपूर्ण इतिहास के अंत:सूत्रों को काफी जटिल बना दिया है, इ‍सलिए परंपरा के साथ प्रस्‍तुत साहित्‍य के संबंध पर विचार करते समय अत्‍याधिक सावधानी की आवश्‍यकता है। कोई आवश्‍यक नहीं कि परंपरा के साथ प्रस्‍तुत साहित्‍य का संबंध बलात् जोड़ा ही जाय; लेकिन इतना निश्चित है कि किसी-न-किसी रूप में यह साहित्‍य हमारे इतिहास का अंग होगा। ऐसी स्थिति में इसे सर्व-निर्णायक समय-देवता पर छोड़ना अपने उत्तरदायित्‍व से कतराना कहलाएगा। आज हम अपने उत्तरदायित्‍व को भावी पीढ़ियों पर छोड़कर निश्चिंत भले हो लें, लेकिन यह न भूलें कि भावी पीढ़ियाँ आज के साहित्‍य के साथ इतिहासकार पर भी निर्णय करेंगी और देखेंगी कि आज का इतिहासकार कल के लिए आज के साहित्‍य की प्रतिक्रिया अथवा ग्रहणशीलता की कैसी वसीयत छोड़ गया है? यदि आज के आत्‍मचेता रचनाकारों ने आज के इतिहासकारों को इतना आत्‍म-सजग नहीं बनाया है तो प्रस्‍तुत आत्‍म-सजग साहित्‍य के साथ परंपरा की पुनर्व्‍यवस्‍था कठिन है। नि:संदेह आत्‍म-सजगता के कारण हमारी कठिनाई और भी बढ़ जाती है लेकिन ऐसे ज्ञान के बाद क्षमा क्‍या?

परंपरा इतिहास के अंदर केवल संबंध-भावना नहीं, बल्कि साहित्‍य का एक निश्चित प्रतिमान है, इसलिए इतिहास अंतत: समीक्षा का प्रतिमान है। ऐतिहासिक बोध वस्‍तुत: आलोचनात्‍मक बोध है – ऐसा आलोचनात्‍मक बोध जिसे आत्‍मपरीक्षा के लिए हर साहित्‍य सतत परखता चलता है। इसीलिए इतिहास की अनेक अंतर्धाराओं में से हर युग अपने लिए एक प्रासंगिक धारा का अन्‍वेषण, तदुपरांत निर्माण करता है। कभी-कभी एक ही युग में दृष्टि-भेद से इस प्रकार की एक से अधिक धाराएँ प्रस्‍तुत की जाती हैं। इन प्रस्‍तुत ऐतिहासिक धाराओं में जो वस्‍तुत: एक साथ ही जितनी युग-सापेक्ष एवं युग-निरपेक्ष होती है, उतनी ही प्रासंगिक एवं सार्थक मानी जाती है। इसलिए इतिहास की विविध अंतर्धाराओं के बीच से एक धारा का निर्माण करते समय इस बात को याद रखना बहुत जरूरी है कि प्रतिमान के रूप में किसी परंपरा का प्रयोग करना स्वत: अपने-आप को भी समीक्षा के लिए उद्​घाटित करना है, क्‍योंकि किसी सैद्धांतिक प्रतिमान की तुलना में परंपरा एक व्यावहारिक प्रतिमान है : व्‍यावहारिक अर्थात् स्‍वयं-प्रयुक्‍त और प्रयोक्‍तव्‍य, विनियुक्‍त और विनियोज्‍य, अधिक स्‍पष्‍ट शब्‍दों में, व्‍यवहार के रूप में सिद्धांत। इसलिए साहित्‍य के प्रतिमान संबंधी किसी भी सैद्धांतिक प्रश्‍न को इतिहास के क्षेत्र में ले आना एक इतिहासकार का सबसे महत्‍वपूर्ण कर्त्तव्‍य है।

