आरक्षण:  पृष्ठभूमि और विवाद

बहुत से लोग इन आंदोलनों से हुए नुक्सान को देखकर यह भी कहने लगे हैं कि आरक्षण ही समस्या की जड़ है इसे समाप्त कर देना चाहिए। लेकिन यह विचार सामाजिक न्याय के बिल्कुल खिलाफ है। आरक्षण को तब तक समाप्त न किया जाए जब तक कि जब तक ये वर्ग खुली प्रतिस्पर्धा करने के लिए सक्षम न हो जाएं और अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और पिछड़े वर्गों का केंद्रीय और राज्य सरकार की सेवाओं के सभी कैडर में उनका प्रतिनिधित्व उनकी जनसंख्या के अनुपात के बराबर न पहुंच जाए।

आलेख


डा. सुभाष चंद्र

पिछले कुछ सालों से गुजरात के पट्टीदार या पटेल, महाराष्ट्र के मराठा और हरियाणा के जाट जातियों द्वारा पिछड़े वर्ग में शामिल होकर उसके तहत आरक्षण प्राप्त करने के लिए उग्र व हिंसक आंदोलन हुए हैं। इन आंदोलनों ने सामाजिक भाईचारे-सामाजिक न्याय के साथ साथ आरक्षण के मुद्दे को फिर से चर्चा में ला दिया है। बुद्धिजीवियों, प्रिंट-इलेक्ट्रोनिक व सोशल मीडिया तथा राजनीतिक हल्कों में इस मुद्दे पर खूब जुगाली की जा रही है।

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आमतौर पर यह सुनने में मिल जाएगा कि आरक्षण का बीज ‘सत्ता के भूखे’ लोगों ने बोया था ‘वोटों की फसल’ काटने के लिए। इसी बात को आगे बढ़ाते हुए कुछ उदार से लगने वाले बुद्धिजीवी इसे अंग्रेजों की ‘बांटो और राज करो’ की नीति तक खींच ले जायेंगे और सामाजिक न्याय-भागीदारी व प्रतिनिधित्व की पक्षधर राजनीति को जातिवादी व औपनिवेशिक शासन की सहयोगी के साथ खड़ा कर देंगे।

कुछ बुद्धिजीवी आरक्षण की पृष्ठभूमि व इतिहास की अनदेखी करके इस स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ संविधान के साथ मिले रोग की तरह देखते हैं और इसका जिम्मेवार संविधान निर्माता डा. भीमराव आंबेडकर को ठहराते हुए उन्हें निरंतर कोसते रहते हैं।  यह भी जोर-शोर से कहा जाता है कि आरक्षण ने जातिवाद को बढ़ावा दिया है, सामाजिक भाईचारे को तोड़ा है। आरक्षण के खिलाफ एक तर्क हमेशा से ही रहा है कि इससे योग्यता की अनदेखी होती है।

बहुत ही भला व विश्वसनीय सा लगने वाला आंशिक सत्य के लिए एक तर्क यह भी हमेशा ही रहता है कि आरक्षण का लाभ वास्तविक लोगों तक नहीं पहुंचा है और कुछ लोग ही इसका लाभ उठाए जा रहे हैं। इस तरह कहा जाता है कि आरक्षण से कौन सी बेरोजगारी-गरीबी दूर हो गई, इसका कोई फायदा ही नहीं हुआ। इसी तर्क के आधार पर कि सवर्ण जातियों में भी बहुत गरीब व बेरोजगार हैं इसलिए वे भी आरक्षण के हकदार हैं। आरक्षण का विरोध करने वाले आर्थिक आधार पर आरक्षण की वकालत करने लगते हैं। उनकी समझ में आरक्षण ऐसे ही है जैसे गरीबी-उन्मूलन या बेरोजगारी दूर करने की सरकार की अन्य नीतियां। आरक्षण के इर्द-गिर्द के इन तर्कों व तथ्यों की सत्यता को जांचने  की जरूरत  है।

आरक्षण की पृष्ठभूमि

भारतीय समाज व्यवस्था में आरम्भ से ही समाज के उच्च वर्गों ने ज्ञान, सत्ता और संपति को अपने लिए वर्ण-जाति के आधार पर आरक्षित रखा। इसका निरन्तर विरोध भी होता रहा। इस व्यवस्था ने अपने में इतनी लोच जरूर रखी कि यह अपने बचाव के रास्ते निकालती रहे। इसके विनाश के लिए जो भी सामाजिक शक्ति मजबूती से खड़ी हुई, उसको इसने या तो समाप्त कर दिया अथवा अपने लाभों में हिस्सेदार बनाकर अपने में समाहित कर लिया।

प्राचीन और मध्यकाल में कमोबेश यही स्थिति रही। ज्ञान, सत्ता व संपति में अपना एकाधिकार बनाए रखने के लिए कठोर कायदों, रिवाजों, नियमों, नैतिकता-मर्यादा की अवधारणा, निर्मित की गई। विभिन्न स्मृतियों विशेषकर मनु-स्मृति, कौटिल्य के अर्थशास्त्र, रामायण-महाभारत तथा पौराणिक कहानियों के साहित्य इन विचारों से भरा पड़ा है।

आधुनिक काल में समाज के वंचित वर्ग के चिन्तकों-विचारकों ने शोषणमूलक सामाजिक संरचना का गहराई से विश्लेषण किया। शिक्षा व सत्ता में उच्च वर्गों के एकाधिकार को चुनौती देते हुए शिक्षा व सत्ता में समाज के पिछड़े वर्गों की भागीदारी की मांग की।

सामाजिक क्रांति के अग्रदूत महात्मा जोतीबा फुले ने प्रशासन व शिक्षा में ब्राह्मणों के वर्चस्व से उत्पन्न पक्षपात व भ्रष्टाचार जैसी विकृतियों को अपनी रचनाओं में उद्घाटित करते हुए पिछड़े वर्गों को प्रशासन में शामिल करने तथा शिक्षा के विशेष प्रावधानों की मांग की। हंटर कमीशन के समक्ष दिया गया उनका बयान इस संबंध में महत्वपूर्ण है।

1882 – हंटर आयोग के समक्ष महात्मा जोतिराव फुले ने नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा के साथ सरकारी नौकरियों में सभी के लिए आनुपातिक आरक्षण/प्रतिनिधित्व की मांग की।

1891- त्रावणकोर के सामंती रियासत में 1891 के आरंभ में सार्वजनिक सेवा में योग्य मूल निवासियों की अनदेखी करके विदेशियों को भर्ती करने के खिलाफ प्रदर्शन के साथ सरकारी नौकरियों में आरक्षण के लिए मांग की गयी।

