जहाज कोठी- सुरेंद्र पाल सिंह

हरियाणा का इतिहास दिल्ली के इतिहास के साथ एकदम जुड़ा रहा है। औरंगजेब के बाद करीब 100 वर्षों तक हरियाणा के इलाकों में सत्ता के नए दांव पेंच, उथलपुथल, अराजकता, लूटपाट आदि की एक तस्वीर को जॉर्ज थॉमस का उभार के माध्यम बनाया गया है।  जॉर्ज का व्यक्तिगत जीवन और उसका दुस्साहस भरा रणकौशल अपने आप में चर्चा का एक बड़ा विषय हो सकता है। इस आलेख में उस दौर के राजनैतिक घटनाक्रम को अधिक महत्व दिया गया है

 

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-जार्ज थॉमस प्रकरण के बहाने-
हरियाणा के इतिहास में राजनीतिक अराजकता की एक तस्वीर

हरियाणा का इतिहास दिल्ली के इतिहास के साथ एकदम जुड़ा रहा है। औरंगजेब के बाद करीब 100 वर्षों तक हरियाणा के इलाकों में सत्ता के नए दांव पेंच, उथलपुथल, अराजकता, लूटपाट आदि की एक तस्वीर को जॉर्ज थॉमस का उभार के माध्यम बनाया गया है।  जॉर्ज का व्यक्तिगत जीवन और उसका दुस्साहस भरा रणकौशल अपने आप में चर्चा का एक बड़ा विषय हो सकता है। इस आलेख में उस दौर के राजनैतिक घटनाक्रम को अधिक महत्व दिया गया है ताकि इतिहास के उस दौर से कुछ विशेष सीख पाएं। क्या वजह थी कि इतने लम्बे अर्से में कोई भारतीय शक्ति सत्तासीन नहीं हो पाई और किस प्रकार हमारी आंतरिक कमजोरियों ने ही ब्रिटिश राज के रास्ते स्वत: ही बना दिये। मुग़ल साम्राज्य के पतन के दौर में जॉर्ज थॉमस के जीवन के बहाने तत्कालीन राजनीतिक उथल पुथल और अराजकता के दौर को समझने की कोशिश है।

हिसार में एक स्थान का नाम है जहाजपुल। इसके बगल में ही एक इमारत है जिसमें एक टूटे हुए पत्थर की प्लेट पर अंग्रेजी और फ़ारसी में लिखा है जॉर्ज थॉमस 1796। फि़लहाल इस इमारत में पुरातत्व विभाग द्वारा एक अजायब घर बनाया हुआ है। इसी प्रकार झज्जर जिले में बेरी के नज़दीक एक गांव का नाम है जहाजगढ़।

जहाजपुल नामक स्थान पर कोई पुल नहीं है और ना ही जहाजगढ़ गांव में कोई किला। इन स्थानों का संबंध रहा है आयरलैण्ड से आए हुए एक ऐसे साहसी नौजवान से जो अपनी हिम्मत, दुस्साहस और तत्कालीन परिस्थितियों की वजह से हरियाणा के एक बड़े हिस्से का स्वघोषित राजा बन बैठा था और उसने हांसी को अपनी राजधानी बनाया था।

जॉर्ज थॉमस आयरलैण्ड के टिपरेरी गांव के एक गरीब परिवार में सन 1756 में पैदा हुआ था। समुद्री जहाज में मजदूरी करते हुए वह सन 1781 में मद्रास आ पहुंचा। इसीलिए उसे जहाजी के नाम से भी जाना जाता है। जॉर्ज शब्द के देसीकरण या उसके जहाजी के कारण हो जहाजपुल, जहाजगढ़ और जहाज कोठी जैसे नामकरण हुए।

सन 1707 में औरंगजेब की मृत्यु के बाद बहादुरशाह, शाह आलम, जहाँदारशाह, फरुखसियर, रफीउद्दोला और मुहम्मद शाह के शासनकाल में विशाल मुगल साम्राज्य के तेजी से टुकड़े  होते रहे और सन 1739 में ईरान के बादशाह नादिरशाह के आक्रमण के बाद तो सारा साम्राज्य छिन्न भिन्न हो गया।

सन 1750 के दशाब्द में हरियाणा पर तीन तरफ से छीना-झपटी हुई। दक्षिण दिशा से भरतपुर के जाट राजा सूरजमल ने फरीदाबाद और आसपास के इलाकों पर, पश्चिम दिशा से जयपुर के राजा माधोसिंह ने कानोड (महेंद्रगढ़) तथा नारनौल के क्षेत्रों पर, रिवाड़ी के अहीर चौधरी ने रिवाड़ी और शाहजहांपुर पर, फरुखनगर के बिलोच सरदार ने गुडग़ांव, झज्जर और रोहतक के क्षेत्रों पर, रुहेला सरदार कुतुबशाह ने पानीपत और सरहिंद के इलाके अपने कब्जे में कर लिए। इसी प्रकार असद्दुला खां ने तावडू, बहादुरखां ने बहादुरगढ़, नजाबत खां ने कुरुक्षेत्र, पिपली, इंद्री, अजीमाबाद, शाहबाद पर, मुहम्मद अमीर और हसन खां भट्टी ने फतेहाबाद, राणियां और सिरसा पर अपना अधिकार जमा लिया। और इस प्रकार पूरा हरियाणा मुग़लों के प्रभाव से मुक्त हो गया।

इसी दौरान मराठों ने बादशाह आलमगीर से 1754 में कुरुक्षेत्र का इलाका ले लिया और जल्द ही 1756-57 तक उन्होंने रोहतक, हिसार, रिवाड़ी आदि पर कब्जा करते हुए लगभग पूरे हरियाणा प्रदेश पर प्रभुत्व कायम कर लिया। सन 1761 में पानीपत की तीसरी ऐतिहासिक लड़ाई में मराठों को अहमदशाह अब्दाली के हाथों हार का मुंह देखना पड़ा। इसके बाद अब्दाली ने अम्बाला, कुरुक्षेत्र, करनाल तथा जींद के इलाके सरहिंद में उसके गवर्नर जैनखां के हवाले करते हुए बाकी का सारा इलाका दिल्ली के सर्वेसर्वा रुहेला सरदार नजीबुद्दौला के हवाले कर दिया गया।

1764 में सिक्खों ने सरहिंद के दुर्रानी गवर्नर जैनखां को हरा कर अम्बाला, कुरुक्षेत्र, जींद, करनाल और पानीपत को अपने अधिकार में ले लिया। सन 1772 में मराठा सेनापति महादजी सिंधिया इलाहाबाद में अंग्रेजों की शरण रह रहे मुग़ल बादशाह शाह आलम को दिल्ली लिवा लाने में सफल हो गया और उसे गद्दी पर बिठा कर स्वयं दिल्ली का सर्वेसर्वा बन गया।

कुछ समय बाद अफग़ान सरदार नजफखां ने मराठों को दिल्ली से बाहर कर दिया और जाटों से रिवाड़ी, गुडग़ांव और झज्जर, राजपूतों से कानोड (महेंद्रगढ़) और नारनौल, बिलोचों से सोनीपत, रोहतक तथा भिवानी, भट्टियों से हिसार और सिरसा तथा सिक्खों से करनाल और अम्बाला छीनकर सन 1782 में अपनी मृत्यु तक फिर से मुगल आधिपत्य कायम करने में सफल रहा।

उसकी मृत्यु के बाद फिर से महादजी सिंधिया मुगल बादशाह शाह आलम के रक्षक के तौर पर दिल्ली का मुख्य प्रशासक बन गया और इस प्रकार हरियाणा के अधिकतम हिस्से का वाली वारिस। अंतत: 30 दिसम्बर 1803 के दिन एंग्लो-मराठा युद्ध में मराठाओं की पराजय के फलस्वरूप सजिअजनगांव की सन्धि के अनुसार अंग्रेजों को दौलतराव सिंधिया से उसके अधिकृत अन्य इलाकों के अलावा हरियाणा प्रदेश भी मिल गया।

इस प्रकार ईस्ट इंडिया कम्पनी ने पानीपत, सोनीपत, समालखा, गन्नौर, हवेली पालम, नूह, हथीन, तिजारा, सोहना, रिवाड़ी, इंद्री, पलवल, नगीना आदि के परगने एक रेजिडेंट के माध्यम से गवर्नर जनरल के अधीन रखे और एंग्लो मराठा युद्ध में अंग्रेजों की सहायता देने वालों को बाकी इलाक़े इस प्रकार बाँट दिए:

फरुखनगर- नवाब इस्सेखां, बल्लभगढ़- राजा उमेद सिंह, पटौदी – फ़ैज़तलब खां, लोहारू और फिरोजपुर झिरका- अहमदबख्श खां, रिवाड़ी- राव तेज सिंह, नजफगढ़- भवानी शंकर, झज्जर, दादरी, कानोड, नारनौल और बावल- निजावत अली खां, रोहतक, हिसार, हांसी, महम, बेरी,अग्रोहा, तोशाम, बरवाला, जमालपुर- बम्बू खां, करनाल और गुडग़ांव के कुछ परगने- बेगम समरु, अम्बाला, लाडवा, थानेश्वर, जींद, कैथल आदि- सिक्ख सरदारों को पूर्ववत।

