उर्मिलेश
(19 नवंबर 2017 को सिरसा में साहित्यिक सामाजिक सरोकारों को समर्पित संस्था संवाद, सिरसा द्वारा शहीद पत्रकार रामचन्द्र छत्रपति की स्मृति में ‘छत्रपति सम्मान 2017’ के अवसर पर राज्यसभा टीवी के पूर्व संपादक, द वायर के ‘मीडिया बोल’ कार्यक्रम के चर्चित और प्रतिबद्ध पत्रकार और लेखक उर्मिलेश का वक्तव्य की प्रस्तुति की है राजेश कासनिया ने।
सिरसा भले ही देश का छोटा शहर माना जाए, पर मेरे लिए यह शहर पत्रकारिता के हिसाब से बहुत बड़ा तीर्थ स्थल है। मैं सबसे पहले रामचंद्र छत्रपति की शहादत को नमन करता हूं और इन सभी लोगों को भी सलाम करता हूं, जिन्होंने रामचंद्र छत्रपति की अधूरी लड़ाई को मंजिले-मकसूद तक पहुंचाया।
मैं आज अपनी बात रखंूगा-पत्रकारिता की मौजूदा चुनौतियां विषय पर। मैं चाहता हूं कि समाज में विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाले लोग हैं, वो भी जानें कि क्यों उनका मीडिया उनसे अलग होता जा रहा है? क्यों हर शाम देश के सारे बड़े न्यूज़ चैनल्स कुछ-एक परशैपशन्स को भजन मंडली में तब्दील हो जाता है। एक ही तरह की भाषा, एक ही तरह का अभिन्न अलंकार, एक ही व्यक्ति, एक ही सत्ता पर क्यों केंद्रित हो जाता है।
भारतीय मीडिया विस्तार के हिसाब से बहुत विशाल मीडिया है। 82 हजार से ज्यादा अ$खबार हैं अपने देश में, सैंकड़ों न्यूज़ चैनल्स हैं। तो आखिर ऐसा क्यों है? इतना इनवैस्टमैंट है। एक जमाने में अखबार 10-15 पेज के निकला करते थे, लेकिन अब टाईम्स आफ इंडिया, हिन्दुस्तान टाईम्स जैसे अ$खबार दिल्ली में 40-45 पेज के निकलते हैं जो दिवाली, दशहरा, होली आदि के मौके पर बढ़कर सौ-सवा सौ पेज के हो जाते हैं। आजकल एक बड़ा जुमला चला हुआ है कि मीडिया का कार्पोरेटाईजेशन हो गया है, तो हम लोग क्या करें? लेकिन क्या भारत का मीडिया अमेरिका के मीडिया से भी ज्यादा कार्पोरेटाईज है? अमेरिका का मीडिया तो हाईली कार्पोरेटाईज है, लेकिन आज की तारीख में भी अमेरिका का 70-80 प्रतिशत मीडिया डोनाल्ड ट्रंप की तमाम जनविरोधी, तमाम विस्तारवादी, तमाम शोषण-उत्पीडऩ व युद्धों को बढ़ावा देने वाली नीतियों के खिलाफ तनकर खड़ा हुआ है। तो आखिर भारत का मीडिया क्यों घुटने टेक देता है? वजह क्या है? तो ये तमाम प्रश्न हैं, जो मुझे लगता है कि समाज के हर तबके को समझना चाहिए। ये ऐसा नहीं है कि पत्रकारों का प्रश्न है। हम सबको सोचना चाहिए।
मैं काफी लंबे समय से पत्रकारिता में हूं। हम देखते हैं कि हमारे यहां डेमोक्रेसी (लोकतंत्र) चाहे जैसी भी हो, हालांकि यह कागज पर ज्यादा है। लेकिन अभी भी हमारे देश में दिल्ली में बैठकर, मुंबई में बैठकर बड़े-बड़े नेताओं, बड़े-बड़े कार्पोरेट के खिलाफ लिखना-बोलना थोड़ा सहज है, अब मुश्किल हो गया है लेकिन एक दौर में बहुत सहज था और अभी भी वो लोग बोल लेते हैं, जोखिम लेते हुए। लेकिन मैंने ये पाया कि अपने जैसे मुल्क में स्थानीय स्तर पर, क्षेत्रीय स्तर पर बड़े माफियाओं, महाबलियों के खिलाफ चाहे वो धर्म के हों, जाति के हों या अपराध के हों, उनके खिलाफ लिखना-बोलना बेहद कठिन काम है। ऐसे आमतौर पर स्थानीय स्तर पर पत्रकारिता यह काम नहीं कर पाती है। ऐसे बहुत कम पत्रकार होते हैंं जो प्रतिबद्धता के साथ ये बात कहते हैं।