1901 – महाराष्ट्र के सामंती रियासत कोल्हापुर में शाहू जी महाराज द्वारा आरक्षण शुरू किया गया। सामंती बड़ौदा और मैसूर की रियासतों में आरक्षण पहले से लागू थे।

1908 – अंग्रेजों द्वारा बहुत सी जातियों और समुदायों के पक्ष में, प्रशासन में जिनका थोड़ा-बहुत हिस्सा था, के लिए आरक्षण शुरू किया गया।

1909 – भारत सरकार अधिनियम 1909 में आरक्षण का प्रावधान किया गया।

1919 – भारत सरकार अधिनियम 1919 में आरक्षण का प्रावधान किया गया।

1921 – मद्रास प्रेसीडेंसी ने जातिगत सरकारी आज्ञापत्र जारी किया, जिसमें गैर-ब्राह्मणों के लिए 44 प्रतिशत, ब्राह्मणों के लिए 16 प्रतिशत, मुसलमानों के लिए 16 प्रतिशत, भारतीय-एंग्लो/ईसाइयों के लिए 16 प्रतिशत और अनुसूचित जातियों के लिए आठ प्रतिशत आरक्षण दिया गया था।

1935 – पूना समझौते में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने दलित वर्ग के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र आवंटित करने का प्रस्ताव पास किया, ।

1935 – भारत सरकार अधिनियम 1935 में आरक्षण का प्रावधान किया गया।

1942 – डा. भीमराव आम्बेडकर ने  अखिल भारतीय दलित वर्ग महासंघ की स्थापना की। सरकारी सेवाओं और शिक्षा के क्षेत्र में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण की मांग की।

1946 – भारत में कैबिनेट मिशन अन्य कई सिफारिशों के साथ आनुपातिक प्रतिनिधित्व का प्रस्ताव दिया।

1947 में भारत ने स्वतंत्रता प्राप्त की। डॉ. अम्बेडकर को संविधान भारतीय के लिए मसौदा समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। भारतीय संविधान न केवल धर्म, नस्ल, जाति, लिंग और जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध करता है। बल्कि सभी नागरिकों के लिए समान अवसर प्रदान करते हुए सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की उन्नति के लिए संविधान में विशेष धाराएं रखी गयी हैं। 10 सालों के लिए उनके राजनीतिक प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए अलग से निर्वाचन क्षेत्र आबंटित किए गए हैं।(हर दस साल के बाद सांविधानिक संशोधन के जरिए इन्हें बढ़ा दिया जाता है)।

1953 – सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए कालेलकर आयोग को स्थापित किया गया। जहां तक अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का संबंध है रिपोर्ट को स्वीकार किया गया। अन्य पिछड़ी जाति (ओबीसी) वर्ग के लिए की गयी सिफारिशों को अस्वीकार कर दिया गया।

1956- काका कालेलकर की रिपोर्ट के अनुसार अनुसूचियों में संशोधन किया गया।

1976 – अनुसूचियों में संशोधन किया गया।

1979 – सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए मंडल आयोग स्थापित किया गया। आयोग ने 1,257 समुदायों की पिछड़े वर्ग के रूप में पहचान की।

1980 – आयोग ने एक रिपोर्ट पेश की आरक्षण को��ा में बदलाव करते हुए 22 प्रतिशत से 49.5 प्रतिशत वृद्धि करने की सिफारिश की।

1990 मंडल आयोग की सिफारिशें विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा सरकारी नौकरियों में लागू किया गया।

1991- नरसिम्हा राव सरकार ने अलग से अगड़ी जातियों में गरीबों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण शुरू किया।

1992- इंदिरा साहनी मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण को सही ठहराया। आरक्षण और न्यायपालिका अनुभाग भी देखें

1995 – संसद ने 77वें सांविधानिक संशोधन द्वारा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की तरक्की के लिए आरक्षण का समर्थन करते हुए अनुच्छेद 16(4)(ए) डाला। बाद में आगे भी 85वें संशोधन द्वारा इसमें अनुवर्ती वरिष्ठता को शामिल किया गया था।

अगस्त 2005 – उच्चतम न्यायालय ने पी.ए. इनामदार और अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य के मामले में  अगस्त 2005 को 7 जजों द्वारा सर्वसम्मति से फैसला सुनाते हुए घोषित किया कि राज्य पेशेवर कालेजों समेत सहायता प्राप्त कॉलेजों में अपनी आरक्षण नीति को अल्पसंख्यक और गैर-अल्पसंख्यक पर नहीं थोप सकता हैं।

2005 – निजी शिक्षण संस्थानों में पिछड़े वर्गों और अनुसूचित जाति तथा जनजाति के लिए आरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए 93वां सांविधानिक संशोधन लाया गया। इसने अगस्त 2005 में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को प्रभावी रूप से उलट दिया।

2006- से केंद्रीय सरकार के शैक्षिक संस्थानों में अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण शुरू हुआ। कुल आरक्षण 49.5 प्रतिशत तक चला गया।

2008-भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 10 अप्रैल 2008 को सरकारी धन से पोषित संस्थानों में 27 प्रतिशत ओबीसी  कोटा शुरू करने के लिए सरकारी कदम को सही ठहराया। न्यायालय ने स्पष्ट रूप से अपनी पूर्व स्थिति को दोहराते हुए कहा कि ‘मलाईदार परत’ को आरक्षण नीति के दायरे से बाहर रखा जाना चाहिए।

अन्य पिछड़ा वर्ग का आरक्षण

स्वतंत्रता के बाद भारत के लिए जो संविधान अपनाया गया उसमें सभी नागरिकों के समान व्यवहार का सिद्धांत अपनाया गया। सदियों से चली आ रही वंचनाओं को दूर करने, प्रशासन में भागीदारी को सुनिश्चित करने के लिए अनुसूचित जातियों व जनजातियों को सरकारी नौकरियों और शिक्षण-संस्थाओं में आरक्षण के प्रावधान किए गए।

                कुछ बुद्धिजीवी संविधान की आड़ लेकर ही पिछड़े वर्गों के आरक्षण को खारिज इस तरह करते हैं कि संविधान में तो सिर्फ अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों के लिए ही आरक्षण का प्रावधान है और पिछड़ों के लिए आरक्षण को मंडल आयोग तथा पूर्व प्रधानमंत्री वी पी सिंह की कारस्तानी के रूप में देखते हैं।

अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण तो नहीं किया गया, लेकिन धारा 340 के अन्तर्गत उनके विकास के लिए कदम उठाने को कहा गया कि:

”1. राष्ट्रपति भारत के राज्य क्षेत्र के भीतर सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों की दशाओं के और किन कठिनाइयों को वे झेल रहे हैं, उनके अन्वेषण के लिए और उन कठिनाइयों को दूर करने और उनकी दशा को सुधारने के लिए संघ या किसी राज्य द्वारा जो उपाय किए जाने चाहिएं, उनके बारे में और उस प्रयोजन के लिए संघ या किसी राज्य द्वारा जो अनुदान किए जाने चाहिएं और जिन शर्तों के अधीन वे अनुदान किए जाने चाहिएं, उनके बारे में सिफारिश करने के लिए आदेश द्वारा, एक आयोग नियुक्त करेगा जो ऐसे व्यक्तियों से मिलकर बनेगा जो वह ठीक समझे और ऐसे आयोग को नियुक्त करने वाले आदेश में आयोग द्वारा अनुसरण की जाने वाली प्रक्रिया परिनिश्चित की जाएगी।

  1. इस प्रकार नियुक्त आयोग अपने को निर्देशित विषयों का अन्वेषण करेगा और राष्ट्रपति को प्रतिवेदन देगा, जिसमें उसके द्वारा पाए गए तथ्य उपवर्णित किए जाएंगे और जिसमें ऐसी सिफारिशें की जाएंगी, जिन्हें आयोग उचित समझे।
  2. राष्ट्रपति उस प्रकार दिए गए प्रतिवेदन की एक प्रति, उस पर की गई कार्यवाही को स्पष्ट करने वाले ज्ञापन सहित, संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष रखवाएगा।’’

काका कालेलकर की अध्यक्षता में पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन

धारा 340 के मद्दे नजर 29 जनवरी, 1953 को काका कालेलकर की अध्यक्षता में पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन हुआ। आयोग को कहा गया था कि:

 (क) सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों को परिभाषित करने की कसौटी अथवा पैमाने का निर्धारण करें।

(ख) सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से पहचान किए गए पिछड़े वर्गों के विकास के लिए उपाय सुझाए।

(ग) केन्द्र व राज्य सरकार सार्वजनिक सेवाओं में पिछड़े वर्गों के उचित प्रतिनिधित्व के लिए नियुक्तियों में आरक्षण के प्रावधानों की जरूरत की जांच करे।

(घ) राष्ट्रपति को तथ्यों की रिपोर्ट तथा उचित सुझाव प्रस्तुत करे।

सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों की पहचान करने के लिए आयोग ने निम्नलिखित अपनाया।

(क) हिन्दू समाज में परम्परागत तौर पर निम्न समझे जाने वाली जाति

(ख) किसी जाति अथवा समुदाय के अधिकांश हिस्से में शैक्षणिक प्रगति का अभाव

(ग) सरकारी नौकरियों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व का अभाव।

(घ) व्यापार, वाणिज्य और उद्योग में पर्याप्त प्रतिनिधित्व का अभाव।

 इस आयोग ने दो साल के गहन मंथन के बाद 30 मार्च, 1955 को रिपोर्ट प्रस्तुत की। इसने पूरे देश में 2399 जातियों अथवा समुदायों को पिछड़े के तौर पर चिह्नित किया। इनमें 837 समुदायों को अति पिछड़े के तौर पर चिह्नित किया।

आयोग की रिपोर्ट से पांच सदस्यों ने खुले तौर पर असहमति प्रकट की तथा केन्द्र सरकार को रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए अध्यक्ष महोदय ने प्रस्तावना में रिपोर्ट की मूल भावना व निष्कर्षों से असहमति प्रकट की। शुरु में तो उनका मानना था कि  ‘हिन्दुओं की ऊंची जातियों को निचली जातियों की उपेक्षा के दोष के लिए प्रायश्चित करना है। अतएव वे सरकार से यह सिफारिश करने को तैयार हैं कि केवल पिछड़ी जातियों को सब तरह से खास मदद दी जानी चाहिए और यहां तक कि ऊंची जातियों के गरीब और योग्य लोगों को भी इस खास मदद से दूर ही रखा जाना चाहिए।’ लेकिन धीरे-धीरे आखिर में वे इस नतीजे पर पहुंचे कि ‘यदि ऐसे (पिछड़े) समुदायों ने शिक्षा की उपेक्षा की है क्योंकि उनके लिए उसकी कोई उपयोगिता नहीं थी। अब उन्होंने अपनी गलती महसूस कर ली है तो उनको चाहिए कि वे इस कमी को पूरा करने के लिए आवश्यक कोशिश करें … जिन्होंने विगत में अविचारित ढंग से शिक्षा के प्रति उदासीनता दिखाई है और वे अब सरकारी नौकरियों में विशेष बर्ताव चाहते हैं। यह कुछ भी हो लेकिन उचित नहीं है।…” मैं निश्चित रूप से किसी समुदाय के लिए सरकारी सेवाओं में आरक्षण के खिलाफ हूं। इसका सीधा-सा कारण यह है कि सेवाएं नौकरों के लिए नहीं होती, वे तो सारे समाज की सेवा के लिए होती हैं।’ (बर्धन, ए बी, वर्ग, जाति आरक्षण और जातिवाद के खिलाफ संघर्ष, पृ.-62)

केन्द्र सरकार ने इस रिपोर्ट को नकार दिया। केन्द्रीय स्तर पर कोई सूची बनाने और केन्द्रीय सेवाओं में अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के अलावा अन्य पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने से इनकार कर दिया। अगस्त 1961 में केन्द्र सरकार ने सभी राज्यों को पत्र लिखा कि  ‘राज्य सरकारों को यह अधिकार है कि वे पिछड़ेपन को परिभाषित करने के लिए अपनी स्वयं की कसौटी चुनें, फिर भी भारत सरकार की दृष्टि में बेहतर यही रहेगा कि वे जाति के बजाए आर्थिक आधार को मानें।’ (बर्धन, ए बी, वर्ग, जाति आरक्षण और जातिवाद के खिलाफ संघर्ष, पृ.-63)

मंडल आयोग

जनता सरकार ने दिसम्बर 1978 में बी पी मंडल की अध्यक्षता में पिछड़ा वर्ग आयोग गठित किया। 31 दिसम्बर, 1980 को इस आयोग ने रिपोर्ट प्रस्तुत की। अप्रैल 1982 में संसद के पटल पर प्रस्तुत की, लेकिन सरकार की ओर से इस पर कार्रवाई की कोई रूपरेखा इसके साथ नहीं थी।

