मैं भाषा वैज्ञानिक नहीं हूं, भाषाएं कैसे बनती और विकास पाती हैं, कैसे बदलती हैं, इस बारे में बहुत कम जानता हूं, इसलिए किसी अधिकार के साथ भाषा के सवाल पर नहीं बोल सकता । मेरी अपनी स्थिति भी अनूठी ही है । मेरी मातृभाषा पंजाबी है, मेरी शिक्षा उर्दू भाषा में हुई है, लिखता मैं हिंदी भाषा में हूं और पढ़ाता मैं अंग्रेजी हूँ । आप कहेंगे, ऐसा व्यक्ति न घर का, न घाट का । जो चार जबानों से वासता रखता हो, वह एक जबान का भी नहीं हो पायेगा. पर शायद ऐसी स्थिति से मुझे एक लाभ भी है । भाषा के सवाल को मात्र भावना के स्तर पर लिए जाने, और उससे पैदा होने वाली उत्तेजना और सिरफुटौव्वल से बचा रहता हूँ ।
अंग्रेजी को छोडूं तो खाऊँगा कहाँ से, हिंदी को छोडूं तो जिंदगी–भर का किया–कराया कुएँ में, पंजाबी को कैसे छोड़ सकता हूँ वह तो मेरे खून में है, और उर्दू को कैसे छोडूं वह तो मुझे संस्काररूप में मिली है । मुझे ये सभी भाषाएँ प्यारी हैं, मैं किसी एक को भी छोड़ना नहीं चाहता, मैं इनकी उपयोगिता से इनकी देन और महत्त्व से परिचित हूँ । और शायद इसी कारण मैं इस सवाल पर बोलने का दु:साहस भी कर बैठा हूँ ।
कौन नहीं जानता कि भाषा के सवाल को लेकर हमारे देश में तरह–तरह की विडम्बनाएँ पायी जाती हैं । मैं आपके सामने अपने कुछेक विडम्बनापूर्ण अनुभव ही रखना चाहता हूँ ।
मेरे पिताजी हिंदी भाषा के उत्साही समर्थक थे, पर अपना सारा पत्र–व्यवहार उर्दू भाषा में किया करते थे । पंजाब में हिंदी भाषा का प्रचार सबसे अधिक दो उर्दू पत्रिकाओं ‘मिलाप’ और ‘प्रताप’ के माध्यम से किया जाता रहा है । आर्य समाज से एक विभाग का मुखपत्र ‘आर्यगजट’ नाम की एक पत्रिका हुआ करती थी, जो उर्दू में प्रकाशित की जाती थी, आज भी उसकी कुछ पुरानी प्रतियां मेरे पास रखी हैं । मेरे पिताजी आर्यसमाजी विचारों के थे, आर्यसमाज के जाने–माने कार्यकर्त्ता थे । हमारे घर में रोज बहसें चला करती थीं, हिंदी भाषा को लेकर, और अक्सर इन बहसों में गर्मी भी आने लगती । एक दिन मैंने कहा, ‘‘तो पिता जी, आपकी ही बात रही । आज से हम घर में केवल हिंदी बोला करेंगे, न पंजाबी में बात करेंगे, न अंग्रजी में । शुद्ध हिंदी में बोलेंगे ।’’ पिताजी क्या कहते । उन्हें मानना पड़ा, पर तीसरे वाक्य पर ही उनकी जबान लड़खड़ा गयी । हिंदी का प्रचार करना एक बात है, हिंदी का प्रयोग करना बिल्कुल दूसरी बात । घर के अंदर, परिवार के सदस्यों के बीच हिंदी में वार्तालाप कर पाना उन्हें बड़ा अटपटा लगने लगा, और शीघ्र ही वह अपनी मातृभाषा पंजाबी पर लौट आये और कहने लगे, ‘‘यह क्या है, तू अपने बाप के साथ मजाक करता है ।’’