इतिहास का पुनर्विचार मुख्‍यत: इतिहास का पुनर्मूल्‍यांकन है और यह पुनर्मूल्‍यांकन अंतत: मूल्‍यांकन का प्रतिमान है। इसलिए इतिहास में किसी साहित्‍यकार, साहित्यिक कृति अथवा साहित्यिक युग का पुनर्मूल्‍यांकन करते समय यह ध्‍यान रखना जरूरी है कि वह केवल नवीन मूल्‍यांकन-भर न हो। इस बात की ओर ध्‍यान दिलाना इसलिए जरूरी है कि इधर पुनर्मूल्‍यांकन के नाम पर प्राय: कोरी नवीनता और मौलिकता का प्रदर्शन हुआ है। किसी को लगा कि एक इतिहासकार ने सूर को तुलसी से घटकर दिखलाया है, इसलिए उसने अपनी मौलिकता दिखाने के लिए सूर को तुलसी से श्रेष्‍ठ साबित कर डाला। किसी को महसूस हुआ कि केशवदास को जरूरत से ज्‍यादा गिरा दिया गया है, इसलिए वह प्राणपण से केशवदास के उद्धार में लग गया। इसी प्रकार पुनर्मूल्‍यांकन के नाम पर इधर रीतिकाव्‍य के पुनरुद्धार के लिए काफी प्रयत्‍न किया जा रहा है और उसमें भी किसी ने देव को सर्वश्रेष्‍ठ कवि ठहराने की कोशिश की है तो किसी से घनानंद को। इधर एक संपादित इतिहास की भूमिका में कृष्‍णाभक्ति काव्य को ही ‘काल-विस्‍तार, रचना-प्राचुर्य तथा साहित्यिक महत्त्व, सभी दृष्टियों से हिंदी की सबसे प्रधान काव्‍य-धारा’ घोषित किया गया है। शोध के उत्‍साह में अनेक शोधकर्ताओं ने हिंदी के गौण कवियों का जीर्णोद्धार करते समय उनके साहित्यिक महत्त्व की प्रतिष्‍ठा में संतुलन को ताक पर रख दिया है।

तात्‍पर्य यह कि शुक्‍लजी के इतिहास की प्रतिक्रिया में उत्‍साही संशोधनकर्ताओं ने नितांत एकांगिता एवं अराजकता की स्थिति उत्‍पन्‍न कर दी है। पुनर्मूल्‍यांकन के नाम पर वस्‍तुत: यह मूल्‍यहीनता या फिर मूल्‍यविमूढ़ता है। किसी ऐतिहासिक तारतम्‍य के अभाव में ऐसे पुनर्मूल्‍यांकन के अव्‍यवस्‍था की सृष्टि होती है। डॉ. रामविलास शर्मा ने ‘आचार्य रामचंद्र शुक्‍ल और हिंदी आलोचना’ नामक पुस्‍तक में इन पुनर्मूल्‍यांकनों की त्रुटियों की यथोचित समीक्षा की है जिससे उद्धरण देना यहाँ अनावश्‍यक है।

इतिहास की एक शिक्षा यह भी है कि वास्‍तविक इतिहास स्‍वत: आत्‍मनिषेध है। जिस इतिहास के बोध से मन स्‍वयं उस इतिहास का अतिक्रमण कर जाए, सच्‍चा इतिहास वही है। मार्क्स का इतिहास-दर्शन इतिहास से मुक्ति की यही चेतना प्रदान करता है।

इसका अर्थ यह नहीं है कि पुनर्मूल्‍यांकन हो ही न। इसकी सही प्रतिक्रिया यह नहीं है कि तारतमिक और तुलनात्‍मक आलोचना-मात्र त्‍याज्‍य है। वस्‍तुत: तारतमिक आलोचना का सर्वथा परित्‍याग आलोचनात्‍मक पलायनवाद (और आलोचना से पलायन) है। कहना इतना ही है कि किसी भी पुनर्मूल्‍यांकन के मूल में मूल्‍यों की एक व्‍यवस्‍था एवं प्रणाली होनी चाहिए। हर कवि या कृति के मूल्‍यांकन के लिए एक नए मूल्‍य और नए प्रतिमान का प्रयोग पुनर्मूल्‍यांकन नहीं है। इतिहासकार को यह न भूलना चाहिए कि एक कृति का पुनर्मूल्‍यांकन करते हुए उसके साथ ही वह संपूर्ण इतिहास का मूल्‍यांकन कर रहा है और इस दृष्टि से यह कहना अप्रासंगिक होगा कि एक कृति की समीक्षा भी उसी प्रकार इतिहास है जिस प्रकार संपूर्ण साहित्‍य की समीक्षा।