पिछड़े वर्गों की पहचान के लिए मंडल आयोग ने सामाजिक, शैक्षणिक तथा आर्थिक आधार पर 11 संकेतक चिन्हित किए। सामाजिक संकेतकों में प्रत्येक के लिए तीन अंक, शैक्षणिक संकेतकों में प्रत्येक के लिए 2 अंक तथा आर्थिक संकेतकों में प्रत्येक के लिए 1 अंक निर्धारित किया। कुल 22 अंकों में से जिस जाति को 11 अंक प्राप्त हुए उसे पिछड़े वर्ग की सूची में शामिल कर लिया गया। ये संकेतक निम्नलिखित थे:

(क) सामाजिक:

  1. वे जातियां/ वर्ग जिनको दूसरे सामाजिक तौर पर निम्न समझते हैं।
  2. वे जातियां/ वर्ग जो जीवनयापन के लिए मुख्यत: हाथ के काम पर निर्भर हैं।
  3. वे जातियां/ वर्ग जिनमें ग्रामीण क्षेत्रों में राज्य की औसत से 25 प्रतिशत अधिक महिलाएं व 10 प्रतिशत पुरुष तथा शहरी क्षेत्र में 10 प्रतिशत अधिक महिलाएं व 5 प्रतिशत पुरुष 17 वर्ष की उम्र से कम में विवाह कर लेते हैं।
  4. वे जातियां/ वर्ग जिनमें राज्य के औसत से कम-से-कम 25 प्रतिशत अधिक महिलाएं काम करती हैं।

(ख) शैक्षणिक:

  1. वे जातियां अथवा वर्ग जिनके 5 से 15 आयु वर्ग के स्कूल न जाने वाले बच्चों की संख्या राज्य की औसत से कम-से-कम 25 प्रतिशत अधिक हो।
  2. वे जातियां अथवा वर्ग जिनके 5 से 15 आयु वर्ग के बीच में ही स्कूल छोडऩे वाले बच्चों की संख्या राज्य की औसत से कम-से-कम 25 प्रतिशत अधिक हो।
  3. वे जातियां अथवा वर्ग जिनमें मैट्रिक करने वालों का अनुपात राज्य औसत से कम-से-कम 25 प्रतिशत नीचे हो।

(ग) आर्थिक:

  1. वे जातियां अथवा वर्ग जिनकी परिवार की सम्पति का औसत मूल्य राज्य औसत 25 प्रतिशत कम हो।
  2. वे जातियां अथवा वर्ग जिनमें कच्चे मकानों में रहने वाले परिवारों की संख्या राज्य औसत से कम-से-कम 25 प्रतिशत नीचे हो।
  3. वे जातियां अथवा वर्ग जहां 50 प्रतिशत परिवारों के लिए पीने के लिए पानी का स्रोत आधा किलोमीटर से अधिक दूर है।
  4. वे जातियां अथवा वर्ग जिनमें खपत के लिए कर्ज लेने वाले परिवारों की संख्या राज्य औसत से कम-से-कम 25 प्रतिशत अधिक हो।

आरक्षण : जाति बनाम आर्थिक

कुछ बुद्धिजीवी आरक्षण को समाज में अलगाव और जातिवाद को बढ़ावा देने वाला मानते हैं और जाति  के आधार पर आरक्षण का विरोध करते हैं और आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग करते हैं। प्रथमत: देखने में यह एकदम तार्किक, विवेकपूर्ण व प्रगतिशील विचार दिखाई देता है, लेकिन भला सा लगने वाला यह आधार सामाजिक भेदभाव, दमन व उत्पीडऩ की तो अनदेखी करता ही है। ज्यों ही इसके व्यावहारिक पक्ष पर विचार करते हैं, तो यह समाज के पिछड़े वर्गों को मिल रहे आरक्षण का विरोध स्पष्ट तौर पर दिखाई देता है।

भारतीय समाज में जाति सिर्फ व्यक्ति की पहचान के साथ नहीं जुड़ी, बल्कि शक्ति का स्रोत रही है। जाति यहां व्यक्ति का पेशा, खान-पान, काम-धंधों, धार्मिक-सांस्कृतिक रुचियों को नियंत्रित और संचालित करती रही है। जाति-व्यवस्था के पिरामिड में सबसे नीचे वाली जातियों को अधिकारों से वंचित रखा गया। उनके हिस्से में श्रम करना था, उसके श्रम के फलों का स्वाद सवर्ण जातियों ने अपने लिए रख छोड़ा था। जाति-व्यवस्था की सामाजिक-वर्जनाओं ने समाज के बहुत बड़े भाग को ज्ञान, सत्ता और संपति से वंचित रखा।

जाति व्यवस्था के सामाजिक भेदभाव व दमन के विरुद्ध वंचित वर्गों के रेडिकल-आन्दोलन भी हुए। लेकिन आधुनिक युग में वंचित-दलित वर्गों ने जोतीराव फूले – डा.भीमराव आम्बेडकर के कुशल नेतृत्व में निर्णायक तौर पर जाति की जकडऩ को तोडऩे के प्रयास किए। शासन-सत्ता में जाति विशेष के प्रभुत्व को चुनौती देते हुए सत्ता में हिस्सेदारी की मांग की।

आरक्षण-नीति के कारण शक्ति के स्रोतों में बंटवारा होना आरम्भ हुआ, तो विशेषाधिकार संपन्न वर्गों में त्राहि-त्राहि मची हुई है। अभी तक जो वर्ग जाति के आधार पर समाज की नियामतों को भोग रहे थे, अब वे जाति के आधार पर बंटवारे को समाज को विभाजनकारी करार देकर आर्थिक आधार पर आरक्षण की वकालत कर रहे हैं।

पिछड़ेपन की पहचान सिर्फ आर्थिक आधार पर ही नहीं की जा सकती, बल्कि सामाजिक, शैक्षणिक और राजनीतिक आधार पर भी जातियां और समुदाय पिछड़े होते हैं। यदि किसी एक श्रेणी के आधार पर पिछड़ा मानकर आरक्षण दे दिया जाए, तो समाज के जो वर्ग अथवा समुदाय अन्य शक्तिशाली होंगे तो वे वर्ग अथवा समुदाय ही आरक्षण का लाभ उठा पायेंगे। इसका परिणाम यह होगा कि अन्य मामलों में जो समुदाय पहले ही अपेक्षाकृत शक्ति-संपन्न हैं, वही फलेंगे-फूलेंगे। हरियाणा के परिप्रेक्ष्य से इसे समझा जा सकता है। मान लो हरियाणा में जाति की बजाए आर्थिक आधार पर आरक्षण कर दिया जाए, तो अधिकांश नौकरियां जाटों को मिलेंगी, क्योंकि वे राजनीतिक तौर पर प्रभावी हैं।

