हरियाणा की संस्कृति के विविध रंग

हरियाणा सृजन उत्सव में  24 फरवरी 2018 को ‘हरियाणा की संस्कृति के विविध रंग’ विषय पर परिचर्चा हुई जिसमें मेवात इतिहास एवं संस्कृति विशेषज्ञ सिद्दीक अहमद मेव तथा साहित्यकार एवं समाजशास्त्री प्रदी कासनी ने अपने विचार प्रस्तुत किए। इस परिचर्चा का संचालन एवं संयोजन ‘देस हरियाणा’  पत्रिका के संपादन से जुड़े शिक्षाविद् अरुण कैहरबा ने किया। प्रस्तुत है। परिचर्चा के मुख्य अंश – सं.

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अरुण कैहरबा – संस्कृति के सवाल को प्राय: ही बहुत ऊपरी तौर पर देखा जाता है। कई बार संस्कृति को केवल स्टेज आईटम के तौर पर पेश किया जाता है। निश्चित तौर पर स्टेज पर जो प्रस्तुतियां होती हैं, वे हमारी संस्कृति का हिस्सा हैं, लेकिन संस्कृति को सिर्फ इसी तरह देखना तंग नजरिये का सूचक है। संस्कृति के साथ जो दूसरी बातें जुड़ी हुई हैं। आमतौर पर संस्कृति की विविधताएं और सतत रूप से होने वाले बदलावों को नजरंदाज करके सभ्यता की पुरानी चीजों को ही संस्कृति बता दिया जाता है।

पगड़ी, हुक्का, दामन, घाघरा को ही हरियाणा की संस्कृति बताकर महिमागान किया जाता है। हरियाणा में संस्कृति के दस्तावेजीकरण की तरफ ध्यान नहीं दिया गया। और जो हुआ भी वह अतीत मोह से ग्रस्त है।

‘देस हरियाणा’  द्वारा आयोजित किया जा रहा हरियाणा सृजन उत्सव संस्कृति के विविध रंगों का जश्न मनाने का अवसर है। हमारा मानना है कि विविधता बाधक नहीं, ताकत है। हरियाणा की संरचना का स्वरूप विविधताएं लिए हुए है। हरियाणा में मेवात, बांगर, खादर, बागड़, अहीरवाल क्षेत्र हैं।

प्रदीप कासनी- हरियाणवी से मतलब है हरियाणा क्षेत्र। हरियाणा की प्रादेशिक अस्मिता का सवाल भी यहां मान कर चला जा रहा है। लेकिन हरियाणा उस तरह से आवयविक/ओरगेनिक तौर पर नीचे से विकसित हुआ प्रांत नहीं है। उसकी कोई पुख्ता पहचान नहीं है। जन्मजात पहचान नहीं है कि जैसे कल ही इसकी फोरमेशन हुई हो। बेसिकली पंजाबी सूबे की मांग को पूरा करते हुए बचे हुए हिस्से को हरियाणा नाम देकर एक अलग सूबे के रूप में मान्यता दे देना और भारतीय गणराज्य के एक राज्य के रूप में स्वीकृति देने से इसकी कोई सांस्कृतिक पहचान नहीं बनती है। यह 1966 की बात है। यह एक रेजिड्यूल किस्म का विकास है, उस तरह का नहीं है जैसे मराठवाड़ा या महाराष्ट है। जिस तरह बंगाल है। उस तरह का भी नहीं है जैसे तमिलनाडू या मलयाली प्रदेश है। आकार में भी छोटा है। यह बात प्राथमिक तौर पर इस सूबे की स्थापना को लेकर है।

विविधता की बात की जाए तो इस छोटे से सूबे में भी बहुत सारी विविधता है। इसके हर कोने की भाषा-संस्कृति से हमारा साबका पड़ता है। अगर कोई सिरसा-डबवाली से है और अपनी बोली में बात करता है, तो रोहतक सोनीपत के आदमी के लिए उसे पकड़ पाना मुश्किल होता है। उसी तरह से यदि कोई नारनौल या नांगल चौधरी से है और अहीरवाटी बोली में बात करता है तो अंबाला के आदमी के लिए उसे पहचानना मुश्किल होता है।

मेवाती के अपने रंग हैं। मेवाती की अपनी एक तासीर है। उसमें एक डैप्थ भी है और उसका एक इतिहास भी है। इसी तरह से पलवल के आसपास की ब्रज भाषा का जींद की बोली के साथ कनैक्शन एक दम समझ नहीं आता है।

इस तरह की विविधता एक तो इस वजह से होती है कि बहुत अधिक मोबिलिटी ना रहे। समाज विकसित ना हो। आर्थिक विकास का स्तर नीचा हो। 20वीं-21वीं सदी को देखते हुए औद्योगीकरण और शहरीकरण की मात्रा भी जितनी होनी चाहिए, वो ना हो।

अरुण कैहरबा- मेवात वास्तव में गंगा-जमनी तहजीब की एक मिसाल है। मेवात के बारे में अनेक प्रकार के भ्रम-भ्रांतियां और मिथ्या धारणाएं हमारे समाज में व्याप्त हैं और फैलाई जाती हैं। मेरा संबंध शिक्षा विभाग से है। हमारे यहां अध्यापक मेवात में स्थानांतरण को सजा के तौर पर देखा जाता है। इससे अलग जिन लोगों को वहां जाने का मौका मिला, वे वहां के हो गए। मेवात उनके दिल में बस गया। चूंकि सांस्कृतिक आदान प्रदान के मौके नहीं मिल पाते तो इस तरह की बातें चलती रहती हैं। मेवात की संस्कृति को इसके इतिहास क्रम में सिद्दीक अहमद मेव जी से जानना चाहते हैं।

सिद्दीक अहमद मेव- मेवात विकसित हरियाणा का पिछड़ा क्षेत्र है। मैं मेवात को पिछड़ा क्षेत्र नहीं मानता जैसा लोग उदाहरण देते हैं कि बिहार व झारखंड से भी पिछड़ा। मैं मानता हूं कि मेवात विकसित हरियाणा का पिछड़ा क्षेत्र है। वरना तो मेवात का इतिहास इतना गौरवपूर्ण है कि आप उसकी गहराई में जाएंगे तो आपको लगेगा कि अगर वतनपरस्ती का सर्टिफिकेट किसी से लेना है तो वह मेवात में आ जाए। मेवात की संस्कृति इतनी समृद्ध है कि भारत की जितनी भी लोक संस्कृतियां हैं, उन सबमें यदि मैं यह कहूं कि मेवाती संस्कृति ज्यादा समृद्ध है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। हालांकि इसका डोक्यूमेंटेशन नहीं हो पाया।

एक कहावत है मेवात में कि मेवात मेवा है और यदि बिगड़ जाए तो जान का लेवा है। दोनों चीजें हैं – नरम भी है और सख्त भी है। मेवात शराफत से जीना चाहता है और अगर उसको लगा कि उसकी आन-बान और शान पर खतरा है तो वह बहादुर भी है।