पिताजी व्यवसाय के व्यापारी थे । पेशावर, श्रीनगर आदि स्थानों पर दुकानदारों के साथ उनका पत्र–व्यवहार रहता था । उनके साथ उनकी जारी चिट्ठी–पत्री उर्दू भाषा में चलती थी । एक दिन जब मैंने उनसे कहा कि आप उन्हें हिंदी भाषा में पत्र लिखा कीजिए तो बिगड़ उठे, ‘‘क्या बकता है ? तू मेरा व्यापार चौपट करना चाहता है ?’’ पिताजी की अपनी शिक्षा उर्दू और फारसी में हुई थी । कभी–कभी मैं उन्हें शेखसादी और अनेक कवियों का कलाम गुनगुनाते पाता, एक बार कहने लगे, ‘‘तुम्हें कभी मौका लगे तो फारसी जरूर पढ़ना । बड़ी खूबसूरत जबान है । शेखसादी ने ‘गुलिस्तां’ और ‘बोस्तां’ में बड़ी सुदंर बातें कही हैं ।’’
पिताजी ने हमारे लिए हिंदी और संस्कृत भाषाएँ पढ़ने की विशेष व्यवस्था की, पर गनीमत यह रही कि उन्होंने हमें उर्दू और अंग्रेजी पढ़ने से नहीं रोका, क्योंकि व्यापारी के नाते वह इन भाषाओं की उपयोगिता और जरूरत को जानते थे । वह हिंदी के साथ अपने भावनात्मक लगाव पर यथार्थ जीवन की जरूरतों को कुर्बान नहीं करना चाहते थे । वह हिंदी को लागू तो करना चाहते थे लेकिन अन्य भाषाओं को नुकसान पहुँचा कर नहीं ।
आजादी के बाद स्थिति बहुत कुछ बदली । जिस उदार दृष्टि की जरूरत थी, वह नहीं रही । हमारा देश बहुजातीय और बहुभाषी देश है, सभी लोग अपनी–अपनी जबान से प्यार करते हैं, और सभी अपनी–अपनी जबान से जुड़े हैं । प्रत्येक व्यक्ति के लिए उसकी मातृभाषा सबसे सुंदर, सबसे मीठी भाषा होती है । उसमें उसकी मां की आवाज बोलती है, सैकड़ों–हजारों वर्षो की संस्कृति बोलती है, उसमें वह अपने दिल की धड़कनें सुनता है, इसलिए जबान का मसला नाजुक मसला है । इसे दूसरे का दिल दुखाकर, अपनी भाषा को ऊँचा और दूसरे की भाषा को छोटा कह कर नहीं सुलझाया जा सकता ।
पिछले कुछ सालों में जहां हिंदी का पठन–पाठन बढ़ा है वहां अहिंदी भाषी प्रांतों में हिंदी की लोकप्रियता कम हुई है । जमाना था जब दक्षिणी भारत में बड़े उत्साह से हिंदी का अध्ययन किया जाता था । मेरे एक तमिल मित्र दस वर्षों तक बहुत ही मामूली वेतन लेकर एक स्वयंसेवक की तरह हिंदी अध्यापन का काम तमिलनाडु में करते रहे थे । पर अब स्थिति बदल गयी है । हिंदी डायरेक्टरेट द्वारा आयोजित एक लेखक–कैंप में मुझे विशाखापट्टनम जाने का सुअवसर मिला । रेलगाड़ी में बैठा । मैं विशाखापट्टनम की ओर जा रहा था जब उसी प्रदेश के रहने वाले एक मुसाफिर से बातें होने लगीं । जब उस सज्जन को पता चला कि मैं हिंदी कैंप में भाग लेने जा रहा हूँ तो उसने मुंह फेर लिया । बड़ी रुखाई से बोले, ‘‘तुम अपने घर से दूर बस इसी काम के लिए जा रहे हो ? इससे बेहतर काम तुम्हें नहीं मिला ।’’
ऐसा ही एक अनुभव मुझे मास्को में भी हुआ जहां मैं एक अनुवादक से रूप में काम करता था । एक दिन मैं वहां फ्रांसीसी दूतावास में वीज़ा लेने गया तो वहां मेरी मुलाकात एक दक्षिण भारत से आये युवक से हो गयी, वह भी वीज़ा लेने आये थे । उन्हें भी जब पता चला कि मैं हिंदी में कहानियां लिखता हूं तो उन्होंने भी मुंह फेर लिया जब दूतावास की परिचारिका थोड़ी देर बाद कमरे में आयी तो एक हिंदुस्तानी का मुंह एक दीवार की ओर था और दूसरे का दूसरी दीवार की ओर ।
