जिस तरह शिवाजी के संबंध में अंग्रेज़ इतिहासकारों ने ग़लतफ़हमियां पैदा की, उसी तरह औरंगज़ेब के संबंध में भी। एक उर्दू शायर ने बड़े दर्द के साथ लिखा है- बचपन में मैंने भी इसी तरह का इतिहास पढ़ा था और मेरे दिल में भी इसी तरह की बदगुमानी थी। लेकिन एक घटना ऐसी पेश आई, जिसने मरी राय बदल दी। मैं सन् 1948-53 में इलाहाबाद म्युनिसिपैलटी का चेयरमैन था। त्रिवेणी संगम के निकट सोमेश्वरनाथ महादेव का मंदिर है। उसके पुजारी की मृत्यु के बाद मंदिर और मंदिर की जायदाद के दो दावेदार खड़े हो गए। दोनों ने म्यूनिसिपैलटी में अपने नाम दाखिल ख़ारिज की दरख़ास्त दी। उनमें से एक फ़रीक़ ने कुछ दस्तावेज़ भी दाख़िल किए थे। दूसरे फ़रीक़ के पास कोई दस्तावेज़ न था। जब मैंने दस्तावेजों पर नज़र डाली तो देखा कि वह औरंगज़ेब का फ़रमान था, जिसमें मंदिर के पुजारी को ठाकुर जी के भोग और पूजा के लिए जागीर में दो गांव अता किए गए थे। मुझे शुबहा हुआ कि यह दस्तावेज़ नकली है। औरंगज़ेब तो बुतशिकन, मूर्तिभंजक था। वह बुतपरस्ती के साथ कैसे अपने को वाबस्ता कर सकता था। मैं अपना शक रफ़ा करने के लिए सीधा अपने चैंबर से उठकर सर तेज बहादुर सपू्र के यहां गया। सप्रू साहब फ़ारसी के आलिम थे। उन्होंने फ़रमान को पढ़कर कहा कि यह फ़रमान असली है। मैंने कहा-‘डाक्टर साहब! आलमगीर तो मंदिर तोड़ता था। बुतशिकन था, वह ठाकुर जी को भोग और पूजा के लिए कैसे जायदाद दे सकता था?’ डा. सप्रू साहब ने अपने मुंशी को आवाज़ देकर कहा-‘मुंशी जी ज़रा बनारस के जंगमबाड़ी शिवमंदिर की अपील की मिसिल तो लाओ।’ डाक्टर सप्रू इलाहाबाद में इस मुकद्दमें के एक पक्ष के वकील थे। मुंशी जी मिसिल लेकर आये तो डाक्टर सप्रू ने दिखाया कि उसमें औरंगज़ेब के चार फ़रमान और थे जिनमें जंगमों को माफ़ी की ज़मीन अता की गई थी। डाक्टर सप्रू हिन्दुस्तानी कल्चर सोसायटी के अध्यक्ष थे, जिसके पदाधिकारियों में डाक्टर भगवान, सैयद सुलेमान, सैयद सुलेमान नदवी, पंडित सुंदर लाल और डाक्टर ताराचन्द थे। मैं भी उसकी गवर्निंग बाडी का एक मैंबर था। डा. सपू्र की सलाह से मैंने भारत के प्रमुख मंदिरों की सूची प्राप्त की और उन सबके नाम पत्र लिखा कि अगर उनके मंदिरों को औरंगज़ेब या मुग़ल बादशाहों ने कोई जागीर दी हो, तो उनकी फोटो कापियां मेहरबानी करके भेजिये। दो तीन महीने की प्रतीक्षा के बाद हमें महाकाल मंदिर (उज्जैन), बालाजी मंदिर (चित्रकूट), उमानन्द मंदिर (गोहाटी), जैन मंदिर (गिरनार), दिलवाड़ा मंदिर (आबू), गुरुद्वारा रामराय (देहरादून) व$गैरह से सूचना मिली कि उनको औरंगज़ेब ने जागीरें अता की थीं। एक नया औरंगज़ेब हमारी आंखों के सामने उभर कर आया। औरंगज़ेब ने इन मंदिरों को जागीरें अता करते हुए मंदिंर के पुजारियों से यह अपेक्षा की थी कि अपने ठाकुर जी से वह इस बात की प्रार्थना करें कि उसके खानदान में ताक़यामत हुकूमत बनी रहे। हमारी तरह हमारे आदरणीय मित्र और अन्वेषक श्री ज्ञानचन्द्र एवं प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता