तुम जाओ सुसरा सास – धनपत सिंह

तुम जाओ सुसरा सास,
समझा ल्यूंगी जब आज्यागा मेरे पास

मेरे बुझे ताझे बिना कित भरतार जावैगा
मेरा वो गुनाहगार क्यूकर तजकै नार जावैगा
धमका द्यूंगी करड़ी हो कै क्यूकर बाहर जावैगा
हो मनैं सै पक्का विश्वास

कहैगा पलंग की मै नाटज्यां बिछावण नैं
साबुण, तेल मांगैगा मैं पाणी द्यूं ना न्हावण नैं
राख द्यूंगी भूखा उसनैं भोजन द्यूं ना खावण नैं
देखां कै उसकी गुंज्याश

जो बीर मर्द नैं कह्या करै सै कह मैं बात हजार द्यूंगी
नाक के म्हं दम आज्या कर मैं ऐसी कार द्यूंगी
कमरे के म्हं रोक कै नैं आग्गै ताळा मार द्यूंगी
हेरी फेर कित जागा बदमाश

जो बीर मर्द तैं कर्या करै सैं करूं  मरोड़ थाम ल्यूंगी
प्यार, मोहब्बत, सेवा करकै भाग दौड़ थाम ल्यूंगी
कहै धनपत सिंह निंदाणे के नैं हाथ जोड़ थाम ल्यूंगी
सदा रहूं चरण की दास

(जिला रोहतक के गांव निंदाणा में सन् 1912 में जन्म। जमुआ मीर के शिष्य। तीस से अधिक सांगों की रचना व हरियाणा व अन्य प्रदेशों में प्रस्तुति। जानी चोर, हीर रांझा, हीरामल जमाल, लीलो चमन, बादल बागी, अमर सिंह राठौर, जंगल की राणी,रूप बसंत, गोपीचन्द, नल-दमयन्ती, विशेष तौर पर चर्चित। 29जनवरी,1979 को देहावसान।)

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