ऐसे अव्‍यवस्थित एवं तारतम्‍यहीन पुनर्मूल्‍यांकनों की अपेक्षा में आलोचनाएँ अधिक व्‍यवस्थित एवं सुसंगत हैं जिनमें एक निश्चित प्रयोजन के लिए इतिहास की अनेक अंतर्धाराओं में से एक परंपरा को अलग कर लिया गया है। ‘तुलसीदास की परंपरा’ ‘भारतेंदु की परंपरा’, प्रेमचंद की परंपरा’ अथवा ‘निराला की परंपरा’ जैसे आलोचनात्‍मक प्रयत्‍न इसी प्रवृत्ति के सूचक हैं। इनकी एकांगिता स्‍पष्‍ट है और यही उनकी सीमा है किंतु अपनी सीमा को स्‍पष्‍ट करने के कारण ही वे मूल्‍यवान भी हैं। इसी प्रकार का एक एकांगी किंतु मूल्‍यवान प्रयास है श्री विजयदेवनारायण साही का निबंध ‘लघु मानव के बहाने हिंदी कविता पर एक बहस’ जिसमें हिंदी-काव्‍य पर आधुनिक काव्‍य – परंपरा का एक पुनर्मूल्‍यांकन प्रस्‍तुत किया गया है।

आखिर हिंदी-साहित्‍य है क्‍या? युग-परिवर्तन के हर मोड़ पर यह सवाल पूछा जाता रहा है। आज फिर यह सवाल पूछने की जरूरत है। निसंदेह उन लोगों के लिए यह सवाल निरर्थक है जो हिंदी-साहित्‍य को एक ‘चीज’ समझते हैं – पहले से बनी-बनाई कहीं रखी हुई कोई चीज! लेकिन जो सृजनधर्मा मनीषा है उसे इस तथ्‍य की अवगति है कि हिंदी-साहित्‍य वस्‍तुत: एक ‘आविष्‍कार’ है जिसे सुविधा और आवश्‍यकता के अनुसार पुनराविष्कृत किया जा सकता है। जो इतिहास का सक्रिय अंग है उसके लिए हिंदी-साहित्‍य स्‍वभावत: एक सतत गतिशील चैतन्‍यधारा है जिसका स्‍वरूप-निर्धारण बहुत कुछ आविष्‍कर्ता पर निर्भर है। इतिहास की यह मुक्तिदायिनी अस्थिरता या सापेक्षता ही वह नई दृष्टि है जिससे हिंदी-साहित्‍य का सच्‍चा पुनर्मूल्‍यांकन संभव है। जैसा कि एक अंग्रेजी समीक्षक ने लिखा है, हर आलोचना एक ‘कोण-निर्धारित दर्पण ‘(चार्टेड मिरर) है और किसी दृश्‍य को उद्​भासित करने के लिए रोशनी एक निश्चित कोण से ही डाली जाती है – इससे भले ही उस दृश्य का एक भाग छाया में पड़ जाए। कहना न होगा कि ऐसे ही विभिन्‍न कोणों के प्रक्षिप्‍त आलोक से उद्​भासित दृश्‍यों को एक संपूर्णता में रचनात्‍मक ढंग से पुनर्गठित करने से ही आज का वास्‍तविक इतिहास-लेखन पूरा हो सकता है। परंतु आज के रचनात्‍मक साहित्‍य की विघटित स्थिति को देखते हुए तो ऐसा प्रतीत होता है कि आलोचना के क्षेत्र में भी इतिहास का ऐसा नया पुनर्गठन आज शायद ही संभव हो सके। हिंदी-साहित्‍य के इतिहास पर अभी तक जिस ढंग से पुनर्विचार हुआ है और स्‍वयं इतिहास-लेखन की दिशा में जिस प्रकार के प्रयत्‍न हुए हैं उनकी विश्रृंखलता से भी यही धारणा बनती है। किंतु इतिहास की एक शिक्षा यह भी है कि वास्‍तविक इतिहास स्‍वत: आत्‍मनिषेध है। जिस इतिहास के बोध से मन स्‍वयं उस इतिहास का अतिक्रमण कर जाए, सच्‍चा इतिहास वही है। मार्क्स का इतिहास-दर्शन इतिहास से मुक्ति की यही चेतना प्रदान करता है।

[1961]

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