कहानी
संकट-मोचन
क्योंकि वे बंदर थे अतः स्वाभाविक रूप से उनकी उछल-कूद, उनके उत्पात सब बंदरों वाले थे। गांव वाले उनसे तंग आ चुके थे। गांव के साथ कुछ दूरी से गुजरता राजमार्ग, इस राजमार्ग पर खड़े पीपल के खूब छतराए हुए चार पेड़ और इन पेड़ों पर रहने वाली वानर सेना। शुरू में कम दिखते थे। बाद में संख्या सैंकड़ों में पहुंची। इस संख्या में वृद्धि इनकी प्रजनन-क्षमता से हुई या इनके साथ कहीं और से आ-आकर बंदर मिलते गए – ऐसे किसी सर्वेक्षण की गांव वालों को फुर्सत नहीं थी। वे तो बस इनसे तंग आ चुके थे।
गांव के काफी लोगों को शहर में दिहाड़ी पर जाने के लिए साइकिलों के पीछे या हैंडलों पर अपनी दोपहर की रोटी बांध कर यहीं से गुजरना होता था। इन बंदरों ने उनकी रोटियां छीननी शुरू कर दी थी। ये दिहाड़ीदार लोग वापिस घर जाकर रोटी बनवा कर लाएं, तो लेबर चौक पर देरी से पहुंचने और शाम को खाली हाथ लौटने का अंदेशा रहता। और फिर ये दुबारा नहीं छीनेंगे, क्या भरोसा? अतः वे भूखे पेट ही दिनभर मेहनत-मजदूरी करते और इन बंदरों को कोसते।
बंदरों को इससे क्या मतलब कि मजदूर दिन-भर भूखे पेट कैसे काम करेंगे? उन्होंने तो सिर्फ छीनना सीखा था – और वे पूरे रौब से छीनते थे।
गांव की औरतें जिनके खेत क्यार इस ओर पड़ते थे, उन्हें भी खेतों में जुटे हाली-पालियों की रोटी लेकर यहीं से निकलना होता था। बंदरों को क्या? वे तो शुरू से ही सेठों की तरह हाली-पालियों की रोटी छीनते आए हैं। छीन लेते थे। औरत जूती-चप्पल निकालती। उनसे रोटी छुड़वाने की कोशिश करती और अंततः बंदरों से खुद को बचा लेने के लिए अपने किसी इष्ट देव की अहसानमंद होती और फिर भूखे पेट रहने को मजबूर अपने पुरुष पति की गालियां सहन करने के लिए अपने-आपको तैयार करने लगती।
गांव के बच्चों, औरतों, यहां तक कि पुरुषों ने भी यहां से टोली बनाकर गुजरना शुरू कर दिया था। फिर भी बंदरों की छीना-झपटी यूं ही चलती रही। खेतों में खड़ी फसलों, सब्जियों, फलों का नुक्सान बहुत ज्यादा होने लगा था। आडू-आम, अमरूद के तो ये दुश्मन थे। खाते भी थे और पेड़ को झटक-झटक कर हिलाते भी थे। कच्चे-पक्के सब नीचे। कोई फल पेड़ पर बचता ही नहीं था।
गांव वालों को ऐसा लगने लगा था जैसे कि ये बंदर न हों, पुराने सेठ-साहूकारों के नए अवतार – फाईनेंसरों की टोली हो, जो उन्हें घुड़कते हैं। तन के कपड़े उतारने को हो जाते हैं और जो जेब में पड़ा होता है, वही नहीं – हाथ की रोटी तक छीन कर चलते बनते हैं। लेकिन वे बंदर थे। अतः उनका स्वभाव भी बिल्कुल बंदरों जैसा था – एकदम संवेदनहीन।
इधर गांव वाले जितना उनसेे छुटकारा पाने की सोचते, उतना ही शहर वालों ने यहां इन्हें हनुमान के अवतार मान कर संकट मोचन के रूप में पूजना और खिलाना-पिलाना शुरू कर दिया था। ज्योतिषियों और तांत्रिकों की कठपुतली बने अमीर होते शहरी लोग इन्हें कुछ न कुछ खाने को डालते रहते। यहां से दिन में हजारों की संख्या में कारें, जीपें, बसें व अन्य वाहन गुजरते थे। ये बंदर उनके शनि-मंगल, सब ग्रह शांत करने वाले बता दिए गए थे। कार वाले और उनके बच्चे जब खाते-खाते अघा जाते और उनके हलक के नीचे ठूंसने पर भी जब कुछ नहीं जाता, तो बचा हुआ सब कुछ वे अपने ईष्ट देवों की सूची में शामिल इन अवतारों को फेंक देते थे। यूं इन अवारों को जिमाने का इनका तरीका काफी सुरक्षित था। वे कार का शीशा मामूली सा नीचे करके गति कुछ कम करते और फिर सभी संकट-कारक ग्रहों को पक्ष में करने वाले नगों की अंगूठियां पहना हाथ थोड़ा-सा बाहर निकाल कर कुछ भी फैंकते और तेज गति से निकल जाते। मल्टी नेशनल के चिप्स, नमकीन, बिस्कुट आदि के रेपरों के साथ बंदर कुछ समय खेलते और फिर उन्हें खेतों में उड़ने को छोड़ देते।