हमारे यहां कि एक महान परम्परा रही है। इस ट्रेडेशिन को आपके सामने पेश करना चाहूंगा। हमारे देश में आज़ादी की लड़ाई के दौरान जो पहला शहीद हुआ, जिसे भारतीय पत्रकारिता याद नहीं करती है – मौलाना बाकर साहब जो ‘दिल्ली-उर्दू’ अ$खबार के संपादक थे। ये 1857 के आसपास शहीद हुए। लेकिन हम लोग अजीब समाज हैं, डेमोक्रेसी भी हैं, लेकिन हम जाति-धर्म में इस कदर बंटे हुए हैं कि अपने पहले शहीद को ही याद नहीं करते हैं। करतार सिंह सराभा पत्रकारिता के बड़े हस्ताक्षर थे, वो हमारे दूसरे शहीद थे। और तीसरे थे गणेश शंकर विद्यार्थी जिनका नाम हम सब काफी हद तक जानते हैं। कानपुर में ‘प्रताप’ अखबार के संपादक थे। और दिलचस्प बात यह है कि गणेश शंकर विद्यार्थी के अखबार में भगत सिंह कॉलम लिखा करते थे। भगत सिंह कैसे लिखना शुरू किया और गणेश शंकर विद्यार्थी से कैसे जुड़े यह अद्भुत कहानी है। भगत सिंह के पीछे ब्रिटिश हुकूमत की पुलिस, इंटैलिजैंस, अफसरशाही व दलालों की एक फौज लगी हुई थी कि कैसे भगत सिंह को गिरफ्तार करवाकर पैसा और अवार्ड ले लिया जाए। उस वक्त गणेश शंकर विद्यार्थी ने उनको अपने घर में, दफ्तर में रखा था, नाम बदलकर। भगत सिंह उन टेबलों पर सोया करते थे अखबार बिछाकर जहां दिन में वो लोग काम किया करते थे और इसी अखबार में बलवंत के नाम से या अन्य कई नामों से वो अपना लेख लिखा करते थे। इतनी कम उम्र में गणेश शंकर विद्यार्थी के अखबार में जिस तरह के लेखों को भगत सिंह ने लिखा वो चमत्कृत कर देने वाला है। भगत सिंह को तो हम लोग बचपन से ही यह जानते थे कि वह बहुत बड़ा योद्धा था। एक बहुत ही वीर पुरुष था। लेकिन यह नहीं जानते थे कि वो कितना बड़ा दार्शनिक था, कितना बड़ा विचारक था और कितनी कम उम्र में यह हासिल हुआ। तो यह हमारे देश की महान ट्रेडिशन है – गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे लोग।
हाल के दिनों में बहुत सारे पत्रकार मारे गए हैं-गौरी लंकेश, रामचंद्र छत्रपति, शांतनु भौमिक, राजदेव रंजन आदि। और भारत दुनिया के उन 16 मुल्कों में शुमार है जो पत्रकारिता के लिए जोखिम वाली जगह। हम अपने-आपको डेमोक्रेसी कहते हैं और खुश होते हैं कि हम विश्व गुरु बनने जा रहे हैं, लेकिन हम मीडिया फ्रीडम या प्रैस की अभिव्यक्ति की आजादी में 180 देशों में हम 136वें स्थान पर हैं।