प्रशासन में भाई-भतीजावाद व भ्रष्टाचार व्याप्त है, उसमें आर्थिक आधार पर पिछड़े होने का प्रमाण-पत्र हासिल करना प्रभावी व्यक्ति का बायें हाथ का खेल है। गरीबी रेखा से नीचे के लोगों के लिए बनी योजनाओं को हड़पने के लिए जिस तरह से प्रमाण-पत्र बने हैं, वे किसी से छुपे नहीं हैं। कुछ अधिक चालाक और बेशर्म लोग तो नौकरी प्राप्त करने के लिए अनुसूचित अथवा पिछड़ी जाति का भी प्रमाण-पत्र भी हासिल कर लेते हैं। इस तरह आर्थिक आधार पर आरक्षण की वकालत एक छलावा है। आरक्षण-विरोधी मानसिकता का यह तर्क नया भी नहीं है। पहले पिछड़े वर्ग के अध्यक्ष काका कालेलकर ने भी इसी घिसे-पिटे तर्क का सहारा लिया था। सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्रीय शिक्षण-संस्थानों में पिछड़ों को आरक्षण के आधार पर बाध्य किया, तो यूथ फार इक्विलिटी जैसे लोक-लुभावनी भाषा के खोल में इसका विरोध करने वाले संगठनों का भी यही तर्क था।

मंडल आयोग ने पिछड़े वर्गों को चिह्नित करने के लिए जातिगत पिछड़ेपन के साथ शैक्षणिक व आर्थिक पिछड़ेपन को भी आधार बनाया था। मंडल आयोग में समाजशास्त्रियों ने काम किया था। यह अध्ययन एक-आयामी नहीं, बल्कि बहु-आयामी और वैज्ञानिक पद्धति पर आधारित है।

सही हकदारों को आरक्षण का लाभ पहुंचे, इसलिए अन्य पिछड़ा वर्ग में मलाईदार परत को आरक्षण से बाहर रखा गया है। लेकिन भारत में सरकारी कर्मचारियों को छोड़कर कोई भी अपनी वास्तविक आय का उद्घाटन नहीं करता और ये कानून धरे धराए रह जाते हैं।

आर्थिक, लिंग, धर्म, अधिवास के आधार पर आरक्षण

शिक्षण संस्थानों में आर्थिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था की गई है।  शिक्षण संस्थानों में जाति, धर्म, लिंग, नस्ल का भेद किए बिना कोई भी धन के आधार पर दाखिला ले सकता है। इसके लिए 15 प्रतिशत सीट आरक्षित हैं। आरक्षण-विरोधियों को इनसे शिक्षा की गुणवत्ता के गिरने की आशंका नहीं होगी तभी तो इसके खिलाफ कोई सशक्त आन्दोलन नहीं हुआ। न ही किसी ने रेल रोकी, सड़कें जाम कीं।

महिलाओं के लिए भी बिना किसी जाति, धर्म, लिंग, नस्ल का भेदभाव किए नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था की गई है। पंचायतों में भी महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था है, जो उचित है।

तमिलनाडू सरकार ने मुसलमानों और ईसाइयों प्रत्येक के लिए 3.5 प्रतिशत सीटें आवंटित की हैं, आन्ध्रप्रदेश में प्रशासन ने मुसलमानों को 4 प्रतिशत आरक्षण देने के लिए एक क़ानून बनाया। केरल लोक सेवा आयोग ने मुसलमानों को 12 प्रतिशत आरक्षण दे रखा है। धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा प्राप्त शैक्षणिक संस्थानों के पास भी अपने विशेष धर्मों के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण है

कुछ अपवादों को छोड़कर, राज्य सरकार के अधीन सभी नौकरियां उसके अधिवासियों के लिए आरक्षित हैं। पीईसी (पंजाब इंजीनियरिंग कालेज) चंडीगढ़ में, पहले 80 प्रतिशत सीट चंडीगढ़ के अधिवासियों के लिए आरक्षित थीं और अब यह 50 प्रतिशत है।

स्वतंत्रता सेनानियों के बेटे/बेटियों/पोते/पोतियों के लिए, शारीरिक रूप से विकलांग, खेल हस्तियों के लिए भी शिक्षण-संस्थाओं में प्रवेश तथा सरकारी नौकरियों में आरक्षण के प्रावधान हैं।

ऐम्स में स्नातकोत्तर कोर्स में दाखिले में 25 प्रतिशत आरक्षण उन्हीं के लिए है, जिन्होंने ऐम्स से ही स्नातक की डिग्री ली है। पहले यह आरक्षण 33 प्रतिशत था। 2001 में सुप्रीम कोर्ट ने इसे घटाकर 25 प्रतिशत कर दिया था।

आरक्षण और जातिवाद

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जातिवाद को समाज के लिए घातक बीमारी मानने वाले कुछ बुद्धिजीवी भी इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि आरक्षण से जातिवाद को बढ़ावा मिलता है। आरक्षण के खिलाफ जरूर वे आग उगलते रहते हैं। इसमें उनका वर्गीय पूर्वाग्रह भी शामिल होता है।

आरक्षण से जातिवाद को बढ़ावा मिलता है यह एकांगी एवं भ्रांतिपूर्ण सोच पर गढ़ा गया तर्क है। स्वतंत्रता के बाद भारत में धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक शासन प्रणाली अपनाई। भारतीय संविधान धर्म, जाति, भाषा, नस्ल, लिंग के आधार पर भेदभाव किए बिना अपने सब नागरिकों में समानता की घोषणा करता है। लोकतांत्रिक प्रणाली बनाए रखने के लिए सामाजिक और आर्थिक समानता की स्थितियों का निर्माण करना जरूरी था। सामाजिक क्रांति के अग्रदूतों और संविधान निर्माताओं ने प्रशासन में समाज के सभी वर्गों को प्रतिनिधित्व देने तथा जातिगत पूर्वाग्रहों व समाज में जातिगत अलगाव को समाप्त करने के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में दाखिले में आरक्षण की व्यवस्था की थी।