डा. परमेश्वरीलाल गुप्त ने भी अपने शोध प्रबंधों से हमारे इस कथन की पुष्टि की है। उनके अनुसार : ‘हिन्दूद्रोही और मंदिर भंजक के रूप में जिस किसी इतिहासकार ने औरंगज़ेब का यह चित्र उपस्थित किया, उसने अंग्रेजों को अपनी फूट डालो और राज करो वाली नीति के प्रतिपादन के लिए एक जबरदस्त हथियार दे दिया। उसका भारतीय जनता पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा है कि उदार राष्ट्रीय विचारधारा के इतिहासकार और विशिष्ट चिंतक भी उससे अपने को मुक्त नहीं कर सके हैं। उन्होंने भी स्वयं तटस्थ भाव से तथ्यों का विश्लेषण न कर यह मान लिया है कि औरंगज़ेब हिन्दुओं के प्रति असहिष्णु था।’ ‘इसमें संदेह नहीं, औरंगज़ेब एक धर्मनिष्ठ मुसलमान था। उसने ऐसे अनेक कार्य किए, जिनसे उसकी इस्लाम के प्रति निष्ठा प्रकट होती है। उसने सत्तारूढ़ होते ही अपने सिक्कों पर उस कलमा के अंकन का निषेध किया, जिसे पूर्ववर्ती प्राय: सभी मुसलमान शासक इस्लाम धर्म का मूल मंत्र मानकर अपने सिक्कों पर अंकित करना अपना परम कत्र्तव्य मानते थे। औरंगज़ेब ने इस बात को सवर्था भिन्न दृष्टि से देखा। उसकी अपनी मान्यता थी कि सिक्के ऐसे लोगों के हाथों में भी जाएंगे, जो इस्लाम धर्म के अनुयायी नहीं हैं। इसी प्रकार उसके द्वारा जजि़या कर का जारी किया जाना भी उसकी इस्लामी सिद्धांतों के प्रति आस्था का प्रतीक है। इस्लामी शरीयत के अनुसार, किसी इस्लामी शासक की सेना में यदि कोई ग़ैर मुसलमान व्यक्ति सैनिक न बनना चाहे तो सैनिक सेवा के बदले उससे एक हल्का सा कर लेने का विधान इस्लामी शास्त्रविदों ने किया है, उसे ही जजि़या कहते हैं। यह कर इस देश में मुसलमानों के शासन के आरंभ से ही प्रचलित था और इसके प्रति कभी किसी को किसी प्रकार का अनौचित्य नहीं दिखाई पड़ता था। अकबर ने अपनी उदार नीति के कारण इस कर को अपने समय में बंद कर दिया। औरंगज़ेब ने इतना ही किया कि उसे फिर से जारी कर दिया। ‘औरंगज़ेब के इन तथा इसी प्रकार के अन्य कार्यों को यदि तटस्थ भाव से देखा जाए तो उनमें ऐसी कोई बात नहीं मिलेगी जो उसकी अपनी धर्मनिष्ठा भावना के अतिरिक्त किसी अन्य बात का प्रतीक हो और हिन्दू अथवा किसी दूसरे धर्म के प्रति विद्वेष अथवा असहिष्णु भाव की अभिव्यक्ति हो। अत: हमारे इतिहासकारों की औरंगज़ेब के संबंध में क्या धारण रही है, इसको जानने और मानने की अपेक्षा अधिक उचित यह होगा कि हम औरंगज़ेब के समसामयिक बुद्धिवादियों के कथन को महत्व दें और देखें और जानें कि औरंगज़ेब के संबंध में उनकी क्या धारणा थी।’ गुर्जर कवि भगवतीदास का औरंगज़ेब के संबंध में कहना है- यदि औरंगज़ेब के मन में हिन्दू धर्म अथवा किसी अन्य धर्म के प्रति किसी प्रकार की कोई कटुता अथवा असहिष्णुता का भाव होता अथवा ये कवि उसके व्यवहार में किसी प्रकार की गंध अनुभव करते, तो वे जो औरंगज़ेब के दरबारी कवि नहीं थे, उसे कभी इन शब्दों में स्मरण नहीं करते। यदि हम किसी कारण कवियों की इन बातों को महत्व न दें तो भी हिन्दुओं के प्रति औरंगज़ेब के भावों को स्पष्ट करने वाले प्रमाणों की कमी नहीं है। औरंगज़ेब और उसके अधिकारियों द्वारा ब्राह्मण और पुजारियों को दिए खैरात (दान) और निसार (निछावर) संबंधी अनेक आदेशपत्र उपलब्ध हैं। उनकी प्रमाणिकता को स्वीकार करना ही होगा।