जब मैं भारत का संविधान खोलता हूं तो उसकी प्रस्तावना में ही हमको बताया जाता है कि हम लोकतंत्र हैं, हम धर्म-निरपेक्ष हैं, हम समाजवादी भी हैं। और ये तीन शब्द उस वक्त मुझको बेहद चिढ़ाते हैं, जब मैं अपने-आपको यूरोप या किसी अन्य महाद्वीप के देशेां की डेमोक्रेसी में उपस्थित पाता हूं और लगता है कि हम कैसी डेमोक्रेसी हैं। हम शब्दों में इतने मुग्ध और प्रयोग में इतने सिद्धहस्त हैं कि शब्दों का माला की तरह इस्तेमाल करते हैं, लेकिन अमल के नाम पर कुछ नहीं। हमारे देश के सबसे बड़े प्रदेश (यूपी) का मुख्यमंत्री संविधान के नाम पर शपथ लेकर भी कहता है कि हमारे संविधान का सेक्यूलरिज्म शब्द है वो सबसे बड़ा झूठ है और वो फिर भी मुख्यमंत्री बना रहता है। जैसा हमारा लोकतंत्र है, वैसा ही हमारा समाज और वैसी ही हमारी मीडिया।
हमारे यहां आजादी की लड़ाई में अनेक धाराएं थीं और दुखद ये था कि जो सबसे जनपक्षीय धारा थी, जो वाकई समाज को बदलना चाहती थी, वो सफल नहीं हुई और जो धाराएं सफल हुई, उनमें आजादी के बाद और डिजनरेशन हुआ। ये महज संयोग नहीं है कि आजादी के तत्काल बाद, लोकतंत्र के सूर्याेदय में भी जिस तरह के घटनाक्रम हुए उन घटनाक्रमों से एक तरह का खतरा मंडराने लगा था। आज हम जो 2014 के बाद से जो कुछ देख रहे हैं, चाहे वो न्यायपालिका, कार्यपालिका, संसद या फिर मीडिया के स्तर पर ये महज एक संयोग नहीं है। ये अचानक हुई घटना भी नहीं है। एक निरंतरता, एक सिलसिला इसके पीछे है। पहले वो सिलसिला इतना विकृत, इतना जुगुप्सा जगाने वाला, इतना भयावह नहीं था। उसको विकृत होने में, भयावह होने में 65-70 साल लगे हैं, लेकिन गड़बडिय़ों की शुरुआत तो पहले ही हो गई थी। आजादी के तत्काल बाद जो पहला संविधान संशोधन हुआ था, वो किस लिए हुआ था? जिन दो मुख्य कारणों से हुआ था उनमें एक बिहार का भूमि सुधार बिल भी था। एक ऐसा प्रदेश जिसमें सबसे पहले लैंड-रिफोर्म बिल इंटरोड्यूस किया गया, वहां लैंड रिफोर्म होने ही नहीं दिया गया और बिहार में आज तक लैंड-रिफोर्म नहीं हुआ और हम कह रहे हैं कि जनतंत्र। यानी आप सामंतवाद बरकरार रखते हुए आप जनतंत्र कायम रखना चाहते हैं।
1953 में दूसरी जो बड़ी घटना घटी, वो जम्मू-कश्मीर में घटी। भारत का पहला राज्य जहां लैंड-रिफोर्म हुआ वो केरल और बंगाल नहीं था। जम्मू-कश्मीर वो प्रदेश था, जहां सबसे पहला लैंड-रिफोर्म हुआ। और वो शेख मोहम्मद अब्दुला की सरकार ने किया और 1953 में ही शेख अब्दुला को गुलबर्ग के गैस्ट हाऊस से गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया और सरकार बर्खास्त कर दी गई। ऐसा क्यों हुआ आखिर जबकि उस समय पंडित जवाहर लाल नेहरू जैसा ‘डेमोक्रेटÓ भारत का प्रधानमंत्री था और पंडित नेहरू शेख अब्दुला के करीबी मित्र थे और जिन लोगों की वजह से जम्मू-कश्मीर का विलय भारत में हुआ, वो थे पंडित जवाहर लाल नेहरू, शेख अब्दुला, वी.पी. मेनन और महाराजा हरि सिंह। जिस प्रमुख व्यक्ति के कारण जम्मू कश्मीर का विलय भारत में हुआ उसी व्यक्ति को आप विलय के कुछ ही साल बाद जेल में डाल देते हो। क्योंकि पूरी की पूरी लैंडलार्ड लॉबी जो प्रजा-परिषद के नाम से सामने आ चुकी थी। जिसमें वहां के बड़े लैंड लॉर्ड्स और कंजरवेटिव एलिमेंट (कट्टरपंथी) इन तमाम लोगों ने मिलकर शेख अब्दुला को गिरफ्तार करवा दिया। पंडित नेहरू जैसी बड़ी हस्ती भी किस तरह से दबाव में आई थी, लोकतंत्र के सूर्याेदय में ये हैरान करने वाला है।