शिवाजी को जो लोग निकाल कर लाए, वे लोग मेव थे। क्योंकि जो बड़े टोकरे थे, उनमें मेव विंध्याचल की पहाड़ियों पर ढुलाई का काम करते थे। खासकर नमक इधर-उधर ले जाने का। बड़े टोकरे होते थे, जिनको बांस पर लटकाकर कंधों पर रखकर वे पहाड़ चढ़ते थे और दूसरी तरफ जाते थे। लिखा यह गया है इतिहासकारों द्वारा कि शिवाजी को मेवों के टोकरों में छुपा कर लाया गया। लेकिन बाद में उसे मेव के स्थान पर मेवा बना दिया। कि वे बीमार थे, मेवा बांटी, यह एक भ्रांति हो गई।

खैर मैं मेवात पर ही आता हूं। गंगा-जमुनी संस्कृति का यदि कहीं संगम है तो वह मेवात है। मेवात एक ऐसा क्षेत्र है, जिसकी सीमाएं कभी एक जैसी नहीं रही। आज के मेवात की मैं बात करूं तो मैंने छह लाइनें लिखी थी-

दिल्ली सूं बेराठ तक, मथुरा पश्चिम रात
सदा सदा सूं ही रही अलड़-अबीड़ी बात

अलड़-बिड़ी बात पीर ये सदा सुभीता
दिल्ली कांधे ढ़ाल कईं तो जुग भी बीता

कहे मेव यूं सोच मोहे जग सू प्यारी
जात धर्म सू दूर सदा मेवात हमारी

यह मेवात की आज की बाऊंड्री भी है और एक करैक्टर भी है। मेवात की सीमाएं बदलती रही हैं। एक समय मेवात स्टेट भी था। एक वक्त ऐसा था जब दिल्ली की दक्षिणी सीमा से लेकर और गुजरात की उत्तरी सीमा तक का पूरा क्षेत्र ही मेवात कहलाता था। बाद में उसके तीन हिस्से मेवाड़, मारवाड़ और मेवात हो गए।

मेवाड़ का पुराना नाम मेधपाठ है यानी मेध प्रदेश। हम यह मानते हैं कि जो मेध लोग थे, वो ही आज के मेव हैं। यह बात मेवाड़ के इतिहासकारों ने भी लिखी है। इसी मेध को संस्कृत में मद्र कहा है। मद्रों की उपस्थिति हम महाभारत में भी पाते हैं। महाभारत के टाइम में मेवात मत्स्य प्रदेश, पूर्व में सूरसैन और दक्षिण में विराटनगर में था। इसी में मेध या मेव लोग आबाद थे। वैसे 2000ईसा पूर्व मेव कौम यूनान में भी बसती थी। वह अलग इतिहास है और काफी लंबा है, यदि मैं उसकी गहराई में जाऊंगा तो काफी टाइम लग जाएगा। लेकिन मेवात एक ऐसा क्षेत्र रहा है, जो हमेशा ही दिल्ली की सुरक्षा के लिए और इस देश की आन-बान के लिए लड़ता-भिड़ता रहा है।

ऐसी तीन घटनाएं हैं, जब मेव मुसलमान हो गए। सबसे पहले 712 में मोहम्मद बिन कासिम जब सिंध में आए तो उनका पहला मुकाबला मेधों से ही हुआ था। मेध असल में वे मेव थे और अरबों ने इसलिए उसे मेद लिखा। अरबी का शब्द है – मोन्निस जिसे कहते हैं। अगर कुछ लोग उर्दू या अरबी जानने वाले हों तो मीन और वाव जहां एक साथ आ जाते हैं तो वहां वाव दाल में बदल जाता है। इसलिए उन्होंने मेव को मेद ही लिखा है। सबसे पहले टकराव उनसे हुआ। बाद में दाहिर से हुआ और कासिम के समय में सबसे पहला धर्मांतरण हुआ। उसके बाद 1041 से 1058 के बीच सैयद सादार मसूद गाजी के समय में मेवों का धर्मांतरण हुआ।

हम मानते हैं मेवात के इस समय तीन हिस्से हैं। सही शब्द फारसी का है, जहां पानी बहता हो। यह क्षेत्र बाढ़ ग्रस्त होता था, इसलिए इसे आबरेज कहा जाता था। तीसरा हिस्सा अरावली की छोटी पहाड़ी के पूर्व का हिस्सा, जिसे हम भयाना कहते हैं। लेकिन एक वक्त ऐसा भी था, जब ब्रज को मेवात का चौथा हिस्सा माना जाता था। जिसको ब्रज मेवात कहा जाता था। ब्रज के बहुत सारे शायर मेवात में हुए हैं। मेवाती शायरी को यदि आप पढ़ें तो आप अंदाजा नहीं लगा पाएंगे कि यह ब्रज में लिखा है या मेवाती में लिखा है। क्योंकि ब्रज मेवात का हिस्सा था तो पूर्वी मेवाती पर ब्रज का पूरा प्रभाव आज भी नजर आता है। इसी प्रकार दक्षिणी मेवात पर राजस्थानी का प्रभाव नजर आता है। अरावल के पश्चिम का हिस्सा, जिसे हम मेवात की तंवर पालें कहते हैं।

तीसरा 1192 में जब मोहम्मद गौरी का हमला हुआ, उससे तीन दिन पहले ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती अजमेर में आ गए थे, उसके बाद उन्होंने दिल्ली से अजमेर तक का पैदल सफर किया। कहते हैं कि उस पैदल यात्रा में सवा लाख लोग मुसलमान बने। मेवों की जो पांच जादू पालें मानी जाती हैं। उस वक्त मुसलमान बनी। आखिरी धर्मांतरण फिरोजशाह तुगलक के समय में हुआ। उस समय मेवात में गांव था खानजादा, जहां पर हसन खां मेवाती नाम का राजा होता था। उनका धर्मांतरण आखिरी में हुआ।

 लेकिन मुसलमान होने के बाद भी मेवों ने ना तो अपनी परंपराएं छोड़ी और ना अपना करैक्टर छोड़ा। मुसलमान होने के बाद वे लोग बलबन से लड़े, क्योंकि बलबन विदेशी था। दिल्ली पर उसका शासन था। दिल्ली पर कुतबुद्दीन ऐबक से लेकर मुगलों तक मेव लगातार दिल्ली के खिलाफ संघर्ष करते रहे। कुतबुद्दीन को भी एक बार अजमेर के किले में घेर लिया था। किला बंद कर लिया। जब गजनी से फौजें उसकी मदद के लिए पहुंची तब ही कुतबुद्दीन किले से बाहर आ पाए। वरना तो सल्तनत का शायद वहीं खात्मा हो जाता। उसके बाद अलाउद्दीन खिलजी ने जब चित्तौड़ पर हमला किया। तब भी मेवातियों ने उन्हें रोकने की कोशिश की। अलाउद्दीन खिलजी के पास जितने संसाधन थे, सेनाएं और हथियार थे, उनको रोकने में असफल हुई। बाबर से भी हसन खां मेवाती ने एक बड़ा संघर्ष किया। बाबर को बुलाने में कहा जाता है कि इब्राहिम लोदी के एक भाई महमूद लोदी और राणा सांगा दोनों ही उस साजिश में शामिल थे, जिन्होंने बाबर को दिल्ली पर हमले के लिए उकसाया। शर्त यह रखी गई थी कि दिल्ली का शासन महमूद गजनवी को दिया जाएगा। महाराणा सांगा का मेवात से आगरा तक का स्टेट, उन्हें दिया जाएगा। बाबर ने जब यहां रहने का निश्चय कर लिया तो फिर राणा सांगा और महमूद लोदी दोनों ने उनका विरोध किया। दिल्ली से आगरा, जहां तक महरौली की कुतुबमीनार है, वहां तक मेवात था। अलाउद्दीन खिलजी की जहां राजधानी थी, वह कल्लू खेड़ी नामक मेवों का गांव था। बाद में उन्होंने अपनी राजधानी वहां से हटा कर बनाई। बाद में वह किलोपड़ी के नाम से मशहूर हुआ।

