उठ रहा है ये बस्ती से धुआं सा कैसा
धुआं देखकर ही अब तो डर लगता है
किसकी लाश मिली है बस्ती के बाहर
यह पता करने में ही अब तो डर लगता है
बस्ती में उग आया है पत्थरों का जंगल
पत्थरों को पत्थर कहने से डर लगता है
हर कोई समझता है यहां फरिश्ता खुद को
इन फरिश्तों से ही अब तो डर लगता है
किसी ने लिखी है कविता बिना डर के
उस कविता को पढ़ते हुए भी डर लगता है
सदियों से मिल कर रहते थे इस बस्ती के लोग
यह बताते हुए भी अब तो डर लगता है
बस्ती में बसे हैं खुदाओं के खुदा
या खुदा तेरी खुदाई से भी अब तो डर लगता है
अपनी गुजर बसर नहीं इस बस्ती में
बस्ती के नाम से भी अब तो डर लगता है
चलो अब कहीं बस्ती बनाएं आसमान पर
जमीं की आबो हवा से अब तो डर लगता है
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- डर लगता है – जयपाल
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