भाषा के सवाल को लेकर सबसे बड़ी भूल जो हमारे देश में हुई है, वह इसे धर्म के साथ जोड़ना था । और यह भूल अभी भी की जा रही है, और यदि आगे भी ऐसे ही चलता रहा तो इसके बड़े दुःखद परिणाम निकलेंगे ।
इस दृष्टि से सबसे विकट स्थिति उर्दू भाषा की रही है । उर्दू की कहानी भी अनूठी कहानी है । देश का बंटवारा होने पर पाकिस्तान ने अपनी राष्ट्रभाषा उर्दू घोषित की । हमारे यहाँ लोगों ने कहा, ठीक ही तो है, पाकिस्तान में मुसलमान बसते हैं, मुसलमानों की जबान उर्दू ही तो है । पर कुछ ही साल बाद पूर्वी पाकिस्तान – जो अब बांगलादेश कहलाता है – के मुसलमानों ने कहा कि हमारी भाषा तो बंगाली है, उर्दू नहीं है । और इसके कुछ ही दिन बाद पश्चिमी पंजाब के मुसलमान कहने लगे कि हमारी मातृभाषा तो पंजाबी है और सिंध के मुसलमानों ने कहना शुरू कर दिया कि हमारी भाषा सिंधी है, और सीमा प्रांत के मुसलमानों ने कहा कि उनकी जबान पश्तो है । ये आवाजें उठीं जरूर, लेकिन सांप्रदायिकता का जोर वहाँ पर भी ज्यादा होने के कारण ये आवाजें दब गयीं, पर सवाल जरूर उठता है, अगर उर्दू जबान मुसलमानों की है तो बांगला देश के मुसलमान उर्दू को क्यों नहीं अपना पाये ? अगर पंजाबी जबान सिक्ख मत वालों की जबान है तो क्या वह मेरी जबान नहीं हो सकती ?
इसमें शक नहीं कि भावनात्मक लगाव के कारण हम अपने सहधर्मियों से जुड़ते हैं, अपनी जाति के लोगों से जुडते हैं । पर भाषा उनमें एक तत्त्व होती है, और वह भी कई बार निर्णायक तत्त्व नहीं होती । कहीं पर एक जाति के लोगों के धर्म अलग–अलग होते हैं, पर भाषा एक होती है, कहीं–कहीं पर धर्म एक होता है पर भाषाएँ अलग–अलग होती है । रूस में रहने वाली यहूदी की भाषा रूसी है, जर्मनी में रहने वाले यहूदी की भाषा जर्मन है । इंगलैंड में रहने वाले यहूदी की भाषा अंग्रेजी है, भले ही धर्म सभी का एक है और भावानात्मक स्तर पर वे यहूदी धर्म और यहूदी भाषा से जुड़े हैं ।
बहुत दिन पहले एक बार मुझे नागपुर जाने का इत्तफ़ाक हुआ । पंजाब से निकले बहुत अर्सा बीत चुका था और मैं बड़ा अकेला महसूस कर रहा था । नागपुर की सड़कों पर घूमते हुए मुझे एक दिन एक सरदार जी नजर आ गये । वह दुबला–पतला सरदार कोई पोस्टमैन था, जो साइकिल पर डाक बांटने निकला था । उसे देखते ही मैं उसके पीछ़े भाग खड़ा हुआ । मैंने कहा और नहीं इसके साथ पंजाबी भाषा में दो बात तो कर सकूँगा । मैं लपककर उसके पास पहुंचा । वह साइकिल पर से उतर आया ओर हैरान–सा मेरी ओर देखने लगा । मैंने ठेठ पंजाबी में उसका अभिवादन किया और पंजाबी में ही उससे बतियाने लगा । लेकिन मेरी हैरानी की सीमा न रही जब मैंने पाया कि वह मेरी बात नहीं समझ रहा है । वह सिक्ख था, सिर पर केश थे, कलाई पर कड़ा था, लेकिन वह हत्बुद्धि–सा मेरे ओर देखे जा रहा था । मुझे झेंप हुई तब उसने मराठी भाषा में तथा टूटी–फूटी हिंदूस्तानी में मुझसे कहा कि वह मेरी जबान नहीं जानता कि उसके बाप–दादा किसी जमाने में महाराष्ट्र में आकर बस गये थे और वह केवल मराठी भाषा ही जानता है ।