दिल्ली और मेवाड़ के बीच में मेवात की रियासत थी। जिससे उस वक्त के राजा हसन खां मेवाती थे। दोनों ने उन्हें अपनी तरफ मिलाने की कोशिश की। हसन खां मेवाती पानीपत की लड़ाई में इब्राहिम लोदी के साथ थे। क्योंकि वे इब्राहिम लोदी के मौसेरे भाई थे और दिल्ली के कोतवाल या एडमिस्ट्रिेटर थे। वे बाबर की युद्ध शैली, उसका जज्बा और तोपें भी देख चुके थे। लेकिन उनका बेटा उस युद्ध में बाबर ने कैद कर लिया था। उस बेटे को छुड़ाने उसने अपने हिन्दु मंत्री कर्मचंद की ड्यूटी लगाई। बाबर ने धर्म का वास्ता दिया कि हम दोनों मुसलमान भाई हैं। इसलिए उसे मुसलमान का साथ देना चाहिए, काफिर का साथ  नहीं देना चाहिए। तो हसन खां मेवाती ने बहुत माकूल जवाब दिया। उन्होंने कहा कि आप भी मुसलमान हैं और मैं भी मुसलमान हूं, यह मैं मानता हूं। इस नाते से हम भाई हैं। लेकिन आप आक्रांता है। मेरे देश पर हमला किया है। राणा सांगा मेरे खूनी भाई हैं, मेरे वतन भाई हैं। इसलिए मेरा धर्म आज यह कहता है। मेरा दिल आज यह कहता है कि मैं आक्रांता का साथ नहीं देकर अपने खूनी भाई व वतन भाई का साथ दूं।

बाबर ने सोचा कि इसके बेटे को रिहा करने पर शायद यह मान जाए। लेकिन जैसे दिन में यह समाचार मिला कि उनके बेटे को छोड़ दिया गया है, तो वे राणा सांगा से मिले और खानवां के युद्ध में शहीद हुए। उसके बाद मुगल सत्ता जाने के बाद अंग्रेज आए।

1857 की क्रांति में मेवात का जो हिस्सा गुड़गांव में था, उसकी आबादी 110400 थी। लेकिन 10400 की आबादी, जिसके पास गुड़गांव की 30 प्रतिशत भूमि थी, उस क्षेत्र में सात युद्ध अंग्रेजों के खिलाफ लड़े। एक तरफ तोपें और व्यवस्थित सेना थी, दूसरी तरफ तलवारें थीं, तोड़े और जेलियां थी, लेकिन उनका जज्बा और वतनपरस्ती का इससे बड़ा सबूत क्या हो सकता है कि उस वक्त के वायसराय लॉर्ड केनिंग ने कहा कि मेवातियों ने उस समय के मुसलमान राजाओं को तो तंग किया ही था, लेकिन अंग्रेजों को तो कुछ ज्यादा ही तंग किया। ब्रिगेडियर जरनल सावर्स की मेवातियों को कुचल डालने की ड्यूटी लगाई गई थी, उन्होंने अपनी डायरी में लिखा कि जब से मैं इस जिले में आया हूं, घुड़सवार मेवातियों के हमलों का डर हमेशा बना रहता है। हमें अपनी जान बचाने के लाले पड़े हुए हैं। हम माल को तो कैसे बचाएं।

मेवातियों ने हमेशा चाहे जब वे हिन्दू थे और बाद में मुसलमान थे, उनके करैक्टर में जो वतनपरस्ती और देशभक्ति का जज्बा और भाईचारा था, उन्होंने वह कभी नहीं छोड़ा। उस समय से आज भी वह जज्बा बना हुआ है। अगर कोई देखना चाहे तो मैं उन्हें मेवात में आमंत्रित करता हूं। मेवात की संस्कृति का गहराई से अध्ययन करने पर पता चलता है कि वह जज्बा आज भी किसी ना किसी रूप में कायम है।

मेवाती संस्कृति में सिर्फ मेवाती परंपराएं नहीं हैं, बल्कि हिन्दू मुस्लिम दोनों परंपराओं का एक संगम है। भात नौतना, कूआं पूजन, चाक पूजन आदि कोई इस्लामिक परंपराएं नहीं हैं, बल्कि ये वे परंपराएं हैं, जो उनके खून में रमी हुई हैं। समाज की जड़ों और परंपराओं से वे आज भी जुड़े हुए हैं। वे परंपराएं आज भी जिंदा हैं, जैसे इंडोनेशिया में उनकी पुरानी परंपराएं जिंदा हैं। जिस तरह से बरात को रिसीव करते हैं, हमारे यहां खेत का नेग कहते हैं। वह परंपरा भी इस्लामी परंपरा नहीं है।

आज भी वो किसी बड़े से बड़े मौलवी को वे कह देते हैं कि आप अलग हो, यह मामला हम सुलझाएंगे। सामाजिक संगठन की मजबूती और उनकी परंपराओं की मजबूती के कारण वे उन्हें नहीं छोडऩा चाहते। यही कारण है कि वे बड़ी से बड़ी समस्याओं को अपने आप अच्छे से सुलझा भी लेते हैं।

मेवाती साहित्य अपनी तरह का अलग साहित्य है। मेवाती साहित्य का जब हम अध्ययन करते हैं तो पाएंगे कि मेवाती पश्चिमी हिन्दी से निकली है। पश्चिमी हिन्दी से ब्रज और राजस्थानी निकली और राजस्थानी से मेवाती, मारवाड़ी, मालवी और जयपुरी चार भाषाएं निकली और फिर मेवाती से अहीरवाटी और गुजरी निकली। इस तरह से अहीरवाटी व गुजरी बोली पर आप मेवाती का प्रभाव महसूस करेंगे। लेकिन पूर्वी मेवाती पर ब्रज का प्रभाव है और दक्षिणी मेवाती पर राजस्थानी का प्रभाव भी साफ नजर आता है। मेवाती लोक साहित्य भी मेवाती परंपराओं की तरह हिन्दू-मुस्लिम रिवाजों का एक संगम है। आज भी मेवात का कवि अपने इष्ट देव, अपने खुदा व ईश्वर का नाम लेकर शुरू करता है। मेवाती शायर भी करते हैं। मैं कुछ उदाहरण देता हूं।

