आबिद आलमी की कुछ यादें – महावीर शर्मा

यादें

मैं जब आबिद आलमी से पहली बार मिला तो मुझे नहीं पता था कि प्रोफ़ेसर आर.एन.चसवाल आबिद आलमी भी थे। मुलाकात 1968 में गवर्नमेंट कॉलेज, रोहतक में हुई थी जहां सरकार ने उन्हें अंग्रेजी विभाग में प्राध्यापक नियुक्त किया था। मेरा भी उन्हीं के बैच में चयन हुआ था। चसवाल साहब मुझ से 11 साल बड़े थे। कॉलेज केडर में आने से पहले वे दिल्ली में किसी अन्य विभाग में नौकरी करते थे और नौकरी करते करते उन्होंने गाजियाबाद से अंग्रेजी में एम.ए.किया और पंजाब के किसी गैर-सरकारी कॉलेज में पढ़ाना शुरू किया। बाद में सरकारी नौकरी मिलने पर वे रोहतक आए और डी.एल.एफ.कालोनी में किराये पर घर ले लिया। उन दिनों मैं गवर्नमेंट कॉलेज, हिसार में था और रोहतक मेरा काफी आना-जाना लगा रहता था।

मेरी चसवाल साहब से घनिष्ठता प्रोफेसर एस.के.विज और प्रोफेसर एस.एस.ऐलावादी की मार्फत हुई। ऐलावादी साहब डी.एल.एफ. कालोनी में चसवाल जी के पड़ोस में रहते थे। मैं जब ऐलावादी जी के यहां जाता तो हम चसवाल साहब के यहां जरूर जाते और उनके साथ चाय पीते। यहां उनकी चाय की ख़ासियत का जिक्र करना बहुत जरूरी है। उनकी चाय में पत्ती तेज, दूध मात्र 3-4 बूंद और चीनी भी कम होती थी। प्रोफेसर शशिकांत (जो बाद में प्रिंसिपल हो गए )कहा करते थे कि चसवाल साहब की चाय में चम्मच दूध में उलटा डुबो कर छिड़क दो! लेकिन वे इस बात का ध्यान रखते थे कि मेरी चाय के प्याले में दूध और चीनी मेरे स्वाद के मुताबिक हों। चाय पीने के हम सभी शौकीन थे।

बात शायद 1971 की है। मैं हिसार से तबादला होकर गवर्नमेंट कॉलेज, रोहतक आ चुका था। चसवाल साहब के संकलन ‘दायरा’ का भी प्रकाशन हो चुका था। आबिद साहब दिल्ली में एक साहित्यिक सम्मेलन में शिरकत करने गए थे। उनके साथ मैं भी था। बलबीर राठी और कुंदन गुडग़ांवी पहले ही मौजूद थे। ये जमावड़ा ज़्यादातर ‘साहित्य के लिए साहित्य’ वाले लोगों का था – यानी अदब का काम समाज में बदलाव लाना नहीं बल्कि बात को निखार कर कहना है। आबिद भी बोले। उन्होंने कहा –

सुना कर अपनी अपनी जाने वालों
सुनो मेरा तो किस्सा रह रहा है।

उन्होंने ‘लिटरेचर फॉर लिटरेचर’ के हामियों को लताड़ते हुए कहा कि लिटरेचर का काम सोसाइटी में हलचल पैदा करते हुए रेवोल्यूशनरी ताकतों को मजबूत करना है। उनका ये बोलना था कि इजलास में तूफान आ गया और लिटरेचर फॉर लिटरेचर के दीवाने वॉक-आउट कर गये। गौरतलब बात है कि दायरा को साहित्य अकादमी, हरियाणा का अवार्ड भी मिला था।

जब वे रोहतक आये तब उनके परिवार में बेटी उपमा थी। जल्दी ही एक बेटा और कुछ वक्फेके बाद एक और बेटा। वे दो बेटों और एक बेटी के बाप थे। भाई लोग समझते थे कि परिवार पूरा हो गया। लेकिन झटका तब लगा जब एक-एक करके  उनके परिवार में दो पुत्र-रत्नों की और बढ़ोतरी हो गयी। आखिर इस मसले पर दोस्त डॉक्टर अश्वनी जोशी के साथ आबिद साहब से गुफ्तगू की गई। पता चला कि आबिद साहब छोटा परिवार तो चाहते थे लेकिन इतने शर्मीले थे कि केमिस्ट के यहां जा कर कंडोम खरीदने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे। डा. अश्वनी उनकी नसबन्दी करवाने के लिए मान गए लेकिन  शर्त रखी कि नसबन्दी के एवज में जो रुपये मिलेंगे उसकी दारू पार्टी की जाएगी। आबिद साहब तुरन्त तैयार हो गए और रोहतक से बाहर नसबन्दी कैम्प में उनका आपरेशन करवा दिया गया।