तीसरी घटना केरल की है। केरल में 1959 में दुनिया की पहली निर्वाचित वामपंथी सरकार बनी थी और उसे अनायास डिसमिस कर दिया गया। क्यों डिसमिस किया गया? जो ताजे रहस्योद्घाटन है, जो आर्काइव्स में पेपर मौजूद है। मैंने केरल के तत्कालीन राज्यपाल का लैटर पढ़ा था जो उन्होंने गृह मंत्री को भेजा था। उस लैटर में लिखा है कि इस सरकार के दो बिल के कारण पूरे केरल में गृह युद्ध जैसी स्थिति हो जाएगी, पूरा केरल तबाह हो जाएगा। वो क्या बताए- पहला लैंड रिफोर्म और दूसरा एज्युकेशन बिल। ई.एस. नम्बूदरीपाद की सरकार ने तय किया कि दो काम जरूर करने हैं – लैंड रिफोर्मस और एज्युकेशन बिल को इंटरोड्यूस करना। एजुकेशन के बिल के जरिए समाज के सभी वर्गों को समान शिक्षा देना और लैंड रिफोर्मस के जरिए बड़े-बड़े लैंड लॉर्डस की जमीनें गरीबों व जोतने वालों में बांटना। जम्मू-कश्मीर में तो कमाल किया था शेख अब्दुला ने। बगैर किसी परवाह किए सारी जमीन बांट दी थी और कंपनशेसन भी नहीं दिया था। ई.एम.एस.नम्बूदरीपाद तो इस बात के लिए भी तैयार थे कि हम कंपनशेसन भी दे देंगे। लेकिन तब भी केरल में ऐसा न हो इसके लिए पूरी की पूरी केंद्र सरकार लग गई। उस समय इंदिरा गांधी कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष थी और उनके पिता प्रधानमंत्री थे (भारत के महान ‘डेमोक्रेट’)। और सरकार बर्खास्त कर दी गई।
केरल भारत का पहला राज्य है जिसके सोशल इंडीकेट्र्स नंबर वन है। शिक्षा में सबसे बेहतर स्वास्थ्य में सबसे बेहतर, ह्यूमन डैवल्पमैंट इंडेक्स में तो केरल यूरोप के कई देशों से मुकाबला करता है। ये अलग बात है कि जिस प्रदेश में मेरा जन्म हुआ, उस प्रदेश का मुख्यमंत्री गया था केरल हाल ही में। उन्होंने कहा कि केरल को उत्तर प्रदेश से सीखना चाहिए कि हमारे यहां स्वास्थ्य सुविधा कितनी अच्छी है। ये अलग बात है कि यूपी के बड़े अस्पतालो में रोज बच्चे मरते हैं, कभी 30 तो कभी 60 और भारत का मीडिया उनके बयान को बड़ी प्रमुखता से दिखाता है। कमाल का मीडिया है और वहां का मुख्यमंत्री बयान देता है तो अखबार के 28वें पेज पर 8वें कालम में छोटी-सी खबर छपती है और टैलीविजन में तो चलता ही नहीं कि केरल का मुख्यमंत्री कुछ बोलता भी है।
बैंकों का राष्ट्रीयकरण हुआ, कोयले का राष्ट्रीयकरण हुआ। इस दरम्यान भी देखा जाए तो भारतीय मीडिया का बड़ा हिस्सा इन दोनों के खिलाफ खड़ा हो गया। भले ही लोग सत्ता के साथ हों, लेकिन भारतीय मीडिया इसको पसंद नहीं कर रहा है। ये श्रीमती इंदिरा गांधी के समय हुआ था।