हसन खां मेवाती की कथा एक नरसिंह मेव नाम के शायर ने लिखी थी। वह कथा खानवां के युद्ध के कोई 70 साल बाद लिखी गई। उस वक्त वो हिस्सा ब्रज-मेवाती कहलाता था। वह किस्सा ब्रज मेवाती में है। अब वो अपनी बात को किस तरह शुरू करते हैं-

नारायण से विनती करो, हाथ जोड़ मन आखिर धरो
ओविल सुर एक खुदाई, पैगम्बर के लाख उपाई।

पहले उन्होंने नारायण को याद किया। ईश्वर को याद किया। फिर पैगम्बर को याद किया।

बढ़ा फिर ध्वजा मेरी, जिन गुण कण सब हेरी

यह परंपरा रही है मेवात की। मेवात के सांगी व ढ़ोलकिया जब भी शुरू करते हैं

मेवात का एक अल्लाबक्श सांगी था। वह तो बाकायदा गणेश जी को याद करता था।

मनाऊं मैं तो गौरी के नंद गणेश
माता जाकी पार्वती पिता हैं महेश
मनाऊं मैं तो गौरी के नंद गणेश

इस तरह मेवात के आखेड़ा गांव में महाकवि सादल्ला हुए हैं। सादल्ला ने महाभारत की कथा को मेवाती में लिखा है। उस कथा के पांच हिस्से हैं, जिसमें तकरीबन 18 सौ या साढ़े 18 सौ के करीब दोहे हैं। इस कथा का मैंने संकलन किया है। सारे दोहे नहीं मिलते। क्योंकि 1947 में जो उन्होंने लिखा था। उनकी हाथ से लिखी पोथी थी। उस वक्त जब यह फैसला हुआ कि जब हम पाकिस्तान जा रहे हैं तो उन्होंने वह पोथी कूएं में डाल दी। वह पोथी बक्से में बंद करके कूएं में डाल दी गई और कुआं बंद कर दिया गया। उससे वह पोथी नष्ट हो गई। जितनी कंठस्थ परंपराओं में चल रही थी, उसको मैंने संकलित करने की कोशिश की। लगभग साढ़े आठ सौ दोहे अब तक मुझे मिल चुके हैं। मैंने सादल्ला की सारी कथा को संकलित किया है। सादल्ला जब अपनी कथा शुरू करते हैं, देखिए वह किस तरह से-

वही सरस्वती देव, वही घट हृदय खोले
वही बतावै ज्ञान, वही मन भीतर बोले
तोला वही अतुल पाप और पुण्य को तोले
नर्क उई ही दे, स्वर्ग भी वोही खोले
सच्चे हृदय ध्यान सू सदा जपो भगवान
सादल्ला पे दया हुई, वाई ने दियो ज्ञान

यहां से वे महाभारत की कथा शुरू करते हैं। कहीं उन्होंने इस्लाम की बात नहीं की, कहीं उन्होंने बिस्मिल्ला की बात नहीं की, जिसे इस्लाम में सुन्नत माना जाता है। किसी काम को शुरू करने से पहले बिस्मिल्ला पढऩी चाहिए। जिस रिदम में उन्होंने महाभारत की कथा शुरू की, उसी में उसकी शुरूआत भी की।

मेवाती समाज एक ऐसा समाज है। जहां बात बात में दोहे, बात बात में कहावतें और लोकोक्तियां कही जाती हैं। अक्सर समाज की पंचायतों में बहुत सारे लोगों द्वारा दोहों की मिसालें दी जाती हैं। वह दोहे भी इसी तरह होते हैं। तुलसीदास की पत्नी प्रेम की कथा पर मेवाती शायर कैसे कहता है, बानगी देखिए-

जितनो हेत हराम सू, उतनो हरफ सू होए
चलो जहां बैकुंठ तुलसी पल्ला पकड़ सके ना कोए।

लोक साहित्य मेवाती का मर्म या दिल है। यह लोक साहित्य आज भी मेवाती जीवन में नजर आ जाएगा। हालांकि मेवात में नई पीढ़ी फिल्मों व इंटरनेट से जुड़ गई है। लेकिन जो पुराना मेवाती है, वह सामाजिक समारोहों में मिरासी गाते हैं। पुराने लोग सादल्ला द्वारा लिखी गई महाभारत की कथा को सुनना पसंद करते हैं।

हालांकि मेवाती लोक साहित्य की दो विशेषताएं हैं। मेवाती बात या कथा तथा मेवाती दोहा। मेवाती बात या कथा एक साथ गद्य व पद्य में होती है। पहले दोहा कहा, फिर बात आगे बढ़ी। परिस्थिति के हिसाब से कथा आगे बढ़ती जाती है। मेवाती लोक साहित्य में जितनी कथाएं लिखी गई, अब उन कथाओं में भी देखिए। एक कथा है-चंद्रावल गुजरी की बात, जो कृष्ण लीला पर आधारित है। वहां शायर मुसलमान है। 36 करोड़ देवताओं को भी स्मरण करता है। कृष्ण लीलाओं का चित्रण करते हुए कथा को आगे बढ़ाता है। इसी तरह गौरा का छल है, जिसमें महादेव की लीला दिखाई गई है। राजा बासुक की बात है। राज बासुक शर्पराज कहे जाते हैं। उनकी लीलाएं दिखाई गई है। इसी तरह महाभारत में कितनी ही मर्मस्पर्शी प्रसंग हैं कि पढ़ने वाला सोचने पर मजबूर हो जाता है कि शायर की नजरें कितनी गहराई तक इस कथा पर गई हैं। दूसरी ओर मेवाती लोक साहित्य में जयपुर जोधा की बात, हाजी की बात इस्लामी मिथ पर आधारित हैं, लेकिन मेवाती लोग पहले महाभारत की कथा को सुनना पसंद करते हैं।

जब हम पीछे देखते हैं तो अपनी जड़ों की तरफ देखते हैं। धर्म मजहब आस्था की बाते हैं, जिसको जो पसंद है, वह उसको माने।  हमारी परंपराएं, हमारी विरासतें, हमारे चारित्रिक गुण, हमारे खून व हमारा डीएनए मिलता है। मैंने जितना मेवाती संस्कृति का अध्ययन किया है, मुझे लगा है बहुत कीमती भाग उस संस्कृति का खत्म हो चुका है। लेकिन हम अब भी यही सोचते हैं। एक मेवाती शायर ने बहुत अच्छा कहा है-

