हळ जोतै खेत कमावै जगपालन जमीदार हो सैं – धनपत सिंह

हळ जोतै खेत कमावै जगपालन जमीदार हो सैं
चाक घुमावै बास्सण तारै वोहे लोग कुम्हार हो सैं

क्यूं लागी मनैं विसवासण, हम घड़ते माट्टी के बास्सण
तांबे और पीतळ के कास्सण हर कसबे म्हं त्यार हों सै
पर म्हारा चाक किसैके बस का कोन्यां, गोड्यां तलक लाचार हों  सैं

एक जगह इंसाफ, जब म्हारे पंच जुड्यां करैं आप
तीन खाप म्हारी तीन किसम की मुसमान कुछ माहर हों सैं
पंच फैंसले पंचायत म्हं गोळे भी म्हाएं सुमार हो सैं

ये माने ऋषि मुनियां म्हं, मूढ और गुनियां म्हं
हिल्ले रिजक दुनियां म्हं, अप-अपणे रूजगार हो सैं
जो सहम आदमी के गळ म्हं घलज्या, वो मेरे किसी बदकार हो सैं

जमनादास राम गुण जपणे, गुरू तेरे शीश कितै ना झुकणे
धनपत सिंह कदे ना अपणे, रंडी और नचार हो सैं
के लोंडे रंडी का प्यारा, ये तोते चिसम मक्कार हों सैं

जिला रोहतक के गांव निंदाणा में सन् 1912 में जन्म। जमुआ मीर के शिष्य। तीस से अधिक सांगों की रचना व हरियाणा व अन्य प्रदेशों में प्रस्तुति। जानी चोर, हीर रांझा, हीरामल जमाल, लीलो चमन, बादल बागी, अमर सिंह राठौर, जंगल की राणी,रूप बसंत, गोपीचन्द, नल-दमयन्ती, विशेष तौर पर चर्चित। 29 जनवरी,1979 को देहावसान।

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