इमरजैंसी से पहले बिहार में जे.पी. आंदोलन चल रहा था और गुजरात में नोर्वे-मार्मो आंदोलन। मीडिया काफी सक्रिय था और करप्शन और तानाशाही को अक्सपॉज कर रहा था। लेकिन वो ही मीडिया ईमरजैंसी में आडवानी जी के शब्दों में कहूं तो – ‘जब इंडियन प्रैस को कहा गया ईमरजेंसी के झुको तो वो केंचुए की तरह रेंगने लगा और आडवानी जी ने बिल्कुल सही कहा। हम सारे प्रैस वाले केंचुए की तरह रेंगने लगे थे। ये हमने ईमरजेंसी में देखा। कुछ-एक साहसी पत्रकार थे – जो तनकर खड़े थे और ब्लैक कर देते थे अपने सम्पादकीय को। इस देश में मेन स्ट्रीम मीडिया का बड़ा हिस्सा चाहे केंचुआ बना हो, लेकिन एक छोटी-सी धारा रही है जो शहीद होती रही है, जेल जाती रही है, नौकरियों से निकाली जाती रही है, लेकिन वो झंडा उठा ये रहे हैं। आशा का दीप बुझा नहीं है, ये खूबसूरती भारतीय समाज की है।
ईमरजेंसी के बाद पंजाब कवरेज को भी हमने बहुत करीब से देखा है क्योंकि मैं उस वक्त दिल्ली के अखबारों के लिए काम करता था। और मैं पंजाब आकर अमृतसर से लेकर भठिंडा, बरनाला आदि जगहों पर जाता था और खूब लिखता था। मैंने देखा कि हिन्दी पत्रकारिता कैसे हिन्दू पत्रकारिता में बदल है। दिल्ली के अनेक अखबार, हिन्दी के अच्छे-अच्छे सम्पादक शुद्ध हिन्दूवादी हो गए। मैं आतंकवाद को जायज नहीं ठहरा रहा हूं, लेकिन निर्दोष, निरपराध लोगों के मारे जाने पर तो सवाल उठना चाहिए। वो क्यों नहीं उठता है?
जब मंडल आया तो पूरे उत्तर भारत में हंगामा मच गया। समाज आरक्षण के खिलाफ खड़ा हो जाता है, लेकिन कौन समझाएगा कि भारत जैसे समाज में आरक्षण जरूरी है या नहीं ? और कौन ये बताएगा कि अमेरिका जैसे मुल्क में भी आरक्षण है, अपने ढंग का। अमेरिका के मीडिया में भी आरक्षण है। लेकिन भारत के मीडिया में एक भी दलित सम्पादक नहीं है। 1970 के बाद राष्ट्रपति के पद पर दलित बैठ चुके हैं, लेकिन एक भी दलित सम्पादक नहीं बनने दिया गया। ये बात एक भी हिन्दुस्तानी ने नहीं उठायी कि क्यों नहीं दलित संपादक बनता है? पहली दफा इस बात को रोहिन जेफरी ने उठाया, जब हिन्दुस्तान आकर 10 सालों में एक किताब लिखी, ‘इंडियाज न्यूज पेपर रिवोल्यूशन’। आज भी मेन स्ट्रीम मीडिया में एक भी दलित संपादक नहीं है।
इसके अलावा मैं एक बात और कहना चाहूंगा। जब मैं इलाहाबाद यूनिवर्सिटी का छात्र था, तब युनिवर्सिटी रोड पर बहुत सारी किताबों की दुकानें थी। उन दुकानों में – माक्र्स, ऐंगल्स, लेनिन, टॉलस्टाय, चेखव, गोर्की, ग्राम्शी, विवेकानंद, परमहंस, गोलवलकर, नेहरू, गांधी सबकी किताबें मिल जाया करती थी। लेकिन आम्बेडकर की एक भी किताब नहीं थी उस वक्त। लेकिन आज आम्बेडकर हमारे देश की महानतम विभूतियों में से एक के रूप में स्थापित हो चुके हैं और जब ‘आउटलुक’ पत्रिका ने सर्वे कराया तो माना गया कि वो सबसे बड़ी शख्सियत (समाज की और सियासत की) के रूप में लिए जा रहे हैं। लेकिन अम्बेडकर को इस देश के मीडिया ने इग्नोर किया। इसीलिए आम्बेडकर को आजादी की लड़ाई के समय और उसके बाद कोई न कोई पत्रिका निकालनी पड़ी। मेन स्ट्रीम मीडिया उनको जगह नहीं देता था। तो भारतीय मीडिया जब तक कास्ट और रिलीजन, इन दो संरचनाओं को $खारिज नहीं करता, तब तक भारत का मीडिया लोकतांत्रिक हो ही नहीं सकता। और भारतीय मीडिया की यही सबसे बड़ी समस्या है।