कबीरा बाड़ी उजड़ गई, गयो बाळधो खाय।
अब भी कुछ सार कर, जो कुछ पल्ले पड़ जाय।

आज की पीढ़ी जो उस संस्कृति से कट चुकी है। बेशक कुछ यूनिवर्सिटी के लोग रिसर्च कर रहे हैं। मेरे पास बहुत से रिसर्च स्कोलर आते हैं, लेकिन डिग्री लेना एकमात्र मकसद होता है।

प्रदीप कासनी-आज मेवाती समाज में जिस तरह की चुनौतियां हैं। खासतौर पर एक तो जो साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण हो रहा है। आप तो कह रहे हैं कि मेव लोग गहरी परंपरा रखते हैं। उनका ऐतिहासिक बोध गहराई तक जाता है। माईथोलोजिकल डैप्थ भी है और एक क्रियेटिव स्पीरिट है, जोकि फोक के क्षेत्र में एक्सप्रैशन पाती है। उसमें रिचनैस है। इस सब दौलत को लिए हुए आज मेवाती को घेरा जाता है कईं बार। उसको मुसलमान बताया जाता है। उसकी वल्ररेबिलिटी बढ़ा दी गई है। वह खतरा महसूस करता है। मेरे मित्र है मेवों में। वहां तैनाती के दिनों में भी मैं वहां एक दो घरों में गया। भीतरी तौर पर डर उनका निकल कर आता है कि हमें लग रहा है कि कुछ बुरा होने वाला है। कल्चर या लिटरेरी प्रोडक्शन आज की स्थिति को किस तरह से ले रही हैं।

सिद्दीक अहमद मेव- आज की जो स्थिति है। या 90-100 सालों से जो स्थिति बनी है। हमारे यहां ये कहा जाता था कि जाट और मेव दोनों कौमें साथ-साथ चली हैं। आज भी 28-30 गोत हमारे जाटों, गुजरों व राजपूतों से मिलते हैं। मीणें हमारे मेवों में भी हैं। मेवाती समाज 12 पाल, जिन्हें आप खाप कहते हैं और 52 गोतों पर आधारित है। पालों में मीणे भी शामिल हैं। सामाजिक ताना-बाना आज काम कर रहा है। लेकिन पिछले 90 सालों में आर्य समाज ने जाटों को और तबलीग ने मेवों को प्रभावित किया। आर्य समाज ने जाटों का हिन्दू धर्म से परिचय कराया और तबलीग ने मेवों को मुस्लिम धर्म से परिचित कराया। आज 92 साल तबलीग को काम करते हुए हो गए। लेकिन आज वो परंपराएं, कोशिश भी हुई। पहनावा जरूर बदला। घाघरी और चोली की जगह सलवार कमीज आ गई। चुन्नी की जगह दुपट्टा आ गया। वह अलग चीज है। लेकिन जो सोच और जो करैक्टर था, उसमें आज भी कोई बदलाव नहीं आया है।

47 में जब देश का बंटवारा हुआ। उस समय के पंजाब के डिस्ट्रिक्ट गुड़गांव के मेवात में शांति थी। मैंने जो स्वतंत्रता सेनानी थे, या जो आज भी जिंद�� थे। एक तो मौलाना पिछले दो महीने हुए उनका इंतकाल हुआ। मैं उनसे बातचीत करता रहता था। मैंने कहा कि कैसे आप शांत रह गए। उन्होंने बताया था कि कोशिश तो यहां भी हुई थी। लेकिन हमारी सोच ही नहीं रही कि धर्म के नाम पर भी लड़ा जाता है। हम जब सुनते थे कि बारदौली व कलकत्ता में हिन्दू-मुस्लिम लड़ रहे हैं। पंजाब में हिन्दू-सिक्ख लड़ रहे हैं तो हम हंसते थे कि कैसे लोग हैं जो धर्म के नाम पर लड़ते हैं। धर्म तो भाईचारा सिखाता है। लेकिन अकबरपुर और भरतपुर रियासत के जो मेव थे, वहां मिलीटरी उनका कत्ल कर रही थी। कत्लेआम हो रहा था। वे यहां आए। लोगों ने सोचा कि अब क्या किया जाए। कईं जाटों का भी बहुत अच्छा हाथ था।

लेकिन पहली कोशिश मेवों की तरफ से फैसला यह हुआ कि हम हिन्दोस्तान नहीं छोड़ेंगे। हमें पाकिस्तान किसी भी हाल में स्वीकार नहीं है। कोशिश हुई। वे गांधी जी मिले। गांधी जी को बहुत अफसोस हुआ। चौधरी अब्दुल हईद उनसे मिले। गांधी जी ने उन्हें दो दिन बाद आने को कहा। जब उन्हें बताया गया कि मथुरा और गुड़गांव जिला के कांग्रेसी भी उन्हें पाकिस्तान भेजना चाहते हैं तो गांधी जी को बड़ा दुख हुआ। तीसरे दिन जब वे ये गए तो वो नहीं आए। गांधी जी ने कहा कि बुलाने पर भी जब वे नहीं आए तो इसका मतलब साफ है कि आप सही हो, वे गलत हैं। मैं कोशिश करूंगा। मौलाना आजाद और ये सब लोग नेहरू से मिले। लेकिन पंजाब के मुख्यमंत्री पंडित गोपीचंद भार्गव किसी भी तरह से सहमत नहीं हो पा रहे थे। 20 सितंबर को एक डेलीगेशन बिड़ला हाउस में गांधी जी से मिला, जिसमें 60-70 मेव शामिल थे। गांधी जी के बोलने से पहले उन्होंने कहा कि हम हिन्दोस्तान व मेवात नहीं छोड़ेंगे, हम यहीं मर जाएंगे। हमें मार दो, दफना दो। लेकिन हम हिन्दोस्तान नहीं छोड़ेंगे। कहते हैं तब गांधीजी की आंखों में आंसू आ गए। गांधी जी ने तब यह कहा था कि गांधी जी भी उन लोगों के साथ मेवात में मरना पसंद करेगा, जो अपनी मातृभूमि में मरना पसंद करते हैं। उसके बाद 19 दिसंबर, 1947 को गांधी जी घासेड़ा गांव में आए और उन्होंने कहा कि मेवात हिन्दोस्तान की रीढ़ की हड्डी है। उनको जबरदस्ती उनके घरों से नहीं निकाला जा सकता। उसके बाद वह तहरीक शुरू हुई। कुछ लोग तो कहते हैं कि गांधी जी को जो गोली मारी गई, वह सिर्फ इसलिए मारी गई कि उन्होंने दिल्ली के करीब इतनी बड़ी मुस्लिम जनसंख्या को यहां रहने का निर्णय लिया। जबकि लोग नहीं चाहते थे कि इतनी बड़ी जनसंख्या दिल्ली के करीब रहे।

उसमें सोनल गांव के चौधरी राधे लाल जाट थे, एक बहीन के थे, इन लोगों ने सोनल गांव में 36 बिरादरी की एक बड़ी पंचायत की, जिसमें यह तय किया गया कि कोई पाकिस्तान नहीं जाएगा। कोई किसी को पाकिस्तानी नहीं कहेगा। सब लोग भाईयों की तरह एक रहेंगे और अगर बाहर के लोग इस तरफ हमला करेंगे, जैसा कि हो रहा था, यूपी की तरफ से हमले हो रहे थे। तो सारे भाई उसका मिलकर मुकाबला करेंगे। यह बड़ा काम करने वाले राधे लाल को बहुत इज्जत के साथ याद किया जाता है। उनके साथ पूरी टीम थी।