राजनीतिक लोकतंत्र की सफलता को सामाजिक व आर्थिक लोकतंत्र स्थापित करने में बताते हुए 24 नवम्बर,1949 को तीसरे वाचन के उपरान्त संविधान के स्वीकार होने के अवसर पर बाबा साहब ने कहा था कि ’26 जनवरी,1950 को हम अन्तरविरोधों या विसंगतियों के जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीति में तो हम समानता स्थापित करेंगे लेकिन सामाजिक तथा आर्थिक जीवन में हम असमानता ही बनाए रखेंगे। राजनीति में हम ‘एक व्यक्ति, एक वोट और एक मूल्य’ के सिद्धांत को मान्यता देंगे। लेकिन सामाजिक और आर्थिक जीवन में हम अपने प्रचलित और पारंपरिक सामाजिक-आर्थिक ढांचे की वजह से ‘एक व्यक्ति और एक जैसा मूल्य’ के सिद्धांत को नकारते रहेंगे। हम आखिर कब तक जीवन के सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में समानता को नकारते रहेंगे? अगर हम इसे लम्बे अरसे तक टालते और नकारते रहे तो हम अपने राजनीतिक लोकतंत्र को संकट में डालकर ही ऐसा कर सकेंगे। इसलिए हमें चाहिए कि जितना जल्दी हो सके उतना ही जल्दी हम इस अन्तर्विरोध को दूर कर लें, वरना जो लोग इन असमानताओं से पीडि़त हैं वे लोग राजनीतिक लोकतंत्र के उस ढांचे को ही उखाड़कर फेंक देंगे जिसको इस संविधान सभा ने बड़ी लगन और मेहनत से बनाया है।’

लोकतंत्र को उन्होंने तो नहीं उखाड़ा, जिनके बारे में डा.आम्बेडकर ने कहा था। लोकतंत्र से जिन्होंने लाभ उठाया उन्होंने ही इसकी जड़ें खोदी हैं और खोद रहे हैं। वैश्वीकरण असमानता को कई हजार गुना बढ़ा दिया है। जो लोग समाज में जातिवाद को बढ़ता हुआ देख रहे हैं और उसका कारण आरक्षण को ठहरा रहे हैं, उन्होंने अपने परिवेश की ओर से आंखें बन्द कर रखी हैं।

उनको इस ओर ध्यान देने की जरुरत है कि सन् 1991 के बाद वैश्वीकरण-उदारीकरण-निजीकरण की नीतियां अपनाने के बाद से आरक्षण को लेकर इतना आक्रोश क्यों पैदा हो रहा है। वैश्वीकरण की नीतियों से रोजगार-बाजार सिकुड़ा है। आर्थिक असमानता बढ़ी है। असमानता की चौड़ी होती खाई ने जातिवाद को बढ़ावा दिया है। इस संबंध में जवाहर लाल नेहरू ने 2 दिसम्बर 1954 को कहा था कि ‘मैं जातिवाद पर विशेष बल देता हूं, क्योंकि यह बहुत ही खतरनाक प्रवृति है। हम जातिवाद की बात करते हैं और उसकी निंदा करते हैं जो हमें करनी जाहिए। लेकिन तथ्य यह है कि आधा दर्जन या दस तथाकथित ऊंची जातियां भारतीय परिदृश्य पर हिन्दुओं की ओर से प्रभुत्व जमाये हुए हैं। इस बारे में कोई सन्देह नहीं है। अगर हम जातिवाद को हटाने की बात करते हैं तो यह मत समझिए कि मैं मौजूदा वर्गीकरण को बनाए रखना चाहता हूं जिसमें कुछ लोग चोटी पर हों और कुछ लोग पैंदे में रहें। अगर हम समानता नहीं लाते हैं या इस दिशा में कोशिश नहीं करते हैं तो निंस्सदेह जातिवाद बहुत ही खतरनाक तरीके से फलेगा-फूलेगा।’

जातिवाद और असमानता का गहरा संबंध है। असमानता को वैधता देने के लिए ही जाति-प्रथा का आविष्कार किया था। आर्थिक शोषण और असमानता का परिवेश जातिवाद पनपने के लिए बहुत ही मुफीद होता है। असमानता के माहौल में राजनीतिक पार्टियों के पास जनता के जीवन की बेहतरी के लिए कोई कारगर योजनाएं नहीं हैं। उनके पास जन-विकास के मुद्दे नहीं हैं। जाति के आधार पर गोलबंदी सबसे आसान तरीका है। और इसमें सत्ता पक्ष और विपक्ष सबका ही लाभ है।

आज सत्ता प्राप्त करने वाले राजनीतिक दल जातिवाद को बढ़ावा देते हैं। सत्ता प्राप्ति के लिए जाति के आधार पर जनता की गोलबंदी उनके लिए सबसे आसान और सुरक्षित रास्ता है। इसके लिए वे जाति के सम्मेलन करते-करवाते हैं। जाति के कथित नेताओं को राजनीतिक दलों में पदाधिकारी बनाया जाता है। टिकट देते वक्त क्षेत्र के जातीय समीकरणों का पूरा ख्याल रखा जाता है। जाति की धर्मशालाओं व अन्य संस्थाओं को खुलकर चन्दा दिया जाता है।

आरक्षण बनाम मेरिटोक्रेसी

कुलीन हितों के पोषक आरक्षण विरोधी मानसिकता के बुद्धिजीवियों ने एक बहुत ही भोंडा तर्क गढ़ रखा है, जिसमें उनका बौद्धिक दंभ और जातिगत दुराग्रह स्पष्ट तौर पर उजागर होता है। वह यह है कि आरक्षण शिक्षण-संस्थाओं व प्रशासन की योग्यता और गुणवत्ता को नकारात्मक रूप से प्रभावित करती है। इससे यह भ्रम पैदा करने की कोशिश करते हैं कि योग्यता और प्रतिभा उच्च वर्गों की बपौती है। ज्यों ही इस पर विचार करते हैं तो यह मिथक चूर चूर हो जाता है।

मेरिट या योग्यता का अवसरों की उपलब्धता से गहरा संबंध है। यदि किसी समाज को अवसर नहीं मिलेंगे तो उनमें वांछित योग्यता भी विकसित नहीं होती। जिस समाज को जो अवसर मिले, उन्होंने वैसा करने की योग्यता पैदा की। योग्यता कोई जन्मजात गुण नहीं है। समाज के वंचित वर्गों को जब अवसर मिला, तो वे योग्यता की कसौटी पर खरे उतरे हैं।