उज्जैन के महाकालेश्वर के मंदिर का हिन्दू मतावलम्बियों में विशेष मान-सम्मान है। इस मंदिर के पुजारियों के पास, उनके पूर्वजों के नाम मालवा के सुबेदारों द्वारा औरंगज़ेब के शासनकाल के 7वें वर्ष से 48वें वर्ष के बीच जारी की गई 13 सनदें सुरक्षित हैं। इनमें से एक सनद औरंगज़ेब के आठवेें राज्यवर्ष में मालवा के सूबेदार मुहम्मद समी द्वारा जारी की गई है। इससे ज्ञात होता है कि मुरार और कूका नामक दो ब्राह्मण भाइयों को पिछले पचास वर्षों से ईश्वर की सेवा करने (बन्दगान ए आला हज़रत) के उपलक्ष में प्रतिवर्ष 50 दाम प्राप्त होता रहा। उसे इस सनद द्वारा मुहम्मद समी को आगे निरंतर दिए जाते रहने का आदेश दिया है। स्पष्ट है, यह ब्राह्मण या तो किसी मंदिर के पुजारी थे अथवा हिन्दुओं के पुरोहित। उन्हें राज्य की ओर से जो सहायता पहले से मिलती चली आ रही थी, उसे औरंगज़ेब के शासनकाल में भी बदस्तूरी $कायम रखा गया। यदि औरंगज़ेब के हृदय के कहीं किसी कोने में हिन्दू धर्म के प्रति दुर्भावना होती तो उसका सूबेदार इस प्रकार की सनद कदापि जारी न करता। उज्जैन की उपर्युक्त सनदों में से दस सनदों से ज्ञात होता है कि औरंगज़ेब के 7वें राज्यवर्ष में सूबेदार नजावत खां ने कूका ब्राह्मण को खैरात के रूप में चबूतरा कोतवाली की आय से नित्य तीन मुरादी टंक दिए जाने का आदेश दिया था, ताकि वह जीवनयापन कर सके और राज्य की समृद्धि के लिए प्रार्थना किया करे। 17वें राज्य वर्ष में कूका की मृत्योपरांत यह खैरात उसके पुत्र कांजी को देने का आदेश हुआ और 19वें राज्यवर्ष में हबीबुल्लाह अल-हसनी ने उसे बढ़ाकर चार आना कर दिया। 26वें राज्यवर्ष में सूबेदार खान ज़मां द्वारा इस खैरात को मान्यता दी गई। 48वें राज्यवर्ष में मुगलखां की सूबेदारी में इस $खैरात को स्थायी कर दिया गया। दो अन्य सनदों से, जो क्रमश: 18वें और 19वें राज्यवर्ष में जारी की गई हैं, पता चलता है कि राज्य की समृद्धि की प्रार्थना करने के निमित्त कांजी को हर साल खरीफ़ के समय खैरात स्वरूप साढ़े दस रुपए मिलते थे। ये सनदें इस बात का प्रतीक हैं कि औरंगज़ेब के शासनकाल में खैरात वितरण में हिन्दू मुसलमान जैसा भेद न था। खैरात का अधिकारी ब्राह्मण भी समझा जाता था। इन सनदों के संबंध में कहा जा सकता है कि सनदें औरंगज़ेब ने स्वयं जारी नहीं की है, उसके अधिकारियों ने उसके परोक्ष में अपनी दयानतदारी के फलस्वरूप जारी की होंगी। अत: उचित होगा कि स्वयं औरंगज़ेब द्वारा जारी किए गए फ़रमानों की ही चर्चा की जाए। अस्तु, औरंगज़ेब ने अपने 9वें राज्यवर्ष के 2 सफ़र को एक फ़रमान दखिनकुल सरकार स्थित परगना पाण्डु के पट्ट बंगेसर के प्रमुख अधिकारियों, चौधरी, कानूनगो, मुकद्दम तथा