जहां तक आज का संदर्भ है, बहुत सारी अमूल्य धरोहर जोकि हमारी संस्कृति की थी, खत्म हो गई। क्योंकि पाकिस्तान में कुछ लोग ऐसे हैं, जिन्होंने डोक्यूमेंटेशन किया। हम लोग कोशिश कर रहे हैं कि उनके काम को भी देखा-समझा जाए।

अरुण कैहरबा- बहुत सी चर्चाएं हैं हरियाणा के बारे में। खाप पंचायतों, कन्या भ्रण हत्याओं और ऑनर कीलिंग के लिए हरियाणा जाना जाता है। हरियाणा जातिगत भेदभाव, हिंसा के लिए जाना जाता है। यहां हरसौला, दुलीना, मिर्चपुर जैसी घटनाएं हुई है। इनकी आलोचना जरूरी है। साथ ही साथ हरियाणा की संस्कृति में सकारात्मक पहलू हैं, उन्हें उभारे जाने की जरूरत है ताकि विकल्प निर्मित हो सके।

प्रदीप कासनी- हरियाणा की संस्कृति पर जब बात करते हैं तो सबसे बड़ा खतरा इसी ट्रैप का होता है कि हम ज्यादातर माईथोलोजिक अतीत में चले जाते हैं। उसकी स्मृतियां गिनाते हैं, लेकिन उसके ट्रैप में भी फंस जाते हैं।

जब हम कल्चर बनाते हैं तो यह कल्चर हमें भी बना रही होती है। इस कल्चर में से जब हम बनते हैं तो बेहतर होते हैं। मोडरनाइज होते हैं। सेक्यूलर होते हैं और समाज के प्रेमी होते हैं ना कि उसे बांटने वाले और बेहतर इंसान भी होते हैं। इन्सानियत की वुक्कत को समझने वाले और उसके प्रति प्रतिबद्ध होकर काम करने वाले। यह चीजें मौजूद हैं। इन चीजों को हम वर्तमान कल्चरल प्रैक्टिस में कुरेद कर निकाल पाते हैं। कितना उन्हें अंडरलाईन कर पाते हैं। कितना उन्हें हाईलाईट कर पाते हैं। यह महत्वपूर्ण बात है एक कल्चरल एक्टिविस्ट के लिए।

मेवात के सिलसिले में मेवात में मुझे लंबी दाढ़ी वाले मिले और पूछा- कौन हो? मैंने कहा – मैं हिंदू हूं। अरे भई हो कौन? मैंने कहा – हिंदू। फिर बोले – हो कौन। मैंने कहा – जाट। फिर वो जोर-जोर से हंसे। वहां जो उन्होंने बात कही थी, वहीं से सिक्यूलरिज्म का पाठ मिला था।

जाटन का कहां हिंदू और मेवन का कहां मुसलमान।

मेवात के सिलसिले में, जाटों, गुजरों व राजपूतों के सिलसिले में एक बात महत्वपूर्ण है। 1857, 58 और 59 में भी जो लोग फांसी टूटे थे, उन लोगों की हमारे पास फेहरिस्तें बनीं। उनको आप एनेलाइज करें तो देखेंगे कि ज्यादातर लोग ऊंचे दर्जे के नहीं हैं। वे लैंडलोर्ड भी नहीं हैं। ज्यादातर शिल्पी वर्ग से हैं। लुहार, तेली व नाई आदि हैं। इस तरह जो लोग नाई, तेली आदि हैं, ज्यादातर वे लोग फांसी टूटने वालों में थे। मुगलों के समय भी एक खानजादे होते थे। जो राजनैतिक सौदेबाजी करते रहे हैं। बाकी लोग ज्यादातर खेती करने वाले या हैंड टू माउथ रहे हैं। और सर्विस सेक्टर में मेव गए मुगल पीरियड में। डॉ. सूरजभान भारद्वाज की बहुत महत्वपूर्ण किताब आई है। उसमें डाक मेवडे का जिक्र है। डाक का काम। शाही संदेश इधर से उधर पहुंचाने का काम मेव लोग करते रहे हैं।

फोकस करने की बात यह है कि जो मेहनत करने वाला तबका है। जो प्रोड्यूस करता है। उसकी जिंदगी के हालात क्या हैं। उसे कलाकार, लेखक व फिल्मकार के नाते हम कैसे देख पाते हैं। उसे हम कैसे रिप्रेजेंट करते हैं। यह महत्वपूर्ण बात है। जो कईं बार सांग, रागनी में लखमीचंद व मांगे राम का सांग हुआ, उसमें कभी भी नहीं आती। जबकि इन विधाओं का बेहतर इस्तेमाल हो सकता है।

एक्सिलेंस के प्रोडक्टस को ही कल्चर नहीं कहते। जो अतीत में रचा गया-बिल्डिंग, मूर्ति व कला रचनाएं। इनका महत्व है। लेकिन यह कल्चर नहीं है। कल्चरल एक्टिविटी के तौर पर या कल्चरल व आइडिओलोजिकल स्ट्रगल के तौर पर उस तरफ बराबर और बार-बार ध्यान लाए जाने की जरूरत है। हमारी कल्चर में ज्यादातर हिस्टोरीकल मेमोरी मौजूद रहती है।

आइडेंटिटी पोलिटिक्स में आज जैसा माहौल बनाया जाता है। उसमें किसी के बारे में कुछ भी कहेंगे तो लोग बहुत ज्यादा तुनक मिजाज, बहुत ज्यादा पिलपिली संवेदनाओं वाले लोग तैयार करके खड़े किए हुए हैं। कल्चर अपना काम ना करे, इसके लिए फासीवाद की तरफ से तैयार किए गए ओटड़े हैं। इनको कैसे ढ़हाया जाए कल्चर एक्टीविटी के जरिये। राजनैतिक गतिविधि के तौर पर कल्चर, या उप राजनैतिक गतिविधि हमेशा ध्यान में रखनी होगी। उसके बगैर कल्चर समझ में नहीं आएगी और हम बार-बार वहीं जाते रहेंगे। जहां से उसे निकाल कर लाने की जरूरत है। इसमें जितना क्रिएटिव होने की जरूरत है, उतना ही थिंकिंग की बात भी है। आर्टिक्यूलेशन की बात भी है। हरियाणा की पोजिटिविटी भी इसी में है और नेगिटिविटी भी इसी में है कि हम चीजों को आर्टीक्यूलेट नहीं कर पाते हैं। समझते हैं कईं बार कह नहीं पाते हैं। आर्टीक्यूलेशन के भी मायने दोनों-अभिव्यक्ति भी और दूसरे से जुडऩा भी। जैसे डब्बों के साथ इंजन जुड़ जाता है। दोनों आर्टीक्यूलेशन बहुत जरूरी हैं।