यदि भाषा मजहब से जुड़ी है तो उस सरदार की भाषा पंजाबी क्यों नहीं थी ? नागपुर में बस पाने वाले सिक्ख की भाषा मराठी है, पंजाबी नहीं, केरल में बस जाने वाले मुसलमान की भाषा मलयालम है, उर्दू नहीं । हां किसी दूसरे भाषाई क्षेत्र में रहते हुए भी, यदि कुछ लोग, भावनात्मक कारणों से किसी भाषा से जुड़ते हैं, तो इसका यह मतलब नहीं हो जाता कि भाषा धर्म से जुड़ी है । हमारे यहां ऐतिहासिक कारणों से ऐसे क्षेत्र भी हैं जिनके अंदर ऐसे भाग पाये जाते हैं जहां भारी संख्या में बसे हुए लोगों की भाषा उस क्षेत्र की भाषा न होकर, कोई दूसरी भाषा है, जैसे आंध्र प्रदेश में हैदराबाद का इलाका, जहां उर्दू बोली जाती है, बंबई में बसे हुए हिंदी–भाषी, पंजाबी–भाषी तथा अनेक अन्य भाषाएं बोलने वाले लोग । लेकिन इससे भी हम यह नतीजा नहीं निकालते कि उनकी भाषा धर्म से जुड़ी है ।
हर प्रदेश की अपनी भाषा है, लेकिन अगर किसी इलाके की भाषा उर्दू रहते हुए भी आप यह कहकर उसे मान्यता नहीं देना चाहते कि उर्दू मुसलमानों की भाषा है तो यह आपकी अपनी सांप्रदायिकता ही है, और कुछ नहीं । सांप्रदायिकता के हाथों किसी भाषा की क्या गति हो सकती है, इसकी मिसाल शायद उर्दू की स्थिति से बढ़कर और कहीं नहीं मिलेगी । उर्दू के बारे में कमाल तो यह है कि कभी कहा जाता है कि यह भाषा है, और कभी कहा जाता है कि यह भाषा नहीं है । आप कहते हैं, तो यह वजूद में आ जाती है, आप कहते नहीं हैं, तो गायब हो जाती हैं वर्षो पहले जब भारत सरकार की ओर से भाषा संबंधी एक कमीशन बनाया गया था तो एक वरिष्ठ हिंदी–प्रेमी ने बड़ा चहक कर कहा था, ‘‘उर्दू का काम तो हमने तमाम कर दिया ।’’ वह बोल उर्दू में ही रहे थे, लेकिन उन्हें इस बात का संतोष था कि उर्दू को उन्होंने मार मिटाया है । जाहिर है वह हवा में अपनी तलवार चला कर नहीं आये थे । कभी यह भी कहा जाता है कि उर्दू अलग से कोई भाषा नहीं है, वह मात्र अलग लिपि है । यदि हिंदी और उर्दू एक ही भाषा है और उनकी दो लिपियां हैं, तो आप दोनों लिपियों को मान्यता दे दीजिए । इसमें क्या दिक्कत है ? लेकिन कुछ लोगों का कहना है कि इस साझी भाषा की एक ही लिपि हो सकती है, और वह देवनागरी लिपि है । इसके पीछ़े तो यही जहनियत काम कर रही है कि लिपि को मारो, जबान अपने आप मर जायेगी । एक हवा उठी थी कि उर्दू को देवनागरी में लिखना चाहिए । चूँकि हिंदी ओर उर्दू एक ही भाषा हैं, इसलिए उर्दू के कवि भी वास्तव में हिंदी के ही कवि हैं । पर जब पाठ्य–पुस्तकें छपने लगीं तो गालिब, मीर और उर्दू के अन्य कवियों का कहीं नाम नहीं । कहीं