बखत पुराणा – विनोद वर्मा दुर्गेश

बखत पुराणा

बखत पुराणा ए चोखा था,
बेशक चीजा का टोटा था ।
धी-बेटी थी सबकी बराबर,
नेग पुगाणा भी सोखा था।।
दूध-दही का खान-पान था,
सबका देसी बाणा होता था।
सखी-सहेली गीत गावती,
जब तीज-त्योहार का मौका था।।
बङे-बुजर्गा का रौब था न्यारा,
कुणबे म्है रूतबा मोटा था।
खिचङी-दलिया घर-घर बणते,
सबका दूध भर्या एक लोटा था।।
पीसा-धेला बेशक ना था,
ना नीयत का कोए खोटा था।
भाई-भाई न चाह्या करदा,
ना सिर किसे का फोङ्या था।।
सुख-दुख की बतलावण खातर,
चौपाला पै धर्या होक्का था।।
गाम-गुहाण्ड मैं आणा जाणा
ना कदे किसे नै टोक्या था।
दस-दस कोस सफर काटते
मोटर ठेल्या का टोटा था।
रेहङू पै खेता म्है जाणा,
राबड़ी का ठंडा कलेवा था।।
इब ना दिक्खै कुएँ-बावङी,
पनघट भी आया गया होग्या।
काठ की हान्डी घर-घर चढगी,
‘विनोद’ धोखेबाज जणा-जणा होग्या।।
विनोद वर्मा ‘दुर्गेश’

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