यह काम कुछ इदारों में हो भी रहा है और यह सरकार से दूर के इदारे हैं। महत्वपूर्ण काम है। थोड़े लोग बैठते हैं। चर्चा करते हैं। अपने कन्फ्यूजन को जाहिर करते हैं और बातचीत से क्लेरिटी लाने की कोशिश करते हैं। यह इदारे जगह-जगह बनें और बड़े स्केल पर भी ओपरेट हों और एक दूसरे से व्यक्तिगत स्तर पर भी लगाव का माहौल बने तो कल्चर में काम करने का मौका मिलता है। वरना अवसर नहीं होता है। आप कुछ भी बोलेंगे तो अटैक बहुत जल्दी आपके लिए तैयार होता है। वैसे भी मिनीमम सुविधा जरूरी होती है। जैसे महिलाओं के लिए लिखा था कि कमरा तो अपना होना चाहिए वरना आप उपन्यास कैसे लिख पाएंगे। वरजिनिया वुल्फ का। अपना कमरा बनाना हम सबकी जरूरत है। वह कमरा यदि आपको खुले में बनाने का मौका नहीं मिल रहा तो चोरी छिपे बनाया जाए। वह आपको डेमोक्रेटिव माहौल में आपको मौका नहीं मिल रहा तो आप सबवर्सिव मोड में जाकर काम करें। सोचें जरूर। आपको जिंदा रहना है और आदमी के रूप में जिंदा रहना है। आदमियत के ठाठ के साथ जिंदा रहना है। उस पर लगातार हमला हो रहा है तो फिर यह सोए रहने का समय नहीं है। यह ओर्डर के लिए हरियाणा का अवाम मौका भी देता है। सपोर्ट भी करता है। बशर्ते हम उसको जान पाएं कि किस तरह के रिसोर्सिस हैं। हमें वह रिसोर्सिस लेने व मांगने का तरीका आता हो।

अविनाश सैनी- एक तो चीज यह लगती है, जब संस्कृति की बात आती है तो जो प्रभावशाली तबका है। उसी को पूरे गांव समाज की पूरे प्रदेश की संस्कृति मान लिया जाता है। हरियाणा 1966 में बना जबकि 1947 में एक बहुत बड़ा तबका यहां आ चुका था 20 साल पहले। उसकी जो संस्कृति व सांस्कृतिक मूल्य हैं। उसे हरियाणा की संस्कृति का हिस्सा नहीं माना जाता। एक बहुत बड़ा तबका है प्रवासी मजदूरों का। हमारे विकास में हरियाणा को बनाने उनकी बहुत बड़ी भूमिका है।  मुस्लिम की बात आ गई है। दलित जो गांव में बड़ी संख्या में होते हैं, उनकी संस्कृति भी इस प्रदेश की संस्कृति नहीं है। इसे कैसे देखा जाए?

दूसरी चीज यह है कि जैसे 40 गांव छोड़ दिए, जहां कोई शादी नहीं हो सकती। और यहां बहुत से गांव ऐसे हैं, जहां गांव के गांव में शादियां होती हैं। एक इलाका ऐसा है जहां पर घूंघट ही घूंघट है। एक इलाका ऐसा है जहां पर घूंघट नहीं है। यहां पर ऐसी परंपराएं हैं कि मामा और बूआ के बच्चों में आपस में शादियां होती हैं और दूसरी तरफ मरने-मारने पर तैयार होते हैं। यह जो उलझने हैं उन्हें रैस्पोंड कीजिए।

पाजिटीव यह है कि हमारे जो गीत हैं, जितने भी शुभकाम होते हैं। पहला गीत यह है-

पांच पतासे पना का बिडला, ले सैयद पर जाईयो जी

प्रदीप कासनी- यही पोजिटिविटी है जिसकी ओर आपने संकेत किया है। कल्चरल स्टडी में हम इसे सिंक्रीटीज्म कहते हैं। यानी मिश्रित संस्कृति है। हिन्दू-मुस्लिम का भेद यहां था नहीं। पैदा किया गया है। उसका रसिस्टेंस भी उसके भीतर इनबिल्ट है। इथनोग्रेफी की बात सिद्दीक साहब कर रहे थे। इथनोग्रेफी की ही बात करें तो जाट यहां की डोमिनेंट कास्ट रही है। इसका कास्टिफिकेशन चल ही रहा है। उसमें 42-43 प्रतिशत मुसलमान हैं। जाट को तो छोटू राम के समय तक यह कहते थे कि जाट जाट होता है। चाहे वह मुसलमान बन जाए। जाट का हिन्दूकरण तो अब होने लगा है दो चार साल से। उसके साथ ही उसमें कास्ट की चेतना आई। कास्ट में भी डोमिनेंट कास्ट वाली आई है। यह किसका गांव है-जाटों का गाम। गांव में यदि नाई का घर है और नाई के पास आधा एकड़ जमीन है तो उसका भी गांव क्यों नहीं है। इसका जवाब तर्क के मैदान में तो कोई देता नहीं है। कानून की भाषा में तो सबका गांव है। लेकिन पापुलर कल्चर में उसके खांचे बना दिए जाते हैं। आइडेंटिटी के नाम पर जिनसे फायदा होता है, उसको उभारा गया। वो लोग फिर इस तरह की बातें करते हैं। फिर उसके रिएक्शन में पोलिटिक्स होती है। उससे माहौल खराब होता है और दंगे-फसाद का माहौल बन जाता है। इसकी काट भी जब लोगों को बोलने का मौका दिया जाए और हम अपनी कल्चरल इंटरवेन्शन के साथ जाएं। सही आइडोओलोजी के साथ जाएं तो लोग उसको सुनते हैं और तैयार हैं उन बातों के लिए। इसके लिए बार-बार लोगों के बीच में जाना पड़ेगा और दूसरी चीज यह है कि कल्चर को पोलिटिक्स हमेशा एक्सक्ल्यूसिव टर्म्स में डिफाइन करती है। यानी कि यह कल्चर है और खबरदार जो उसमें दूसरे दाखिल हुए तो। आप उसे ज्यादा से ज्यादा इंक्ल्यूसिव बनाएंगे तो उसका इलाज यही है। यदि हम सजग होंगे तो लेखनी में भी हम इसका इस्तेमाल करेंगे।

यशपाल शर्मा-पिछले एक-डेढ़ साल में मैंने कईं किताबें पढ़ी हैं। पंडित लख्मीचंद पर फिल्म बना रहा हूं तो उसके संदर्भ में जितनी भी चीजें पढऩे की कोशिश कर रहा हूं। एक बहुत बड़ी चीज मेरे सामने आई। संस्कृति में सच्चा किसको मानें। कोई ब्राह्मण लिखता है तो वह ब्राह्मण की चीजों को ज्यादा उजागर करता है। कोई जाट लिखता है तो वह जाटों की चीजों को ज्यादा उजागर करता है और दूसरों की नहीं। कोई दलित लिखता है तो वह सब चीजें छोड़ कर उन्हीं की चीजें लिखता है। तो असल चीज क्या हुई थी उस वक्त। यह समझ ही नहीं आ रहा है तो फिर कल्पना में जाना पड़ता है उसके लिए। इसके बारे में आपका क्या कहना है। जिसने ज्यादा किताबें लिख दी और इतिहास बना दिया। आज कल तो इतनी किताबें छपने लगी हैं। अपने-अपने पक्ष में तो इसका सही मापदंड क्या हो सकता है।