आबिद आलमी अपने निजी जीवन में बिल्कुल सादा और हर प्रकार के आडम्बर और दिखावे से दूर, वे अंग्रेजी के समर्पित प्राध्यापक थे। अंग्रेजी व्याकरण पर उनकी गजब की पकड़ थी। अपने कर्तव्य का पूरी निष्ठा और लगन से निर्वहन करने वाले चसवाल साहब ने हरियाणा के भिवानी, महेन्द्रगढ़, रोहतक, गुडग़ांव आदि स्थित राजकीय महाविद्यालयों में अध्यापन किया।

उनका सबसे बड़ा सामाजिक सरोकार शिक्षा और शिक्षकों के हितों के लिये संघर्ष रहा। वे कई वर्षों तक हरियाणा राजकीय प्राध्यापक संघ (॥त्रष्टञ्ज) के महासचिव और प्रधान रहे। उनके जुझारू नेतृत्व में राजकीय महाविद्यालयों के इस संघ ने 1972 में गैर-सरकारी हरियाणा कॉलेज टीचर्स यूनियन के हरियाणा बनने के बाद हुए बड़े आन्दोलन को पूरा समर्थन दिया। याद रहे कि 1972 के उस समय के हरियाणा के मुख्यमंत्री के शिक्षक-विरोधी और तानाशाही रवैये के विरुद्ध यह गैर-सरकारी प्राध्यापकों का यह पहला आंदोलन था। इस समर्थन के कारण सरकार ने उन्हें चार्जशीट किया और सजा भी दी। 1978 के महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय के अध्यापकों के आंदोलन में भी उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। स्कूल अध्यापकों तथा अन्य कर्मचारियों के आन्दोलनों का भी उन्होंने खुल कर समर्थन किया। इन सब पहलकदमियों में उनकी यह पुख्ता समझदारी झलकती है कि काम करने वाला चाहे किसी भी स्तर का हो, सब एक ही बिरादरी के हैं – शिक्षा-क्षेत्र में लगे हुए सब लोगों की बिरादरी – और सब के लिए न्याय होगा तब ही प्रत्येक को भी न्याय मिलेगा। चसवाल साहब ने न केवल नेतृत्व प्रदान किया बल्कि साथियों के रोजमर्रा के संघर्षों में खुल कर साथ दिया । सिर्फ राजे रजवाड़े ही  फ्यूडल मानसिकता से ग्रस्त नहीं होते  बल्कि हर छोटा बड़ा अफ़सर एक रजवाड़ा होता है जो अपनी  ताक़त का  नाजायज अहसास कराता है। कुछ प्रिंसिपल अपने ओहदे की वजह से अपने मातहतों को परेशान करने में ही अपनी शान समझते थे । ऐसे परेशान साथियों के आड़े वक्त में चसवाल साहब उनके  साथ खड़े होते थे। वे रोजमर्रा की छोटी छोटी लड़ाइयों में सहकर्मियों को सहारा देते थे। प्रोफेसर वी के शर्मा 1973 में गवर्नमेंट कॉलेज रोहतक से गवर्नमेंट कॉलेज, नारनौल में ट्रांसफर हो कर आये थे । उनका ट्रांसफर नितांत असामयिक हुआ था । असली बात यह थी कि 1972 में उस समय की बंसीलाल सरकार को निजी कॉलेजों के टीचर्स का जबरदस्त आंदोलन का सामना करना पड़ा । वे हड़ताल पर थे और कई प्रोफेसर्स को सरकार ने जेल में बंद कर दिया था। हड़ताल और आंदोलन के कारण उन कॉलेजों में पढ़ाई बिल्कुल ठप थी और छात्र सड़कों पर भटक रहे थे। सरकार को डर था कि कहीं ये छात्र भी अपने टीचर्स के समर्थन में आंदोलन न शुरू कर दें। इसलिए सरकार ने प्राइवेट कॉलेज के छात्रों को पढऩे के लिए कुछ कोचिंग सेन्टर खोले। इन सेंटर्स में सरकार गवर्नमेंट कॉलेज के प्राध्यापकों को भेजना चाहती थी। हरियाणा गवर्नमेंट कॉलेज टीचर्स एसोसिएशन ने सरकार के इस कदम का विरोध किया। गवर्नमेंट कॉलेज, रोहतक की स्टाफ मीटिंग में प्रोफेसर वी के शर्मा और मैंने खुल कर सरकार के इस कदम का विरोध किया और इस के परिणामस्वरूप मेरा और उनका  ट्रांसफर तुरत-फुरत तार द्वारा झज्जर और नारनौल कर दिया गया। इसके कुछ ही दिन बाद उच्चतर शिक्षा के निदेशक का नारनौल कॉलेज में आना हो गया और वी के शर्मा ने स्टाफ मीटिंग में उनसे पूछ लिया कि भाईजान मेरा तबादला अचानक नारनौल कैसे हो गया ? शर्मा जी का ये पूछना था कि निदेशक महोदय आग बबूला हो गए और बोले कि तुम्हारी ये जुर्रत कैसे हुई कि मुझे भाईजान कहो? ढ्ढ ड्डद्व ठ्ठशह्ल 4शह्वह्म् ड्ढद्धड्डद्बद्भड्डठ्ठ .ढ्ढ ड्डद्व 4शह्वह्म् ड्ढशह्यह्य. और मीटिंग बरखास्त हो गयी। तीन दिनों के बाद उन्हें नौकरी से हटाने का  नोटिस आ गया। इस नोटिस से सब सकते में आ गये । लेकिन हिम्मत थी चसवाल साहब की कि उन्होंने शर्मा जी की नौकरी बहाल करवाने के लिए दिन रात एक कर दिया अपने सभी साथियों को इकट्ठा किया और वी के की नौकरी बचाओ अभियान छेड़ दिया और उनको दोबारा नौकरी पर बहाल करवाया।

