कल्पित तुझे सलाम
गुरबख्श सिंह मोंगा
अनुसूचित जाति के कल्पित वीरवाल द्वारा आई.आई.टी. की प्रवेश परीक्षा में सौ फीसदी अंक लाना बताता है कि प्रतिभा किसी जाति विशेष की जागीर नहीं है। सी.बी.एस.ई. द्वारा आयोजित आई.आई.टी- जे.ई.ई. मेन्स कि परीक्षा में 10 लाख 20 हजार विद्यार्थियों को पछाड़ते हुए राजस्थान के 17 वर्षीय दलित छात्र कल्पित वीरवाल ने 360 में से 360 अंक प्राप्त कर इतिहास रच दिया। सी.बी.एस.ई. के अध्यक्ष आर. के. चतुर्वेदी ने कल्पित को फोन पर निजी रूप से बधाई दी। कल्पित ने सामान्य श्रेणी व अनुसूचित जाति दोनों में अखिल भारतीय स्तर पर टॉपर होने का श्रेय प्राप्त किया जिससे लेकसिटी का एवं उसके परिवार का नाम रोशन हुआ है।
कल्पित के पिता पुष्कर लाल वीरवाल उदयपुर के महाराणा भूपल सरकारी अस्पताल में कपांउडर हैं व मां पुष्पा वीरवाल सरकारी स्कूल में शिक्षक हैं। उनके बड़े भाई भी देश के सबसे प्रतिष्ठित माने जाने वाले मेडिकल संस्थान ऐम्स में मेडिकल की पढाई कर रहे हैं।
आजादी के बाद से ही देश की सभी केंद्रीय नौकरियों में अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए 22.5 प्रतिशत आरक्षण है। पूरी नौकरी के दौरान सामान्य जाति के लोग इन्हें अच्छी नजर से नहीं देखते और मानकर चलते हैं कि उन्हें जो नौकरी मिली हैं वह उनकी योग्यता अथवा काबिलियत के बूते नहीं बल्कि आरक्षण से मिली है। यही कारण रहा कि आई.आई.टी. और मेडिकल जैसी सेवाओं में इनका अनुपात कहीं कम था। जब आई.आई.टी. और मेडिकल की पढ़ाई में अनुसूचित जाति और जनजाति को आरक्षण देने का फैसला किया गया था तब वे किसी तरह चयनित तो हो जाते थे मगर वहां के माहौल और पढ़ाई की निरंतरता से उनका दम घुटने लगता था। ऐसे माहौल में कई तो ऊब कर पढा़ई छोड़ देते थे। रूड़की व कानपुर आई.आई.टी. में कई अनुसूचित जाति के छात्रों ने आजिज आकर आत्महत्याएं कर ली थी। 1980 का दशक ऐसी आत्महत्याओं का गवाह है। ये सिलसिला आज तक जारी है।
सुप्रसिद्ध साहित्कार और कानपुर आई.आई.टी. में कुलसचिव रह चुके गिरिराज किशोर शायद वह पहले लेखक थे, जिन्होंनें इन विद्रूपताओं को पकड़ा और एक उपन्यास ‘परिशिष्टÓ लिखा। ‘परिशिष्टÓ के बारे में गिरिराज किशोर का कथन छपा था, अनुसूचित कोई जाति नहीं, मानसिकता है। जिसे आभिजात्य वर्ग परे ढकेल देता है, वह अनुसूचित हो जाता है। अपने बहुचर्चित उपन्यास यथा प्रस्तावित में भी गिरिराज किशोर ने इसी वर्ग की दारूण पीडा़ को चित्रित किया था। उपन्यास से पता चलता है कि लेखक उस सबका अन्तंरग साक्षी है। अपनी मुक्ति की लड़ाई लडऩे वाला हर पात्र एक ऐसे दबाव में जीने के लिए मजबूर है जो या तो उसे मर जाने के लिए बाध्य करता है या फिर संघर्ष को तेज कर देने की प्रेरणा देता है।
गिरिराज बताते हैं कि जब 1983 में यह उपन्यास आया तो आई.आई.टी. कानपुर में हंगामा मच गया था और उन्हें निलंबित कर दिया गया था। एक अनुसूचित जाति के छात्र द्वारा यह परीक्षा टॉप करने का यह अर्थ तो निकाला ही जाना चाहिए कि एक युग पहले गिरिराज किशोर ने कुलसचिव होने के नाते आई.आई.टी. में अनुसूचित जाति के छात्रों पर पडऩे वाले मानसिक दबाव को रोकने की जो पहल की थी वह अब सफल हुई।
अनुसूचित जाति के संगीत, क्रिकेट और बैंडमिटंन के शौकीन, वीरवाल सी.एस.ई. के लिए आई.आई.टी.मुम्बईं जाना चाहता है। कल्पित की मेहनत को साधुवाद दुष्यंत कुमार के शब्दों में:
कौन कहता है आकाश में सुराख नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो
सम्पर्क-9996684988