किसानों के नाम जारी किया था। इस फ़रमान में कहा गया है कि भूतपूर्व शासकों ने उमानन्द मंदिर के पुजारी सूदामन और उसके बेटे को सकरा ग्राम में ढाई बिस्वा जमीन, जिसकी जमा (आय) 30 रुपया है, प्राप्त रही है। उनका यह अधिकार प्रमाणित है। अत: उक्त ग्राम के महसूल (आय) से बीस रुपया नकद और शेष इंटाखाली ग्राम की जमा को छोड़ कर जंगल के रूप में दी जाती है, ताकि वह उसका उपयोग देवता के भोग और अपने जीवनयापन में कर सकें और राज्य के चिरस्थायी बने रहने की कामना करते रहें। इस फ़रमान में अधिकारियों को आदेश है कि जो आय और भूमि उन लोगों (सुदामन और उनके बेटे) के अधिकार में है, उनके अधिकार में छोड़ दी जाए और उनके इस अधिकार में किसी प्रकार की कोई बाधा न दी जाए। इस सनद में द्रष्टव्य यह है कि औरंगज़ेब ने ब्राह्मण पुजारियों को भूमि न केवल जीवनयापन वरन् भोग (मंदिर की पूजा) के लिए भी दी थी। इस फ़रमान के संबंध में कहा जा सकता है कि यह औरंगज़ेब का अपना दान नहीं है। वरन् पिछले राजाओं द्वारा दिए गए दान की पुष्टि मात्र है। अत: उसके अपने दानों के फ़रमानों का उल्लेख अधिक संगत होगा। 1908 हिजरी का उसके द्वारा जारी किया गया एक फ़रमान है, जिसमें कहा गया है कि बनारस में गंगा किनारे बेनीमाधो घाट पर दो टुकड़े ज़मीन बिना निर्माण के खाली पड़ी है और बैत-उल-माल है। इनमें से एक बड़ी मसजिद के पीछे रामजीवन गुंसाई के मकान के सामने है और दूसरा उससे कुछ ऊंचाई पर है। इस भूमि के इन दोनों टुकड़ों को हम रामजीवन गुसांई और उसके लड़के को बतौर इनाम देते हैं, ताकि वह उस पर धार्मिक ब्राह्मणों और साधुओं के रहने के लिए सत्र बनवाएं और ईश्वर साधना में रत रहकर देव प्रदत्त साम्राज्य के स्थायी बने रहने की कामना करते रहें।
काशी में शैव सम्प्रदाय के लोगों का एक सुविख्यात मठ जंगमबाड़ी है। इस मठ के महंत के पास औरंगज़ेब द्वारा कतिपय फ़रमान हैं। इनमें से पांच रमज़ान 1071 हिजरी को जारी किया गया औरंगज़ेब का फ़रमान है, जिसके द्वारा उसने जंगमों को परगना बनारस में 178 बीघा ज़मीन अपने सिर के निसार (निछावर) स्वरूप प्रदान किया है और कहा है कि यह भूमि मा$फी समझी जाए ताकि वह उसका उपयोग कर सकें और राज्य के चिरस्थायी बने रहने की कामना करते रहें। इसी भूमि से संबंधित एक दूसरा फ़रमान भी है जो एक रबी-उल-अव्वल 1078 हिजरी का है। इसमें उक्त दान की पुनरुक्ति है और आदेश दिया गया है कि उस भूमि पर जंगमों के अधिकार में कोई हस्तक्षेप न करे। ये राजपत्र इस बात की स्पष्ट अभिव्यक्ति करते हैं कि औरंगज़ेब का हिन्दू धर्म के प्रति कोई विद्वेषात्मक भाव न था। यह बात मूर्तियों और मंदिरों के संबंध में भी कही जा सकती है। ऊपर हमने उज्जैन के महाकालेेश्वर के मंदिर का जिक्र किया है। इस मंदिर में दिन-रात घी का दीप जलता रहता है। इस दीप को ‘नन्ददीप’ कहते हैं। इस दीप के प्रज्जवलन के लिए अतीत काल से राज्य की ओर से घी दिया जाता था और यह प्रथा मुग़लकाल में भी प्रचलित थी। यह मुरादबख़्श के एक फ़रमान