अंग्रेजी हिन्दुस्तान को ज्यादा नुकसान इसलिए नहीं पहुंचा रही है कि वह विदेशी है, बल्कि इसलिए कि भारतीय प्रसंग में वह सामन्ती है । आबादी का सिर्फ एक प्रतिशत छोटा–सा अल्पमत ही अंग्रेजी में ऐसी योग्यता हासिल कर पाता है, कि वह उसे सत्ता या स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करता है । इस छोटे से अल्पमत के हाथ में विशाल जन–सम्प्रदाय पर अधिकार और शोषण करने का हथियार है अंग्रेजी ।
अंग्रेजी अपने क्षेत्र में लावण्यमयी भाषा है, फ्रेंच जितनी चटपटी नहीं, न ही जर्मन जितनी गहरी, पर ज्यादा परिमित, परिग्राही और उदार है । अब हम ‘अंग्रेजी हटाओ’ कहते हैं, तो हम यह बिल्कुल नहीं चाहते कि उसे इंग्लिस्तान या अमरीका से हटाया जाय और न ही हिन्दुस्तानी कालिजों से, बशर्ते कि वह ऐच्छिक विषय हो । पुस्तकालयों से उसे हटाने का सवाल तो उठता ही नहीं ।
कोई एक हजार बरस पहले हिन्दुस्तान में मौलिक चिंतन समाप्त हो गया, अब तक उसे पुनः जीवित नहीं किया जा रहा है । इसका एक बड़ा कारण है अंग्रेजी की जकड़न । अगर कुछ अच्छे वैज्ञानिक, वह भी बहुत कम और सचमुच बहुत बड़े नहीं, हाल के दशकों में पैदा हो हुए हैं, तो इसलिए कि वैज्ञानिकों का भाषा से उतना वास्ता नहीं पड़ता जितना कि संख्या और प्रतीक से पड़ता है । सामाजिक शास्त्रों और दर्शन में तो बिल्कुल शून्य है । मेरा मतलब उनके विवरणात्मक अंग से नहीं बल्कि उनके आधार से है ।
कोई एक हजार बरस पहले हिन्दुस्तान में मौलिक चिंतन समाप्त हो गया, अब तक उसे पुनः जीवित नहीं किया जा रहा है । इसका एक बड़ा कारण है अंग्रेजी की जकड़न । अगर कुछ अच्छे वैज्ञानिक, वह भी बहुत कम और सचमुच बहुत बड़े नहीं, हाल के दशकों में पैदा हो हुए हैं, तो इसलिए कि वैज्ञानिकों का भाषा से उतना वास्ता नहीं पड़ता जितना कि संख्या और प्रतीक से पड़ता है । सामाजिक शास्त्रों और दर्शन में तो बिल्कुल शून्य है । मेरा मतलब उनके विवरणात्मक अंग से नहीं बल्कि उनके आधार से है । भारतीय विद्वान जितना समय चिन्तन की गहराई और विन्यास में लगाते हैं, तो अगर ज्यादा नहीं तो कम से कम उतना ही समय उच्चारण, मुहावरे और लच्छेदारी में लगा देते हैं । यह तथ्य उस शून्य का कारण है । मंच पर क्षण भंगुर गर्व के साथ चैकड़ियाँ भरने वाले स्कूली विद्यार्थी से लेकर विद्वान तक के ज्ञान को अभिशाप लग गया है । भारतीय चिन्तन का अभिप्रेत विषय ज्ञान नहीं, बल्कि मुहावरेदारी और लच्छेदारी बन गया है ।
उद्योगीकरण करने के लिए, हिन्दुस्तान को 10 लाख इंजीनियरों और वैज्ञानिकों और 1 करोड़ मिस्त्रियों और कारीगरों की फौज की जरूरत है । जो यह सोचता है कि यह फौज अंग्रेजी के माध्यम से बनाई जा सकती है, वह या तो धूर्त है या मूर्ख । उद्योगीकरण के क्षेत्र में जापान और चीन या रुमानिया ने जो इतनी प्रगति की है, उनके अच्छे आर्थिक इंतजाम के जितना ही बड़ा कारण यह भी है कि उन्होंने जन–भाषा के द्वारा ही अपना सब काम किया । केवल व्यक्ति के लिए नहीं, बल्कि समाज के लिए भी मन और पेट का एक दूसरे पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है । किसी देश के मन को साथ ही साथ ठीक करने की कोशिश किए बिना कोई उसके पेट या आर्थिक व्यवस्था को ठीक नहीं कर सकता ।
हिन्दुस्तानी के दुश्मन वास्तव में बांग्ला, तमिल या मराठी के भी दुश्मन है । अपने वर्चस्व और शोषण को कायम रखने के लिए जिसने उच्च वर्गों की छटपटाहट देखी है, उसको पिछले दशक से यह बात बिल्कुल साफ नजर आती है । जो लोग प्रान्तीयता के स्पष्ट पर खतरनाक नारे लगाते हैं, ठीक उन्हीं लोगों ने बंगाल के कालिजों में बांग्ला को माध्यम बनाने के प्रयत्न पर हल्ला मचाया । मैने बिल्कुल साफ तौर पर यह बतलाने की कोशिश की है कि ‘अंग्रेजी हटाओ’ का मतलब हिन्दी लाओ नहीं होता । अंग्रेजी हटाने का मतलब होता है तमिल या बांग्ला और इसी तरह अपनी–अपनी भाषाओं की प्रतिष्ठा ।