मंडल आयोग ने मोहन और लल्लू की पृष्ठ भूमि का तुलनात्मक विवेचन कर इसकी  व्याख्या की है। मोहन एक खाते-पीते परिवार का लड़का है। उसके माता-पिता शिक्षित हैं। वह एक अच्छे पब्लिक स्कूल में जाता है। पढऩे के लिए उसके पास अलग कमरा है। माता-पिता भी उसकी पढ़ाई में सहायता करते हैं। घर में रेडियो-टेलीविजन है। पत्र-पत्रिकाएं आती हैं। प्रभावशाली लोग उसके माता-पिता के परिचित  हैं, जो सही जगह दाखिले में उसकी मदद कर सकते हैं। इसके विपरीत लल्लू गांव में रहता है। माता-पिता अनपढ़ और गरीब हैं। दो कमरों की झोंपड़ी में आठ-आठ लोग रहते हैं।  स्कूल की पढ़ाई करने के लिए उसे तीन किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है। कॉलेज के लिए वह तहसील में अपने रिश्तेदार के यहां जाकर रहता है। दोनों को अगर एक ही तराजू में तौला जाए लल्लुओं की तुलना में, मोहन हमेशा आगे रहेंगे? अत: लल्लू के साथ रियायत से पेश आया जाए, उसके 40 प्रतिशत अंकों को मोहन के 60 प्रतिशत अंकों के बराबर माना जाए और नौकरी में उसके लिए आरक्षण की व्यवस्था की जाए, अन्यथा उसे कभी नौकरी मिल ही नहीं सकेगी।

विशेषतौर पर जिस तरह की योग्यता की बात करते हैं। वह एक छलावा है। ज्ञान का भी वर्ग चरित्र होता है। नौकरियों के लिए परीक्षाओं में सामान्य ज्ञान के नाम पर जो प्रश्न पूछे जाते हैं, वे आभिजात्य समाज से संबंध रखते हैं। आभिजात्य समाज की संस्कृति और जरूरतों की जानकारी को ही ज्ञान माने जाने वाली परीक्षा में पिछड़े तथा सामान्य वर्ग के ग्रामीण छात्र निश्चित रूप से शहरी आभिजात्य के मुकाबले में अच्छा नहीं कर सकते। यदि ग्रामीण और सामान्य जीवन शैली संबंधी जानकारी पूछी जाए तो वे शहरी आभिजात्य को अवश्य ही पछाड़ देंगे।

प्रो. रामनाथ ने उच्च-वर्ग के पूर्वाग्रहों को उजागर करते हुए लिखा है कि ‘संघ लोक सेवा आयोग द्वारा सन् 1950 में आयोजित स्वतंत्र भारत की प्रथम आई ए एस परीक्षा में बंगाल के अच्युतानंद दास अनुसूचित जाति के प्रथम व्यक्ति थे जो आई ए एस के लिए सफल घोषित हुए। इस परीक्षा में मद्रास के एन. कृष्णन् को 260, ए. गुप्ता को 265 तथा ए. दास को मात्र 110 अंक मिले। लिखित परीक्षा को टाप करने वाले ए. दास को मौखिक परीक्षा में सभी आई ए एस व आई ए एस एलाइड परीक्षा में सफल अभ्यर्थियों से कम नंबर दिए गए। सामान्य ज्ञान ( जी. के.) नामक 100 नंबर की लिखित परीक्षा में एन कृष्णन को 69, ए. गुप्ता को 40 तथा ए. दास को 79 अंक मिले। … लिखित परीक्षा में ए. दास को ए. गुप्ता से 119 अंक अधिक मिले तथा मौखिक परीक्षा में ए. गुप्ता को ए. दास से 155 अंक अधिक मिले। यदि मौखिक परीक्षा में ए. दास को एन. कृष्णन से 10 अंक भी कम मिलते तो भी ए. दास टाप करते। लिखित परीक्षा में सफल सभी प्रत्याशियों से ए. गुप्ता को कम अंक मिलने पर भी 22वें स्थान पर तथा ए. दास को सर्वाधिक अंक मिलने पर भी उन्हें अन्तिम स्थान पर फेंक दिया गया।’  (प्रो। रामनाथ, योग्यता मेरी जूती, पृ.-26)

‘ए. दास से ही मिलता जुलता केस अनुसूचित जनजाति के 1954 की आई ए एस परीक्षा के प्रत्याशी आसाम के एस. जे. चोग का है। चोग को लिखित परीक्षा में 747 तथा रवीन्द्रनाथ सेनगुप्ता को 694 अंक मिले। सामान्य ज्ञान की लिखित परीक्षा में चोंग को 114 तथा सेनगुप्ता को मात्र 50 अंक मिले। परंतु व्यक्तित्व परीक्षा में जादू हो गया। चोंग को 160 तथा गुप्ता को 240 अंक मिले तथा इस प्रकार उन्हें भी ए. दास की तरह 64वें अर्थात अन्तिम स्थान पर फेंक दिया गया। गुप्ता के सामान्य ज्ञान में सभी प्रत्याशियों की लिस्ट में नीचे से सेकण्ड तथा पंजाब की स्नेहलता पुरी के नीचे से 3 था अंक थे परंतु वे भी सेनगुप्ता चोंग से व्यक्तित्व परीक्षा के बल पर बहुत आगे निकल गई। गुप्ता के ही समान लिखित परीक्षा में अंक पाए एस. के. चतुर्वेदी व डी.डी. बन्धोपाध्याय दोनों को व्यक्तित्व परीक्षा में 260 अंक मिले जिसके बल पर ही चतुर्वेदी ने 1954 की आई ए एस परीक्षा को टाप किया।’ (प्रो। रामनाथ, योग्यता मेरी जूती, पृ.-27)

क्या आरक्षण दस साल के लिए ही किया गया था?

आरक्षण को समाप्त करने की वकालत एक तर्क यह भी है कि संविधान में आरक्षण का प्रावधान तो केवल मात्र दस साल के लिए ही किया गया था।

आरक्षण की श्रेणीया:

आरक्षण की तीन श्रेणियां हैं

  1. राज्य की सेवाओं और पदों में आरक्षण
  2. शैक्षणिक संस्थाओं में दाखिले में आरक्षण
  3. लोकसभा व विधानसभा की सीटों में आरक्षण

इनमें से लोकसभा व विधानसभा की सीटों में आरक्षण की ही समय सीमा दस साल के लिए रखी गई थी और इसे संसद द्वारा स्थिति का मूल्यांकन करके आगे बढने का प्रावधान किया था।

शिक्षण संस्थाओं में दाखिले और राज्य की सेवाओं और पदों के आरक्षण में समय सीमा तय नहीं की गई थी।

असल में भारत में जाति के आधार पर शिक्षा, राज्य की सेवाओं व पदों और राजनीतिक सत्ता की हिस्सेदारी से दूर रखा गया था। और समाज में घोर अंसतुलन था। समाज का बहुत बड़ा हिस्सा इन प्रक्रियाओं से बाहर था। आरक्षण का उद्देश्य था इस अंसतुलन को दूर करना और यह तभी संभव होगा जब सभी समाजों की जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व व हिस्सेदारी सुनिश्चित हो। जब तक यह उद्देश्य पूरा नहीं हो जाता तब तक यह जारी रहना चाहिए।