$खासियत ये कि जो भी किया पूरे दिल से किया। शायरी की, तो अपना दिल-ओ-दिमाग़, जज़्बात-ओ-सोच-ओ-फिक्र जैसे उसमें उड़ेल ही दिये हों, पूरी जिम्मेदारी के साथ सामाजिक सरोकार की ऐसी शायरी, जो उनके गुजर जाने के इतने साल बाद भी हमें राह दिखाने की ताकत रखती है।

नजऱ से आगे नए फ़ासले तलाश करें
वो जो ख़याल में हैं, रास्ते तलाश करें।

जब ये मालूम है कि बस्ती की हवा ठीक नहीं
फिर इस को अभी बदल लेने में क्या ठीक नहीं।

जानते हैं कि काम बहुत मुश्किल है। मगर अपनी शायरी के जरिये उम्मीद बनाए रखने की ही नहीं, नए रास्ते तलाशते रहने की, ख़ुद को सुधारने की बात कहते हैं:

काम न आएंगे अब चूने-मिट्टी के पैबन्द
चप्पा-चप्पा टूट चुकी है अन्दर से दीवार।

राहों की एक भीड़ थी घेरे हुए उसे
वो फिर भी कह रहा था कोई रास्ता नहीं।

अपनी महरूमियों पे पर्दा न डाल
अपनी महरूमियों की वजह टटोल।

इस सोच और खय़ाल के पीछे मौजूदा हालात का वो खाका नजर आता है जिसमें आमजन ही नहीं, सामाजिक बदलाव की कोशिश में लगे लोग भी हौंसलापस्त दिखत ेहैं, उन्हें रस्ते नहीं सूझते, लेकिन असलियत शायद ये ह ैकि वे उन रस्तों को टटोलने-तलाशने में कहीं कोई नब्ज नहीं पकड़ पा रहे, जबकि

राह हमारी ही तकते थे इस बस्ती के लोग
दस्तक देते ही सब बोले हम तो हैं तैयार।

प्रतिकूल हालात में भी चुनौती स्वीकारने का, आस बनाए रखने का जो माद्दा रामनाथ चसवाल अपने सामाजिक सरोकारों में दिखाते थे, वही ‘आबिद आलमी’ की शायरी में मौजूद रहा –

जि़द तो हालात बहुत करते हैं लेकिन ‘आबिद’
आदमी उनको सुधारे तो सुधर जाते हैं

‘आबिद’ इक बार जऱा नापें तो इसके क़द को
ऐन मुमकिन है कि यूं ही सबसे बड़ा लगता हो

यही जन-हितैषी सोच चसवाल साहेब के सांस्कृतिक सरोकारों में दिखाई देती है। वे हरियाणा जनवादी सांस्कृतिक मंच के संस्थापकों में से थे। हरियाणा जनवादी लेखक संघ के प्रधान भी रहे। उस समय की जनवादी पत्रिका ‘प्रयास’ (जो बाद में ‘जतन’ के नाम से छपी) में वे सम्पादन-सहयोगी रहे। भिवानी स्थित  ‘शहीद भगत सिंह अध्ययन केंद्र’ की स्थापना में भी उनकी सक्रिय हिस्सेदारी रही।

हमें रामनाथ चसवाल में ‘आबिद आलमी’ और आबिद आलमी में रामनाथ चसवाल दिखाई देते हैं। दोनों एक हैं। कोई दोहरापन नहीं है। जो कहा वही जीया भी। व्यवस्था में बदलाव की हसरत और इस बदलाव के लिए जमीनी स्तर की जद्द-ओ-जहद शायर और व्यक्तित्व, दोनों के रोम-रोम में रचे बसे हैं। यह शायर-प्रोफ़ेसर 9 फऱवरी 1994 को एक असाध्य बीमारी से जूझते हुए इस जहान से उठ गया:

दे गया आखिऱी सदा कोई
फ़ासिलों पर बिखर गया कोई।

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (जनवरी-अप्रैल, 2018), पेज- 54  से 55

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