प्रदीप कासनी- हमारी सोसायटी अंग्रेजों के समय में और इससे भी पहले। इसे एग्रोलिटरेट  सोसायटी कहते हैं। इसमें लिखने-पढऩे का काम तो ब्राह्मण ही करते थे लेकिन उनमें ब्राह्मणवाद नहीं है ज्यादातर। जिसको हम ब्राह्मणवाद कहते हैं अपने आप को सुपीरियर मानना और केवल पैदाईश के आधार पर। केवल यह गलत बात है। वरना हमारे यहां लिखने-पढऩे वाला तबका एक रहा है-ब्राह्मण। लखमीचंद की लेखनी जबरदस्त चीज है। लेकिन कविता जिसे हम कहते हैं। कविता मोडर्न चीज है। लखमीचंद मोडर्न नहीं हैं। वे फोक ऐरिया में काम करने वाले जबरदस्त आदमी हैं। कवि नहीं हैं वे। कवि होंगे तो दो लाइनों में दिख जाएगी वह बात। लेकिन बहुत बड़े इंटरटेनर हैं। वह बहुत बड़ी परंपरा है आपके पास 15वीं-16वीं सदी से चली आ रही है। उस परंपरा के आप देदीप्यमान सितारे हैं। पंडित मांगे राम भी। इसमें फौजी मेहर सिंह सहित बहुत लोग रहे हैं।

यशपाल शर्मा- यदि दयाचंद माईना और धनपत को पढ़ो तो उसमें उनको इतना हाइलाइट नहीं किया गया। क्योंकि वे समकालीन हैं। मांगे राम और लखमीचंद को पढ़ो तो उसमें जाट मेहर सिंह को ज्यादा तरजीह नहीं दी गई। जाट मेहर सिंह की किताब में इनको ज्यादा तरजीह नहीं दी गई। मैं उनकी बात कर रहा था। यह जो पार्शियल्टी है, उसका मापदंड क्या है।

प्रदीप कासनी- मेहर सिंह बहुत लिमिटिड हैं। उसमें फौजी का नोस्टेल्जिया है। या बीवी से दूर हैं और अपनी रागनी गा रहे हैं, अपने बैरक में बैठे हुए। इससे बड़ा काम नहीं है। लेकिन लख्मीचंद जी की पोजिटिविटी कह लें या नेगिटिविटी कह लें। उनके जो थीम हैं या कथ्य सार है। माईथोलोजिकल भंडार है, जो हिंदुआइज है। जिसका फायदा डिवाइसिव फार्सिस ले रही हैं। वे उससे बाहर नहीं जाते और उसके प्रति क्रिटिकल नहीं हैं। वे उसका अनक��रिटिकल इस्तेमाल भर करते हैं। उस समय लोगों में जो कल्चरल डिपेंडेंसी थी या कल्चरल वैक्यूम था, उसमें वो बुरी तरह से एक्सेप्ट होते हैं। कितनी भी आप इंटरटेनमेंट की चीज ले आएं, वह कितनी भी भोथरी हो। कितनी भी रफ हो। उसे लोग हाथों हाथ लेते थे, क्योंकि लोगों में कल्चरल भूख जबरदस्त थी। आज उसको पूरा करने वाले बाजार के बहुत से साधन आ गए। आज आप बहुत बेहतर करेंगे और हो सकता है उसके लिए आपको मार्केट ना मिले।

सुरेन्द्र भारती- कौन सी संस्कृति को सहेजें? प्रवासी मजदूर आ रहे हैं हरियाणा में। पूरा सृजन तो वो ही कर रहे हैं। उनकी कल्चर उसमें है नहीं। खाप पंचायतों की कल्चर को संभालें या फिर जिनकी आवाज सुनाई नहीं दे रही, उनकी कल्चर को संभालें।

प्रदीप कासनी- जो हरियाणा में रहता है। चाहे वह दो दिन पहले यहां आया हो। वह हरियाणवी है। यह किसने बाड़ेबंदी कर रखी है। कौन ठेका लिए बैठा है कि यह कल्चर तो हरियाणवी कल्चर होगी और दूसरी कल्चर हरियाणवी कल्चर नहीं होगी। यह दृष्टिकोण आपसी बातचीत से ही तोड़ा जाएगा। आप जहां से भी हैं, वहीं से कहना शुरू करें। टूटती जाएंगी चीजें।

संस्कृति सरकारी संरक्षण का काम नहीं है। संस्कृति इंडिपेंडेंट इनिशिएटिव का काम है। वह आप लेते रहें। मेरे घर में मेरी बेटी को नहीं पता कि मैं जाट हूं। क्योंकि उनकी मां जाट नहीं है। घर में कोई जाटवाद या अन्य कोई चीज नहीं है। उनको यह भी नहीं पता कि हरियाणा की संस्कृति भी कोई चीज होती है। हालांकि वे दिन भर जो भी कुछ करते हैं वह कल्चर है। तो भी चीज आप करें। भाषा की भी कोई बंदिश नहीं है। आप अंग्रेजी में लिखना चाहते हैं तो हरियाणा में अंग्रेजी में लिखा जा सकता है। पंजाबी में लिख रहे हैं तो हरियाणवी कल्चर है। उर्दू में लिख रहे हैं तो है ही हरियाणवी कल्चर।

खापवाद 20वीं सदी की दूसरी दहाई की क्रियेशन ज्यादा है। हमारे यहां पर 1860 से पहले खाप-वाप की चर्चा सुनने में नहीं आती थी और ना थी। जमाबंदी बनने लगी जमीनों के रिकॉर्ड की। अंग्रेजों के समय में जमीन समस्या नहीं थी। उस समय काश्तकारों की कीमत होती थी, जमीनों की कीमत नहीं थी।

आज कास्टिज्म बढ़ाया जा रहा है। लेकिन यह पेराडोक्सीकली उसी पूंजीवाद में कास्टिज्म बढ़ाया जा रहा है, जो पूंजीवादी कास्टिज्म को तोड़ता है। फौरी तौर पर यह बुलबुले की तरह लगती है। बुलबुला कई बार 20-30 साल चल जाता है। एक पूरी पीढ़ी की जान ले जाता है। है यह बुलबुला। इस कास्टिज्म को देर-सवेर जाना है। हमारी कल्चरल एक्टिविटी को कास्टिज्म के खिलाफ खुलके एक्सप्रेस होना चाहिए।

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (मई-जून 2018), पेज -51 से 58

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