                पिछड़े वर्गों में शामिल होने की एक प्रकिया है जिसका पालन करना होगा। राज्य व केंद्रीय पिछड़े वर्गों की सूची में शामिल होने के लिए मानदण्ड पूरे करने होंगे। सामाजिक-शैक्षणिक पिछड़ेपन के मानदण्डों पर ये खरे नहीं उतरते। लेकिन अपनी संख्या और राजनीतिक ताकत के बल पर आंदोलन करने की क्षमता इनके पास है। सरकारें और राजनीतिक चुनावी गणित को ध्यान में रखते हुए निरंतर इनको झांसे में रखती हैं विशेषतौर पर चुनावों के मौके पर समझौता कर लेती हैं और आंदोलन के लिए पृष्ठभूमि तैयार हो जाती है। पिछले दस साल से चूहे-बिल्ली का यह खेल जारी है।

आरक्षण का विरोध कौन करता है।

आरक्षण-विरोध और सवर्ण जातियों का गहरा संबंध है। यह बात न केवल आम व्यवहार में दिखाई देती है, बल्कि सन् 1985 में आन्ध्रप्रदेश में वारंगल स्थित काकतीय विश्वविद्यालय के शिक्षा-विभाग के श्रीपरमा जी के नेतृत्व में अनेक विश्वविद्यालयों का इस संबंध में सर्वेक्षण किया और पाया कि ‘आरक्षण की नीति के समर्थकों और उसके आलोचकों की जातीय पृष्ठभूमि का विश्लेषण करने से यह स्पष्ट होता है कि ऊंची जातियों में आरक्षण विरोध में घनिष्ठ संबंध है और नीची जातियों में आरक्षण का समर्थन स्पष्ट है। इस मामले में एक अपवाद गैर-दक्षिणपंथी राजनीतिक कार्यकर्ताओं का है जो बिना जातीय पृष्ठभूमि के आरक्षण का समर्थन करते हैं।’ (बर्धन, ए बी, वर्ग, जाति आरक्षण और जातिवाद के खिलाफ संघर्ष, पृ.-41(जातीय आरक्षण और उस पर अमल, परमा जी, पृ.-177)

‘सन् 1978 में बिहार में तथाकथित  अगड़ी जातियों (एफ सी) और पिछड़ी जातियों (बी सी) में हिंसात्मक आमना-सामना हुआ, जबकि पिछड़े वर्गों के लिए नौकरियों में आरक्षण बढ़ाया गया था …’सन् 1980 में गुजरात में आरक्षण-विरोधी आन्दोलन भड़क उठा। फिर 1984-85 में मध्य प्रदेश तथा गुजरात आरक्षण-विरोधी तथा आरक्षण-समर्थक आन्दोलन से हिल गए। खास तौर से गुजरात में यह आन्दोलन न केवल महीनों तक चला अपितु उसने हिंसात्मक एवं घिनौना साम्प्रदायिक रूप ले लिया।’ (बर्धन, ए बी, वर्ग, जाति आरक्षण और जातिवाद के खिलाफ संघर्ष, 35)

सन् 1986 में आन्ध्रप्रदेश की एन टी रामाराव की सरकार द्वारा अन्य पिछड़ी जातियों के लिए आरक्��ण बढ़ाने का विरोध ‘आन्ध्र प्रदेश नवसंघर्षण समिति’ बनाकर किया।

सन 2004-05-06 में जब सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्रीय शिक्षण संस्थानों में अन्य पिछड़ी जातियों को दाखिले देने के लिए जोर दिया तो इसके विरुद्ध यूथ फार इक्वलिटी आदि की लुभावनी शब्दावली में आरक्षण का विरोध किया गया।

       आरक्षण के विरोध में आंदोलन किए गए। लेकिन सीधे-सीधे आरक्षण-विरोधी अपने उद्देशयों में सफल नहीं हुए तो उन्होंने एक तरीका ढूंढा और उसी रणनीति पर वर्तमान में पटेल, मराठा और जाट आरक्षण आंदोलन के नेता काम कर रहे हैं। अपने लिए आरक्षण मांगने का अर्थ है कि या तो हमें भी इसमें शामिल किया जाए या ये समाप्त हो।

ये जातियां मुख्यत: किसानी जातियां हैं शासन-नीतियों के चलते जिन पर आर्थिक संकट है, लेकिन यह एक दिलचस्प बात है कि इसका समाधान वे आरक्षण में ढूंढ रहे हैं।

यदि सरकारों की कमजोरी और अपनी ताकत के बल पर आरक्षण मिल भी जाता है तो भी यह गरीबी-बेरोजगारी की समस्या का समाधान नहीं है। आरक्षण के माध्यम से सरकारी क्षेत्र में ही रोजगार मिल सकता है जो कुल जनसंख्या का बहुत ही कम हिस्सा है। और उसमें आरक्षित पद तो और भी कम हैं। ये बात समझने की महती आवश्यकता है कि आरक्षण गरीबी उन्मूलन का नहीं, बल्कि सदियों से जाति के आधार पर राज्य-प्रशासन की गतिविधियों से दूर रखी गई बहुत बड़ी आबादी को प्रतिनिधित्व देने का एक उपाय भर है ताकि सच्चे मायने में राष्ट्र-निर्माण हो सके।

सामाजिक तौर पर अगड़ी लेकिन शैक्षणिक व आर्थिक तौर पर पिछड़ी जातियों से गरीबी-बेरोजगारी दूर करने के लिए सरकारें छात्रवृतियां और अन्य किस्म की आर्थिक विकास की योजनाएं बनाकर इन्हें राहत दे सकती हैं।

बहुत से लोग इन आंदोलनों से हुए नुक्सान को देखकर यह भी कहने लगे हैं कि आरक्षण ही समस्या की जड़ है इसे समाप्त कर देना चाहिए। लेकिन यह विचार सामाजिक न्याय के बिल्कुल खिलाफ है। आरक्षण को तब तक समाप्त न किया जाए जब तक कि जब तक ये वर्ग खुली प्रतिस्पर्धा करने के लिए सक्षम न हो जाएं और अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और पिछड़े वर्गों का केंद्रीय और राज्य सरकार की सेवाओं के सभी कैडर में उनका प्रतिनिधित्व उनकी जनसंख्या के अनुपात के बराबर न पहुंच जाए।

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (जनवरी-अप्रैल, 2018), पेज- 33 से 39