नए प्रशासकों के प्रति स्थानीय जनता के विरोधस्वरूप आखिरकार सन 1809-10 तक लगभग समस्त हरियाणा प्रदेश पर अंग्रेजों का प्रत्यक्ष प्रशासन हो गया।

इस पूरी उथल पुथल के दौर में जार्ज थॉमस का प्रकरण पाठकों को विशेष रुचिकर लगेगा। अराजकता और लूटपाट की तत्कालीन परिस्थितियों में यूरोप से आए दुस्साहसी लड़ाकों की प्राइवेट आर्मी की मांग यकायक बढ़ गई थी। ठेके पर लड़ाई करवाना आम बात हो गई थी। मद्रास से चलकर जार्ज थॉमस निजाम हैदराबाद के यहां कुछ महीने फौज में रहा लेकिन उसके बाद लूटपाट करने वाले पिंडारी गिरोह का हिस्सा बन गया। और इस प्रकार लड़ाइयों के अनुभव से पक कर आत्मविश्वास से भरपूर जॉर्ज सन 1786 में दिल्ली आ पहुंचा। वहाँ आकर मेरठ के नजदीक सरधना की जागीरदार बेगम समरू की फौज का कमाण्डर बन गया। सन 1788 में जॉर्ज और बेगम समरू ने शाह आलम द्वितीय की बागी नजफ़ कुली खां से जान बचाई। बेगम समरू से मतभेदों के चलते सन 1792 में जॉर्ज ने महादजी सिंधिया के विश्वासपात्र और कमांडर अप्पा खांडेराव का हाथ थाम लिया और मराठों की ओर से सहारनपुर को सिक्ख जत्थों के हमलों से बचाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। 1793 में उसे अप्पा खांडेराव की ओर से मेवात की जिम्मेवारी दे दी गई। इसी दौर में उसने गुडगांव, बेगम समरू की जागीर बादशाहपुर, बहादुरगढ़ और झज्जर तक लूटपाट की। उसकी बहादुरी से प्रभावित होकर मराठा अप्पा खांडेराव ने उसे झज्जर, दादरी, बहादुरगढ़, रोहतक और नारनौल के इलाके दे दिए। इनके अलावा पानीपत, सोनीपत और करनाल के परगनों की जागीरदारी भी उसे सेना के खर्च के लिए दे दी गई। सन् 1794 में महादजी सिंधिया की मृत्यु के पश्चात उनके भतीजे दौलतराव सिन्धिया ने कमान संभाल ली और 1797 में अप्पा खांडेराव की मृत्यु के बाद उनका भतीजा वावन राव उसका उत्तराधिकारी बन गया।

अपने स्वतन्त्र राज्य की इच्छास्वरूप जॉर्ज थॉमस ने 1798 के मध्य में हांसी शहर को अपनी राजधानी बनाते हुए वहाँ के असीरगढ़ किले की मरम्मत करवाई और शहर की जनसंख्या को बढ़ाने हेतु आसपास के इलाकों से 5-6 हजार व्यक्तियों को बसाने की व्यवस्था की। अपने नाम के सिक्के चलाए और पानी के लिए अनेकों कुंए खुदवाए। उस समय के अराजक दौर में दूसरे राज्यों पर हमला करना और हर्जाना वसूल करना वक्त का दस्तूर था।

जॉर्ज ने मराठा मुखिया वावन राव के साथ मिलकर जयपुर के शेखावटी पर हमला किया और जयपुर की भारी भरकम सेना को हराकर मोटी वसूली की। बाद में बीकानेर के राजा ने सुलह करते हुए हजऱ्ाना दे दिया। इसके बाद जॉर्ज ने 1799 में जींद पर हमला किया और किले की लंबे समय तक घेराबंदी के बाद वापसी पर नारनोंद में जींद की फौज को हरा दिया जिसका नेतृत्व पटियाला के महाराजा साहिब सिंह की बहन साहिब कौर कर रही थी। साहिब कौर ने संधि पर हस्ताक्षर किए तो पटियाला के महाराजा को ये नागवार लगा और उसने साहिब कौर को गिरफ़्तार कर लिया। जॉर्ज ने हमलों का सिलसिला जारी रखते हुए उदयपुर, शाहपुरा, लुधियाना, सुनाम, मलेरकोटला, फतेहाबाद, भटिंडा, शाहबाद, बादली,सफीदों, कैथल आदि रियासतों पर हमले किये। पटियाला से उसने ना केवल 1,35,000 रुपये वसूल किये बल्कि साहिब कौर को 7 महीने की कारावास से छुड़वाया।