जो विधायिकाओं के द्वारा सार्वजनिक इस्तेमाल से अंग्रेजी का हटाना अब मुमकिन नहीं है । यह तो सिर्फ जनता की क्रियाशीलता के द्वारा ही सम्भव है, क्योंकि धारणाएं जम गयी हैं । जहाँ तक जन–आन्दोलन का सम्बन्ध है, तट सूबों और मध्य सूबों के बीच का फर्क बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । तट सूबों के उच्च वर्ग हिन्दी साम्राज्यवाद के नारे से अपने लोगों को धोखा दे सकते हैं । मध्य सूबों के उच्च वर्ग खुलकर ऐसा नहीं कर सकते और इसीलिए मध्य सूबों में मुख्य रूप से हमला करना चाहिए । मध्य सूबों की जनता को न सिर्फ सूबाई स्तर पर, बल्कि जहाँ तक उनके अपने इलाकों का सवाल है, केन्द्रीय स्तर पर भी जैसे फौज, रेलवे, तार इत्यादि से अंग्रेजी हटाने के लिए आन्दोलन और लड़ाई करनी चाहिए । केन्द्रीय काम काज के लिए दो विभाग बनाये जा सकते हैं, एक हिन्दी का और दूसरा अंग्रेजी का । जिन तट सूबों की इच्छा हो, वे दिल्ली में अपने आप का अंग्रेजी विभाग से सम्बद्ध कर सकते है । दिल्ली में मध्य सूबों को तत्काल हिन्दी विभाग के जरिये काम करना चहिए अगर गुजरात और महाराष्ट्र और दूसरा कोई राज्य हिन्दुस्तानी विभाग से सम्बद्ध होना चाहता है तो उनकी इच्छानुसार नौकरियों इत्यादि में सुरक्षा देते हुए उनका साभार स्वागत करना चाहिए ।
सबसे बुरा तो यह है कि अंग्रेजी के कारण भारतीय जनता अपने को हीन समझती है । वह अंग्रेजी नहीं समझती इसलिए सोचती है कि वह किसी भी सार्वजनिक काम के लायक नहीं है और मैदान छोड़ देती है । जनसाधारण द्वारा इस तरह मैदान छोड़ देने के कारण ही अल्पमत या सामन्ती राज्य की बुनियाद पड़ी । सिर्फ बन्दूक के जरिये नहीं, बल्कि ज्यादा तो गिटपिट भाषा के जरिए लोगों को दबा रखा जाता है । लोकभाषा के बिना लोकराज्य असम्भव है ।
हिन्दी प्रचारकों और अधिकांश हिन्दी लेखकों का तो किस्सा ही अलग है । वे सरकारी नीति से इतने गूँथे हुए हैं कि वे उसके वकील बन जाते हैं, देखने में तो कम से कम ऐसा लगता है । इनमें से अधिकांश को सरकार से या अर्ध–सरकारी संस्थाओं से पैसा मिलता है । इनमें से ज्यादा सचेत व्यक्ति चुप रह जाते है । इन हिन्दी प्रचारकों और लेखकों में से बहुत बड़ी संख्या उनकी है जो हिन्दी की वंचक जबानी सेवा करके उसे जबरदस्त तिहरा नुकसान पहुँचाते है । अंग्रेजी को विध्वंसात्मक आन्दोलन के द्वारा खतम करने की बात के बजाय वे रचनात्मक काम की दुहाई देते हैं, इस आशा में कि धीरे–धीरे हिन्दी को अंग्रेजी की जगह मिल जायेगी । वे हिन्दी को अंग्रेजी के साथ रखकर सन्तुष्ट हो जाते हैं, अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन की वे निन्दा करते हैं कि वह नकारात्मक है ।
सबसे बुरा तो यह है कि अंग्रेजी के कारण भारतीय जनता अपने को हीन समझती है । वह अंग्रेजी नहीं समझती इसलिए सोचती है कि वह किसी भी सार्वजनिक काम के लायक नहीं है और मैदान छोड़ देती है । जनसाधारण द्वारा इस तरह मैदान छोड़ देने के कारण ही अल्पमत या सामन्ती राज्य की बुनियाद पड़ी । सिर्फ बन्दूक के जरिये नहीं, बल्कि ज्यादा तो गिटपिट भाषा के जरिए लोगों को दबा रखा जाता है । लोकभाषा के बिना लोकराज्य असम्भव है । कुछ लोग यह गलत योग्यता हासिल कर सकते हैं ।
अंग्रेजी हटनी चाहिए । जनता के कर्मठता से ही वह हट सकती है । जनता को धोखा देने की उच्चवर्गों की ताकत तो बढ़ ही रही है । जब ऐसी नासमझी जड़ हो जाती है, तो वैधानिक हल आसान नहीं होते और सिर्फ जनता की कर्मठता और त्याग से ही मत–परिवर्तन हो सकता है । अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाने वाले अध्यापक को बोलने न देने से लेकर विशेषतः सरकारी नाम पटों को मिटाने तक के ऐसे अनेक काम जनता कर सकती है । थोड़े लोगों ने ऐसे कुछ काम किए भी हैं, ऐसे और काम करना जरूरी है ।
लेखक – डा.राम मनोहर लोहिया
साभार – देस हरियाणा, अंक-1