डा. आंबेडकर ने एक पुस्तक लिखी ‘बुद्ध अथवा कार्ल मार्क्स ‘। इसमें दोनों दार्शनिकों के सिद्धातों की तुलना की।उन्होंने यह इस उम्मीद से किया था कि इससे वर्तमान में चल रहे विमर्श पर जरूर असर पड़ेगा और क्रांतिकारी शक्तियां परंपरा में मौजूद अपने पक्ष को पहचानेंगे यहां इस बहस को देने का अवसर नहीं हैं। इसी में डा. आंबेडकर ने महात्मा बुद्ध के सिद्धांतों का सार प्रस्तुत किया। बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर प्रस्तुत है डा. आंबेडकर के विचार
बुद्ध का सिद्धांत
बुद्ध का नाम सामान्यतः अहिंसा के सिद्धांत के साथ जोड़ा जाता है। अहिंसा को ही उनकी शिक्षाओं व उपदेशों का समस्त सार माना जाता है। उसे ही उनका प्रारंभ व अंत समझा जाता है। बहुत कम व्यक्ति इस बात को जानते हैं कि बुद्ध ने जो उपदेश दिए, वे बहुत ही व्यापक है, अहिंसा से बहुत बढ़कर हैं। अतएव यह आवश्यक है कि उनके सिद्धांतों को विस्तापूर्वक प्रस्तुत किया जाए। मैंने त्रिपिटक का अध्ययन किया। उस अध्ययन से मैंने जो समझा, मैं आगे उसका उल्लेख कर रहा हूँ –
1. मुक्त समाज के लिए धर्म आवश्यक है।
2. प्रत्येक धर्म अंगीकार करने योग्य नहीं होता।
3. धर्म का संबंध जीवन के तथ्यों व वास्तविकताओं से होना चाहिए, ईश्वर या परमात्मा या स्वर्ग या पृथ्वी के संबंध में सिद्धांतों तथा अनुमान मात्र निराधार कल्पना से नहीं होना चाहिए।
4. ईश्वर को धर्म का केंद्र बनाना अनुचित है।
5. आत्मा की मुक्ति या मोक्ष को धर्म का केंद्र बनाना अनुचित है।
6. पशुबलि को धर्म का केंद्र बनाना अनुचित है।
7. वास्तविक धर्म का वास मनुष्य के हृदय में होता है, शास्त्रों में नहीं।
8. धर्म के केंद्र मनुष्य तथा नैतिकता होने चाहिए। यदि नहीं, तो धर्म एक क्रूर अंधविश्वास है।
9. नैतिकता के लिए जीवन का आदर्श होना ही पर्याप्त नहीं है। चूंकि ईश्वर नहीं है, अतः इसे जीवन का नियम या कानून होना चाहिए।
10. धर्म का कार्य विश्व का पुनर्निर्माण करना तथा उसे प्रसन्न रखना है, उसकी उत्पत्ति या उसके अंत की व्याख्या करना नहीं।
11. कि संसार में दुःख स्वार्थों के टकराव के कारण होता है और इसके समाधान का एकमात्र तरीका अष्टांग मार्ग का अनुसरण करना है।
12. कि संपत्ति के निजी स्वामित्व से अधिकार व शक्ति एक वर्ग के हाथ में आ जाती है और दूसरे वर्ग को दुःख मिलता है।
13. कि समाज के हित के लिए यह आवश्यक है कि इस दुःख का निदान इसके कारण का निरोध करके किया जाए।
14. सभी मानव प्राणी समान हैं।
15. मनुष्य का मापदंड उसका गुण होता है, जन्म नहीं।
16. जो चीज महत्त्वपूर्ण है, वह है उच्च आदर्श, न कि उच्च कुल में जन्म।
17. सबके प्रति मैत्री का साहचर्य व भाईचारे का कभी भी परित्याग नहीं करना चाहिए।
18. प्रत्येक व्यक्ति को विद्या प्राप्त करने का अधिकार है। मनुष्य को जीवित रहने के लिए ज्ञान विद्या की उतनी ही आवश्यकता है, जितनी भोजन की।
19. अच्छा आचारणविहीन ज्ञान खतरनाक होता है।
20. कोई भी चीज भ्रमातीत व अचूक नहीं होती। कोई भी चीज सर्वदा बाध्यकारी नहीं होती। प्रत्येक वस्तु छानबीन तथा परीक्षा के अध्यधीन होती है।
21. कोई वस्तु सुनिश्चित तथा अंतिम नहीं होती।
22. प्रत्येक वस्तु कारण-कार्य संबंध के नियम के अधीन होती है।
23. कोई भी वस्तु स्थाई या सनातन नहीं है। प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील होती है। सदैव वस्तुओं में होने का क्रम चलता रहता है।
24. युद्ध यदि सत्य तथा न्याय के लिए न हो, तो वह अनुचित है।
25. पराजित के प्रति विजेता के कर्तव्य होते हैं।
बुद्ध का संक्षिप्त रूप में यही सिद्धांत है। यह कितना प्राचीन, परंतु कितना नवीन है। उनके उपदेश कितने व्यापक तथा कितना गंभीर हैं।
साभार – बुद्ध अथवा कार्ल मार्क्स
भीमराव आंबेडकर