अयोध्या का कवरेज यदि आप देखें। अयोध्या में जब मंदिर-मस्जिद का विवाद शुरू हुआ, तब मीडिया ने उसे किस तरह कवर किया। उस मस्जिद को भारतीय मीडिया ने मस्जिद कहना बंद कर दिया और विवादित ढांचा कहना शुरू कर दिया। जिस संपादक, जिस अखबार, जिस पत्रकार ने ये शब्द प्रयोग किया होगा। मैं समझता हूं, वो ज़हर से भरा हुआ दिमाग रहा होगा और आपने बताना शुरू किया कि राम यहीं पैदा हुए थे। जब डेमोक्रेसी को मजबूत करने के लिए यूरोप आगे बढ़ा, तो उसने चर्च और स्टेट के बीच सेपरेशन किया। लेकिन हमने आजादी के बाद धर्म और तंत्र में रिश्ता बनाया।
1991-92 में जब इकोनोमिक रिफोर्मस आया, जब सारा मीडिया बिछ गया था और एक जुमला चला कि आर्थिक सुधारों के लिए आम सहमति है। हर अखबार, हर न्यूज चैनल ने कहा। भई! आम सहमति कब बनी थी? 1989 से लेकर आज तक किस पोलिटिकल पार्टी ने अपने मेनीफेस्टो में ये लिखा कि भारत में लिबराइजेशन, स्टेट कंट्रोल्ड खत्म किया जाएगा?
आज जो हालात हैं हमारे देश की उसकी बुनियादी जो वजह है वो यही है कि हमने जाति, धर्म और सम्प्रदाय को अपने जनतंत्र से अलग नहीं किया। जिस तरह से हमने समझा था कि जातियां खत्म होंगी, जातियों का विनाश होगा। आम्बेडकर की बहुत मशहूर किताब है -जाति-उन्मूलन। लेकिन हुआ ये कि हमारे देश में जातियों की जकड़बंदी और तेज होती गई। हमने चाहा कि मठों, डेरों और धर्म के धंधेबाजों की जकड़बंदी का असर कम हो, लेकिन वो बढ़ता गया, क्योंकि अगर शासन, चुने हुए प्रतिनिधि आम लोगों की जुबान नहीं बोलेगा, आम लोगों की बात नहीं करेंगे तो ये छोटे-मोटे मठ, ये छोटे-छोटे डेरे लोगों की भावनाओं का शोषण करते हुए आगे बढ़ते रहेंगे और मीडिया उनके हाथ में खिलौने की तरह हो जाते हैं।
मेरा यह मानना है कि अगर भारत के मीडिया में सिर्फ एक ही वर्ण, एक ही बिरादरी के 90 फीसदी लोग हैं और संपादकों में एक भी व्यक्ति देश की बहुसंख्यक आबादी का नहीं है तो वैसे मीडिया के बारे में आप क्या कल्पना कर सकते हैं। जिस देश के मीडिया में कोई मुकम्मल पारदर्शी पद्धति न हो। एक आदमी ने चाहा और नियुक्तियां हो गई। और इनके अंदर की कहानी तो और भी भयावह है।
संपादक तो छोडि़ए, जो सीनियर एंकर है, उनकी तनख्वाह, 5 लाख, 7 लाख, 8 लाख और जोसबसे अधिक गाली-गलौच करता है, जो सबसे ज्यादा चीखता है उसकी तनख्वाह भी लाखों में है और जो सबसे नीचे काम करता है अखबारों में या चैनल में उसकी तनख्वाह 15-20 हजार। ऐसा लगता है कि इस तंत्र ने अपने रखवालों को छोटा-छोटा राज दे रखा है कि तुमको 5 लाख देंगे, तुमको 7 लाख देंगे, तुमको 8 लाख देंगे और तुम हमारे लिए भौंकते रहो।