सन 1801 में बहादुरगढ़ में मराठा कमांडर फ्रेंच जनरल पैरों के साथ एक महत्वपूर्ण बैठक में जॉर्ज ने 50 हजार रुपये मासिक पेंशन के बदले झज्जर को मराठों के हवाले करने का प्रस्ताव ठुकरा दिया। अब तक जॉर्ज के अनेकों दुश्मन पैदा हो चुके थे। उसकी असली ताकत उसका दुस्साहस और युद्धकला थी ना कि बड़ी फौज और खूब सारे हथियार। जॉर्ज की फ़ौज में 8 बटालियन थी यानी 6000 सिपाही जिनमें से 1000 घुड़सवार, 1500 रोहिल्ला सिपाही, 2000 किलों की सुरक्षा करने वाले थे। उसके पास केवल 50 तोपें थी।

जॉर्ज को खत्म करने के लिए मराठा, सिक्ख और अंग्रेज भी एकजुट हो गए। और शुरू होता है जॉर्ज थॉमस के जीवन का आखिरी पड़ाव।  जहाजगढ़ किले की घेराबन्दी करने वालों में शामिल थे – मराठा सरदार बापू सिंधिया, सिक्ख सरदार गुरदुत्त सिंह, बुंगा सिंह, रणजीत सिंह, भरतपुर का शासक, हाथरस का राजा, राजा रामदयाल, रामदीन, नीन सिंह, आगरा छावनी का ब्रिटिश कमांडर। इनकी सम्मिलित फौज में 30 हजार सिपाही और 110 तोपें शामिल थे।

एक लम्बी घेराबंदी के बाद जॉर्ज थॉमस की फौज असहाय हो गई और उसके बहुत से सिपाहियों ने किले को छोडऩा शुरू कर दिया। आखिरकार एक रात को जॉर्ज जहाजगढ़ किले को छोड़ अपने खास ईरानी घोड़े पर चढ़कर 120 मील लम्बे रास्ते से लगातार 24 घंटे की सवारी करते हुए हांसी पहुंचा। अब जॉर्ज थॉमस के लिए परिस्थितियां इतनी विपरीत हो चुकी थी कि उसे मराठों के फ्रेंंच जनरल पैरों के सामने आत्म समर्पण करना ही पड़ा। आत्म समर्पण की शर्तों के अनुसार जार्ज को वापस आयरलैंड लौटना था जिसके लिए जनवरी 1802 में वह ब्रिटिश इंडिया की सीमा में जा पहुंचा और अगस्त 1802 में बीमारी के चलते 46 वर्षीय जॉर्ज के अवशेष मुर्शिदाबाद जिले में बहरामपुर स्थान पर एक कब्र में हमेशा के लिए दफऩ हो गए।

संदर्भ :

  1. Military memoirs of George Thomas  द्वारा विलियम फ्रेंक्लिन, 1805.
  2. हरियाणा: ऐतिहासिक सिंहावलोकन, द्वारा के सी यादव एवं एस आर फोगाट।
  3. हरियाणा का रियासती इतिहास , द्वारा यशपाल गुलिया।

स्रोत ः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा ( जनवरी-अप्रैल, 2018), पेज- 57 से 59

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Author: सुरेंद्र पाल सिंह

जन्म - 12 नवंबर 1960 शिक्षा - स्नातक - कृषि विज्ञान स्नातकोतर - समाजशास्त्र सेवा - स्टेट बैंक ऑफ इंडिया से सेवानिवृत लेखन - सम सामयिक मुद्दों पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित सलाहकर - देस हरियाणा कार्यक्षेत्र - विभिन्न संस्थाओं व संगठनों के माध्यम से सामाजिक मुद्दों विशेष तौर पर लैंगिक संवेदनशीलता, सामाजिक न्याय, सांझी संस्कृति व साम्प्रदायिक सद्भाव के निर्माण में निरंतर सक्रिय, देश-विदेश में घुमक्कड़ी में विशेष रुचि-ऐतिहासिक स्थलों, घटनाओं के प्रति संवेदनशील व खोजपूर्ण दृष्टि। पताः डी एल एफ वैली, पंचकूला मो. 98728-90401