से प्रकट होता है, जिसे उसने पिता शाहजहां के शासनकाल में 5 शव्वाल 1061 हिजरी को जारी किया था। इस फ़रमान के अनुसार, चबूतरा कोतवाली के तहसीलदार को आदेश दिया गया था कि वह मंदिर को नित्य चार (अकबरी) सेर घर दिया करे। यह फ़रमान मंदिर के पुजारी देवनारायण के आवेदन पर जारी किया गया था। आवेदन में कही गई बात की तसदीक़ मुहम्मद मेंहदी नामक वाक़यानवीस ने की थी और उसके तसदीक़ करने पर ही फ़रमान जारी किया गया था। इस फ़रमान की मूल प्रति तो महाकालेश्वर के पुजारी के पास नहीं है ङ्क्षकंतु उसकी एक प्रमाणित प्रति, जिसे 1153 हिजरी में मुहम्मद सादुल्लाह ने जारी किया था, उनके पास उपलब्ध है। इस नकल के आधार पर यह अनुमान सहज में किया जा सकता है कि इस फ़रमान में दिए हुए आदेश का कम से कम 1153 हिजरी तक निरंतर पालन होता रहा। यदि ऐसा न होता तो महत्वहीन राजपत्र की नक़ल प्राप्त करने का प्रयास करने की किसी को आवश्यकता न थी। यदि वह अनुमान सही है तो कहा जा सकता है कि औरंगज़ेब के शासनकाल में, जो मूल फ़रमान और नक़ल के बीच का काल है, महाकालेश्वर के मंदिर के मंदिर को राज्य की ओर से घी प्राप्त होता था। मंदिरों के प्रति सद्भावना के इस परोक्ष प्रमाण के अतिरिक्त प्रत्यक्ष प्रमाण स्वरूप उस फ़रमान का उल्लेख किया जा सकता है, जिसे औरंगज़ेब ने उमानन्द के पुजारी के हक़ में जारी किया था और जिसकी चर्चा हम ऊपर कर चुके हैं। इस फ़रमान के अनुसार, पुजारी को जिस उद्देश्य से भूमि दी गई थी, उसमें मंदिर का भोग भी सम्मिलित था। यदि औरंगज़ेब भोग के लिए भूमि दे सकता था तो कोई कारण नहीं कि पहले से चली आई परम्परा के अनुसार महाकालेश्वर के नन्ददीप के लिए घी न दिया हो। मंदिरों के प्रति उसका दृष्टिकोण एक अन्य फ़रमान से भी स्पष्ट होता है, जिसे उसने 10 रजब 1070 हिजरी को अहमदाबाद के नगरसेठ सहसभाई के पुत्र शांति-दास जौहरी के आवेदन पर जारी किया था। इस फरमान के द्वारा पालिताना ग्राम, शत्रुन्जय पर्वत तथा उस पर मंदिर श्रावक जैन समाज को प्रदान किया गया है। इस फ़रमान में कहा गया है कि शत्रुन्जय पर्वत पर जो भी इमारती लकड़ी और ईंधन उपलब्ध हो वह श्रावक समाज की सम्पति है वे उसका उपयोग जिस रूप में चाहे करें, जो कोई शत्रुन्जय पर्वत और मंदिर का प्रबंध करेगा, उसे पालिताना की आय प्राप्त होती रहेगी, ताकि वे राज्य के चिरस्थायी बने रहने की प्रार्थना करते रहेंं। औरंगज़ेब की भावना को स्पष्ट करने की दृष्टि से अधिक महत्व का वह फ़रमान है जिसे उसने जालना के एक ब्राह्मण की फ़रियाद पर जारी किया था। उस ब्राह्मण ने अपने घर में गणेश की एक मूर्ति प्रतिष्ठित की थी। उसे वहां के एक मुसलमान अधिकारी ने हटवा दिया था। इस कार्य के विरुद्ध उस ब्राह्मण ने औरंगज़ेब से फ़रियाद की। औरंगज़ेब ने तत्काल मूर्ति लौटा देने का आदेश दिया और इस प्रकार के हस्तक्षेप का निषेध किया। इन सबसे अधिक महत्व का है वह फ़रमान, जो ‘बनारस फ़रमान’ के नाम के इतिहासकारों के बीच प्रसिद्ध है और जिसको लेकर यदुनाथ सरकार सदृश गंभीर इतिहासकार ने अपनी ‘हिस्ट्री आफ़ औरंगज़ेब’ में यह मत प्रतिपादित किया है कि औरंगज़ेब ने हिन्दूधर्म पर अपना आक्रमण बड़े छद्म रूप में प्रारंभ किया। इस फ़रमान का सहारा लेकर यदुनाथ सरकार ने औरंगज़ेब को धर्मान्ध सिद्ध करने के प्रयत्न में इस फ़रमान के केवल कुछ शब्द ही उद्धृत किए हैं। यदि इन इतिहासकारों ने ईमानदारी बरती होती और समूचे फ़रमान को सामने रखकर सोचा होता तो तथ्य निस्संदेह भिन्न रूप में सामने आता और औरंगज़ेब का वह रूप सामने न होता जो इन इतिहासकारों ने प्रस्तुत किया है। इस फरमान के संबंध में 1905 में ई. से पूर्व किसी भी इतिहासकार को कोई जानकारी न थी। उस समय तक वह काशी के मंगला गौरी मुहल्ले के एक ब्राह्मण परिवार में दबा पड़ा था। उस वर्ष किसी पारिवारिक विवाद के प्रसंग में गोपी उपाध्याय के दौहित्र मंगल पाण्डेय ने इस फ़रमान को सिटी मैजिस्ट्रेट की अदालत में उपस्थित किया। वहां से इसकी गन्ध इतिहासकारों को प्राप्त हुई और इसकी चर्चा एक शोध पत्रिका में की गई। उस पत्रिका में यह फ़रमान अविकल रूप में उद्धृत है किन्तु उसे देखने की चेष्टा नहीं की गई। अत: कुछ कहने से पहले आवश्यक है कि इस फ़रमान को अविकल रूप में उद्धृत किया जाए। यह फ़रमान 15 जमादी-उल-सानी 1069 हिजरी को बनारस के स्थानीय प्रशासक अबुल हसन के नाम जारी किया गया है: ‘मुराहिमें-जाती व मक़ारिमें-जिबिल्ली हमगो हिम्मत वाला नेअमत इस फ़रमान का शब्दानुवाद इस प्रकार होगा-‘हमारी व्यक्तिगत एवं स्वाभाविक सद्भावनाएं समग्र रूप से ऐसी दिशा में झुकी हुई हैं कि जिससे जनता की भलाई और देश में रहने वालों का सुधार हो तथा हमारे देश में ऐसा निश्चित है कि मंदिर क़तई न तोड़े जाएं और नए मंदिर न बनवाए जाएं। हमारे न्यायपूर्ण राज्य में यह सूचना मिली है कि कुछ लोग बनारस के रहने वाले हिन्दुओं पर और उसके पास अन्य रहने वालों पर, वहां के रहने वाले ब्राह्मणों पर, जो कि मंदिरों का इन्तज़ाम करते रहे हैं, हस्तक्षेप कर अत्याचार करते हैं और चाहते हैं कि वहां का प्रबंध, जो चिरकाल से उनके हाथ में है, छीन लें। इस कारण वे लोग बहुत परेशान और बेहाल हैं। अत: यह आदेश भेजा जाता है कि इस फरमान के पहुंचने के साथ ही दृढ़ता के साथ यह घोषित कर दिया जाए कि कोई भी व्यक्ति किसी भी कारण इन ब्राह्मणों और इस स्थान के रहने वाले अन्य हिन्दुओं को बिल्कुल न छेड़ें और न उन्हें परेशान करें। वे पूर्ववत् अपनी जगह और अपने मकान पर रहकर शांतिपूर्वक हमारे शासन के स्थायित्व के लिए सदैव प्रार्थना करते रहें। इस आदेश को आवश्यक और गंभीर समझा जाए।’ इस फरमान में कहीं भी ऐसा कुछ नहीं है, जिसे यदुनाथ सरकार की शब्दावली में ‘छद्म रूप से हिन्दू धर्म पर आक्रमण’ की संज्ञा दी जा सके। वरन् इस फ़रमान से, इसके विपरीत, यह ज्ञात होता है कि हिन्दुओं और ब्राह्मणों के धार्मिक मामलों-मंदिरों के प्रबंध में कुछ लोग अनुचित हस्तक्षेप कर रहे थे और उन्हें तंग कर रहे थे। हो सकता है, मंदिरों को तोड़े जाने की बात भी की जा रही हो। इन सबकी शिकायत जब औरंगज़ेब के पास पहुंची तो उसने यह फ़रमान जारी कर उसकी आवश्यकता और गंभीरता पर ज़ोर देते हुए दुष्टता करने वालों को कड़ी चेतावनी दी। स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सम्राट के धर्म अर्थात् इस्लाम में यह आदेश है कि मंदिर क़तई न तोड़े जाएं और नए मंदिर न बनवाए जाएं। यदि तटस्थ भाव से देखा जाए तो इस फरमान में हिन्दुओं के विरुद्ध औरंगज़ेब के अपने किसी आदेश की कोई गंध नहीं है। नए मंदिरों के बनवाने पर प्रतिबंध दिल्ली के पठान सुल्तानों के समय से ही चला आ रहा था। उन्होंने नए मंदिर बनवाने और पुराने मंदिरों की मुरम्मत कराने पर रोक लगाई थी। यह आदेश उस समय कठोरतापूर्वक पालन किया जाता रहा। मुग़लकाल में बाबर ने मंदिरों की सुरक्षा का आदेश दिया। अकबर की धार्मिक सहिष्णुता और उदारता का गुणगान करते हुए हमारे इतिहासकार नहीं थकते, किन्तु उसके शासनकाल में भी इस प्रतिबंध के हटाये जाने की कोई घोषणा स्पष्ट शब्दों में नहीं की गई। काशी के विश्वनाथ मंदिर के निर्माण की बात जब अकबर के समय में उठी तो यह आवश्यक समझा गया कि उसके निर्माण से पूर्व उसके लिए सम्राट की अनुमति प्राप्त की जाए और अनुमति प्राप्त करने के बाद ही उसका निर्माण हो सका। यदि इन तथ्यों को ध्यान में रखा जाए तो औरंगजेब के प्रति हिन्दूद्वेषी और मंदिर विनाशक कहने की कोई भावना नहीं उभरती। इन सब तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उभरता है कि यदि औरंगज़ेब का वस्तुत: इस कथन में विश्वास था कि मंदिर न तोड़े जाएं तो फिर क्यों उसी के शासनकाल में और उसी के आदेश से ज्ञानवापीवाला विश्वनाथ मंदिर तोड़ा गया? इस संबंध में हम पाठकों का ध्यान पट्टाभि सीतारामैया की पुस्तक ‘फेदर्स एंड स्टोन्स’ की ओर आकृष्ट करना चाहेंगे। उन्होंने इस ग्रंथ में लिखा है कि लखनऊ के किसी प्रतिष्ठित मुसलमान सज्जन (नाम/नहीं दिया है।) के पास कोई हस्तलिखित ग्रंथ था जिसमें इस घटना पर प्रकाश डाला गया है। सीतारामैया का कहना है कि इस ग्रंथ का समुचित परीक्षण किए जा सकने के पूर्व उक्त सज्जन का निधन हो गया और वह ग्रंथ प्रकाश में आ सका। उस ग्रंथ में इस घटना के संबंध में जो कुछ कहा गया था उसका सीतारामैया ने अपनी पुस्तक में उल्लेख किया है। उनके कथानुसार घटना इस प्रकार है : ‘तत्कालीन शाही परम्परा के अनुसार, जब मुग़ल सम्राट किसी यात्रा पर निकलते थे, तो उनके साथ राज सामन्तों की काफी बड़ी संख्या चलती थी और उनके साथ उन सबका अन्त:पुर भी चलता था। कहना न होगा, मुगल दरबार में हिन्दू सामंतों की संख्या काफी बड़ी थी। उक्त ग्रंथ के अनुसार, एक बार औरंगज़ेब बनारस के निकट के प्रदेश से गुज़र रहे थे। ऐसे अवसर पर भला कौन हिन्दू होता जो दिल्ली जैसे दूर प्रदेश से आकर गंगा स्नान और विश्वनाथ दर्शन किए बिना चला जाता, विशेष रूप से स्त्रियां। अत: प्राय: सभी हिन्दू दरबारी अपने परिवार के साथ गंगा स्नान करने और विश्वनाथ दर्शन के लिए काशी आए। विश्वनाथ के दर्शन कर जब लोग बाहर आए तो ज्ञात हुआ कि उनके दल की एक रानी गायब है। इस रानी के संबंध में कहा जाता है कि कच्छ की रानी थी। लोगों ने उन्हें मंदिर के भीतर जाते देखा था पर मंदिर से बाहर आते वह किसी को नहीं दिखीं। लोग इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि वह मंदिर के भीतर ही कहीं रह गई है। काफी छानबीन की गई तो मंदिर के नीचे एक दुमंजिले तहखाने का पता चला जिसका द्वार बाहर से बंद था। उस द्वार को तोड़कर जब लोग अंदर घुसे तो उन्हें वस्त्राभूषण विहीन, भय से त्रस्त रानी दिखाई पड़ी। जब औरंगज़ेब को पण्डों की यह काली करतूत ज्ञात हुई तो वह बहुत क्रुद्ध हुआ और बोला-जहां मंदिर के गर्भ-ग्रह के नीचे इस प्रकार की डकैती और बलात्कार हो, तो वह निस्सन्देह ईश्वर का घर नहीं हो सकता। और, उसने उसे तुरंत गिरा देने का आदेश दिया। आदेश का तत्काल पालन हुआ। जब उक्त रानी को सम्राट के इस आदेश और उसके परिणाम की सूचना मिली तो वह अत्यंत दु:खी हुई और उसने सम्राट से कहला भेजा कि इसमें मंदिर का क्या दोष, दुष्ट तो पण्डे हैं। उसने यह भी हार्दिक इच्छा प्रकट की कि उसका फिर से निर्माण करा दिया जाए। औरंगज़ेब के अपने धार्मिक विश्वास के कारण, जिसका उल्लेख उसने बड़ी स्पष्टता से अपने उपर्युक्त ‘बनारस फरमान’ में किया है, उसके लिए फिर से नया मंदिर बनवाना संभव न था। अत: उसने मंदिर के स्थान पर मसजिद खड़ी कर रानी की इच्छा पूरी की। यह घटना कितनी ऐतिहासिक है, यह कहने के लिए सम्प्रति कोई साधन नहीं है किंतु इस प्रकार की घटनाएं प्राय: मंदिरों में घटती रही हैं, यह सर्वविदित है। यदि ऐसी कोई घटना औरंगज़ेब के समय में घटी हो तो कोई आश्चर्य नहीं। उसी की अनुगूंज इस अनुश्रुति में होगी जिसे सीतारामैया में लिपिबद्ध किया है। यदि ऐसी घटना वस्तुत: घटी थी तो औरंगज़ेब सदृश मुसलमान नरेश ही नहीं, कोई भी न्यायप्रिय शासक यही करता। यदि इस घटना के परिप्रेक्ष्य में विश्वनाथ मंदिर गिराया गया था तो उसके लिए औरंगज़ेब पर किसी प्रकार का कोई आरोप नहीं लगाया जा सकता। फिर भी औरंगज़ेब के प्रति लोगों के मन में दुर्भावना इस प्रकार घर कर गई है कि यह प्रश्न उठ सकता है कि यदि ऐसी घटना किसी मसजिद में घटी होती तो क्या औरंगज़ेब उसे भी गिरवा देता? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए किसी कल्पना की आवश्यकता नहीं है। तथ्यपूर्ण उदाहरण उपलब्ध है। गोलकुण्डा के सूबेदार तानेशाह ने जो राज-कर एकत्र किया था, उसका पूरा-पूरा हिसाब वह औरंगज़ेब के सम्मुख उपस्थित न कर सका। उससे जब इस संबंध में पूछताछ की गई तो तो उसने किसी मस्जिद का नाम लेकर कहा कि उसने उस धन को जामे मसजिद के नीचे गाड़ रखा है। उसके इस कथन से औरंगज़ेब को बहुत क्रोध आया और उसने उस मसजिद को गिराकर उस धन को ढूंढ निकालने का आदेश दिया और वह मसजिद सचमुच उसके आदेश से गिरा दी गई। साभार – भारतीय संस्कृति मुगल विरासत:औरंगज़ेब के फरमान
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