एकाध कवि को लेकर आलुओं पर से मिट्टी पोंछी गयी थी । अगर इसके पीछे सच्चा विश्वास होता तो कौन नहीं जानता कि गालिब न केवल भारत के बल्कि संसार भर के महान कवियों में माने जाते हैं । और उर्दू साहित्य ने हमारे देश के साहित्य को चार चांद लगाये हैं । यदि सचमुच हमें इस साहित्य से प्रेम होता तो उसे सुरक्षित और अधिक विकसित कर पाने के लिए, उसे पूरी–पूरी मान्यता देते, और उस भाषा और साहित्य की परंपराओं को जीवित रख पाने के भरसक प्रयत्न करते । हमारी स्थिति की विडंबना यह है कि हम कभी तो उर्दू के अस्तित्व से ही इन्कार करते हैं, और कभी केवल कागजी तौर पर उसके अस्तित्व को मान्यता देते हैं। जब कागजी मान्यता देते हैं तो उर्दू की तरक्की के लिए उर्दू बोर्ड खड़ा करते हैं, लाखों–करोड़ों की रकम जुटाते हैं, लेकिन व्यवहार में उसके अस्तित्व को मान्यता नहीं देते। यह नीति बिल्कुल वही है कि किसी पेड़ की शाख–पत्तियों पर तो पानी छिड़को, लेकिन पेड़ की जड़ काट दो । यदि आप सचमुच चाहते हैं कि उर्दू फले–फूले तो आप ही का यह फर्ज भी हो जाता है कि आप स्वयं इस बात का अध्ययन करें और उसे उनके प्रदेश में बहाल करें, उसे सरकारी मान्यता मिले, स्कूलों–कालेजों में बाकायदा उर्दू पढ़ाई जाने लगे, उर्दू की शिक्षा जड़ पकड़े, बढ़े । कभी अनुदानों से भी भाषाएँ जीवित रह पायी हैं ?
यदि उर्दू के साथ न्याय नहीं किया गया तो हम साम्प्रदायिकता के दोष से कभी मुक्त नहीं हो पायेंगे । हाल ही में हमारे गृह–मंत्री ने टिप्पणी की है कि उर्दू आक्रमणकारियों की भाषा है । यह भाषा के सवाल को जान–बूझकर साम्प्रदायिकता का रंग देना है, कौन नहीं जानता कि उर्दू का जन्म हमारे अपने देश में हुआ था, हमारे ही देशवासियों की प्रतिभा ने उसे विकसित किया है, निखारा है । 700 बरस पहले जहां से आक्रमणकारी आये थे, वहाँ की जबान न तब उर्दू थी, न आज है । और यदि आक्रमणकारियों की जबान को आप मान्यता नहीं देना चाहते तो संस्कृत भी तो आक्रमणकारियों की ही जबान थी । यह सवाल को जानबूझकर सियासी रंग देना है । किसी भाषा पर विचार करते समय न तो हम इस बात को प्राथमिकता देते हैं कि उस भाषा के बोलने वालों का धर्म क्या है, और न इस बात को कि वे आक्रमणकारी हैं, अथवा नहीं । कौन नहीं जानता कि ये आक्रमणकारी मूलत : हमारी अपनी जाति के ही लोग थे ।
यह एतराज भी उठाया जाता है कि उर्दू में भारतीय संस्कृति सी छाप न मिल कर किसी विदेशी बाहरी संस्कृति की छाप मिलती है, साकी और पैमाना की, गुल ओ बुलबुल की, आदि–आदि । क्या यह सच नहीं कि रेनेसा काल में सारे यूरोप के साहित्य पर यूनानी और रोमन पुराण कथाओं की भरपूर छाप पड़ी थी, जो अब इन देशों के साहित्य का अभिन्न अंग बन गयी है, क्या उससे अंग्रेजी साहित्य, अंग्रेजी साहित्य ही नहीं रह गया था, या अंग्रेजी भाषा अंग्रेजी भाषा नहीं रह गयी थी ?