जो हमारे तंत्र के ताकतवर लोग हैं, उन्होंने मीडिया को अपने लिए मंच के रूप में तब्दील कर लिया है और जब चाहते हैं जैसा चाहते हैं अपना एजेंडा उछालते रहते हैं। भारत का जो तरक्की पंसद खेमा है, उसकी क्या परेशानी है? जिसे प्रगतिशील, जिसे सेक्यूलर, जिसे डेमोक्रेटिक कहते हैं। कभी आपने सोचा है कि आप क्यों सिंकुड़ते गए हैं? क्यों सिमटते गए हैं? आप अच्छे हैं, आप पॉजिटिव हैं और आपके पास सही एजेंडा है, लेकिन क्यों आप फिसल रहे हैं? मुझे लगता है कि इसकी भी शिनाख्त होनी चाहिए। आत्मपरीक्षण, आत्म निरीक्षण होना चाहिए, जो नहीं हुआ। सबसे बड़ी वजह यही है कि आप अच्छे हैं, लेकिन कुछ ही लोगों के बीच जा रहे हैं। भारत में जो बड़ा समाज है, जो उत्पादक समाज है, जो सबाल्टर्न है, उसकी पहुंच से आपका नेतृत्व दूर है। और जो सबसे बुरी सोच के लोग हैं, उन्होंने सबाल्टर्न समाजों में पेनीट्रेशन किया है। धर्म के जरिए, जाति के जरिए, मंदिर-मस्जिद के जरिए।
भारत में इस वक्त करोड़ों बेरोजगार हैं, लेकिन मंदिर लगातार बन रहे हैं। मैं जिस इलाके में रहता हूं वो एनसीआर का इलाका है उत्तर प्रदेश का। वहां 16 हजार मंदिर बने हैं हाल के दिनों मेें। मैं मंदिरों के खिलाफ नहीं हूं, मंदिर बनें, लेकिन रोजगार कब बनाएंगे, अस्पताल कब बनाएंगे, स्कूल-कालेज कब बनाएंगे? सरकारी स्कूल खत्म हो रहे हैं।
जब मैं पहली बार लंदन गया तो हमें बर्घिंंगम के स्कूल में ले जाया गया और बच्चों से इंटरैक्ट करवाया गया। एक बच्चे को खड़ा किया गया (जो पगड़ी बांधे) जो सरदार था। हमने उससे पूछा कि तुम्हारे पिताजी कहां से आये हैं? तो उसने बताया कि पंजाब के जालंधर के इलाके से। उसके पिता एक केबिनेट मंत्री के ड्राइवर थे और उस मंत्री का बेटा भी उसी स्कूल में पढ़ता था, उसकी ही क्लास में। ये उस देश की कहानी मैं बता रहा हूं जहां अब भी राजा-रानी होते हैं। हमारे यहां इतना खूबसूरत संविधान बनने पर भी हमने हर इलाके में राजा-रानी खड़े कर दिए हैं। कोई धर्म का राजा, कोई जाति का राजा तो कोई सम्प्रदाय का राजा है। उनके यहां जनतंत्र जमीन पर है और हमारे यहां कागज पर है और शरीफ लोग अच्छी सोच वाले लोग सब देख रहे हैं। ये सब इस देश की सबसे बड़ी विडम्बना है।
तो मित्रो ‘हरि अनंत, हरि कथा अनंता’। अंत में बस यही कहूंगा कि जब तक इस देश में एक वाइबरैंट मीडिया नहीं आयेगा, जब तक सबाल्टर्न सेक्शन जो समाज का है, उत्पीडि़त समाज जो है, वो मीडिया में नहीं आयेगा। तब तक मीडिया का यही एजेंडा रहेगा। तरक्की पसंद लोग अच्छी-अच्छी बातें करके मीडिया में आपको चमत्कृत करते हैं। आपको अच्छा भी लगता है कि मीडिया में ऐसे भी कुछ लोग हैं, लेकिन मीडिया इनक्लुसिव नहीं बनेगा तो जाहिर है वो समाज को वह दिशा नहीं दे पाएगा, जिस दिशा की दरकार है।
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (जनवरी-अप्रैल, 2018), पेज- 75-78