गांव वाले इन अवतारों से बेहद परेशान हो चुके थे एक दिन गांव की पंचायत उनकी किसी समस्या को लेकर जिला प्रशासन से मिली। चलते-चलते उन्होंने बंदरों वाली समस्या भी स्वाभावानुसार काफी छोटी करके पूरे साहस के साथ राजा-प्रजा शिल्प में वहां रखी – हे माई बाप, हे कृपा निधान, हे साक्षात सरकार, हे अन्नदाता – हमारी एक छोटी सी समस्या है। गांव के नजदीक कुछ बंदरों ने पिछले कई वर्षों से डेरा जमा लिया है। गांव के लोग जिन्हें शहर आना होता है – उनसे परेशान हैं। उनका कोई हल निकाल दें, तो मेहरबानी होगी।
जिला प्रशासन हंसने लगा और बोला – आप लोगों को तो इसके लिए शाबाशी मिलनी चाहिए। संकट मोचन के सैनिकों को आप लोगों ने आसरा दे रखा है। इस संसार के तमाम जीव आप पर ही तो निर्भर हैं। फिर भी हम देखेंगे।
‘हम देखेंगे।’
‘अच्छा! समस्या इतनी बढ़ गई है। अब वे बच्चों को भी काटने लगे हैं ! ठीक है। हम देखेंगे।’
………..
एक दिन ! दो दिन !! कुछ नहीं हुआ।
एक हफ्ता ! दो हफ्ते !! कुछ नहीं हुआ।
एक महीना ! दो महीने !! छह महीने !! कोई नहीं आया गांव को इस मुसीबत से, इस संकट से छुटकारा दिलवाने।
गांव वालों ने जैसे हथियार डाल दिए हों। वे लाठियां लेकर समूह बनाकर वह क्षेत्र पार करने लगे थे। फिर भी बंदरों के उत्पातों और छीना-झपटी में कोई कमी नहीं आई थी।
एक दिन गांव के साहसी युवकों ने – जिनकी संख्या लगभग बंदरों के बराबर थी – बैठक की। सभी का एक ही मत था कि वे गांव की बदहाली को दूर करने के लिए तो कुछ नहीं कर पाए, लेकिन इस संकट से तो छुटकारा दिलवा ही सकते हैं।
इसके साथ ही उन्होंने संकल्प के साथ योजना पर बातचीत शुरू कर दी।
अगले दिन उन्होंने योजनाबद्ध तरीके से दिनभर उत्पात मचा कर थक चुके बंदरों पर सायं पांच बजे धावा बोल दिया। पहले उन्होंने एक-दो बंदरों को निशाना बनाया। वे चिढ़कर धुड़कते हुए उनकी और पलटवार करते हुए लपके। शेष सभी सैनिक भी अपने पेड़ों की शाखाओं के बंकरों से बाहर निकले और नीचे उतर कर युवकों के पीछे भागे। युवक यही चाहते थे। वे सभी गांव की ओर भागने लगे। कुछ कदम भागने के बाद सभी युवक रूके और बंदरों की ओर पलटे और उन पर हाथों में, झोलों में लिए पत्थर-रोड़ों की बरसात शुरू कर दी। एक साहसी युवक इतनी तीव्रता से उनकी ओर भागा कि वह ऐन उनके बीच में जा पहुंचा। उसने सबसे बड़े बंदर की पिछली टांग पकड़ ली और पलक झपकते ही उसे हवा में घुमाना शुरू कर दिया। गोल झूले की तरह ऊपर नीचे कई चक्कर कटा कर पूरी शक्ति के साथ एक पेड़ में फैंक दिया। बंदर के हाथ कोई टहनी लग गई थी। यदि वह धरती से आकर टकराता, तो उसके सिर पर मृत्यु संकट तय था।
इसके साथ ही बंदरों की घुड़कियां पस्त होने लगी और वे डर कर इधर-उधर भागने लगे। लेकिन उनको यूं भागने देना – उनकी योजना में नहीं था। अतः वे उन्हें घेर-घेर कर इकट्ठा करने लगे। जैसे ही वे इकट्ठे हुए, युवकों ने उन्हें भेड़-बकरियों की तरह शहर की और हांकना शुरू कर दिया। युवक इस और से सचेत थे कि सड़क के साथ वाली खदानों में ही चलाए रखा, जह��ं से वे दिखे नहीं। वे स्वयं भी इस तरह सावधानी से चल रहे थे कि जैसे वे अलग-अलग हों या यूं ही संयोगवश इकट्ठे चलते दिख रहे हों।
बंदर अब तक ऐसे चलने लगे थे, जैसे कि वे उन युवकों के पालतू हों। युवकों ने इस बात का विशेष ध्यान रखा कि उनके डंडों, कमचियों या पत्थर रोड़ों का वार किसी भी बंदर के सिर या मर्मस्थल पर न पड़े, हां पिछवाड़ा शायद ही किसी बंदर का बिना चोट खाए बचा होगा। इतना भी युवकों को विवशता में करना पड़ा और कोई विकल्प बचा ही नहीं था।
उनकी योजना के अनुसार सभी बंदर संध्या का धुंधलका होने के एकदम बाद और बंदरों की रंतोेंधी होने के कुछ पहले शहर में प्रवेश कर चुके थे। अब युवकों ने अंतिम बार उन पर झूठ-मूठ के खाली वार किए तो बंदर बचाव में सरपट भाग कर कूदते-फलांगते आसपास की छतों पर फैलने लगे।
गांव के संस्कारग्रस्त युवकों को जहां गांव को संकटमुक्त करवाने की प्रसन्नता हो रही थी, वहीं उनमें से कुछ को पश्चाताप भी हो रहा था कि बेचारे जीवों को यूं ही परेशान किया। कुछ भयभीत भी थे कि कहीं पुलिस वगैरा पता न लगा ले कि यह सब हमने किया है और सीधी गांव में ही पकड़ने के लिए पहुंच जाए। एक-दो युवक अपने कामों से और कुछ नित्य पढ़ने या अन्य कोई कोचिंग के लिए शहर जाते थे। वे वहां सबसे पहले अखबार देखते कि कहीं बंदरों और उनसे संबंधित कोई खबर तो नहीं छपी है।
तीसरे दिन उन्होंने अखबारों में बंदरों की खबरें देखी और शुक्र मनाया कि उनमें से किसी भी खबर में उनका नाम नहीं था, लेकिन सभी अखबारों की खबरें पढ़ कर उन्हें हैरानी भी हुई। उनके गांव में रहते हुए जो बंदर पूजनीय थे, अब वे एकदम खाली बंदर कैसे हो गए? उन्हें यह भी हैरानी हो रही थी कि सभी खबरों में बंदरों और आतंकवादियों में कोई खास अंतर नहीं रखा गया था।
‘शहर में बंदरों का आतंक’
‘शहर के नागरिक बंदरों के आक्रमण से आतंकित’
‘बंदरों ने की नागरिकों की नींद हराम – प्रशासन नींद में’
एक युवक ने दूसरे युवक की ओर अखबार सरकाते हुए कहा कि ‘ये अखबार तो तीन दिन पहले भी थे – पर तब इन्हें ये बंदर, इन बंदरों के दांत और उत्पात क्यों नहीं दिखे ?’
यह सवाल अभी युवकों के दिमाग में लटका हुआ था कि अगले दिन टी.वी. चैनल भी बंदरों और प्रशासन के पीछे पड़ गए थे। टी.वी. चैनलों ने यह मैलो ड्रामा कई घंटों तक चलाए रखा। सजे-धजे लड़के-लड़कियां पुरुष-महिलाएं पूरे मेकअप में कैमरों के आगे अड़ने की होड़ में दिखते रहे। उनके चेहरों पर कोई परेशानी नहीं उभर रही थी पर उनके शब्द परेशानी वाले थे —
‘हमारी कार के वाइपर तोड़ गए।’
‘हमारा डिश-एंटिना तोड़ गए’
‘हमने तो ऊपर वाला बाथरूम यूज करना ही छोड़ दिया है। शेंपू-साबून सब स्पॉयल कर जाते हैं।’
‘मेरे हस्बैंड की शर्टस — ब्रांडेड थी — तारों पर सूख रही थी — सभी बटन तोड़ गए।’
एक अधेड़ महिला हाथ पर पलस्तर के साथ टी.वी. स्क्रीन पर दिखाई दी। उसके चेहरे पर वाकई दर्द था — मैं जैसे ही ऊपर छत पर चढ़ी तो देखा पूरी छत पर बंदर ही बंदर थे। मैं एकदम वापिस भागी। सडॅनली मेरा पांव स्टेयर्स में स्लिप हो गया। हाथ में फ्रैक्चर आया है।’
‘हम परेशान हैं।’ ये लाठियों से भी नहीं डरते हैं।
‘हां – हां हम बहुत परेशान हो चुके हैं।’ ये सभी लोग वैसे ही थे – अंगूठियां पहने हाथों वाले जैसे – इनके गलों में टेली-मॉल के रूद्राक्ष जैसे यंत्र झूल रहे थे। सभी संकटों से सुरक्षित हो चुके लोग।
इसके साथ ही एक चैनल पर जिला कलैक्टर कह रहा था – ‘क्यों नहीं – क्यों नहीं – नागरिकों की सुविधा – असुविधा देखना हमारा कर्त्तव्य है। कल ही आपको इस संबंध में प्रोग्रेस दिखेगी।’
युवकों ने जब यह बयान सुना तो वे इकट्ठे होकर हाथों में डंडे लिए उन पीपल के पेड़ों के नीचे जा बैठे, जहां प्रशासन द्वारा उन बंदरों के पुनर्वास करवाने का पूरा अंदेशा था। वे प्रशासन से दो-दो हाथ करने की पूरी तैयारी करके आए थे।