हमारी स्थिति की विडंबना भाषा में शुद्धता पर जोर देने में भी पायी जाती है । शुद्ध भाषा का मसला भी सांप्रदायिकता की ही देन है । भाषा शुद्ध होनी चाहिए, मतलब कि संस्कृतनिष्ठ होनी चाहिए । हिंदी भाषा में शुद्ध की माँग भी बहुत हद तक उर्दू को ही लक्ष्य करके की जाती है । उर्दू का शब्द किसी वाक्य में आ जाये तो कुछ भाई लोगों को चिढ़ होती है, अंग्रेजी का शब्द आ जाये तो इतनी चिढ़ नहीं होती, बल्कि कहीं–कहीं पर तो खुशी होती है क्योंकि इससे बौद्धिकता का, आधुनिकता का रंग आता है ।
हमारे देश का दुर्भाग्य यह रहा है कि हमारे सयासतदान भाषा को हाँकते रहे हैं । भाषा के नाम पर लोगों को हाँका नहीं जा सकता । मैं तो कहूँगा कि सयासतदान को भाषा के पीछे–पीछे चलना चाहिए, उसके विकास–क्रम को समझना चाहिए, भाषा खुद उसे रास्ता दिखाएगी, भाषा के आगे–आगे चल कर उसका मार्गदर्शन नहीं करना चाहिए । हिंदी में से उर्दू के शब्दों को चुन–चुन कर निकालने का काम, हिंदी के अंदर, संस्कृत के शब्द ढूँढ़–ढूँढकर ठूँसने का काम, हमारे सयासतदानों के ही हुक्म पर होता रहा है । ‘सिगरेट पीना मना है’ काटकर आपने ‘धूम्रपान वर्जित है’ लिख दिया, यह अपने मतानुसार भाषा को चलाने की चेष्टा है, उसे हाँकने की कोशिश है, वरना आप जन–जीवन में पाये जाने वाले बोलचाल के शब्दों को क्यों नहीं अपनाते ?
भाषा का सवाल न तो स्कूलों–कालिजों की शिक्षा के क्षेत्र में अभी तक संतोषजनक ढंग से सुलझ पाया है न विज्ञान और टेक्नालोजी के क्षेत्र में, न संस्कृति के क्षेत्र में और न ही प्रशासन के क्षेत्र में, क्योंकि इसे हल करने की कोशिश के पीछे भाषाई अंधराष्ट्रवाद अथवा संकीर्ण सांप्रदायिकता काम कर रही है । क्या कारण है कि अनेक देशों ने इसे सुभीते से हल कर लिया है जबकि हमारे यहाँ यह और ज्यादा पेचीदा होता चला गया है । स्विट्जरलैंड में तीन भाषाओं में सरकार का सारा काम चलता है । फ्रेंच, जर्मन और स्विस भाषाओं में, और स्विट्जरलैंड छोटा–सा देश है । वहाँ किसी एक भाषा को आसानी से राष्ट्रभाषा घोषित किया जा सकता था और उसे ऊंचा दर्जा देकर अन्य भाषाओं को सहयोगी भाषाओं का दर्जा दिया जा सकता था । पर वहाँ भाषा के सवाल पर जातपात नहीं बरती जाती । हमारे यहाँ हर बात में जात–पात ऊंच–नीच चलती है । किसी भी समस्या को हम वस्तुनिष्ठ दृष्टि से देखने–आंकने में असमर्थ होते जा रहे हैं । जब तक विवेकपूर्ण, तर्कसंगत, सद्भावनापूर्ण और वैज्ञानिक दृष्टि से इस मसले को सुलझाने की कोशिश नहीं की जाती उस वक्त तक यह प्रश्न हमारी प्रगति के रास्ते में बहुत बड़ी रूकावट बना रहेगा ।
लेखक – भीष्म साहनी
साभार – देस हरियाणा अंक – 1, पृ- 29-31